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Sunday 28 February 2016

पत्थरों को काट कर निकला हूँ मै

पत्थरों को काट कर निकला हूँ मै
तिश्ना  लबों  के  लिए दरिया हूँ  मै

मेरा सीना पुल है गुज़र जाओ तुम
नदी के पार जाने का जरिया हूँ मै 

कोई  मुसाफिर भटकने न पायेगा
राहमें मील के पत्थर सा गड़ा हूँ मै 
 
मुकेश इलाहाबादी ------------------

(तिश्ना लब - प्यासे होठ )

Friday 26 February 2016

परती धरती और पहली बारिस

परती धरती और पहली बारिस
बारिस की हल्की हल्की बूंदो के गिरते ही लगा बरसों की परती पडी धरती थरथरा उठी हो। माटी की पोर पोर से भीनी भीनी सुगंध चारों ओर अद्रष्य रुप से व्याप्त हो गयी थी। लॉन से आ रही हरसिंगार, मोगरा, गुड़हल और चमेली की खुषबू को संध्या अपने नथूनों में ही नही महसूस कर रही थी बल्कि अपनी संदीली काया के रोम रोम में सिहरन सा महसूस कर रही थी। बेहद तपन के बाद बारिष के मौसम की तरह वह अपने अंदर आये इस बदलाव से वह अंजान नही थी। पर उम्र के इस उत्तरायण में इस क़दर भावुक मन होना वह स्वीकार नही कर पा रही थी और अस्विकार भी।
फिलहाल, संध्या अपने मन के सारे विक्षोभों को परे धकेल, अपने आप को पूरी तरह मन के हवाले कर देना चाह रही थी। और फूलों की तरह किसी डाली से लगी रह कर डोलना व तितली की तरह उडना चाह रही थी। इस हल्की हल्की बारिस की बूंदों की सिहरन, मन के अंतरतम तल तक महसूस कर लेना चाहती थी। दिल तक। इस अंजानी खुषी व षीतल छुअन ने पेड़ पौधों लताओं व गुल्मों को हौले हौले तो कभी जोर से हिलते पत्तों के संगीत में डूब जाना ही चाहती थी। बाहर गुलमोहर की पत्तियों से छन छन करती बूदें स्वर लहरियों में खो जाना चाहती थी। ऐसे में संध्या सोच रही थी कि जीवन की इस संध्या में कोैन सा बसंत हरहरा रहा है। और हरहरा रहा है तो उसमे डूबना कितना उचित है पर वह इन सब बातो से बेपरवाह हो जाना चाहती है। बस इस वक्त तो बादल सा बरसने का ही मन कर रहा था। वह अपने को रोक नही पायी। बूंद बूंद बरसने से।
डेक मे एक सूफियाना गाना लगा। न जाने कब ड्रेसिंगटेबल तक पहुंच दोनो हाथों को पीछे ले जा बालों का जूडा बानती हुयी अपने आप को देखने लगी। गौर से। मांग के अगल बगल व कनपटी के दो चार बालों को छोड दिया जाये तो अभी भी सारे के सारे काले व घने बाल किसी भी औरत के लिये ईष्या का कारण बन जाते है। उसके चंद चांदी से बाल भी इस उम्र को और पका व निखरा ही बना रहे थे। चेहरे पर अभी भी नमक व गमक मोती से चमक रहे थे।
स्ंाध्या को लग रहा था आज जिंदगी मे पहली बार अपने आप को आइने में देखा है। कभी देखने का मौका ही न आया जिस उमर में लडकियां अपने खिलाव व उभारों को देख देख खुष होती हैं उस उमर मे ही तो रीतेष ने डोरे डाल दिये। पहली बार जव उसने प्यार का इजहार किया तब तक तो वह उसका मतलब भी ठीक से न समझ पाने की उम्र में थी। तब वह कितना घबरा गयी थी। हडबडाहट में उसने यह बात जा कर मर्ॉ से कह आयी थी। कि रीतेष मुझसे षादी करने को कह रहा है। उस दिन तो लोगेां ने रीतेष की बातों को मजाक में लिया पर एक दिन जब यह खबर मिली कि रीतेष ने नदी में छलांग लगा दी है कि अगर संध्या से षादी नही हुयी तो वह मर जायेगा। तब वह अंदर ही अंदर दहल गयी थी। उसे तो समझ ही न आ रहा था उसे क्या करना चाहिये। हालाकि उसकी साथ की सहेलियां उससे चुहल करती कि तेरे को कोई तो इतना चाहता है जो जान भी दे सकता है। यह सब सुन सुन कर उसकी चिडिया जैसी जान सूख जाती। वह समझ ही न पाती कि इस पर वह किस तरह रिएक्ट करे।
जब इस प्रकार की कई हरकतें रीतेष करने लगे अपनी पढाई लिखाई छोड गुमषुम से रहने लगे तो उसके घरवालों ने अपने एकलौते बेटे की खातिर उसके यहां रिष्ता लेकर आये जिसे पहले तो उसकी मॉ ने मना कर दिया। जिसका सबसे बडा कारण रीतेष का उनकी जात का न होना तो था इसके अलावा संध्या की उमर भी बहुत कम होना था। पहले तो उन्होने कहा कि अभी नही पहले बच्ची को पढ लिख तो लेने दीजिये पर बहुत समझाने पर चार साल बाद ही रीतेष के साथ हाथ पीले कर दिये गये। मॉ ने यह सोच कर भी हामी भर दी थी कि चलो अगर घर बैठे बैठाये अच्छे खाषे घर का रिष्ता आ रहा है। लडका इकलौता है अच्छी खाषी जायजाद है। लडका भी देखने सुनने में ठीक ठाक है। तो ऐसे मे न करके बाद में वह अकेले कहां कहां वर खोजती फिरेगी। हां कर दिया था।
षादी के वक्त उम्र ही क्या थी। उन्नीस साल। आज कल तो इस उम्र में लडकियां जींस टाप्स पहन कालेज में मटकती रहती है। अपने ब्वायफ्रेड के साथ धौल धप्पा करती हंसती खिलखिलाती। बिंदास चिडिया जैसी। हालाकि उस दौर में इतना खुलापन नही था। फिर भी लडकियां सलवार सूट में कालेज आना जाना षुरु कर चुकी थीं। पुरुष सहपाठियों से हल्के फुल्के मेलजोल को थोडे बहुत विरोध से सहमति मिल ही जाती थी। पर उसे तो इन सब बातों को मौका ही कब मिला।
मांग मे सिन्दूर भर कर कालेज जाना और कालेज मे भी रीतेष का साथ होना। चौबिसों घ्ंाटों के साथ मे रीतेष भी खुष रहता। उसे लगता जैसे बच्चे को उसके पसंद का खिलौना मिल गया हो। और वह उससे दिनरात खेल रहा हो। वह उसके इस प्रेम को देखती और खुष होती। धीरे धीरे उसे लगा यही तो प्रेम है। वह रीतेष के साथ हंसती खिलखिलाती। पर कहीं न कहीं मन मे उसे रीतापन सा व्याप्त रहता लेकिन वह इस बात को मन से झटक देती उसे लगता हो सकता है वह ही ठीक से न समझ पाती हो अपने आपको।
संध्या विचारों में और गहरे उतर पाती कि बीबी की आवज से वह चौक गयी। घडी की तरफ देखा षाम के पांच बज चुके थे। बीबी ‘मॉ’ की चाय का वक्त हो चुका था। उसी के लिये आवाज दे रही थी।
संध्या ने जल्दी जल्दी एक कप चाय बीबी के लिये दूध वाली बना कर दे आयी और फिर अपने लिये एक कप बिन दूध की नीबू वाली काली चाय बना के फिर से अपनी खिडकी के पास आ कर बैठ गयी। खिडकी के षेड से पानी की बूंदे थम थम के गिर रही थी।
मन ही मन वह भी तो बूंद बूंद रिस रही रही है अपनी यादों में अपने सूने पन में अपनी उन इच्क्षाओं को लेकर जिसे वह कभी समझ ही नही पायी कि वे क्या इच्क्षाऐ हैं।
हो सकता है इसका मौका ही न आया हो। उसी तरह जिस तरह उसने कंुवारे पन के प्रेम को जाना ही नही।
खैर संध्या अपने माज़ी मे डूबती उसके पहले ही मोबाइल मे एस एम एस फलैष की चमक देखते ही उसके चेहरे पे भी चमक आ गयी। जिसे वह चाह के भी नही रोक पाती। हालाकि उसे खूद पे भी आर्ष्चय होता कि ऐसा क्यूं।
मगर यह सब सोचना भी वह बाद के लिये मुल्तवी करके मोबाइल के एस एम एस को पढने लगी।
‘इक सपना ..... किसी अपने से मिलना
इक इत्तिफाक ... आपका हमारी जिंदगी में आना
इक हकीकत ... आपसे दोस्ती होना
इक तमन्ना ..... इस दोस्ती को ज़िदगी भर निभाना
गुड़ इवनिंग .....
संध्या के चेहरे पे मुस्कुराहट फैल गयी।
औरत एक नदी है।
स्ंाध्या ने कुछ देर तक तो खिड़की के बाहर उडते परिंदो को देखा, उनकी चहचह सुना, तितलियों को फूलों पे मंड़राते देखा, बारजे से टपकती बारिस की बूंदो को देखा। फिर होैले से बाहर के सारे द्रष्य छोड गुनगुनाती हुयी ड्रेसिंग टेबल के सामने खडी हो गयी।
अपने आप को सी एफ एल की दूधिया चांदनी में देखने लगी। अपने ही चेहरे को देख कर षरमा गयी। उसे लग ही नही रहा था यह वही संध्या है।
