जब से आसमान पे पहरे हैं
परिंदे भी उड़ान से डरते हैं
अब शेर भालू चिता गीदड़
जंगल नहीं शह्र में रहते हैं
कोइ दवा काम न आएगी
हमारे ज़ख़्म बहुत गहरे हैं
यहाँ ज़िंदगी कौन जीता है
किसी तरह बसर करते हैं
ईश्क़ रेत् की नदी है हम
इसी में शबोरोज़ बहते हैं
मुकेश इलाहाबादी --------
परिंदे भी उड़ान से डरते हैं
अब शेर भालू चिता गीदड़
जंगल नहीं शह्र में रहते हैं
कोइ दवा काम न आएगी
हमारे ज़ख़्म बहुत गहरे हैं
यहाँ ज़िंदगी कौन जीता है
किसी तरह बसर करते हैं
ईश्क़ रेत् की नदी है हम
इसी में शबोरोज़ बहते हैं
मुकेश इलाहाबादी --------
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