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Friday 30 November 2018

दिन सितारों ने चाँद से कहा

इक,
दिन सितारों ने
चाँद से कहा
"तुम बेवज़ह ख़ुद पे इतराया न करो
तुमसे ज़्यादा खूबसूरत और हसीन चाँद ज़मीन पे हमने देखा है,
तुम्हारे चेहरे पे तो दाग़ ही दाग़ हैं
पर उस ज़मी के चाँद का चेहरा बेदाग़ है
तुम तो सूरज की रोशनी पा के चमकते हो
वो तो अपनी चमक से चमकता है
तुम उगते हो तो तुम्हारी चाँदनी सिर्फ धरती तक जाती है
उस ज़मी के चाँद की चमक तो पूरे क़ायनात तक है
तुम कभी घट के तो कभी बढ़ के तमाम अदाएं दिखाते हो
उस ज़मी के चाँद की तो हर बात ही अदा है
वो चाहे - सादगी हो
मुस्कुराना हो
चुप रहना हो
की घूंघट में हो
या बे नक़ाब हो
सच उस ज़मी
सच उस ज़मी के चाँद के दीदार को
इंसान ही नहीं
फ़रिश्ते भी तरसते हैं
और हम भी अब तो उसी के दीदार को तरसते हैं

ये सुन के चाँद
बहुत दुःखी हुआ
और तब से सितारों से ख़फ़ा है
पर जब उसने पूछा
कि वो कौन सा ऐसा चाँद है
जो मुझसे ज़्यादा हँसी और प्यारा है

तो सभी सितारों ने
एक साथ कहा - "सुमी है ! सुमी है ! सुमी है !"

सुन रही हो न मेरी प्यारी सुमी ??


मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Thursday 29 November 2018

तुम बिन उचटा-उचटा मन

तुम बिन उचटा-उचटा मन
कंही भी तो नहीं लगता मन

तुम  पास बैठी रहो हर दम
तुझे देखता रहूँ चाहता मन

तेरा नाम मेरी हथेली पे नहीं
ये बात क्यूँ नहीं मानता मन

तुम खिलखिला देती हो तो
है दिन भर खुश रहता मन

कभी मेरी धड़कने सुन लो
देखो तो, क्या कहता मन

मुकेश इलाहाबादी --------

Wednesday 28 November 2018

नदियां पाटते पहाड़ काटते जाएंगे

नदियां पाटते पहाड़ काटते जाएंगे
हम सिर्फ तबाही का मंज़र पाएंगे

ज़ुबान होगी मगर बोल नहीं पाएंगे
हमारे सारे अलफ़ाज़ गूंगे हो जाएंगे

इंसानियत जिस तरह दम तोड़ रही
इंसान एक दिन पत्थर के हो जाएंगे 

अभी वक़्त है धरती बचा लो वरना 
बरबादी देवता भी नहीं बचा पाएंगे

जिस तरह हम बर्बर होते जा रहे हैं
फिर से हम गुफाओं में पाए जायेंगे

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Tuesday 27 November 2018

उसकी दास्ताँ कुछ और देर सुना होता


उसकी दास्ताँ कुछ और देर सुना होता 
यकीनन फ़फ़क फफक कर रोया होता 

चिंगारियाँ फिर से लपट में बदल जातीं
गर मैंने कुछ और देर,राख़ कुरेदा होता

थकन उसके चेहरे पे साफ़ दिख रही थी
मै छाँह बनता तो, कुछ और रुका होता

यकीनन वो बादल था आब से लबालब
हवाएँ उसे बहा ले गईं वरना बरसा होता

मुझे धीमे उसे तेज़ चलने की आदत थी
वरना आज वो मेरा हमसफ़र बना होता 

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Monday 26 November 2018

रात फिर ग़ज़ले खामोशी सुनाएगी

रात फिर ग़ज़ले खामोशी सुनाएगी 
शब भर फिर तुम्हारी याद आएगी

मै देर तक सोचूंगा तुम्हारे बारे में
फिर-फिर ये आँखे नम हो जाएँगी

उदासी के बादल गरजेंगे - बरसेंगे
आँसुओं से  कुहनी  भीग  जाएगी

शुबो बुलबुल मुंडेर पे फिर आएगी
आवाज़ देते ही फुर्र से उड़ जाएगी

जितना मै दर्द कागज़ पे लिक्खूँगा
उतना, बदनसीबी खिलखिलाएगी

 
मुकेश इलाहाबादी ----------------

Sunday 25 November 2018

भाई को भाई से लड़वाएं ऐसे हमारे राम नहीं हैं

भाई को भाई से लड़वाएं ऐसे हमारे राम नहीं हैं
अपने लिए मंदिर चाहें, ऐसे हमारे राम नहीं हैं

संसार के ज़र्रे ज़र्रे में जिनकी सत्ता जिनका घर
इक ईमारत में समां जाएँ ऐसे हमारे राम नहीं हैं

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

पाँव में ज़ंज़ीर नहीं बाँधी गयी है

पाँव में ज़ंज़ीर नहीं बाँधी गयी है
दौड़ने की इज़ाज़त भी नहीं दी है

सरदार जब मन की बात सुनाए
सिर्फ हुँकारी भरो बोलना नहीं है

पत्थर  की नाव पत्थर के केवट
पार जाना है और रेत् की नदी है

हम सतत विकास के रस्ते पे हैं
सिर्फ चलते रहो रुकना नहीं है

हमारी सिर्फ टाँगे सीधी मिलेंगी
बाकी रीढ़ व गर्दन दोनों झुकी है

मुकेश इलाहाबादी -------------

Friday 23 November 2018

सुना है, लाल और काले पे प्रतिबंध लगा दिया गया है

सुना है,
लाल और काले पे
प्रतिबंध लगा दिया गया है

हरा तो पहले से ही संदेह के घेरे में है

इनके अलावा बाकी बग़ावती रंगो की पहचान की जा रही है

हमने तो ये भी सुना है
सरदार को सिर्फ गेरुआ रंग पसंद है
इसलिए सारी सरकारी ग़ैर सरकारी सभी इमारतें और मकान गेरुआ रंग मे तब्दील कर दिए जाएंगे

सिर्फ इमारतें ही नहीं
सड़कें, पुल, पेड़, पौधे, मंदिर, मस्जिद, असमान और बादल सभी कुछ गेरूए रंग में रंगे जाएँगे

