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Friday 28 October 2011

आवारा फितरत को लगाम दे दूँ

!!अर्ज़ किया है !!

आवारा फितरत को लगाम दे दूँ
तुम्हारे जिम्मे ये काम दे दूं

बहुत उड़ चुका खलाओं में अब तक
जिस्म को थोडा आराम दे दूं

मै, फैसला कब तक  मुल्तवी  रक्ख्नूं
आ, आज इसे मुहब्बत नाम दे दूं,

बहुत तिश्न्नालब है मुसाफिर, कहो तो
तुम्हारे  लबों से एक जाम दे दूं

Thursday 20 October 2011


नोट ---

यह रोजनामचा उनके लिये कदापि नही है
जो सडी गली मान्यताओं के हिमायती हैं।
जो अपनी खाल से बाहर नही निकलना चाहते।
जो पुराने आदर्शवाद  के खंडहर को ही सीने से चिपकाये रखना चाहते हैं।
जो हर चीज मे मीन मेख निकालने के आदी हैं।



यह रोजनामचा उनके लिये है।
जो जिंदगी से पूरी तरह बोर हो चुके हैं
जो इस बोर हो गयी जिंदगी को पूरा मजा ले ले के जीने की तमन्ना रखते है।
जो जिंदगी को उसकी पूरी संर्म्पूणता के साथ जीने की चाहत रखते हैं।
जो संकीणता के दायरे से बहुत बाहर जा चुके है।


विशेष -- जिस तरह शाश्त्रीय  संगीत गायक एक ही रागनी को कई कई तरीके से गाता   
      है। उसी  तरह इस रोजनामचे मे जीवन के थोडे से अनुभव को, एक ही अनुभव  को  
      कई कई तरीके से कहने की कोशिश  की है।
     

अस्तु
     
मुकेश  श्रीवास्तव




30.10.05

बैठा रहूं
लेटा  रहूं
करवट
क्या फर्क  पडेगा
पीठ का र्दद तो
फिर भी रहेगा 
कूबड उग आया है
या यूं कहो
पूरा आकाश
तारों के साथ
पृथ्वी  के इर्द गिर्द लिपट
पीठ पर लद गया है

पीठ ही नही
नजरें भी झुक गयी हैं
हथेलिया पीछ ले जा
अंधो के हाथी सा
महसूसता हूँ
पृथ्वी  और आकाश  को
कविता को
अपने आपको
पीठ पे उग आये
कूबड को

ऐसी ही कुछ मोनोदशा मे जीता रहा हूं इधर कई वर्षो  से। न जाने क्या क्या सोचता  रहा । अनुभव करता रहा। अपने नीरस हो गये जीवन मे। अपनी दिनर्चया मे। उसी अनुभव को उसी नीरसता को उसी बोरडम को कुछ कम करने के लिये, उन अनुभवों को एक क्रम दिया है और आप के साथ बांटने की कोशिश  की है। इस रोजनामचे मे।

यदि आप अपने आप को कही  असहज या असहमत पाए तो एक सनकी, ठरकी व सठियाये आदमी की सनक जान मॉफ करियेगा।
आपका। अपना।


या, जो आप समझें।

31.1.05

निस्सीम इजेकील की कविता ‘कानोकान’ से

बंजरता और ऊब से
रहस्योदद्याटन तक
फासला है महज एक छोटी छलांग का
यदि तुम तत्पर हो,
यह संभव है

दीपावली की संध्या। घर से दूर। अकेला। अजीब मनह स्थिति। न खुश  । न उदास। न बेचैन । न हैरान। न परेशान ।  न कुछ पाने की लालसा। न कुछ खोने का गम। न कुछ करने का उत्साह। न कुछ न करपाने का अफसोस।

बैठा हूं। चुपचाप। कभी दीवारों को देखता हूं देखता ही रहता हूं। कभी घडी की टिक टिक सुनता हूं। बेवजह। सुनता हूं कभी झींगुर की सूं सूं। निर्विकार। देखता हूं कभी मच्छरों को उडते हुए। तो कभी किताब के शब्दों  पर उचटती सी नजर। सब कुछ बे मकसद, बे वजह।