उसे लगता वह आजकल रोज रोज बदलती जा रही है। चेहरे पे रोज रोज निखार आ रहा है। इस उम्र में अपने अंदर के परिवर्तन को देख देख खुद न समझ पा रही थी। यह भावनाएं मन के किस कोने में दबी ढ़की थी जो अब उभर रही हेै।
जैसे जलने के पहले ही बुझ गयी थी उपले की आग थोडा कुरेदते ही फिर से लहलहाने के लियो व्याकुल हो रही हो।
लेकिन इस आकुलता व्याकुलता में भी उतावला पन कहीं न था अगर हो भी तो वह किसी मैदानी इलाके में मंथर गति से बहती नदी की तरह अंदर ही अंदर से हरहरा रही थी।
क्या कोई मैदानी इलाके की मंथर गति से बहती नदी को देख कर अंदाजा लगा सकता हेै कि यह पहाडी नदी अपने उदगम पे कितनी षुभ्र, और उज्जवल थी जिसे इस मैदान पे आने आने तक न जाने कितने पत्थर दिलों को चीरना पडा होगा न जाने कितनी चटटानों पर षिर पटकना पडा होगा, न जाने कितने अवरोधों को पार करना पडा होगा न जाने कितने पेड पौधेां व झुरमुटों को अपने अंदर ही अंदर बह जाने दिया होगा। न जाने कितनी बार अपने आप को मैली होने से बचाना पडा होगा। तब जा कर मैदान में आकर मंथर गति से बह पा रही है। पर अभी भी तो लोग सतह ही देख रहे हैं क्या किसी ने देखा कि उसके अंदर भी लहरे अभी भी मचल रही हैं अभी भी उसके अंदर गति करने का माददा है अभी भी वह नदी ही है जो हरहरा सकती है अपनी पूरी स्निग्धता व भव्यता के साथ। पर नही कोई भी तो नही है जो उसके अंदर की हिलोरों को महसूस करता जो भी मिलता वह बस नहा के अपने आपको तरोताजा करने की नियत से ही पांव पखारने की कोषिष की। खैर अब तो वह किसी की भी परवाह नही करती। परवाह करने का यह मतलब नही, वह किसी को दुख देना चाहती है। हालाकि वह किसी को दुखी कर भी नही सकती। यह उसकी फितरत में ही नही है।
फिलहाल जलजले के बाद उसने अपने जीवन व बच्चों के बारे मे जो जो भी सोचा वह हो जाने के बाद, सब कुछ सामान्य हो जाने के बाद जब कि महज जलजले की स्म्रतियां ही षेष है। वह अपने जीवन को अपने तरीके से जी रही है। होैले हौले बहते हुए। अपने अंदर की लहरों को देखते हुए।
फिलहाल जबकि बच्चे अच्छे से विदेषों मे जाकर षेटेल हो चुके हैं अपने अपने परिवार व बिजनेष में खुष रहने लगे।
तब जाकर उसने अपने आपको अपने तक सीमित कर लिया। अब तो उसने अपनी सारी दुनिया अपने कमरे मे ही सजा ली है।
मॉ को समय समय से नाष्ता खाना व दवाई दे कर उनका टी वी चला देती और फिर वह अपने कमरे मे अपने आपको कैद कर लेती। फिर बहती मंथर गति से हौले हौले। बस तब वह बस बहती बहती ओर बह रही होती है। अपने अकेलेपन में अपने माज़ी में अपनी कल्पनाओं में अपनी कविताओं और पंेटिग्स में। कभी कभी मन बहलाव के लिये नेट पे बैठ बच्चेंा से चैट कर लेती और हालचाल भी ले लेती। और फिर कभी खिडकी पे बैठ हरसिंगार की पत्तियों के पीछे से झांकती लम्बी खाली सपाट सडक को देखती। जिसमें इक्का दुक्का रहगुजर ही कभी कभी दिखाई पडते।
उस दिन वह जब पेंटिग करते करते उब गयी तब नेट पर किसी साहित्यिक अंर्तजाल पे जाकर किसी नयी रचना को पढ़ना चाह रही थी कि एक कहानी का षीर्षक देख नजरे रुक गयी। ‘पहाड़ और नदी’ जिसमें नायक नायिका से कहता है।
‘सरिता ! तुम अब एक ऐसी नदी हो जो मैली हो चुकी हैं जिसमें डुबकी लगाने का मतलब यह हेै कि अपने आप को मैला करना’
तब नायिका बिफर कर कहती है।
‘हां हां अब तो मै मैली हो ही गयी हूं पर इसे मैली करने में भी तो तुम्हारा ही हाथ रहा है। हां यह ठीक है कि तुम्हारे पहाड जेैसे व्यक्तित्व के आगे मेरी जैसी पहाडी नदी का क्या अस्तित्व। तुम्हारे अंदर तो न जाने कितनी नदियां बहती रहती हैं। पर यह भी जान लो अगर तुम्हारे पत्थर से दिल में मै न बहती तो तुम पत्थर ही रहते जिसमे कोई आर्कषण न होता। वह तो हमारी जैसी नदी के बहने से ही तुम इतने जीवंत हो तुम्हारे सीने पे जो इतनी हरियाली है वह हमारी जैसी नदी की ही वजह से है। वर्ना तुम तो पत्थर हो जिसमें कोई आर्कषण नही होता अगर हरियाली न होती तो कोई तुम्हे पूछता नही। और फिर अगर मैली हुयी भी हूं तो उसका कारण तुम्ही हो। क्या तुमको नही मालूम कि जब षुरु में मै कितनी पावन व पवित्र थी यह मै नही तुम ही कहा करते थे। पर अगर इसे तुमने अपने ही सीने में बहने दिया होता अपने ही अंदर लहराया दुलराया होता तो मुझे क्या जरुरत थी तुम्हारी बाहों से निकल कहीं और बहने की। तब तुम्ही तो पत्थर बने रहते थे जिसे तुम अपनी तटस्थता और और ज्ञान मान तने रहते थे। क्या तुमने कभी मेरी कोमल भावनाओं को समझ मेरे संग कलकल किया कभी भी मेरे अंदर जंगल से बह आये झाडियों और गुल्मो को बहने से क्यों नही रोका। तब क्यों बह जाने दिया और तब तुमने क्यों नही उन्हे रोका जो मेरी खूबसूरती से प्रभावित हो अपने गंदे पांव पखारतने की कोषिष करते तब तो तुम मौन बने थे। आज तुम्ही मुझे दोष दे रहे हो। ठीक है तुम पुरुष हो। कठोरता व स्थिरता तुम्हारा प्रक्रितिगत स्वभाव है कोमलता और बहना मेरा। पर यह जान लो चाहे मै जितनी मैली हो जाउं पर एक न एक दिन सागर में विलीन हो कर पूर्णत्व को पा ही लंूगी पर तुम तब भी इसी तरह इसी जगह खडे रहोगे धूप व ताप सहते हुये किसी और नदी को
दोषी ठहराते हुये।’
यह कहानी पढ कर बहुत देर तक वह रोती रही। और फिर रहा न गया तो उस कहानी के लेखक को मेल कर ही दिया।
प्रभात जी,
अभी अभी, नेट पर आपकी कहानी ‘पहाड़ और नदी’ पढी। खाषी भावुक व मन को छू लेनी वाली कहानी लिखी है। किसी पुरुष के द्वारा स्त्री के पक्ष में लिखी यह कहानी अंर्तमन तक हिला गयी। एक अच्छी रचना के लिये आप बधाई के पात्र है।
लेकिन क्या बात है इसके बाद आप की कोई रचना नही आयी।
यदि हो तो वह कहां व कैसे उपलब्ध हो सकती है।
स्ंाध्या
दूसरे ही दिन एक छोटा सा जवाब मेल बाक्स में नमूदार हुआ।
संध्या जी,
आपको मेरी कहानी अच्छी लगी। जान कर प्रसन्नता हुयी।
रही आपके प्रष्न की कि मेरी दूसरी रचनाएं क्यों नही आयी।
इस संदर्भ में मात्र इतना ही कहना चाहूंगा कि लेखन मेरा व्यवसाय या मिषन नही।
षौक है। लिहाजा जब तक कोई विचार अंदर तक हिलाता या भिगोता नही तब तक मेरी कलम चलती नही। लिखने के लिये लिखना आदत नही।
पर ऐसा नही कि इसके बाद लिखा नही थोडा बहुत जो भी लिखा उसे अपने तक ही सहेजे हूं। वेैसे भी मुझे छपास की कोई बहुत ज्यादा ललक कभी रही नही।
लेखन मेरे लिये एक रेचन की तरह है जिसके बाद मै अपने को हल्का कर लेता हूं। या कह सकती हैं स्रजन मेरा स्वांतह सुखाय कर्म है।
फिलहाल मै आप को अपनी एक और कहानी भेज रहा हूं।
यदि आपको पसंद आती है तो यह मेरा सोैभाग्य होगा।
प्रभात
उसके बाद से रचनाआंे और पत्रों का एक सिलसिला ही निकल पडा।
उसके बाद फोन पे बातों ने नदी के लिये एक नये और अंजानी मंजिल का रास्ता खुलता गया जो उसकी नदी की मंथर गति में होैले हौले गतिषीलता देता जा रहा था।
अचानक उसे खयाल आया एस एम एस का तो उसने जवाब ही नही दिया। पर इस वक्त वह इस मेल का जवाब देने की जगह बात करना ही उचित समझा।
संध्या की नाजुक उंगलियां मोबाइल के मुलायम की पैड़ पर खेलने लगीं।
बाहर अभी भी हरसिंगार की पत्तियों से व खिडकी के षेड़ से बूंदे गिर रही थी। जो नियॉन बल्ब की दूधिया रोषनी में चमक रहे थे।
संध्या की हंसी उसमे जलतरंग सा बज रही थी।