लिहाज़ा जिन्हे और कोई रंग पसंद है
वे खुशी से बस्ती और कबीला छोड़ कर जा सकते हैं

मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,

किसी अदृश्य बेड़ियों से बंधे हुए

किसी अदृश्य बेड़ियों से बंधे हुए
चले जा रहे हैं सिर झुकाये हुए

थका हुआ जिस्म ये कह रहा है 
मुद्दतें  हो गयी आराम किये हुए

आईने ने मुझसे शिकायत ये की
तुम्हे दिनों हो गये चेहरा देखे हुए

उदासियों के बादल कुछ छंटे तो
याद आया सालों हो गए हँसे हुए

आज बैठे - बैठे ये मै सोच रहा था 
इक ज़माना हुआ तुमसे मिले हुए

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Thursday 22 November 2018

फ़िज़ाएं महकने लगती हैं

फ़िज़ाएं महकने लगती हैं
हवाएँ   ठुनकने लगती हैं

तुम्हारे आने से महफ़िल
खुशी से चहकने लगती है

जो रिन्द नहीं उनकी भी
चाल  बहकने  लगती है

बेकाबू हो के मेरी धड़कने
तेज़ तेज़ चलने लगती हैं

मुकेश इलाहाबादी --------

Wednesday 21 November 2018

यूँ तो उसने मुझसे रंजिश रक्खा बहुत

यूँ तो उसने मुझसे रंजिश रक्खा बहुत
फिर भी मिला तो लिपट के रोया बहुत

पहले तो, हिचकियाँ ले रोता रहा, फिर
अपने बारे में कहा,मेरा भी सुना बहुत

उसकी आँखे झील व निगाहें शिकारा
पहलु -ऐ - कश्मीर  में  मै रहा  बहुत

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

पहले मुँह में ताला जड़ा गया

पहले
मुँह में ताला जड़ा गया
आँखों पे पट्टी बाँधी गयी
हथेलियों को ज़मीन पे रखवा के
चौपाया बनाया गया
पीठ पे जीन कसी गयी
फिर चाबुक चलते हुए दौड़ाया गया
क्यों कि सरदार ने कहा
हमें विकास के रस्ते पे जाना है
लिहाज़ा ये ज़रूरी है
कुछ लोग सरदार के कहने से घोड़े बन कर खुश हो गए
सरपट - सरपट दौड़ने लगे
पर कुछ ने विरोध किया
कोड़े खाए - दुलत्ती चलाने और न दौड़ने के एवज़ में
और जिन घोड़ों ने फिर भी दौड़ने से मना कर दिया
उन्हें गोली मार दी गयी
और - कारवां बढ़ने लगा - विकास के रस्ते पे
या फिर - सरदार के अहम् के रस्ते पे

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

इक बेवफा मेरे हिस्से में रहा

इक
बेवफा मेरे हिस्से में रहा
लिहाज़ा,
दर्द मेरे किस्से में रहा

जिस
दिन से मंज़िल ने, मुझसे मुँह मोड़ लिया
उस दिन के बाद
उम्र भर मै रस्ते में रहा

उस
चाँद के सिवा
कोइ सितारा रास न आया
लिहाज़ा,
शब् भर मै अँधेरे में रहा 

मुकेश इलाहाबादी ---------------

Tuesday 20 November 2018

काश !

काश !
तुम्हारे जाते ही
क़यामत आ जाए
और - तुम्हारे आते ही
दुनिया फिर से बहाल हो जाए

मुकेश इलाहाबादी ----------

Monday 19 November 2018

स्त्री होना आसान नहीं है

स्त्री
होना आसान नहीं है
स्त्री होने के लिए
धरती सा धैर्य
जल सी तरलता
हवा के स्पर्श सी मादकता
आकाश सी विशालता
और अग्नि सा तेज़ चाहि होता है
जिस दिन पुरुष थोड़ा थोड़ा स्त्री होना सीख लेगा
उस दिन धरती नरक नहीं स्वर्ग कहलाएगी

मुकेश इलाहाबादी ------------------

आप की तस्वीर डाउनलोड करूंगा

सुना
है, ऐसा सॉफ्टवेयर आने वाला है
जो किसी भी व्यक्ति की तस्वीर को
डाउनलोड करने से उस व्यक्ति का क्लोन डाउन लोड हो सकेगा
आप उससे सच्ची मुच्ची के व्यक्ति की तरह बात कर सकोगे
हंस सकोगे लड़ सकोगे
सच -
उस दिन सब से पहले आप की तस्वीर डाउनलोड करूंगा
और खूब बातें करूंगा

मुकेश इलाहाबादी ---

Thursday 15 November 2018

अदृश्य नदी बह रही थी

एक
अदृश्य नदी बह रही थी
हमारे - तुम्हारे दरम्यान

इस तरफ मै था
उस तरफ तुम थी
और तुम्हारा गाँव

एक दिन मैंने इस नदी को पार कर
तुम तक
और तुम्हारे गाँव आने के लिए नदी में उतरा

मेरे उतरते ही
नदी अदृश्य हो गयी
साथ ही अदृश्य हो गईं तुम और तुम्हरा गाँव भी

नदी की जगह उग आया एक अंतहीन रेगिस्तान
जिसपे मै बहुत देर तक औंचक खड़ा रहा
सोचता रहा तुम्हारे और तुम्हारे गाँव के बारे में

फिर मै - दौड़ने लगा
यह सोच कर
शायद वह अदृश्य नदी राह बदलते - बदलते
इस रेगिस्तान के पार चली गयी हो
साथ ही तुम व तुम्हारा गाँव भी रेगिस्तान के पार चला गया हो

तब से दौड़ रहा हूँ मै बेतहासा
लगातार
बिना कुछ सोचे - बिना कुछ समझे
यहाँ तक कि अब तो मै थकने भी लगा हूँ
हांफने भी लगा हूँ बुरी तरह
मेरे कदम लड़खड़ा रहे हैं - बुरी तरह
मै गिरने - गिरने को हूँ
फिर भी - दौड़ रहा हूँ - इस उम्मीद में