मकसद ढूंढ भी लिया जाय तो क्या होगा, वह भी बेमकसद होगा। फिर मकसद क्यों ढूंढना। वैसे भी दुनिया मे सब कुछ तो बेवजह है। चॉद तारों का चमकना। धरती का घूमना, फूंलों का खिलना, चिडियों का चहकना। सब कुछ तो सहज है। बे मकसद है। बस है और यूं ही है।

पर मकसद होने से कुछ सहूलियत हो जाती है । जीने मे। ऐसा लोग कहते है।
मेरे देखे किसी बात को मकसद बना लेना और नशा  करना एक सा है।
और मै कोई नशा  करना नही चाहता।


01.11.2005

रात लगभग एक बजे।
सठियाने के लिये साठ का होना कोई जरुरी नही। ऐसा  मेरा मानना है। मानना क्या पूरा यकींन होता जा रहा है। यकीन की वजह है खुद का सठिया जाना चालिस मे ही। यह बात अगर मै अपने आप कहता तो शायद  आप हंसते या यकीन न करते। पर मेरी पत्नी कहती है। यह जान कर आपको तो यकीन हो ही जाना चाहिये।
वैसे  भी जब किसी दूसरे की पत्नी कोई बात कहती है तो ज्यादा भरोसे की मीठी व अच्छी लगती है। अगर वह औरत जवान व खूबसूरत है तो यकीनन उसकी बात काबिले तारीफ व गौर करने लायक लगती है। और खुदा के फजल से मेरी बीबी भी अभी जवान है और शक्ल औ  सूरत से ठीक ठाक ही है।

लो मै भी कहां से कहां भटकता फिर रहा हूं। बात दिवाली की चल रही थी। और बात सठियाने की शुरू  कर दी। अब तो आपको पक्का यकीन हो गया होगा कि मै चालिस मे ही साठ का हो गया हूं।
इधर कुछ सेहत और शिर  के बालों ने भी अपनी रंगत बदल कर इस बात पे पक्की मुहर लगा दी है।
बदली हुयी आदतें, विचार, दिनर्चया आदि भी सठियायेपन की चिल्ला चिल्ला कर उदद्योषणा कर रहे हैं। वर्ना रात एक बजे तक बिला वजह जागने की क्या जरुरत आन पडी थी।
तंहाई मे मच्छर भी कुछ ज्यादा परेशान  करता है। चाहूं तो ऑल आउट लगा सकता हूं। मच्छर मार जला सकता हूं
पर नही बोर होना चाहता हूं। और फिर मच्छर मार मार के बोरियत भी तो दूर करना है।


2.11.2005

लगता है मै एक हरामखोर किस्म का आदमी हूं। हालाकि हरामखोर का सही ढंग से मतलब भी नही जानता। और न ही जानने की इच्छा है। पर इतना तो मालुम है कि इसका मतलब  अच्छा नही होता। कभी लगता  है कि बेवकूफ हूं। कुछ कुछ झक्की हूं। एक हद तक हूं। समझ मे नही आता। क्या हूं।
कभी कभी लगता है जमाने के लायक नही रहा। कभी लगता है जमाना ही मेरे लायक नही।
खैर जो भी हो मै जमाने के लायक हूं या नही पर इतना तो तय है  कि कुछ तो गडबड है।
वर्ना लोग मुझे देख कर मुह  न बिसूरते। मेरे पास बैठने से न कतराते। पीठ पीछे बुराइयां न करते।  पर क्या करुं सब कुछ जानता हूं। समझता हूं पर अपनी आदतों से बाज नही आता। जैसे ही घर पर कोई मेहमान आता है। कुछ असहज सा हो जाता हूं।  या तो चुप्पी और उदासी पूरे वजूद को घेर लेती है। या इतना वाचाल हो जाता हूं कि सामने वाला मेरी बौद्धिकता के आतंकवाद से बगलें झांकने लगता है। या फिर मै आगंतुक को टालने की कोशिश  मे रहता हूं।

इन सब बातों से आपको  लगता होगा कि मै एक अच्छा मेहमान नवाज नही हूं। पर आपको बताना चाहूंगा कि एक जमाने मे मै भी एक अच्छा मेहमान नवाज था। दोस्तों को बुलाना उन्हे प्रेम से खिलाना हंसना हंसाना कितना अच्छा लगता था। लोग मुझें एक जिंदादिल इंसान समझते थे। खैर--- ।

अब तो एक सठियाया आदमी  हूँ । दुबला शरीर ,काला रंग, पके बाल, सामान्य कद और आदतों से एक लापरवाह किस्म का आदमी। खब्ती सा।