पहाडी बरसाती काली रात आज भी कालिमा से व्याप्त थी पर न जाने क्यूं उसे आज उतनी भयावह न लग रही थी। उस कालेपन में एक कोमलता व गहराई अनुभव कर रही थी। मन हौले होेेैले मस्ती में डूबना चाह रहा था दो चार दिनों में ही आये अपने अंदर के इस परिवर्तन को वह समझ तो रही थी। रोकना भी चाह रही थी पर न जाने मन देह व दिल दोनेा जीवन भर की आदत व तपस्या का संग साथ छोड रहे थे। पर वह उसी भाव में तो बहना चाह रही थी। मन की एक एक लहर को गिनना व जीना चाह रही थी। लिहाजा रात का खाना मॉ को खिला के खुद खा के अपना पसंदीदा टी वी सीरियल भी देखना छोड नेट पे आ बैठी षायद कोई नयी मेल आयी हो। मेल बाक्स ढेर सारी जंक और बेकार मेलों से भरा पडा था जिसे वह एक एक कर डिलिट करती जा रही थी। उसी मे वह मेल भी थी जिसमे उसने अपने बारे में लिखा था।
संध्या जी,
तुमने कभी रेगिस्तान देखा है। रेत ही रेत। रेत के सिवा कुछ भी नही। रेत, समझती हो न। पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है सदियों सदियों तक, पर धीरे धीरे आफताब की तपिष और बारिष व तूफान से टूट टूट कर रेजा रेजा होकर बिखर जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है। और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है।
उसी रेगिस्तान को कभी गौर से देखा है। जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा। जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते। खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती।
वहां।जंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती। षेर व चीता जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस षावक व फुदकती हुयी गिलहरी भी नही होती। और न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से चलने वाली चींटियां।
ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैेला है। जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी ये षान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी षिकवा षिकायत के अपने उपर नुकीली पत्त्यिांे का छाता सा लगाये।
जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं।
तो सुनो
जब कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोषनी से ही कुछ जल कण चुरा लेते हैं। और फिर षान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी मीठा मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं।
यही रस रात भर ऑसू की तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद बूंद भर लेते हैं।।और सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो उस ताड़ी में हल्का हल्का मीठा मीठा सा नषा होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नषीला पेय और खजूर सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये वरदान है।
बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और जिंदा रहता हूं।
लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो।
बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट टूट कर रेजा रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह। ी
प्रभात
नोट ...आपको तुम लिखने के लिये क्षमाप्रार्थी हूं। पर इस खत में आप से अपनापन नही आ रहा था। इसलिये यह गुस्ताखी की है। उम्मीद है आप मॉफ करेंगी।
इस खत को पढ कर कितना उदास हो गयी थी काफी देर तक रोती रही थी।
संध्या ने खत को आज भी पूरा का पूरा पढ गयी। ?
उदासी एक बार फिर उसके वजूद में पूरा का पूरा घिर आयी।
बाहर काली रात अब और काली हो चुकी थी। बारिष की बूंदे तेज और तेज हो कर खिडकी के षेड से अब बंूद बंूद की जगह धार से बहने लगी थी। हर सिंगार का पेड भी पानी से तरबतर हो रहा था खुले आकाष के नीचे।
संध्या के अंदर भी कुछ बह रहा था। पहले धीरे धीरे फिर जोर जोर ...
पापा के न रहने पर भी मॉ ने षादी मे कोई कोर कषर न छोडी थी वह नही चाहती थीं को बेटी को कहीं से यह अहसास हो कि उसके पापा नही है। और उधर रीतेष के घर वालों ने भी तो कोई कोर कषर न छोडी थी अपने हिसाब से जो भी अच्छे से अच्छा बन पडा किया। करते भी क्यूं न उनके एकलौते लडके का ब्याह जो हो रहा था। और बहू भी तो चॉद जैसी थी। सबसे बडी बात लडके को पसंद थी। सब कुछ कितना षौक से हुआ था। वह भी उस खुषी मे षामिल थी। उसे भी सब कुद अच्छा अच्छा लग रहा था।
दो चार दिनों मे ही तो उसने ससुराल के हर एक का मन मोह लिया था। जो भी आता उसकी तारीफ किये बगैर न रहता। सभी उसके रुप और गुण दोनो की तारीफ करते न अघाते।
और करते भी क्यों नही क्या नही था उसके पास सुंदर तो थी ही पढने लिखने मे भी अच्छी थी गाना बजाना उसे आता था। स्वभाव भी उसका सबके प्रति प्रेमपूर्ण था। रीतेष तो उसके प्रेम में पागल थे ही। पीछे पीछे उसके डोलते रहती। जहां वह जाती वहीं वह भी रहती। साथ सोना साथ जागना साथ साथ कालेज जाना। बी ए के अतिंम वर्ष में ही तो विवाह हो गया था। फिर एम ए मे दोनो ने एक साथ ही दाखिला लिया था। अब तो कालेज भी एक साथ जाना आना होता।
रीतेष सितार अच्छा बजाते जब वह बजाते तो वह गाया करती। दोनो की जोडी अच्छा समां बांधती। दोनेा कबूतर कबूतरी से हर दम गुटर गूं गुटर गूं करते रहते। हालाकि इतने ढेर सारे सुखों के बीच में भी संध्या के दिल में कहीं न कहीं एक खलिष की हल्की हल्की लहर कभी न कभी नदी की तलहटी से उपर आ ही जाती उसे लगता कि क्या यही प्रेम है क्या इसी के लिये लडकियां परेषान रहती है। वह अक्सर अपने आप से पूछती पर उत्तर न मिलता। तो वह फिर रीतेष की बाहों में अपना गौराया सा चेहरा दुपका के सो रहती।
झील सी गहरी ऑखों का मीठा मीठा पानी कसैला हो गया।
झील सी गहरी
ऑखों का
मीठा पानी
चेहरे के नमक से
घुलमिल कर
बरसा
और पानी
कसैला कसैला
सा हो गया
नदी गोमुख से निकल पहाडों पे कल कल कर रही थी अपनी पूरी भव्यता और सुंदरता के साथ।
संध्या की झील सी ऑखें हर समय झील से लहराती रहती। रीतेष ही नही जो भी उसे देखता देखता ही रह जाता। जो कोई भी देखता बिना रीझे न रहता। हर कोई कहता।
रीतेष की बहू बहुत सुन्दर है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा गाती है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा बोलती है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा बतियाती है। रीतेष की बहू तो की बोली बानी तो बिलकुल कोयल सी है। रीतेष की बहू पढने लिखने भी बहुत होषयार है। रीतेष की बहू रीतेष की बहू। जिसे देखो वही रीतेष की बहू के गुणगान में लगे रहते। वह भी मस्त और मगन कोयल सी कुहुकती व चिडिया सी फुदुकती रहती। खुष खुष। पर उसे यह तनिक भी अहसास न हो रहा था कि उसकी जितनी भी तारीफ होती है उतना ही मन का कोई कोना रीतेष के अंदर टूटता है। उसे लगता कि षायद संध्या के आगे तो उसका वजूद चुकता जा रहा है। वह उसकी दीप्ति के आगे छिपता जा रहा है।
अंर्तमुखी रीतेष के व्यवहार ने संध्या को यह अहसास ही न होने दिया कि इनफियारिटी कॉम्पलेक्स की कोई गांठ रीतेष के अंदर बन रही है। वह तो उनकी चुप्पी को उनका स्वभाव समझती और उन्हे ज्यादा से ज्यादा खुष रखने की कोषिष करती।
वह उन्हे जितना खुष रखने की कोषिष करती रीतेष उतने ही गुमसुम्म हो जाते और चुप हो जाते पहले तो दो चार दिन में फिर से सामान्य हो जाते पर उनका यह गुमषुम पना अंदर ही अंदर क्या गुल खिला रहा है। जब तक उसे पता लगता लगता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तब तक जीवन का बसंत कब बारिस के मौसम मे बदलता गया जो धीरे धीरे तूफान में बदला अैार तूफान एक ऐसे जलजले में बदल गया जिसमें सब कुछ बह गया। जिसे संवारते संवारते आज इस किनारे पे आ लगी है। जहां साथ देने को सिर्फ है तो मॉ है जो उसकी जननी है।
पर फिलहाल यह सब सोचते सोचते उसे भी काफी देर हो चुकी थी। बाहर धुंधलकी बरसाती षाम कब काली अंधियारी रात में बदल गयी उसे पता ही न लगता अगर मॉ ने चाय व दवाई के लिये आवाज न दी होती।
...
रीतेष के जिस घुन्नेपन को वह उसका स्वभाव समझती उसके पीछे कितना घिनौना चेहरा छुपा है उसे धीरे धीरे पता लगता गया। पहले तो उसकी और मीना और उसके मेल जोल को मोैसेरे भाई बहनों का स्नेह समझती कोई ज्यादा ध्यान ही न दिया पर बाद में उसे पता लगा कि उनलोगों को रिस्तो की पवित्रता का कोई अहसास नही है। वे दोनेा तो भाई बहन के इस पवित्र रिस्ते के पीछे इना घिनौना खेल खेल रहे थे कि सुन के ही उसे उबकाई आ गयी। जिस दिन पहली बार इस बात का पता लगा वह विष्वास ही न कर पायी कि दुनिया में एसा भी हो सकता है और उसी के साथ हो सकता है।
रीतेष और मीना को एक साथ आपत्तिजनक अवस्था में उसने खुद देखा। उस दिन उसके षरीर में फिर गंदे कीडे रेंगने लगे जिनसे निजात पाने के लिये वह कितना रोयी थी कितना तडपी थी यह उसकी आत्मा ही जान सकती है या वह खुदा जिसने उसे बनाया है।
इतने बडे आघात को वह महज इस लिये सह गयी कि अब तक वह फूल सी बच्ची व एक बेट की मॉ बन गयी थी। अब सवाल सिर्फ उसकी जिंदगी का ही नही रह गया था इन बच्चों का भी जीवन उसके व रीतेष के साथ जुड गया था।
और फिर वह पिता के न रहने का दर्द अच्छी तरह से जानती थी। इसलिये वह कोई ऐसा कदम नही उठाना चाहती थी कि उसकी बेटी को बाप को प्यार न नसीब हो। इस लिये उसने अपने सीने पे पत्थर रख कर भी रीतेष व मीना के घिनौने संबंध को स्वीकार कर लिया था। पर अब जब भी रीतेष उसे छूते तो वह तडप उठती लगता कि रीतेष के हाथ नही गंदगी से लिथडे हाथ हेैं जो गंदे कीडों सा षरीर पे रेंग रहे हैं पर वह उन गंदे कीडों को भी बरदास्त कर गयी। जब रीतेष ने रो रो के मॉफी मांगी थी और मॉफ न करने पर मर जाने की धमकी दी थी।। पर उसका मासूम मन तब भी नही समझ पा रहा था कि यह कसम भी उसी तरह की झूठी कसम है जिसे उसने षाादी के पहले खायी थी।
संध्या रोती जा रही थी और इन सब बातों को सोचती जा रही थी। उसके अंदर की एक एक लहर बह रही थी।
रीतेष माफी मांगने के बाद बहुत दिनो तक षर्मिंदा न रह सके कुछ दिन बाद उनकी मीना के साथ फिर वही रासलीला षुरु हो गयी। बस फर्क इतना था कि अब यह खेल थोडा ज्यादा ही लुका छिपा के खेला जाता पर यह लुकाव छिपाव भी ज्यादा दिन न चला उजागर हो ही गया।
लिहाजा इस बार संध्या ने कुछ कहा तो नही। बस रीतेष को अपने पास न फटकने देती।
वह उनके साथ रह के भी न रहती। उनको चुपचाप खाना दे देती। सारा काम कर देती जैसे वह उनकी नौकर हो।
वह बिलकुल टूट चुकी थी पर सास का स्नेह व ससुर का वरदहस्त ही था जो उसे सम्हाले हुआ था। वर्ना फूल की यह डाली तो टूट ही गयी थी।
सोचते सोचते संध्या की आंखें सावन भादों बन बरसन लगी। बाहर बादल भी पूरी जोर से बरस व गरज रहा हो मानो वह भी इस वक्त संध्या के दुख से दुखी हो गया हो।
वह न जाने कितनी देर और रोती रहती अगर मोबाइल की घ्ंाटी न बजी होती। उसने झट ऑखें पोछी और, हैंडसेट की लाइट में प्रभात का नाम चमक रहा था।
मौसम अपना मिजाज रोज रोज बदल रहा है। दो दिन पहले तपन थी कल बादल छाये थे और आज बारिस।
ऐसे ही संध्या का मन भी रोज रोज बदल रहा था। वह अपने अंदर आये इस बदलाव से पूरी तरह वाकिफ थी। पर बेबस थी इस बार उसकी इच्छा षक्ति काम न दे रही थी। ऐसा नही था इतने दिन की एकाकी यात्रा में कोई ऐसा रहगुजर न मिला हो जिसके साथ बैठना बोलना अच्छा न लगा हो। पर हर बार दो चार मुलाकातों में ही अपने घिनौने हाथ पैर पसारने षरु कर देते। देह में घिनौने कीड़े रंेगने लगते। जो मन तन को गंदा ओर वीभत्सता से भर देते और वह घोर वित्रषणा से भर उठती। पता नही षायद वही वित्रषणा रही हो या कि कोई ओर अन्जाना कारण उसके अंदर गांठ के रुप में पलता बढता गया जो आज इस रुप में उभर आया है। जब वह किसी भी व्यक्ति और वस्तु को छूना उसे गंवारा नही होता। हर चीज व वस्तु जब तक दो तीन बार धो के साफ नही कर लेती उसे लगता यह चीज गन्दी है। हर चीज वह धो पोछ के ही इस्तेमाल करती है। उसकी इसी आदत से निजी जीवन भी बुरी तरह से बाधित होता गया। और वह धीरे धीरे और और एकाकी होती गयी। इधर दो तीन सालों में जब से बच्चे अपने अपने स्थानों में गये, तबसे तो घर में ही कैद हो के रह गयी है। जहां सिर्फ वह है और मॉ। मॉ का काम धाम करके बस दिन भर साफ सफाई में ही लगे रहना उसका षगल बन गया उसे लगता हर एक चीज मैली है गन्दी जिसे छू कर वह भी गन्दी हो जायेगी। कभी कभी तो उसे भिण्डी जैसी सब्जी में भी किसी पुरुष की उंगलियां नजर आती जो उसे छूना और ड़सना चाहती है। इस परेषानी को डाक्टर ओ सी ड़ी कहते हैं जिसका इलाज भी कराया पर कोई खाष रिजल्ट नही आया। अब तो इलाज कराना भी छोड दिया है। इसे भी एकाकी पन की तरह स्वीकार्य कर लिया है।
