Pages

Tuesday, 27 November 2018

उसकी दास्ताँ कुछ और देर सुना होता


उसकी दास्ताँ कुछ और देर सुना होता 
यकीनन फ़फ़क फफक कर रोया होता 

चिंगारियाँ फिर से लपट में बदल जातीं
गर मैंने कुछ और देर,राख़ कुरेदा होता

थकन उसके चेहरे पे साफ़ दिख रही थी
मै छाँह बनता तो, कुछ और रुका होता

यकीनन वो बादल था आब से लबालब
हवाएँ उसे बहा ले गईं वरना बरसा होता

मुझे धीमे उसे तेज़ चलने की आदत थी
वरना आज वो मेरा हमसफ़र बना होता 

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

No comments:

Post a Comment