खब्ती। आदमी  खब्ती क्यों हो जाता है। यह शोध  का विषय हो सकता है। पर जहां तक मै समझता हूं आदमी को समाज व परिस्थियां खब्ती बनाने मे जिम्मेदार होती हैं। हाँ,  कभी कभी आदमी अपनी एटामिक संरचना के कारण भी खब्ती हो जाता है।

जंहा तक मै समझता हूं ग्रह नक्षत्रों की गतियां भी आदमी को खब्ती बनाने मे कारण होते हैं।
खैर कारण जो भी हों सामान्य आदमी खब्तियों से बचना जरुर  चाहता है।
मजे की बात है कि एक खब्ती भी दूसरे खब्ती से बचने की कोशिश  करता है।
क्या ही अच्छा होता अगर खब्तियों की कोई युनिर्वषिटी होती। तो मै उसमे जरुर डाक्टरेट के लिये एप्लाई कर देता । वैसे भी मन मे कहीं न कहीं दबी खुची इच्छा है कि नाम के आगे डाक्टर की सूंड चिपकी होती तो कितना अच्छा होता।

पर चलो कल्पना तेा किया ही जा सकता है। खब्तियों के विष्वविदयालय की जिसमे मै खब्तियों पर षोघ कर रहा हूं।

खब्ती किसे कहते है .... परिभाषा, खब्तियों का प्रारंभिक काल व मूल स्थान।
खब्ती बनने के कारण .... सामाजिक व जैविक
खब्तियों का समाज मे प्रभाव व योगदान आदि आदि और इन सब शोध  प्रबंध लिख कर देता तो मै समझता हूं यह समाज के लिये एक महत्वपूर्ण शोध ग्रन्थ  होता।
आप भी सोच रहे होंगे कि मै क्या खब्त पुराण लेके बैठ गया।

पर इसमे मेरी नही आपकी गलती है जो आपने हमारी रचना पढने की कोशिश  की  और जब आपने मधुमक्खी के छत्ते मे हाथ डाल ही दिया है तो झेलें। यह खब्त पुराण। एक बोर आदमी का रोजनामचा।

03.11.2005

सठियाया और खब्ती आदमी अपने अंदर अजीब अजीब आदतें पाल लेता है।

मेरे अंदर भी कुछ अजीब अजीब आदते  आ गयी हैं। मसलन, बात बात मे चिडचिडाना। गुजरे जमाने को अच्छा व आज के जमाने को खराब कहना । अपनी छोटी मोटी उपलब्धी को बहुत कहना। नाकामयाबियों  के लिये जमाने को दोषी  ठहराना। किशोरियों से लेकर बूढियों तक को बजह बेवजह ताकना। अपने पद व उमर का फायदा उठाते हुए  उनसे ज्यादा से ज्यादा बातें करना या करने की कोशिश  करना। थोडी सी भी तकलीफ को बढा चढा के कहना। हर आने जाने वाले को विस्तार से बताना  भले ही वह सुनने का इच्छुक हो या न हो। रात को कई कई बार उठ उठ के टटोल टटोल के पेशाब  करने जाना। अल्ल सुबह से उठ कर खटर खपटर करना। जोर जोर से पूजा करना। जिसमे भावना कम व दिखावा ज्यादा होना।
धार्मिक व साहित्यिक किताबें पढने का अभिनय ज्यादा करना। थोडा पढ कर दूसरों पर अपनी उधार बौद्धिकता लादना। आदि आदि आदतें अपने आप और न जाने कैसे विकसित कर ली हैं। सोचता हूं तो खुद को ताज्जुब होता है। और हैरानी।

सठियाने के कई कारण हो सकते होंगें। पर जहां तक मेरी बात मेरे सठियाने का कारण बौद्धिक  व सामाजिक है। बौद्धिक  माने कि जब सोंचता हूं कि क्या यार रोज रोज उठो हगो, मूतो,खाओ,पियो कमाने धमाने का जुगत करो। वही किचपिच किचपिच करो और मूत कर सो जाओ। सच, मुझे तो उबकाई आने लगती है। बोरियत होने लगी हैं। लगजा है, यही बोरियत धीरे धीरे सठियाने मे परिर्वतित हो गयी है।
सठियाने मे कुछ सामाजिक कारण भी हैं। वह हैं लोगों का हद से ज्यादा स्वार्थी, आलसी व मक्कार हो जाना। लोगो की यह आदतें देख देख भी कोफत होने लगती है। और यही कोफत सठियायेपन मे बदल गयी है।