देह में चिपके कीडों को पहली बार तब महसूस किया था।
महज आठ व नोै साल की खूबसूरत गुडिया। हर वक्त फूल किस खिली खिली। जो भी उसे देखता देखता ही रह जाता। तारीफ किये बिना न रह जाता कह ही उठता संध्या अभी इतनी सुंदर है तो बडी होकर तो किसी राजकुमारी से कम नही लगेगी। यही फूल सी राजकुमारी बंगले के अहाते में खेल रही है। अकेले ही एक पैर पे उचक उचक के अपने आप में ही मगन है। पास ही उससे कुछ बड़ा पर मोट और गबदू सा लडका भी खडा है। बाबर। वह चुपचाप बडी देर तक तो फूल सी बच्ची को देखता रहा फिर पता नही क्या मन में आया कि उसने उसे अपने दोनो हाथों में दबोच के पास के ही गढढे में कूद गया। फूल बेहद डर गयी बाबर उसे दोनेा हाथों से पकडे था। वह घबराहट में रो भी न पा रही थी। पर पता नही कैसे वहां से उठ के भागी और जा कर आई की गोद में दुबक गयी। सबके बहुत पूछने पर भी वह कुछ न बोली उसके साथ क्या हुआ। पर रात सपने मे उसे लगा जैसे उसे बाबर नही किसी बडे से कीडे ने पकड लिया हो। वह सपने में ही घबरा गयी।
षायद तब से ही उसे हर चीज लिजलिजी व गंदी सी लगती कोई भी उसे छूता तो लगता कोई कीडा छू रहा हो।
उसके बाद तो न जाने कितनी बार नजरों के कीडे काटते चले आ रहे है उनसे बचते बचते आज एक उम्र गुजर गयी पर अभी भी कीडों से निजात नही मिली लगता है थोडा सा लपरवाह हुयी और इन कीडों ने देह में रेंगना षुरु किया।
यह सब सोचते सोचते न जाने कब संध्या की खूबसूरत झील से अॅाखें भर आयीं जिसके ऑसुओं को समाज के इन गंदे कीडों ने कसैला कसैला कर दिया था।
र्दद ही र्दद का साया है
र्दद ही र्दद का साया है
कितना घना कुहासा है
प्रभात की गजल का यह षेर संध्या कई बार मन ही मन दोहरा चुकी है। हालाकि यह सच है कि कभी उसकी जिंदगी के लिये यह बात सही रही होगी पर आज उम्र के इस मुहाने पे यह बात पूरी तरह से नही कहा जा सकता है। अब तो सब कुछ निपट चुका है। बच्चे सेटल हो चुके हैं उनकी षादी हो चुकी है अपने अपने घर मे खुष हैं प्रसन्न हैं। जिंदगी एक ढर्रे पे चल रही रही है। यह अलग बात है कि तन्हाई मे आज भी वह खलिष जो वह रीतेष के साथ रहने पर भी महसूस करती थी वह आज भी है और अब तो कुछ गाढी हो के उभर आयी है। या हो सकता है की गाढी तो पहले से ही रही हो पर इतनी षिददत से सोचने का मौका न मिला हो।
संध्या ने रोजमर्रा के काम समाप्त किया। मॉ को दवाई और दलिया खिला दिया जो लेटी लेटी झपकी लेने लगी तो वह भी अपने लिये नीबू की चाय बना के खिडकी पास ही कुर्षी लगा के बैठ गयी। बाहर गुलमोहर रोज सा अपने आप मे हौले हौले हिल रहा था। काली लम्बी सूनसान सड़क दूर तक पसरी थी जो कभी कदार एक आध मुसाफिर के आवागमन से कुछ देर को गुलजार होती और फिर उसी सन्नाटे मे पसर जाती। संध्या की जिदगी भी तो किसी पॉष कालोनी की दोपहर की सूनसान सडक ही तो है। जहां दिन मे एक दो बार बच्चों के फोन कॉल या फिर मॉ की दवाई और दर्द की कराहों के सिवाय कोई हलन चलन नही है।
गुलमोहर के पेड के साथ साथ उसका साया भी हौले हौले हिल रहा था। इस हलन चलन को देखते देखते संध्या को अपने बदन पे फिर से कीडे रंगते महसूस होने लगे। वह बेचैन होने लगी। कीडे एक बार फिर उसकी स्म्रतियों मे रेंगने लगे।
रीतेष अपनी आदतो मे सुघार करना ही नही चाहते थे। कई बार लडाई झगडा और समझौता हुआ पर कुड दिन बाद फिर वही हरकते वह उब चुकी थी काफी अंदर तक टूट चुकी थी। हालाकि सासू मॉ और ससुर का उसके प्रति प्रेम बना था और वे खुद अपने बेटे को ही गलत कहते थे। पर इन सब बातों से उसे तसल्ली नही हो रही थी।
अंत मे उसने इस रिस्ते से भी समझौता कर लिया था अपने बच्चों की खातिर पर रीतेष दिनो दिन और ज्यादा घुन्ने होते जा रहे थे। इसी बीच जब उसके काम और मेहनत से खुष हो के युनिर्वसिटी ने उसे अपने डिपार्टमेंट को हेड बना दिया तो इस बात ने रीतेष के अंदर की हीन भावना को और मजबूत कर दिया जिसकी पूर्ती वह दूसरी औरतों को अपनी ओर आकर्षित करके अपनी मर्दानगी का सबूत देने और अपने आप को बेहतर साबित करने की नाकाम कोष्षि करते।
रीतेष केे एक और औरत से उनके सम्बंध हो गये थे। इस बात ने उसे पूरी तरह से झकझोर दिया और फिर जो होना था वही हुआ।
वह अपने बच्चों को ले के अपने घर चली आयी।
पिताजी के जाने के बाद भी मॉ उतनी टूटी न थी जितनी वह आज उसके वापस आ जाने से हुयी थी। पर मॉ बहुत मजबूत कलेजे की थी उसने उसे ढाढस बंधाया और अपने काम काज मे लग गयी। और उसने भी अपने को मॉ की तरह अपने को नौकरी और बच्चों के बीच खपा दिया सुबह से षाम तक सोचने की फुरसत ही न मिलती जिंदगी नौकरी और बच्चों के बीच डोल रही थी।
देह मे रेंगते कीडे इस अंतहीन दर्द के साये मे जाने कहां लुक छिप गये थे। पर .....
देव साहब लम्बा चौडा भव्य षानदार व्यक्तित्व कालेज के प्रिसिपल जिन्हे वह पिता तुल्य समझती जिनके आचरण और व्यवहार मे भी वही भव्यता छायी रहती पर इस भव्यता और आर्दष की परतें धीरे धीरे उतरती गयीं किसी पुराने बर्तन की कलई जैसे।
संध्या उस कालेज के स्टाफ की षान थी स्अूडेंटस के बीच भी काफी लोकर्पिय थी अपनी खूबसूरती के कारण अपनी विदवता के कारण अपने व्यवहार के कारण पर उसके सारे गुण ते उसकी खूबसूरती दबा देती। हर प्रोफेसर हर स्अूडेंट उसके नजदीक आने के चाह रखता पर उसकी कोमलता मे भी छुपे ध्रण निस्चय को देख के कोई हिम्म्त नही करता था अपनी सीमा रेखा के बाहर आने का।
उन सब लोगो की तरह देव साहब भी उसके आकर्षण से अछूते न रहे और एक दिन अपनी असलियत दिखा ही दी। एक दिन जब एकांत पाकर प्रधय निवेदन करते हुए छूने की कोषिष की तो वा संयम से काम लेती हुयी बहाना बना के आफिस के बाहर आयी और फिर दोबारा कालेज लौट के नही गयी गया तो उसका इस्तीफी ही गया। बाद मे उन्होने बहुत मनाने अैर सफाई देने की कोषिष की पर संध्या टस से मस न हुयी।
पर इस हादसे के बाद उसके अन्दर पुरुष जाति की नफरत के कीडे एक बार फिर कुलबुलाने लगे और दिन रात षरीर मे रंेगने लगे। नौकरी छूटने की चिंता बच्चों का भविष्य और मरदों की करतूतें उसे अंदर तक तोड डाल रही थी।
पर उसने अपने को एक बार फिर संभाला इत्तफाक से उसे एक दूसरे कालेज मे दूसरे षहर मे फिर उसी स्टेटस की जॉब मिल गयी।
उसने बच्चों को लिया और फिर एक नयी मंजिल की ओर चल दी।
मगर इन सब हादसों का नतीजा हुआ उसके मन की कोमल धरती सूखती गयी सूखती गयी उसकी खूबसूरत आखों के आंसुओं की तरह।
जमाने के कामुक कीडों ने न जाने तो कितनी बार उसे काटना चाहा छूना चाहा नोचना चाहा पर न जाने कौन उसकी अंदरुनी ताकत थी कि वह किसी न किसी तरह बच ही जाती पर वह इन कडीें के मानसिक डंकोे से न बच पायी और उसका ओ सी डी बढता ही गया दिनो दिन और अब हर चीज मे गंदगी ढूंडती अपने हाथ दिन मे कई कई बार धोती कभी डिटाल से तो कभी गरम पानी से और कोई उसको छू लेता तो वह उसके जाने के बाद या घर आने के बाद तुरंत कपडे धोती और नहाती ताकि उसके कीडे पानी मे बह जायें और वह फिर साफ सुथरी हो जाये पर वह जितना ही अपने आप को सफ सुथरा रखने की कोषिष करते ये कीडे अैार और और तेजी से रेगने लगते। उसकी इस आदतों से बच्चे भी परेषान होने लगे थे।
पर वह मजबूर थी अपने आप को समझाने मे।
एक ओर जहां उसकी यह ओ एस डी की बीमारी बढती जा रही थी वहीं उसके मन की धरती भी सूखती जा रही थी पपडियाती जा रही थी।
संध्या अपनी इन स्म्रतियों मे जाने कितनी देर तक डूबी रहती अगर उसे मॉ की आवाज न सुनायी देती पानी देने के लिये।
इधर वह मॉ को पानी देने के लिये उठी उधर बाहर सूनी सडक पर धूल का गर्म गुबार उड रहा था जिसके कारण गुलमोहर की पत्तियां और हिल रही थी। और उसका साया भी हिल रहा था।
पता नही यह गुलमोहर का साया था या संध्या के दर्द का साया था ?
सूनसान जंगल मे चुपचाप बहती रही।
सूनसान जंगल मे गुपचुप बहती रही
वह नदी थी रास्ता खुद चुनती रही
जीवन के जंगल मे चुपचाप बहती रही बहती रही। रात बीतती रही दिन गुजरते रहे।
मॉ के पर्वत जैसे व्यक्तित्व और साये से जब निकली तो उसका जीवन किसी नयी नदी सा ही तो षुभ्र और उज्जवल था मन मे भावनाओं की लहरें कुलाचें मारने लगी थीं जो षायद पिता के न रहने की कमी से मन मे अंदरी ही अंदर हरहरा रही थीं पर उपर से षांत थी। रीतेष ने भी तो अपनी भूजाओं मे बांध बहने दिया था अपनी तरह से उफनते दिया था बहने दिया था और तब वह कितनी मगन थी कितनी खुष थी। लेकिन जिंदगी की राह मे न जाने कितनी बडी बडी चटटाने न जाने कितने बडे बडे रोडे आये जिनसे तो कई बार लगा भी कि अब वह कहां जाये क्या करे पर वह तो नदी थी अपना रास्ता खुद बनाना जानती थी। अपनी तरलता से कभी उन चटटानों के बगल से खुद को बह जाने दिया और जो छोटे मोटे कंकड पत्थर आये उन्हे बहा के दूर कहीं फंेक दया। वह निर्बाध रुप से बहती रही बहती रही।
वह नये षहर मे आके एक बार फिर अपने को सेटल कर लिया बच्चे स्कूल जाने लगे जिंदगी ढरें पे चलने लगी। वह सुबह से षाम तक अपने को कभी कालेज के काम मे तो कभी घर के काम मे उलझाये रखती।
दीन बीतते रहे जिंदगी बहती रही हौले हौले गुपचुप गुपचुप।
बेटी ने अपनी पढाई पूरी की नौकरी की और अपने एक कुलीग से षादी करके विदष षेटल हो गयी। एक दो सालों मे बेटा भी वही जा के षेटल हो गया वहीं षादी कर ली।
हालाकि वह अपने प्रेम विवाह का हश्र देख चुकी थी फिर भी उसने बच्चों के निर्णय मे कोई आपत्ती नही जतायी। उसका विचार है कि हर एक को अपना जीवन अपने तरीके से जीने का पूरा अधिकार मिलना चाहिये।
आज दोनो बच्चे अपने अपने परिवार मे खुष हैं प्रसन्न है।
दिन बीते साल बीते मॉ रिटायर हो के उसके पास चली आयी। और जाती भी कहां मॉ का उसके सिवाय और कोई था भी तो नही वही तो इकालौती संतान थी।
मॉ और बेटी दो लोंग बस। घर मे कोई ज्यादा काम होता नही दोनो मॉ बेटी अपने लिये मिल जुल के पका लेते और काम काज कर लेते न कोई किच किच न कोई परेषानी हॉ। सिवाय इस बात के भी की इस पकती उम्र मे भी कुछ पके और कुछ उससे कम उम्र के लोग भी उसे अकेला जान के पास आने की कोषिष करते। कई बार उसे भी लगा कि वह कुछ टूट रही है पर जब भी मर्द उसके नजदीक आता तो उसके षरीर मे कीडे रेंगने लगते और इस तरह से रेंगने लगते कि वह घबरा के उस व्यक्ति से दूर हो जाती और फिर अपने एकाकी राह मे मंधर गति से बहने लगती बिना किसी हलन बिना किसी चलन।
फिर नदी गुनगुनायी एहसास की
यूं तो जिंदगी की नदी मे तूफान और भंवर आते ही रहे हैं। पर इधर वालेंटरी रिटायरमेंट के बाद से और बच्चों के सेटल हो जाने के बाद उसकी जिंदगी किसी जंगल की षांत नदी सा बह रही थी बिना किसी हलन बिना किसी चलन। ओर न जाने कितने दिन चलती ही रहती। गर प्रभात से परिचय न होता। हालाकि षुरुआती खतोकिताबत से उसे ये उम्मीद नही थी कि यह सिलसिला इस हद तक बढे जायेगा कि उसके दिल की सूखी और दरककी हुयी धरती पे फिर से एहसासों के बादल बरसेंगे फिर से कुछ भावनाओं के उम्मीदों की कोपल फूटेंगी।
संध्या आज भी अपने रुटीन के काम काज से निपट के खिडकी के पास बैठ निहार रही थी सामने की साफ सुधरी पर सूनी सडक को और निहार रही थी पर इस सूनी सडक को देख कर आज वह अपनी जिंदगी की इस एकाकी यात्रा को नही याद कर रही थी। बल्कि आज वह बाहर लॉन मे लगे मोगरा और जूही के फूलों की मीठी मीठी गमक मे खो जाना चाहती थी।
अपने अंदर के एहसासों की नदी मे डूब जाना चाहती थी जो उसकी बरसों की परती पडी धरती पे जिंदगी के सारे कटु अनुभवों की कठोर चटटानो को तोाड के बह जाना चाहते हैं एक नदी की तरह एहसासों की गुनगुनाती नदी की तरह।
किसी पहाडी नदी सा उचछंखरल तो नही पर मैदान मे बहती एक षांत पवित्र नदी की तरह।
संध्या इन्ही ख्वाबों और खयालों मे डूबी हुयी थी कि मोबाइब पे एक बार फिर प्रभात का नाम फलैष हुआ मोबाइल की धंटी बजी और उसके अंदर जलतरग बज उठी। एक बार फिर षायद पहली बार एहसास की गुनगुनी नही बह उठी बरसों की परती पडी धरती पे।