शायद किसी दिन इस रेगिस्तान के पार
पहुँच ही जाऊँ - मै तुम तक - और - तुम्हारे गाँव तक

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

आसान नहीं है - पत्थर होना भी

इतना
आसान नहीं है - पत्थर होना भी

पत्थर होने के लिए
अपने जिस्म को कठोर और
इतना कठोर बनाना पड़ता है
कि धूप , हवा , पानी
और आंधी तूफ़ान भी कुछ न बिगाड़ पाए
सदियों सदियों तक

और खुद को इतना निर्विकार बना ले कि
पैरों तले रौंदा जाए
या देवता बना के पूजा जाए
फिर भी उसकी सेहत पे कोइ फर्क न पड़े

बारूद और हथौड़े से तोड़े जाने पे भी प्रतिवाद न करे
और कभी सड़क तो कभी रोड़ी बन के काम में आये

और चुप रहे

इसी लिए कहता हूँ ,
किसी को पत्थर दिल कहने के पहले - कई बार सोच लेना
कंही तुम - पत्थर की तौहीनी तो नहीं कर रहे हो ??

क्यूँकि पत्थर होना भी इतना आसान नहीं होता

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

Tuesday 13 November 2018

घर खो गया है

कई
साल हुए मेरा घर खो गया है
आधी कच्ची
आधी पक्की दीवारों का
खपरैल वाला घर
बुरादे वाले वाली अंगीठी
कच्ची मिट्टी के चूल्हे वाला घर
पिता की धनक
माँ की महक
भाई बहनो की चहक
मामा - मामी , बुआ - फूफा
ताई - ताऊ - मौसी मौसा
तमाम रिश्तेदारों की आवाजाही से
भरापूरा घर
दादा जी की छड़ी
दादी की पूजा की थाली और तुलसी की माला
पिताजी जी की पुरानी हिन्द साइकिल
माता जी का वो भूरा शॉल
(जिसे वो सालोँ साल नया वाला शॉल कहती थीं )
दुछत्ती पे छुपा के
रखी रहती थी लूटी हुई पतंगे - चरखी
आँगन के कोने में
बहन का घरौंदा
छोटे - छोटे खिलौनों वाली गृहस्थी
पड़ोसियों की बेलाग आवाजाही
तमाम अभावों और कमियों के बीच भी
वो कच्ची दीवारों का
पक्का माकन कहीं खो गया है
हमारा
कई साल पहले
मुकेश इलाहाबादी --------------------