कारण चाहे जो भी रहे हों पर लोगों ने मेरे बारे मे तय कर लिया है कि मै पूरी तरह से एक सठियाया और खब्ती इंसान  हूं जो पहले कभी एक हद तक अच्छा इंसान था कुछ को इस पर अफसोस है पर अंदर से कुछ फरक नही पडता बत्कि अच्छा ही लगा कि मेरे सठिया जाने से उनको बातचीत और मनोरंजन के लिए एक टापिक मिला। रही जहां तक पत्नी की बात वह हमेशा  से पहेली रही है मेरे लिए। उसके हाव भाव से पता ही नही लगता कि वह क्या सोचती  है।

हां अक्सर मजाक मे यह जरुर कहती है कि मै तो शादी  के दिन से ही सठियाया लगता हूं।

सठियाना  अगर बीमारी है तो बेशक  मै एक बीमार आदमी हूं। सठियाना अगर बुढापे की निशानी  है तो मै एक खब्ती बूढा हूं। बेशक ।  अगर बुढापे मे आने वाला अनिवार्य परिर्वतन है तो यह मान लेने मे कोई हिचक नही है।
वैसे मै अपने सठियायेपन से संतुष्ट हूं। कोई शिकायत  नही है। कम से कम सठियाये खब्ती बुढढे की छबि के कारण मुझे एकांत तो नसीब हो जाता हैं। जो मेरे अघ्यन, मनन, चिंतन के लिए जरुरी है और मन के मुफीद भी।


04.11.2005

आप  सोच रहे होंगे कि रोजनामचा मे मै यह सब क्या लेकर बैठ गया। तो जनाब और क्या  लिखूं । रोजनामचा मे नाम पे है ही क्या वही सुबह उठना, हगना, मूतना, नहाना, धोना, आफिस आना जाना और क्या। और इस सब मे ऐसा कुछ विशेष   है भी नही कि उल्लेख किया जाय। हां अगर कुछ विशेष  होगा तो जरुर उल्लेख करने का वादा करता हूं। भले वह आपको पसंद आये या न आये। खैर...
फिलहाल एक कविता।

विडंबना
आदमी के कद कम, और
हांथ बढते जा रहे हैं
मानवता सिमटती, और
स्वार्थ फैेलते जा रहे हैं
धर्म अब कर्म मे नही
राजनीत मे बसती है
इंसान  अब भगवान को
इन्साफ  दिलाते हैं
आदमखोर शेर , जंगल से निकल
बस्तियों मे बेखौफ द्यूमते हैं
गांव में दरवाजे अब पूरब से नही
षहरों की तरफ खुलते  हैं
परिध पर खडे लोग
केंद्र को देखते हैं
जमीन पे खडे हम
आकाश  देखते हैं

5.11.२००५
‘सुबह’

दांत गिर जाना, झुर्री पड जाना, शरीर  कमजोर हो जाना, तरह तरह की बीमारियां होना बुंढापे की निशानी  है। अगर इसी तरह कोई निशानी  सठियाने की होती तो कितना अच्छा होता । कम से कम सरकार सीनियर सिटीजन की तरह उनको भी कोई न कोई सहूलियत दे देती। और हमारे जैसे व्यक्ति बहुत सारी मानसिक, षारीरिक पीडाओं  से बच तो जाते । खैर ---

इधर कई महीनो से घ्यान दिया है कि चाह कर भी झुनझुने मे कोई झुनझुनी नही होती। यहां तक की नंगी फोटू देख कर भी शरीर  मे कोई हलचल नही होती। कोई बेहूदा खयाल मन मे लाने की कोशिश  करता हूं तो वे हवा के झोके  से आकर चले जाते हैं। लगता है  उमर का तकाजा है या सठिया जाने का जैविक परिणाम। पर चाहे जो भी हो इस बात को देखकर मन उदास और बुझा बुझा  रहता है।
सुना है लोग मरते दम तक अपने धोडे को दौडाते रहते हैं। पर यहां तो इतनी कम उमर मे ही द्योडे ने दम तोडना शुरू  कर दिया है।
आप इस बेहूदा और हरामीपने की बात सुन कर नाराज मत होइये।
मै दावे के साथ कहता हूं कि अगर आप भी हमारी दशा  मे आयेंगे तो इसी तरह प्रतिक्रिया करेंगे।