दोस्त,
आज पहाड़ी सुबह कुछ ज्यादा ताजी और धुली धुली नजर आयी, चौट बाक्स मे पडे आपके मैसेज ने उसे कुछ और ही खूबसरत बना दिया।
सुबह की हल्की रोषनी ने ओस के साथ साथ रात की बची खुची खुमारी भी सोख लिया।
फक्त दो दिन की दोस्ती और चौट बाक्स मे हुयी बातो का असर इन खुनखुनाती हवाओं मे घुल घुल के न जाने कैसी तासीर पैदा कर रहा था कि उंगलियां अपने आप मोबाइल के कीपैड से खेलने लगीं और न जाने कव आपके नाम पे रुक गयी जो आपको कॅाल कर के ही मानीं।
महज दो तीन वाक्यों मे हुयी बात का असर काफी देर अपने वजूद पे महसूस करता रहा।
न जाने क्यूं लगा आप उस वक्त घबराहट मे या संकोच मे या किसी और कारण से बात नही कर पा रही थी। लिहाजा मैने कॉल को वहीं खत्म करना ही उचित समझा।
फिर दोपहर मे जब आपका मैसेज आया उस वक्त मै कुछ काम मे व्यसत था। खैर ...
इस वक्त षाम का झुटपुटा धीरे धीरे अंधेरे की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में मै देख रहा हूं। बादलों की ओट से सिंदूरी सूरज को, पहाड़ं के पीछे छुपते हुये। पेड़ और इंसान की लम्बी परछाइयों को अंधेर में विलीन होते हुए। पक्षियों को अपने आसियाने में चहचहा कर दुपकते हुये। गिलहरी गिल्लू को फुदक कर पेड़ की खोह में घुसते हुये। इसी के साथ साथ मै भी अपने एकाकीपन में डूब रहा हूं। किसी गहरे तलातल में, जहां खोते जा रहे थे सारे षब्द, सारे भाव, सारे विचार सारी संवेदनाए।
लेकिन इस विलीनता में हो रहा था सब कुछ हौले हौले आहिस्ता आहिस्ता। फिर आहिस्ता से बिदा हो गयी थी सारी बेचौनी। जहां था एक गहन लयबद्ध मौन से आप्लावित किसी षाम की रागनी।
उसी तंद्रा की अवस्था में दूर से आती स्वरलहिरयों की तरह मन के अचेतन से आपका नाम स्पंदित हाने लगा। इस भाव के साथ कि आहिस्ता आहिस्ता परवान चढते इस संबध को किस रुप में लूं किस रुप मे न लूं। कहां तक समझूं कहां तक न समझूं। लेकिन इस होैले हौले उभरते हुये विक्षोभ के साथ भी मै, इस अवस्था से निकलना नही चाह रहा था। बहुत देर तक।
इस भाव दषा से उबरने के बाद भी बहुत देर तक सोचता रहा। आपके साथ हो रही आपसी सौहार्द की बातों व हल्की फुल्की चर्चाओं के बारे में। उन बातों के बारे में जिन्हे हम और आप कह सुन लेते हैं। और सोच रहा था अक्सर अपने आप ही अंकुआ जाने वाले कुछ ऐसे संबंधों के बारे में जिन्हे, कोई संज्ञा तो नही दी जा सकती। पर उन संबंधों को यदि आहिस्ता और समझदारी से जिया जाये तो निसंदेह समाज में एक मिसाल कायम करते हैं। चाहे वह वर्तमान में सात्र व सिमॉन द बउवा का रहा हो या कि अम्रता और इमरोज का रहा हो या कि पुराणों में द्रोपदी व क्रष्ण का रहा हो।
हालाकि इन बड़े बड़े नामो से मै अपने आपको नही जोड रहा पर एक बात जरुर है कि फिलहाल हम लोगों को साक्षी भाव से हर घटना व बात को देखना समझना होगा पवित्रता, धैर्यता और विस्वास के साथ।
वैसे इतना जरुर है आपका ये दोस्त उन कसौटियों पे कतई नही खरा उतरता जिन कसौटियों पे एक अच्छे दोस्त को उतरना चाहिये। हां यह जरुर ईमानदारी से कहूंगा कि आप इस दोस्त पे आसानी से विष्वास न करियेगा। ये बहुत छलिया दोस्त है। जो अक्सर अपनी लच्छेदार बातों से लोगो को मोहित करने की कला जानता है। इसलिये आप मेरी कविताओं और बातों से मुझे बहुत अच्छा इन्सान न समझें।
हां ये जरुर है जितनी दूर और देर तक दोस्त रहूंगा ईमानदारी से दोस्त रहूंगा।
वैसे तो कलम अभी रुकना नही चाहती पर एक ही बार मे सब कुछ कह देना व बता देना न तो संभव है और न ही रिष्तों की मजबूती के लिये ठीक होता है।
जो चीज धीरे धीरे पकती है उसकी सुगंध स्वाद और तासीर ही अलग होती है।
एक ही बार मे पूरी आंच दे देने से चीजें नष्ट ही होती हैं चाहे सम्बंध ही क्यूं न हो।
बाकी आप खुद समझदार और दुनियादार हैं।
कम षब्दों मे ज्यादा समझना आपकी विषेषता है।
शुभकामनाओं सहित
एक दोस्त
दोस्त,
नेट खोलते ही निगाहें चौट बॉक्स मे आपको ढूंढती हैं। और अपडेटस मे आपकी रचनाएं। आज चौट बाक्स मे आपके पत्र देख मन हिलोंरे लेने लगा। उंगलियां माउस पे कंपकंपाने लगी, दिल न जाने क्यूं धडकने लगा।
जैसे जैसे निगाहें खत को पढती जातीं वैसे वैसे मन आपके लिये श्रद्धा विस्वास और प्रेम से भीगता जाता।
पत्र को कई बार पढने के बाद भी मन नही भरा और ये पत्रोत्तर लिखते लिखते कई बार आदयोपातं पढ चूकी हूं।
आपके एक एक षब्द मे न जाने कौन सा जादू होता है जो उतरने की जगह चढता ही जा रहा है। षायद ये आपके दिल की पाक साफगोई और अनुभव ही है जो हर एक को इतना आकर्षित करता है।
अपने विचारों को कई बार सिलसिलेवार करने की नाकाम कोषिष कर चुकी हूं पर ये बेर्षम विचार हर बार हवा की तरह उड जाते है।
दोस्त, इतना तो मै भी जानती हूं कि ये बेब दुनिया है, एक जाल है। जिसमे जितनी देर रहो उतने सतरंगी सपने दिखाता रहता है। बाहर आते ही फिर वही भयानक वास्तविकता होती है।
और ये जिंदगी वेब दुनिया के सहारे नही चल सकती फिर भी मे इस का षुक्र गुजार हूं कि आप जैसे नेक और समझदार दोस्त से मुलाकात कराई।
आपने अपने पत्र मे कहा है कि ‘एक ही बार मे सब कुछ कह देना व बता देना न तो संभव है और न ही रिष्तों की मजबूती के लिये ठीक होता है।’
पर ये भी सच है कि अगर रिष्तों की दीवार सच और विस्वास पे न उठी हो तो कुछ देर बाद भरभरा के कभी भी गिर सकती है। और इसके लिये जरुरी है कि एक दूसरे के बारे मे सब कुछ नही तो बहुत कुछ तो मालूम ही होना चाहिये।
और अगर सब कुछ कहना एक बार में संभव नही तो कम से कम बहुत कुछ कम षब्दों मे भी तो कहा जा सकता है।
लिहाजा कम से कम षब्दों मे अपनी बात कहने की कोषिष है।
दोस्त, कई लडकियों के बाद मॉ बाप को उम्मीद थी कि इस बार तो लडका ही होगा। पर बदनसीबी से मै पैदा हो गयी। और वो भी साधारण रुप रंग ले के लिहाजा बचपन से उपेक्षा और तानो के सिबा कुछ न मिला। बडी बहनो को संग साथ ही सहारा रहा। अपने रुप रंग और घर के वातावरण ने हीन भावना को बढावा ही दिया। लिहाजा बचपन से ही अंर्तमुखी होती गयी। हां इस घुन्नेपन ने दुनिया को देखने समझने की क्षमता मे इजाफा किया और ज्यादा से ज्यादा पढने की तलब जगा दी।
घर की परेषानियों को झलते हुये भी पढाई पूरी की और नौकरी की।
उधर बडी बहनो की षादियां करते करते पिता चल बसे। प्राइवैट नाकरी थी पिता की पेन्सन का भी सहारा न था। लिहाजा मॉ और घर की जिम्मेदारियों के चलते अपनी आर सोचने का मौका ही न मिला।
हां कभी कदार अकले पन को दूर करने के लिये अपने आस पास नजरें दौडाती भी तो। उन लोंगों की ही भीड नजर आती जिनकी नजरें मेरी भावनाओं को कम और सरकारी नौकरी से मिलने वाली सैलरी की तरफ ज्यादा रहती। या फिर उनकी ऑखों मे सिर्फ टाइमपास की फितरत नजर आती।
एक दो सरल और सहज लोग मिले भी पर गौर से देखने पर वे भी मानवीय समझ और दुनियादारी मे बौने ही नजर आये। लिहाजा मैने खुद को मॉ नौकरी और किताबों की दुनिया मे खपा दिया था। जिसमे खुश तो नही पर आराम से थी।
इसी बीच मोबाइल की वजह से नेट की दुनिया मे आना हुआ।
और एक दिन किसी कॉमन दोस्त की वाल पे आपकी एक रचना से रुबरु हुयी।
जिसने मुझे आपको ज्यादा से ज्यादा पढने के लिये उकसाया।
और मैने आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी।
और वो दिन कि आज का दिन षायद कोई ऐसी रचना न होगी जिसे आपने पोस्ट किया हो और मैने न पढा हो।
उस दिन भी मैने आपकी रचना पे लाइक कर के एक छोटा से कमेट भी दिया था। जिसका जवाब आपने वॉल पे न दे के षुक्रिया के साथ चौट बाक्स पे दिया था।
बस उसी दिन के बाद से जो बातें हुयी वो आप को भी मालुम है। और हमे भी।
हालाकि मैने भी अभी इस सम्बंध के बारे मे बहुत गम्भीरता से नही सोचा पर ये भी है कि मेरे चाहने के बावजूद आपकी बातें और रचनाऐ जेहन मे किसी जादू की तरह किसी इंद्र जाल की तरह छायी रहती हैं जिससे अपने आप बाहर निकलने मे असमर्थ पा रही हूं।
हालाकि ये भी मालूम है ऐसं संबंध अक्सर पानी के बगूले की तरह जिस तेजी से बनते हैं उतनी ही तेजी से फूट भी जाते हैं।
आप मेरी इन बातों को किस तरह से लेते हैं और क्या प्रतिक्रिया करते हैं इसका असर मुझ पर नही पडेगा, एसा तो नही कह सकती फिलहाल पर ये भी सच है कि जिंदगी मे इतने हादसात और थपेडे आये हैं कि इसे भी सह लेने की क्षमता है। पर आप अपना निर्णय लेने मे स्वतंत्र हैं। वैसे भी मुझे सुहानभूति से चिढ है।
आपने इस तरह के अपने आप अंकुआऐ सम्बधों का जिस खूबसूरती से परिभाषित किया है ये आप जैसे षब्दों और भावों के चितेरे ही कर सकते हैं। मै नही।
बाकी मै क्या कहंू,गर मै कम शब्दों मे बहुत कुछ समझ पाती हूं तो आप बिन कहे भी सब कुछ समझने की समझ रखते हैं।
एक दोस्त
 एफ बी दोस्त कहानी की तीसरी कडी ...............
दोस्त,
उधर खिड़की के बाहर सुबह से ही सूरज बादल के साथ लुका छिपी खेल रहा हैं और इधर मेरा दिल और दिमाग एक दूसरे से खेल रहे हैं। इधर दिल कहता है तुमसे बढती हुयी दोस्ती को गुनगुनाओ खुश रहो उधर दिमाग कहता है ठीक है दोस्त प्यारा है उसकी बाते अच्छी है पर कदम समझदारी से बढाओ। इसी उहापोह मे तुम्हारे पढे हुये ख़त को कई बार पढ चुका हूं। क्या जवाब दूं क्या न दूं इस बात के भी विचार आपस मे ऑखमिचौली कर रहे हैं।
अंत मे कुछ नही समझ आने पे कलम उठा ली और तुम्हे लिखने लगा।
तुम्हे मै ‘तुम’ लिख रहा हूं उम्मीद है इसे अन्यथा न लोगी। चूकि तुमने मुझपे श्रद्धा और विष्वास किया है लिहाजा अब ‘आप’ कहना अटपटा लग रहा है। खैर ... तुमने अपने बारे मे जो लिखा है उसे पढ के बहुत देर तक तुम्हारे बारे मे ही सोचता रहा हू।
वैसे तो औरत होने का मतलब ही है दुख झेलना पर तुमने जो मानसिक यंत्रणा झेली है वह सच मे रुला देने वाली है।
दोस्त मै समझ सकता हूं ऐसी स्थिति मे मन जहां कहीं भी झुकाव और पायेगा वहीं बह जायेगा। भले ही वो आभासी दुनिया हो। लिहाजा इसमे तुम्हारा कोई दोष नही है। दोस्त, तुमने अपने बारे मे तो थोडे षब्दों मे सब कुछ बहुत सलीके से बता दिया उतनी दक्षता तो मेरे अल्फाजों मे तो नही हैं फिर भी मै संबंधो मे भावो, विचारों और अनुभवों के आदान प्रदान के तहत मै भी अपने बारे मे तुमसे कुछ साझा कर रहा हूं।
उम्मीद है तुम इस पत्र से मेरे बारे मे थोडा बहुत जान सकोगी।
तो दोस्त .....
तुमने कभी रेगिस्तान देखा है। रेत ही रेत। रेत के सिवा कुछ भी नही। रेत, समझती हो न। पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है सदियों सदियों तक, पर धीरे धीरे आफताब की तपिश और बारिष व तूफान से टूट टूट कर रेजा रेजा होकर बिखर जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है। और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है।
उसी रेगिस्तान को कभी गौर से देखना। जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा। जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते। खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती।
