कंकरी फेंकूं तो ही हलचल होती है
नदी वो बेहद खामोशी से बहती है
बहुत खुश हुई तो मुस्कुरा देती है
वर्ना वो ज़्यादातर चुप ही रहती है
फ़लक पे टंगे सितारे को देखती है
फिर देर तक जाने क्या सोचती है
मैंने ही नहीं ज़माने भर ने पुछा है
कुछ नहीं कहती खामोश रहती है
कोई तो ग़म है उसकी आँखों में
अक्सर गँगा जमना सी बहती हैं
मुकेश इलाहाबादी -------------
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