6.11.2005
‘रात’
रात। देर से बैठा हूं। उंकडू। उल्लू के माफिक। हथेलियां कोहनी से मोड चेहरे को ढंके। अगरबत्ती की खुशबू  भी दिमाग के सडांध को कम नही कर पा रही है। एक से एक खौफनाक विचार आते हैं। चले जाते  है। सडक पर गुजरते राहगीरों की तरह। अच्छे बुरे सभी। याद आ रहे हैं मिले बिछुडे दोस्त यार।

उन्ही मे एक ने कुछ देर दिमाग को द्येरे रखा।
सेन। कामरेडी दोस्त। अपने आप को लेफटिस्ट कहता है। अब तो दिमाग के साथ साथ शरीर  भी टेढा हो गया है। पर टेढा पन कम नही हुआ। बात बात मे लेफटिस्ट पना झाडने लगता है।
अरे लेफटिस्ट हो या राइटिस्ट क्या र्फक पडता है। र्फक पडता है कि आप के चलने की दशा  और दिशा  क्या है। अगर यह गलत है तो आप चलते रहो चलते रहो। मंजिल नही मिलेगी। बस आपको मुगालता रहेगा कि आप चल रहे हो। कई बार समझाने की कोशिश  की, कि क्या राइटिस्ट अपनी मंजिल पे नही पहुंचता । पर क्या बताऊं उनके भेजे मे बात द्युसती ही नही। लेफटिस्ट जो ठहरा। अरे मै कहता हूं, अगर पैर के बल चलने से मंजिल नही मिल रही है तो क्या शिर  के बल चलना शुरू  कर दिया जाये।
पर क्या करोगे। लेफटिस्ट महराज सिगरेट के काश  मे अपने लच्छे लच्छे सिद्धांतो मे फंसे रहते हैं। सम्मोहित से । मै भी क्या करुं वे मुझसे उमर व अनुभव दोनो मे बडे हैं। इज्जत करता हूं। कुछ ज्यादा कह भी नही सकता। पर मेरा मानना है अगर पके बाल अनुभव की निशानी  होती तो हर बूढा आदमी ओषो होता।
खैर। हर आदमी को देश  ने स्वतंत्रता दी है । सोचने की। समझने की। कहने की। अपने हिसाब से चलने की। लैफट या राइट। टेढा या सीधा। याकि सिगरेट पी के छल्ले बनाने की।

आप कहेंगे। दूसरों के फेटे मे टांग अडाने की क्या जरुरत है । पर भाई क्या करुं। सठिया जो गया हूं।

रात कुछ और गहरा गई है। नींद अभी भी कोशो  दूर। सारे द्यर की लाइट बंद करदी है, कंबल ओढ के लेटा हूं। बांयी करवट दीवाल की तरफ मुह  कर। उल जलूल विचारों मे लिपटा।
कुत्तो की  भौकन । चौकीदार के डंडे की ठकठक जारी है। पडोसी के घर  मै  फ्लश  चलने की आवज सुन मन अजीब अजीब कल्पनाएं करने लगा।
अपने ऊपर एक बार फिर कोफ़्त  हुई। गुस्सा आया। करवट बदली। 

7.11.05

भीषिका विक्रति ; कुछ लक्षण
आज तो शाम  से ही दौरा पड गया। अजीब अजीब और बेहूदा खयालों के आने का। लगता है। जोर जोर चिल्लाऊं नंगा हो के नाचूं। सारे घर के दरवाजे खिडिकियां खोल के गालियां बकूं। रेडियो व टी वी एक साथ फुल वाल्यूम मे बजा दूं। मजा देखूं। बालों को नोचूं। दाढी मुच  काट के फेंक दूं। यहां तक कि लिंग भी। गरदन और दिमाग भी। अपने आप को पीटूं। या हिचकियां ले ले के रोऊं। हिलक हिलक के। रम य व्हिस्की एक साथ पी जाऊं पूरी पूरी बोतल।
पर मै जानता हूँ , इनमे से कुछ भी नही करुंगा। कुछ भी नही। ज्यादा से ज्यादा कंबल ओढ के सो रहूंगा। मुहॅ ढक कर। और रोता रहूंगा हिलक हिलक के। परम सत्ता को कोशता हुआ । कि उसने आदमी क्यों बनाया। आदमी बनाया तो  दिमाग क्यों बनाया। और बनाया तो मेरे जैसा क्यों बनाया। और बनाया भी तो मुझे सठिया क्यों जाने दिया। चालिस मे ही । सठियाने भी दिया तो बोर होने के लिये क्यों  छोड दिया।