वहां।जंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती। शेर व चीता जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस शावक व फुदकती हुयी गिलहरी भी नही होती। और न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से चलने वाली चींटियां।
ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैला है। जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी ये षान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी षिकवा शिकायत के अपने उपर नुकीली पत्तियों का छाता सा लगाये।
जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं।
तो सुनो
जब कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोशनी से ही कुछ जल चुरा लेते हैं। और फिर षान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी मीठा मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं।
यही रस रात भर ऑसू की तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद बूंद भर लेते हैं।।और सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो उस ताड़ी में हल्का हल्का मीठा मीठा सा नशा होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नशीला पेय और खजूर सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये वरदान है।
बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और जिंदा रहता हूं।
लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो।
बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट टूट कर रेजा रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह।
तो दोस्त यही मेरा परिचय है। यही मेरी कहानी। यही सक्षेंप है और यही विस्तार। अब इन बातों से तुम क्या मतलब निकालती हो क्या समझ पाती हो ये तो मुझे नही पता पर मेरे जीवन का बस इतना ही सच हो और इतना ही अनुभव है।
खैर --- दोस्त उधर बाहर बादल किरणों से लड लड के थक चुके हैं और अब तितर बितर कर आसमान मे न जाने कहां विलीन हो चुके हैं या फिर से समुंदर की सतह पे डुबकी लगा रहे हैं फिर से उर्जा इक्ठठा करने के लिये फिर से बादल बन के बरसने और उडने के लिये, सूरज से ऑखॅ मिचौली करने के लिये।
और इधर मेरा भी मन इन शब्दों को कागज पे उकेर के अपनी बातें तुमसे कह के उहापोह के बादलों से निकल सूरज सा चमकने लगा है।
इसी चमक के बीच घडी की सूई दिन के दूसरे कामो की आवाज लगा रहा है।
लिहाजा तुम्हो अगले पत्र के जवाब तक के लिये कलम को विराम देता हूं। शुभ दिवस ...
तुम्हारा दोस्त
एक बी मित्र कहानी की चौथी कड़ी
दोस्त,
सच आपके शब्दों मे जादू होता है। प्यार, स्नेह, दोस्ती की सोंधी सोंधी महक होती है अपनेपन की गमक होती है। जो एक एक लफज के साथ दिलों दिमाग पे बरसती रहती हैं। आपके खत पढती हूं तो ऐसा लगता है मानो तपते हुये रेगिस्तान मे बहुत दिनो बाद बरसती हुयी बारिस की फुहारें हो। सच .... दोस्त तुम जितना प्यारा लिखते हो चीजों को महसूसते हो उसे पढ के मै ही नही कोई भी नही मान सकता कि, ये षख्ष कभी पत्थर दिल रहा होगा जो रेजा रेजा बिखर के रेगिस्तान बन गया है। अगर ये बात कुछ हद तक सच भी होगी ‘जो की नही है’ तो भी इतना यकीं है इस सहरा मे इस मीलों फैले रेगिस्तान की जमी के भीतर भीतर जल का मीठा सोता जरुर हरहराता है वरना शब्दों मे बातों मे भावों मे इतनी तरलता इतनी मिठास न होती दोस्त। ‘माफ करना मैने भी तुम्हे तुम लिख दिया’ दिल नही माना आप लिखने को’ कारण मुझे पता नही ................
कल तुम्हारा खत पढ के काफी देर तक रोती रही रोती रही न जाने क्यूं। तुम्हारा खत पढ के लगा कि हर एक इंसान के दिल मे एक रेगिस्तान फैला होता है। जिसमे नंगे पांव न जाने किस मंजिल की तलाष मे फिरा करता है और एक दिन अपनी चाहतों की प्यास लिये दिये उन्ही रेतीली जमीं पे दम तोड देता है।
सच दोस्त तुम इतना डूब के कैसे लिख लेते हो। तुम्हारी कलम को नमन है।
दोस्त जी तो करता है तुमसे बतियाती रहूं बतियाती रहूं जब तक की सब कुछ कह न दूं, जब तक कि शब्द साथ न छोड़ दे कुछ कहने को रह न जाये। बस एक स्वप्निल मौन मे डूब न जाउं, पर जब तुमसे बतियाने के लिये तुमको लिखने की कोषिष करती हूं तो सारे के सारे बिचार उत्तेजना की लपट मे कपूर की तरह उड जाते हैं और बस ..... आस पास रह जाती हैं तुम्हारे शब्दों की महक गमक जिसमे देर तक महमहाती रहती हूं। बिना कुछ सोचे बिना कुछ लिखे बिना कुछ करे।
दोस्त यह सच है इन्सान मुहब्बत के बिना नही रह सकता। मुहब्बत ही है जो इन्सान के लिये हवा पानी और भोजन के बाद सबसे जरुरी तत्व है।
इस मामले मे आप की क्या सोच है, ये आप से सुनना अच्छा लगेंगा।
उम्मीद हे आप हमारी इस बात का जवाब देंगे।
बस ... अब आफिस रही हूं अपने दाना दुनके की तलाश मे।
तुम्हारी दोस्त
दोस्त,
तुमने जिस तरह से मेरी तारीफ लिखी है मुझे नही लगता कि मै इस काबिल हूं। हां ये जरुर है कि मेरी कोषिष रहती है कि किस तरह से लोगों की भावनाओं को बिना चोट पहुंचांए सम्बंधो को न सिर्फ बनाये रखा जाये बल्कि मजबूत और मजबूत करते रहा जाये। खैर ....
पत्र मे तुमने ‘प्रेम’ के सम्बंध के सम्बंध मे मेरी राय जाननी चाही है। इस सम्बंध मे सिर्फ इतना ही कहूंगा कि ‘प्रेम’ तत्व को कौन जान सका है। जिसने प्रेम को जान लिया उसने खुदा को जान लिया। वैसे भी जानने वालों ने कहा है ‘मुहब्बत’ खुदा का दूसरा नाम है। और खुदा को कौन जान सका है।
दोस्त फिर मेरे जैसा अदना इंसान क्या कुछ जान पायेगा।
इतना तो तुम भी जानती होगी कि आज तक ‘प्रेम’ को ले कर जितना कहा और लिखा जा चुका है उतना कोई और दूसरा विषय संसार मे कोई नही है। फिर भी यह ‘प्रेम’ तत्व आज तक अपरिभाषेय ही रहा आया है।
मेरे देखे भी तो प्रेम सिर्फ जिया जा सकता है। प्रेम मे सिर्फ हुआ जा सकता है। प्रेम के संदर्भ मे कुछ इशारे जरुर किये जा सकते हैं पर इसे पूरा का पूरा बयां नही किया जा सकता। क्योेकि एक बात और जान लो जब षब्द मौन हो जाते हैं तब प्रेम मुखरित होता है। लिहाजा तुम भी इसे सिर्फ गूंगे के गुड सा स्वाद तो लो पर बखान मत करो, वैसे तो कर भी नही पाओगी। और, अगर कोषिष किया भी तो कोई खाश नतीजा नही आने वाला।
चुकि तुमने इस संदर्भ मे मुझसे कुछ कहने को कहा है तो मैने आज तक जो कुछ भी ‘प्रेम’ के बारे मे सुना है, पढा है अनुभव किया है उसे तुम्हे पूरी ईमानदारी से बताने की कोषिष करुंगा।
तो दोस्त सुनो ........... सबसे पहले इस प्रेम तत्व को समझने के लिये हम भारतीय वांगमय के सबसे पुराने दर्षन पे जाते हैं और देखते हैं येह इस संदर्भ मे क्या कहता है।
सांख्य की माने तो आदि तत्व ‘महतत्व’ दो तत्वों का योग है। महायोग। जो दो होकर भी एक हैं और एक होकर भी दो हैं। यानी ‘अद्वैत’। वही अनादि तत्व प्रक्रिति और पुरुष जब कभी परासत्ता की क्री इक्षावशात या यूं ही लीलावषात किसी विक्षोभ यानी रज; यानी क्रिया करती है तभी यह प्रक्रति और पुरुष अलग अलग भाषते हैं अलग अलग जन्मते और मरते हैं। अलग अलग जातियों में अलग अलग रुपों में। लेकिन ये दोनो अनादि तत्व एक बार फिर से एक ही होने की अनुभूति के लिये भटकते रहते हैं। उसी रज; यानी क्रिया के कारण जो किसी इड़ा की तरह श्रद्धा यानी प्रक्रिति को पुरुष यानी मनु से मिलने नही देती। कारण रज;यानी क्रिया का भी अपना आर्कषण है अपना प्रभाव है। इसलिये कहा जा सकता है जबतक क्रिया का आर्कषण कायम रहेगा तबतक श्रद्धा व मनु एकाकार नही हो पाते बार बार मिलने के बावजूद।
इसी बात को तंत्र इस तरह कहता है। आत्म तत्व जब परमात्म तत्व से अलग हुआ ‘अहं’ के रुप में तो उसी वक्त उसका प्रतिद्वंदी ‘इदं’ तत्व भी अलग हुआ था। पहला पुरुष प्रधान दूसरा स्त्री प्रधान। दोनो ही तत्व दो रुप एक ही सत्ता के अलग अलग दिषाओं में जन्म लेने लगे अलग अलग रुपों में फिर से एक बार मिल जाने की ख्वाहिष में।
जब कभी दोनो खण्ड एक दूसरे से फिर से एक बार मिल लेते है। तब एक अदभुत घटना घटती है। उसे ही कहते हैं राधा व कान्हा का मिलन। राम व सीता का मिलना। या फिर हीर का रांझा से मिलना या कि किसी सोहनी का महिवाल से मिलना।
तो मेरे हिसाब से ‘आत्म खण्ड’ के इन हिस्सों ‘इदं’ और ‘अहम’ के आपस मे दुबारा मिलने की जो तडप होती है और जो उसके लिये प्रयास किये जाते हैं उसी का नाम ही ‘प्रेम’ है।
इसको अब इस तरह से भी समझो।
‘प्रेम’ षब्द में हम यदि ‘प’ से प्रक्रति और ‘र’ से रवण यानी क्रिया व ‘म’ से पुरुष का बोध लें तो यह बात बनती है कि जब प्रक्रिति, पुरुष के साथ रवण या क्रिया करती है तो जीवन की जडों में एक धारा प्रवाहित होती है। जिसे ‘प्रेम’ की संज्ञा दी जा सकती है। यह प्रेम धारा ही उस जीवन को पुष्पित व पल्लवित करती रहती है साथ ही पुर्ण सत्य के खिलने और सुवासित होने देने का अवसर प्रदान करती है। यह धारा जीवन के तीनो तलों षरीर, मन और आत्मा के स्तरों पर बराबर प्रवाहित होती रहनी चाहिये। यदि यह धारा किन्ही कारणों से किसी भी स्तर पर बाधित होती है तो जीवन पुष्प या तो पूरी तरह से खिलता नही है और खिलता है तो षीघ्र ही मुरझाने लगता है।
यही रस धार यदि प्रथम तल तल पर रुक जाती है तो उसे वासना कहते है। यदि यह मन पर पहुचती है तो उसे ही लोक भाषा में या सामान्य अथों में ‘प्रेम’ कहते हैं। और फिर जब यह रसधार आगे अपने की यात्रा पर आत्मा तक पहुंचती है तब उसे ही ‘सच्चा प्रेम’ या आध्यात्मिक प्रेम कहते हैं। और उसके आगे जब ये रसधार गंगासागर में पंहुचती है तो वह ही ब्रम्ह से लीन होकर ईष्वर स्वरुप हो जाती है।
प्रेम जब प्रथम तल पे होती है तो वह कामवासना के रुप मे फलित होती है। जब वह सूक्ष्म षरीर की तरफ बढ़ती है तो प्रेम का रुप ले लेती है और जब यही प्रेम की धारा शरीर के तीसरे कारण शरीर को छूती है तब वह भक्ति बन जाती है।
तभी तो रामक्रष्ण परमहंस अपनी पत्नी को मॉ के रुप मे ही देख पाये और वे दुनियावी तौर पे कभी पति पत्नी की तरह नही रहे।
और इसी तरह मीरा का भी पेम क्रष्ण से कारण षरीर तक पहुंचा हुआ प्रेम है।
लिहाजा प्रेम को समझने के लिये हमे अपने षरीर के तीनो तलों तक की यात्रा करनी होगी तभी हम कुछ समझ पायेंगे उसके पहले तो सब कुछ वितंडामात्र है बातीं का खाली लिफाफा है। जिससे कुछ हासिल नही होने वाला है।
प्रेम जब पहले तल पे होता है तो सिर्फ प्रेमी के शरीर से मतलब होता है। वह उसे सुन्दर से सुन्दर देखना चाहता है। उसे भोगना चाहता है।
दूसरे तल पे वह सिर्फ देना चाहता है। इस तल पे प्रेमी शांति को उपलब्ध होते हैं और तीसरे तल पे आनंद को उपलब्ध होते हैं।
दोस्त हम इस इस संदर्भ मे आगे चर्चा करेंगे फिलहाल इतना ही।
तुम्हारा दोस्त ...............


