उसकी दास्ताँ कुछ और देर सुना होता
यकीनन फ़फ़क फफक कर रोया होता
चिंगारियाँ फिर से लपट में बदल जातीं
गर मैंने कुछ और देर,राख़ कुरेदा होता
थकन उसके चेहरे पे साफ़ दिख रही थी
मै छाँह बनता तो, कुछ और रुका होता
यकीनन वो बादल था आब से लबालब
हवाएँ उसे बहा ले गईं वरना बरसा होता
मुझे धीमे उसे तेज़ चलने की आदत थी
वरना आज वो मेरा हमसफ़र बना होता
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
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