लगता है इश्वर  भी हमारी तरह कोई सठियाया या बोर आत्मा है। अगर बोर या सठियाया नही है तो अजीब जरुर है।

11.11.05

जहां तक मेरी विचार द्रष्टि जाती है, जहां तक मै सोच  पाता हूं। जहां तक मै समझ पाता पाता हूं। मेरे बोर होने की षुरुआत होश  संभालते ही हो गयी थी। मै कौन हूं। आत्मा क्या है। मै कौन हूं। मै हूं तो दुनिया क्या है। और अगर दुनिया है तो,मै क्यों दुनिया मे आया हूं। दुनिया मे इतने लोग क्यो हैं और हैं तो लोग क्यों लडते झगडते रहते हैं। छोटी छोटी बातों मे। इन्ही सब को मै सोचता  रहता बोर होता रहता। और आज भी सोचता रहता हूं। हालाकि मै जानता हूं कि इन प्रश्नों  के उत्तर तभी मिल सकते हैं जबतक इनको जीवन मरण का प्रष्न न बना लिया जाय। जिसे कीर्कर्गाद ने तीव्र व्यथा कहा है। वह मै अभी कर नही सकता। कारणो पे मै अभी नही जाना चाहता। हां इतना जरुर है पुरानी खुजली को खुजाने मे जो मजा आता है। अब वही मजा बार बार इसी तरह बोर होने मे आता हैं।

कुछ लोग बोर होते हैं,गाने सुनते हैं। टी वी या फिल्म देखते है। बतकही करते है । दारु पीते हैं। जुआ खेलते हैं। ये करते हैं वो करते है  । गरज ये कि अपने मन पसंद काम करते है। पर यहां तो बोर होने पर अपने आप को आराम की स्थिति मे पाता हूं।

12.11.05

मै बेहुदा हो सकता हूं। मै आलसी हो सकता हूं। मै काहिल हो सकता हूं। मै स्वार्थी हो सकता हूं। मै हरामखोर हो सकता हूं। मै परले दरजे का कामुक हो सकता हूं। मै बवासीर, डायबटीज, भगंदर जैसी बीमारियो से ग्रसित हो सकता हूं। मै सनकी हो सकता हूं। मै एक सठियाया आदमी हो सकता हूं। मै यह हो सकता हूं। मै वह हो सकता हूं। मै कुछ भी हो सकता हूं।

पर मै एक बोर आदमी हूं। यह बात दावे के साथ कहा जा सकता हूं। उसमे ‘सकने’ के लिय कोई गुंजाईश  नही है। क्योकि बोर होने के लिये दिमाग की जरुरत होती है ।  जो मेरे पास है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं । आदमी जितना दिमागदार और सेंसटिव  होगा वह उतना ही बोर होगा।
देखो न।
पागल बोर नही होते। बच्चे बोर नही होते। मुर्दे बोर नही होते।
क्या आप चाहते हैं और उदाहरण दूं।

13.11.05

कुछ लोगो  के कान       
इतने बडे होते हैं कि
सुन लेते हैं दूर से ही
क्या कुछ कहा जा रहा है
उनके खिलाफ
अक्सर उनके कान
छोटे हो जाते हैं
इतने छोटे कि   
वे सुन पाते हैं
र्सिफ अपनो की बात

कुछ लोगों की आंख
इतनी बडी होती है कि
देख लेते हैं दूर से ही
अपने मतलब की चीजें
पर अक्सर कर लेते हैं
अपनी आंख इतनी छोटी कि
नही देख पाते
चीजें दूसरों के मतलब की

कुछ लोगों के हाथ
इतने बडे होते हैं कि
कानून से भी लम्बे हो जाते हैं
और बांटते वक्त
इतने छोटे  हो जाते है कि
सिर्फ उनके अपनो तक
पहुंच पाते हैं वे हाथ