चाँद जैसे ही झील में उतारना चाहता है

चाँद
जैसे ही झील में
उतरना चाहता है
लहरें कभी
कुनमुना कर
कभी मुस्कुराकर
करवट बदल लेती हैं
चाँद
कभी शरमा कर
कभी घबरा कर
फिर फिर
जा टांगता है
आकाश में
फिर वही से
देखता है
ठहरी हुई
नीली झील को

मुकेश इलाहाबादी -----

सूरज के आकर्षण में बिंधी पृथ्वी,


सूरज के
आकर्षण
में बिंधी
पृथ्वी,
अपनी धुरी पे नाचती हुई
अपने सूरज का
चक्कर लगा रही है

अहर्निश

अपने दोनों के दरम्याँ
की दूरी कम कर रही है
यह जानते हुए
भी कि जिस दिन वह
सूरज के आगोश में आएगी
वह भष्म हो जाएगी
उसका वज़ूद ख़ाक हो जाएगा

उधर सूरज भी
धरती के प्रेम से बेखबर
अपनी धुरी पे घूमता हुआ
अन्नत आकाश की
तमाम निहारकाओं के
चक्कर लगा रहा है
अहर्निश

सुमी ,
शायद हम तुम भी अपनी अपनी धुरी पे
घुमते हुए चक्कर लगा रहे हैं
अपने अपने सूरज के लिए


मुकेश इलाहाबादी ----------------

Thursday 25 February 2016

. यही खाब ही तो हैं जो मुझे भी जिदा रखे है

सुमी,

जानती हो, समन्दर की बेताब लहरों को तो एक बार रोका जा सकता है। तूफानो को कैद किया जा सकता है।  बेलगाम हवाओं को तो बांधा जा सकता है। मगर, दिल के आवारा अरमानों को नही रोका जा सकता है। अगर एक बार ये अरमानों के फलक मे कुलांचे भरने लगते हैं तो फिर ये रुकते ही नही न जाने कहां - कहां उडने लगते हैं।
अपने वीराने को छोड के या फिर अपने कफ़स को तोड के कल्पनाओं के पंख फडफडाते हुये चल देते हैं, अपने आशिक से मिलने और पलक झपकते ही अपनी मुहब्बत के साथ होते हैं, किसी बाग मे, किसी नदी के किनारे, किसी पर्वत पे या फिर अपनी मनचाही जगह पे जहां कोई नही होता सिवाय उसके और उसकी मुहब्ब्त के। वहां सिर्फ होता है खाब देखने वाला और उसकी मुहब्बत। और तब इस ख्वाबों खयालों की दुनिया मे वह अपने सारे अरमा पूरे करता रहता है, खुश होता रहता है। यह अलग बात कि ऑख खुलते ही वह फिर हकीकत की कठोर और तन्हा जमी पे फिर से खुद को रोता बिलखता पाता है।

मगर ये ख्वाब ही तो हैं जो इन्सान को अपनी मुहब्बत से जोडे रखते हैं। वस्ल की उम्मीद बने रहते हैं। सच, खाब ही तो हैं जो मुहब्बत को इतना हंसी और जवां बनाये रखते हैं ये खाब ही तो हैं जो अपनो से बिछड के उससे मिलन की झूठी ही सही मगर एक शुकूं तो देते है, और सुमी, एक बात जान लो खाब सिर्फ मुहब्बत मे नही देखे जाते हैं बहुत से मामले मे देखे जाते हैं यहां तब कि तुम ये जो सारा पसारा आलम देखती हो न, चाहे वो चॉद सितारे हो आसमॉ हो जमी हो या कि इन्सान हो सब कुछ उस रब ने तब ही बनाया होगा जब उसने ये सब बनाने का खाब देखा होगा। और फिर उसे तालीम किया होगा। वर्ना न ये चॉद होता न सितारे होते न तुम होती न मै होता और न ही ये दुनिया होती।
इसी तरह कोई मुसव्विर पहले कोई खाब देखता है तब जाके कोई तसवीर नुमाया होती है। कोई शाहजहां खाब देखता है और अपनी मुहब्ब्त के लिये ताजमहल तामीर कराता है। कोई गालिब कोई मीर खाब देखता है, तब जाके ग़जल का दीवान तैयार होता है।
ख्वाब फ़कत ख्वाब नही होते हैं, ये खाब मुहब्बत से लबरेज दिलों के लिये खाद पानी होते हैं जो आशिकों को उनकी मुहब्बत से बिछड के भी जोडे रखती है। हिज्र मे जीने का सबब बनती है।
लिहाजा मेरी जानू तुम ख्वाब को फक्त ख्वाब मत समझना। खाब हकीकत की पहली पायदान होते हैं। और ये भी जान लो जिस दिन इन्सान खाब देखना बंद कर देगा समझ लेना उस दिन ये दुनिया खतम हो जायेगी। मर जायेगी।
और ............. यही खाब ही तो हैं जो मुझे भी जिदा रखे है युगों युगों से एक जमाने से इस तनहा वीराने मे। जहां मै हर रोज ख्वाब देखता हूं तुमसे मिलने के तुमसे बतियाने के तुम्हारे साथ दिनो रात बिताने के। सच सुमी ये खाब न होते तो मै इन पत्थरों के बीच रह रहा के खुद भी पत्थर हो गया होता और एक दिन रेत सा बिखर गया होता।
मगर ये खाब ही हैं जो मुझे जिंदा रखेंगे तब तक जब तक कि तुम मेरी और मै तुम्हारा नही हो जाता। तुम्हारा नही हो जाता।

मुकेश इलाहाबादी ...................

Tuesday 23 February 2016

वो तो खारा बहुत समंदर निकला


वो तो खारा बहुत समंदर निकला
जिस्म मोम दिल पत्थर निकला

जिसको समझा, अपना  सबकुछ
दुश्मन  से  भी वो  बदतर निकला


सोना खरा मान रहे थे जिसको हम
खोटे सिक्के से भी कमतर निकला

मुकेश इलाहबदी ---------------------

Monday 22 February 2016

उनींदी आँखों का सच

नींद ने
दगा दे दिया
या,
मैंने ही,
नींद से पल्ला
छुड़ा लिया
ये तो पता नहीं
पर,
ये सच है
वर्षों पहले
तुम्हारे जाने के बाद से
आज तक
नींद भर, सोया नहीं 

(सुमी ! मेरी उनींदी आँखों का
सच तो यही है )