Monday 12 November 2018

आसमाँ पे घर बसाया नहीं जा सकता

आसमाँ पे घर बसाया नहीं जा सकता 
और ज़मी पे अब रहा नहीं जा सकता

हालात इतने बदतर हो गए हैं शहर के 
कब कहाँ क्या हो कहा नहीं जा सकता

बेहतर है घर में रहो, तेज़ाबी बारिश है 
छाते,बरसाती से बचा नहीं जा सकता

ये बस्ती नक्कार खाने में बदल चुकी है 
कुछ, भी सुना सुनाया नहीं जा सकता

हर कोई तो यहाँ पे राजा है बादशाह है 
किसी को कुछ कहा नहीं जा सकता

मुकेश इलाहाबादी ---------------

दिलों में डर,डेरा जमाये बैठा है

दिलों में डर,डेरा जमाये बैठा है 
उजाला कहीं मुँह छुपाये बैठा है 

नए परिंदे सयाने हैं, जानते हैं 
बहेलिया जाल बिछाये बैठा है 

हँसी उसी चेहरे पे मिलेगी, जो  
लाखों - करोणों कमाये बैठा है 

उसे खुदी पे, भरोसा क्या हुआ 
हाथ की लकीरें मिटाये बैठा है 

मुकेश ने, उम्र भर बोझ ढोया 
बुढ़ापे में काँधे झुकाये बैठा है 

मुकेश इलाहाबादी -------------

Saturday 3 November 2018

वो तो आदतन मुस्कुराता रहता हूँ

वो तो आदतन मुस्कुराता रहता हूँ
वर्ना ज़्यादातर तो ग़म ज़दा रहता हूँ

अपनी सारी ख्वाहिशें दफन कर के
अपने ही वज़ूद की कब्र में रहता हूँ

स्याह रातों को जब नींद नही आती
सीने के ज़ख्मों को गिना करता हूँ

वक़्त के दरिया में ख़ुद को डाल कर
अक्सरहाँ मै दूर तक बहा करता हूँ

मुझ अवारा से कोई बात नही करता
अपनी तन्हाई से बतियाया करता हूँ

मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,

मेरे अंदर एक निर्मल जल से आपूरित नदी और एक बहुत मीठे पानी का झरना बहता था

बहुत
पहले मेरे अंदर एक
निर्मल जल से आपूरित नदी और
एक बहुत मीठे पानी का झरना बहता था
बहुत दिनो तक
जिससे मेरी आँखे पानीदार और वज़ूद रसमय - रसमय दिखता था
पर वक़्त की मार से
नदी और झील दोनों सूखते चले गए, अब वहां पे रेत की नदी बहती है
इसी तरह मेरे अंदर
एक मज़बूत पहाड़ था
सीने पे तमाम फलदार पेड़ और औस्‍धियों के झाड़ हुआ करते थे
जिसपे मुहब्बत के परिंदे
चहचहाय करते थे
और ये पहाड़ बड़े से बड़े आंधी तूफान मे भी अडिग रहता
पर वक़्त की मार से
पहाड़ पहले तो
टूट टूट कर चट्टानों में तब्दील हुआ फिर
छोटी छोटी कंकरियों में
तब्दील हुआ
अब वही पहाड़
वक़्त की मार से रेज़ा रेज़ा टूट कर
रेत की नदी सा बह रहा है
यहाँ तक कि
सिर्फ नदी, झील और झील के अलावा मेरे
मन के फलक़ पे भावों के बादल भी हरहराते थे
जिसकी बारिश से रिस्तों की खेती लहलहाती थी
गाहे बगाहे कविता कहानी के रूप में कागज़ पे मुस्कुराती थी
पर वक़्त की मार ने इन
बादलों को भी सुखा दिया है
और अब मेरा पूरा का पूरा वज़ूद
इस खुले आकाश के नीचे
रेत की नदी सा बह रहा है
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,

धरती को जानने के लिए, पहले बीज बनना होता है

धरती
को जानने के लिए, पहले बीज बनना होता है
धरती के नीचे गुप्प अँधेरे मे दबे रहना होता है
खुद के वज़ूद को सड़ाना होता है
नष्ट करना होता है
तब कंही बहुत दिनो बाद
अंकुआओगे
पौधा बनोगे
पेड़ बन के तनोगे तब तुम
धरती को थोड़ा बहुत जान पाओगे
वर्ना, उसके पहले तो तुम
सिर्फ,
धरती पे पैदा होगे
चलोगे - फिरोगे
खाओगे - पियोगे
हगोगे - मूतोगे
धरती को नष्ट करोगे
और एक दिन इसी धरती की माटी में माटी हो जाओगे, लेकिन धरती को नही जान पाओगे
इसलिए धरती को जानने के लिए
हमारा बीज बनना और खुद को मिटाने के लिए तैयार होना बहुत ज़रूरी है
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,

मीठे पानी का दरिया बन जाऊँ क्या

मीठे पानी का दरिया बन जाऊँ क्या
प्यासों की जी भर प्यास बुझाऊँ क्या

नककार खाने में मुझे कौन सुनेगा
मै भी जोर जोर ढोल बजाऊँ क्या

प्यार की कलियाँ सब मसल देते हैँ
वज़ूद मे अपने थोड़े खार उगाऊँ क्या

रिश्तों के पौधे सूख रहे हैं सोचता हूँ
इक बार फिर सब से मिल आऊँ क्या

जिसको देखो झूम रहा है मुकेश
इक दो पैग मै भी पी कर आऊँ क्या

मुकेश इलाहाबादी,,,,,,,,,,,