कुछ लोगों के पैर
इतने बडे होते हैं कि
अपनी मंजिल पे पहुंच
मुड जाते हैं घुटनो से
अपने पेट की तरफ

कुछ लोगों की नाक
इतनी बडी होती है कि
सूंघ लेते हैं दूर से ही
पक रहा है कंहा कच्चा मॉस
या कि कंहा पक रही है खिचडी

पर, चलो अच्छा है
हमारे,कान, आँख  व नाक सभी
अपने पूरे अनुपात व आकार मे तो हैं

14.11.05

बेअनुपात लोगों के साथ रह रह कर सठिया गया हूं।या सठिया सठिया कर बे अनुपात हो गया हूं। कह नही सकता। अजब पहेली हो गयी है, यही बात मेरे लिये। जितना ही सोचता हूं उतना ही कमजोरी, बीमारी और  सठियायापन बढता ही जाता है।
रोने , झीकने  और बडबडाने के बीच सुबह होती है तो षाम का इंतजार रहता है। शाम  होती है तो रात का। रात के बाद फिर दिन का और फिर दिन के बाद रात का इंतजार।
इंतजार का एक अंतहीन सिलसिला। न खत्म होने वाला।
और न खत्म होने वाला सिलसिला बोरियत का।
फिलहाल रात के द्यने साये मे। मख्मूर सईद की कुछ पंक्तियां।

अंधेरी रात का जंगल
खयालों के उफूक से भी परे तक फैलता  जाता है
परी पैकर तसव्वुर का
हंसी महताब सा चेहरा
हेमेशा  के लिये जैसे
अँधेरे  की रिदा मे छुपता जाता है
अंधेरी रात का जंगल
जमी से आसमॉ तक सनसनाता है।

13.11.05

लिखने बैठता  हूं, कलम नही चलती। पढने बैठता हूं, जी उचट जाता है। ध्यान करने बैठता हूं मन नही लगता। लेट जाता हूं नींद  नही आती।
सोंचता हूं।
मै कहीं और ज्यादा तो नही सठिया गया। कहीं मेरा ब्लाड्प्रेषर तो नही बढ गया। कहीं बोरडम की चरम बिंदु पर तो नही पहुंच गया। कहीं ऐसा  तो नही  मै सन्यासी बनने की दिषा मे बढ रहा होंऊ। कहीं ऐसा तो नही मै पागल हो रहा हूं।
सोंचता हूं।
हे भगवान मेरे ही साथ क्यों हो रहा है। पडोसी के साथ क्यों नही होता। वह तो मुझसे ज्यादा पापी है। मुझसे ज्यादा बुढढा है। मुझसे ज्यादा खूसट है। मुझसे ज्यादा घूसखोर है । 
सोचता  हूं।
हो सकता है वह भी मेरी तरह खब्ती हो। वह भी मेरी तरह सठियाया हो। मेरी तरह बोर हो। मेरी ही तरह रोगी हो। मेरी तरह पत्नी पीडित हो।  बताता न हो।
सोंचता हूं।
अगर पता लग जाये कि पडोसी मे भी यही सब सिम्टम्स हैं। तो कोई बात नही कुछ शुकून  मिलेगा।
सोंचता हूं।

अगर उसके अंदर यह गुण नही होंगे तो क्या करुंगा। हो सकता है। मै और  डिप्रेश हो जाउं। हो सकता है और ज्यादा बोर होने लगूं। हो सकता है ये हो जाये। हो सकता है वो हो जाय। हो सकता है बहुत कुछ हो जाये। और मुझे पता ही न लगे।
हे भगवान यह सब मेरे ही साथ क्यो हो रहा है।
ऐसा तो नही मेरे पास कुछ ज्याद दिमाग है। या मै कुछ ज्यादा संवेदनशील  हूं। या कुछ ज्यादा बौधिक होऊँ ।
अगर ऐसा है तो ठीक है।

30.11.05

जहां तक मै समझता हूं। जहां तक मेरी समझ है। जहां तक लोगों से सुना है। जहां तक मेरा अनुभव है। पडोसी होते ही इसी लिये होते हैं कि उनसे। मन ही मन ईष्या किया जाय। ऊपर से मधुर संबंध रखे जायें। सुख दुख, होली दिवाली, ईद, बकरीद एक साथ मनाये जायें। जरुरत पडने पर हल्दी, मिर्चा, धनिया से लेकर रुपये पैसे की लेन देन भी की जाये। संबंध ज्यादा मधुर हों तो रोटी बेटी भी बांटी जाय। अगर पडोसन सुंदर जवान या ठीक ठाक हो तो मधुर संबंध के सपने देखे दिखाये जा सकते हैं।