मुकेश इलाहबदी ---------

Monday 8 February 2016

प्रेम गली अति सांकरी

सुमी,
 
सुना है, किसी सयाने ने कहा है।  ' प्रेम गली अति सांकरी, जा में दुई न समाय'
जब कभी सोचता हूँ इन पंक्तियों के बारे में तो लगता है, ऐसा कहने वाला, सयाना 
रहा हो या न रहा हो, पर प्रेमी ज़रूर रहा होगा,जिसने प्रेम की पराकष्ठा को जाना होगा
महसूस होगा रोम - रोम से , रग - रेशे से, उसके लिए प्रेम कोई शब्दों का छलावा न
रहा होगा, किसी कविता का या ग़ज़ल का छंद और बंद न रहा होगा, किसी हसीन
शाम की यादें भर न रही होगा -
उसके लिए तो प्रेम अपने और अपने प्रेमी के अस्तित्व का अनुभव भर नहीं पूरी समष्टि
और सृष्टि का अनुभव रहा होगा - प्रेम।
तभी तो उसने
ये बात कही होगी - प्रेम गली अति सांकरी।
हाँ !!  वो बात दीगर उसकी महबूबा कोई
हाड- मॉस की रही हो या फिर ईश्वर रहा हो या की 'सत्य' रहा हो.
पर इतना सच है,
उसने प्रेम की पराकाष्टा को छुआ होगा।
शायद तभी ये कह भी पाया होगा।  
एक बात जान लो सुमी, ये तो सच है 'प्रेम'  कोई राजपथ नहीं है जिसपे शान से चला जा
सके।  प्रेम की गली में तो राजा रानी को भी सट सट के चलना होता है, खाई खंदक से
बच - बच के निकलना होता है , वरना तो , ज़रा सा चूके और गए, तभी तो आज तक जिसने
भी प्रेम किया उसने ही 'प्रेम' को 'गली' कहा या 'डगर' कहा।  राजपथ तो किसी ने नहीं कहा।
और इन सयाने ने तो इस गली को यहाँ तक संकरी कह दिया कि इस गली में तो दो
हो कर जा ही नहीं सकते।  क्यूँ की जब तक दो है तब तक प्रेम का दिखावा हो सकता
है।  नाटक हो सकता है।  पर प्रेम तो कतई नहीं हो सकता।
क्यों कि प्रेम की गली में आते ही 'द्वैत' तो अद्वैत हो जाता है।  'अद्वैत' समझती हो न ?
अद्वैत - का अर्थ होता है।  जो दो न हो। अद्भुत शब्द है जो भारतीय मनीषा ने दुनिया को दिया है।
अद्वैत - जो दो न हो - क्यूँ की एक कहने से लगता है दो होगा कहीं न कहीं।
क्यों कि दो के बिना एक भी नहीं हो सकता।  और जब एक होगा तो दो भी होगा , तीन भी होगा
और अनंत भी हो सकते हैं।  इसी लिए सत्य को , परम सत्य को 'अद्वैत' कहा जाता है।
जो दो न हो।  जो दो जैसा भाषता तो हो।  पर दो न हो। 
तो मेरे देखे प्रेम की गली से गुज़ारना 'अद्वैत' की गली से गुज़ारना है।  जहाँ दो जिस्म हो सकते हैं.
 दो रूह हो सकती है।  दो साँसे आती जाती लग सकती हैं।  पर वे सतह की बातें हैं। 
तल पे एक ही हैं।  सतह पे दो लहरें हो सकती हैं।  पर सागर में दोनों लहरें एक ही हैं।
तभी तो दो प्रेम करने वालों के लिए कहा जाता है।  ये 'दो जिस्म एक जान हैं'
प्रेम की भावदशा में।
एक साँस लेता है तो दुसरे का दिल धड़कता है।
एक का दिल धड़कता है तो दुसरे के जिस्म में हरक़त होती है।
और यही अवस्था जब और और और गहराती जाती है।
तो वह अवस्था 'अद्वैत' की अवस्था होती है। 
उसी अनुभव को कोई सायना ' अनलहक' कहता है।  कोई 'अहम ब्रम्हास्मि' कहता है।
पर ये सभी हैं उसी 'प्रेम' के परम अनुभव। अद्वैत के अनुभव।
एक बात और जान लो।  प्रेम की अवस्था में -
न 'मै' रहता है
न 'तुम' रहता है
न 'हम ' रहता है
वहां तो सिर्फ और सिर्फ वही रहता है - ब्रम्हा - परम सत्य - जो सिर्फ और सिर्फ ' प्रेम' है।  जहाँ
दो नहीं है - सब कुछ एक है एक है एक है।
आओ हम भी प्रेम में उतरें और उस परम सत्य को अनुभव करें। 
जहाँ पे -- सीता और राम   -----     सीताराम हो जाता है
जहाँ पे --- राधा और कृष्ण  ----     राधेकृष्ण हो जाता है
जहां पे 'अद्वैत' घट जाता है। 

जहाँ  पे 'जिस्म नहीं,  रूह ही नहीं।  सिर्फ और सिर्फ ' प्रेम' रहता है।
बिशुद्ध 'प्रेम'
बस इनता ही।

मुकेश इलाहाबादी --------------------------





Saturday 6 February 2016

नाज़ुकी से किसी ने मुझको तराशा ही नहीं

नाज़ुकी से किसी ने मुझको तराशा ही नहीं 
वर्ना हम भी कोहिनूर से कुछ कम तो नहीं 

मुकेश इलाहबदी -------------------------

Friday 5 February 2016

जमे हुए ज़ख्म पिघले होंगे

जमे हुए ज़ख्म पिघले होंगे
आँख से आँसू तब बहे होंगे
किसी ने तो दुलराया होगा
दर्द के किस्से तब कहे होंगे
कुछ तो हमदर्दी रही होगी
तभी तेरे  किस्से  सुने होंगे 
तमाम सर्द रातें काटी होंगी
तभी तो ये ज़ख्म जमे होंगे
तमाम रात बातें की उनने 
वे, मुद्द्तों बाद मिले होंगे 
मुकेश इलाहाबादी ---------

Thursday 4 February 2016

कोई मसले और फूल सा बिखर जाऊँ

कोई मसले और फूल सा बिखर जाऊँ
मै लोहा भी नही,कि साँचे में ढल जाऊँ
ये और बात गुलशन की शिफत अपनी
प्यार मिलते ही मै ,फूल सा खिल जाऊँ
मै सूरज हूँ धूप सा बिखरा हूँ हर सिम्त
ज़रा खिड़खी तो खोल,तो मै नज़र आऊँ

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

मेरी कविता में

मेरी
कविता में
खिलता है
सिर्फ एक फूल
थोड़ी सी खुशबू
एक इन्द्रधनुष
और .
होती हो 'तुम"

और -- तुम्हारी कविता में ????

मुकेश इलाहबदी -------------------

तथागत (बुद्ध) से कम नहीं

शहर बन चुके
कस्बे के
बेहद 
पुराने मोहल्ले के
पुराने मकान की
टूटती मुंडेर वाली छत पे
जिसपे
जाड़े की धूप
चटाई सा बिछी है
उस चटाई के ऊपर
एक फटी दरी पे
असमय झुराती काया
महंगाई
आतंकवाद
बेरोजगारी
जैसी तमाम समस्याओं से
खुद को अलग कर के
धूप सेंक रहा है

वो धूप सेंकती काया
मुझे किसी तथागत (बुद्ध) से
कम नहीं लग रही है 

मुकेश इलाहबदी ------------
 

Wednesday 3 February 2016

वक़्त उड़ रहा है

वक़्त
उड़ रहा है
फर फर फर 
बिन परों के

हम वही गड़े हैं
मील के पत्थर सा
उड़ने की चाह में

मुकेश इलाहबदी -----

प्रतिफलन

कानों मे
सारंगी
बजती है

आँखों में
इन्द्रधनुष
लहराता है

ये सब
मेरा मतिभ्रम है
या,
तुमसे मिलने का प्रतिफलन ?

मुकेश इलाहबदी --------------



अनखिले रह जाते हैं

कुछ फूल
अनखिले
रह जाते हैं

एक
खूबसूरत कविता
लिखे जाने से
चूक जाती है 

(जिस दिन तुमसे
मुलाक़ात नहीं होती
बात नहीं होती)

मुकेश इलाहबदी --------

तुम्हारे पास वक्त ही कहां है ?

तुम्हारे पास
वक्त ही कहां है ?

सुबह की आपा धापी के बाद
जब
बच्चे स्कूल
और पति आफिस जा चुके होते हैं
काम वाली
झाडू पोछा लगा के
बर्तन और कपडे साफ कर के    
जा चुकी होती है
तब भी तो बहुत से काम होते हैं
मॉ को फोन करके हाल चाल लेना है
पिताजी को वक्त से दवाई लेते रहने
की हिदायत देनी होती है
भाई के बारे मे जानना होता है
जाडा जाने वाला है
सारे कपडों को धूप दिखा के बक्से मे रखना है
बच्चों ने उस दिन अलमारी खोली थी
सब कुछ उलट पुलट कर दिया था
पडोसन की सास आयी है
मिलने जाना जरुरी है
फिर कुछ देर आराम और
मनोरंजन भी तो
इन्सान के लिये जरुरी है

सच तुम्हारे पास
एक अकेली जान के पास कितने तो काम रहते हैं
भला इतने कामो के बीच हमे कैसे याद कर सकती हो

तुम सही कहती हो मेरे पास तो सिवाय तुम्हे याद करने के
कोई काम ही नही है।

मुकेश इलाहबदी ----------





Tuesday 2 February 2016

राख कुरेदता हूँ

आग
बुझ चुकी है
राख बाकी है
रह रह के
राख कुरेदता हूँ
भीतर राख से
लिपटे कुछ अंगारे शेष हैं
मुह अलाव के पास
ले जाकर फूंकता हूँ
अंगारे चमकने लगते हैं
सुर्ख सेव सा
तुम्हारे गाल याद आये
कुछ राख उड़ के
आँखों में आ गयी
गमछे से
राख और आँसू
पोंछूँगा
और अलाव की
सोंधी सोंधी गमक
में ऊँघता रहूंगा
और खाब में
देखूँगा तुम्हे
बहुत देर तक

मुकेश इलाहबदी --------







तुम्हे याद रखता हूँ

काम के
वक़्त भी
तुम्हे याद रखता हूँ
फिर
फुर्सत मिलते ही
तुम्हे,
पूरी तफ्सील से
याद करता हूँ

मुकेश इलाहाबादी --------- 

चुप्पी


चुप्पी में
कई चीखते हुए सवाल हैं
शायद
जिनके उत्तर
किसी भी पोथी
किसी भी दिग्ग्दर्शिका
किसी भी धर्मग्रन्थ
में नहीं हैं
अगर रहे भी हों तो
उन्हें मिटा दिया गया है
हमेसा हमेसा के लिए
ताकि
इन चुप्पियों से
कोई आवाज़ न उठे
चुप करने वालों के ख़िलाफ़

मुकेश इलाहबदी -------------

मसखरे भाई!

मसखरा,
रोता तो हम हँसते
मसखरा
बेवकूफियां करता
तो हम हँसते
मसखरा
ज़ोर ज़ोर से
ताली बजा के
पागलों सा हँसता तो
हम कहकहे लगाते
पर, उस दिन
मसखरा
बहुत उदास दिखा
हमने पूछा
'क्यूँ मसखरे भाई!
आज तक हमने तुम्हे
हँसते देखा है
या फिर रोते देखा है
उदास तो  कभी नहीं देखा
तुम्हारे चेहरे पे ये उदासी क्यूँ ?'
मसखरा, कुछ और उदास हो गया
कहने लगा
दरअसल बात ये है,
आज कल हमारा धंधा
ख़त्म हो गया है,
क्यूँ कि मसखरी
बेवकूफियां
और बेहूदगीयां
अब नेता, मौलवी और धर्म गुरू करने
लगे हैं, लिहाज़ा मेरे पास अब काम ही नहीं बचा
इसी लिए मै उदास हूँ,

यह सुन कर मै भी
उदास हो गया

अब मै और मसखरा दोनों ही उदास हो चुके थे

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------


अलसाया सूरज भी जब रात

सुमी,
मुझे मालूम है
अलसाया
सूरज भी जब
रात के पहलू से
निकलने के लिए
सोच रहा होता है
उसके पहले ही
तुम छोड़ चुकी
होती होगी लिहाफ
झाड़ू पोछा
नहाना धोना
पूजा पाठ निपटा कर
नास्ते की तैयारी कर के
बच्चों को जगा रही होती हो
स्कूल जाने के लिए
बच्चों के बाद पति के ऑफिस जाने
की तैयारी
उसके बाद भी तो
तमाम काम होते होंगे
जिन्हे निपटना होता होगा
चकरघिन्नी सा
नाचते रहना होता होगा
चकले - बेलन के बीच
गोल - गोल घूमती रोटी सा
इन सब के
बीच भी
कुछ कुछ देर में
अपने ऍफ़ बी एकॉउंट स्टेटस
देख लेती होगी
और मेरे नोटिफिकेशन को
पढ़ती होगी
लाईक भी करती होगी
पर बिना कुछ कमेंट किये
आगे बढ़ जाती होगी
दुसरे नोटिफिकेशन्स पढ़ने के लिए
मेरे बारे में
मुस्कुरा कर सोचते हुए

मुकेश इलाहबदी ---------

Monday 1 February 2016

ये मत कहना मै झुट्ठा हूँ

तुम्हारे,
सपने में
आते हैं
कंगना, पायल
बिछिया, झुमका
लहंगा
चाँद, तारे,फूल
खुशबू
सावन
झूला
और
मेरे सपने में
सिर्फ 'तुम'

(अब, ये मत कहना मै झुट्ठा हूँ )

मुकेश इलाहाबादी --