15.11.05

कमरे मे अंधेरा। घुप्प । बिजली है नही। दिया जलाया नही। बैठा हूं। उंकडू। आदतन। कंबल ओढे। ऑखे द्यूम रही हैं अंदर, अंधेरे मे। कुछ ढूंढती सी। कुछ सोचती  सी। सोंचन की कोई रुपरेखा नही। कोई निष्चित विचारधार नही। विचारों के द्योडे जहां चाहे वहां चरते है। रोकने की कहीं कोई कोशिश  नही । विचार आते हैं। जाते हैं। कहीं कोई रुकावट नही। कोई व्यवधान नही।
व्यवधान या रुकावट के लिये काई  इरादा भी नही । उन्हे तो बस आने देना है जाने देना है।
विचार ही तो हैं जिन्होने बुढढा बना दिया, खब्ती बना दिया, एकाकी बना दिया।
तंत्र कहता है। विचारों के पार जाओ, मन के पार जाओ। भावों के पार जाओ। उसके पार जो अष्मिता का भाव है उसके भी पार जाओ उसके भी बाद जो शून्य  है उसके भी पार जाओ। शून्य  के भीतर भी जो सात शून्य  हैं उनके भी पार जाओ। महाशून्य  मे।

भू्रमध्य मे आखों  के बीच मे। नीले , पीले रंगबिरंगे द्यूमते नाचते गोलों के बीच मे से गुजरते हुए विचारों को देखने की कोशिश  करता हूं। भावों को देखने की कोशिश  करता हूं। शून्य  के भीतर देखने की कोशिश  करता हूं। शून्य  के पार देखने की कोशीश  करता हूं। महाशून्य  मे।

कमरा कितनी भी अच्छी तरह से बंद हो एक आध मच्छर आही जाता है। उसकी भुनभुनाहट जारी है। भुनभुनाहट तेज होने लगती है। तेज और तेज और तेज।
भुनभुनाहट कान से अंदर द्युसती हुयी दिमाग तक आ गयी है। दिमाग से होते हुये मानो   भुनभुनाहट विचार भाव शून्य  और महाशून्य तक पहुचने लगी है। यह क्या महाशून्य  मे आकार बनने लगे। तरह तरह के। अरे यह तो पडोसन है। सद्य स्नातह। खुलेबाल। मानो  महावारी के बाद अभी अभी बाल धो के चली आरही हो। गदराया बदन गोरा मोहक रंग। आलस, ताजगी, बेफिक्री के मिले जुले भाव सतरंगी छटा बन चेहरे द्येर रहे हैं। एक आमंत्रण देते से। पर अबस मै कुत्ते सा दूर से ही हांफता हूं। लपलपाता हूं। पूछ हिलाता अपने शरीर  की मक्खियां उडाता भाग रहा हूँ । पडोसन तो गायब हो चुकी है पर मै  भाग रहा हूं। अरे ये तो सामने से दूसरी पडोसन आ रही है। कमसिन नाजुक बदन कम उम्र। अल्हडता अभी गयी नही है। आंखे मयखाना। अनुभव हीनता खूबसूरती मे चार चांद लगा रहे हैं। बदन पूरी तरह से अनछुआ अनछुआ। कोमल कोमल।  मै कुत्ता से द्योडा बन गया हूं। कान खडे है। और पूछ हिल रही है। मै भाग रहा हूं। भागते भागते खोता जा रहा हूं। शून्य  मे महाशून्य  मे। हडबडा कर ऑखे खुल गयीं।
घड़ी  मे अभी भी रात के बारह बजने मे कुछ मिनट कम हैं। बिजली न जाने कब की आ चुकी थी। ट्यूब लाइट जल रही थी। बंद की। पानी पिया। पेशाब  किया। कंबल ओढा। लेट गया। फिर से। करवट लिया। बांया।
इस बार खुली आखें से ही अंधेरे मे देख रहा हूं। शून्य को  महाशून्य  को। पडोसन को, दूसरी पडोसन को। अपने आप को।
निर्विकार। निषब्द। साक्षी भाव स