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Wednesday 30 March 2016

पहले मेरी प्यास को जगाया गया

पहले मेरी प्यास को जगाया गया
फिर बहते दरिया को सुखाया गया
रेत् पे नज़्म लिखने को कहा,फिर 
नाज़ुक  उँगलियों से मिटाया गया
नए नए अदाओं के तीर ले के आये
उन तीरों को मुझीपे आजमाया गया
मुकेश इलाहाबादी -----------------

स्वार्थी - मैं

स्वार्थी - मैं
--------

कल
मेरे सामने
गुनाह हुआ
मेरी आँखों ने नहीं देखा

उस दिन
कोइ मदद के लिए
चिल्ला रहा था
मेरे कानों ने
नहीं सुना

लोग
अन्याय के खिलाफ
बोल रहे थे
मेरे मुख्य से
एक शब्द नहीं निकला

कौन झंझट मोल लेता ?

लिहाज़ा
अब मैं अपने
मुंह, कान और आँखों को
बंद कर के
रज़ाई ओढ़ के सो रहा हूँ
चैन और शकूं की नींद

मुकेश इलाहाबादी --





देखना एक दिन

देखना
एक दिन
जोतने और
खाद डालने के बावजूद
पेड़ उगना बंद कर देंगे
और फल देना भी

और
गौरैया भी
मुंडेर पे नहीं बैठेगी
अगर बैठी भी तो
उड़ जाएगी जंगल की तरफ

पर,
तब तक
जंगल भी अपना लावलश्कर समेट के
जा चूका होगा
किसी और पृथ्वी पे उगने के लिए
उसके साथ
गौरैया भी फुर्र फुर्र कर के उड़
चुकी होगी


तब रह जाएगा
फक्त आग का दहकता गोला
और ठगे से हम

मुकेश इलाहाबादी -------------


लिखना तो बहतु कुछ चाहता था

लिखना तो
बहतु कुछ चाहता था
नए साल की
नई डायरी में
पर
बहुत कुछ सोचने के बाद
सिर्फ तुम्हारा नाम लिखा
और देखता रहा कुछ देर
यूँ ही,
और मुस्कुरा कर रख दिया
अलमारी में

(जानता हूँ - यही करूंगा अगले साल भी
और आने वाले अगले की सालों तक
न जाने कब तक ?? )

मुकेश इलाहाबादी --------------------

पतझड़ आ चूका था


तब तक 
पतझड़ आ चूका था 
जब तक मैं 
लिखता
वसंत  
अपनी डायरी में 

मुकेश इलाहाबादी --

Tuesday 29 March 2016

चाँद से बतियाना चाहता हूँ

मैं चाँद से
बतियाना चाहता  हूँ
उसे  छूना चाहता हूँ
आसमान से उतार के
हथेलियों के बीच
महसूसना चाहता हूँ
उसे गोल गोल
गेंद सा घूमना चाहता हूँ
और फिर
आसमान में उछल के
हथेलियों में कैद कर लेना चाहता हूँ
यहाँ तक कि
खुशी से उसे चूम लेना चाहता हूँ
पर -
चाँद है कि आसमान से उतरता ही नहीं
रोज़
बिना नागा
सूरज ढलते ही
आ टंगता है नीले से साँवले होते
आसमान में
और मुस्कुराता है
जी ललचवाता है
जैसे ही मैं
अपनी हथेलियों में
उसे पकड़ना चाहता हूँ
मुँह चिढ़ाता हुआ
बादलों में छुप जाता है
और फिर
बहुत देर तक छुपा रहता है
और मैं यहाँ
मुँह ढांप सो जाता हूँ
फिर से
सुबह के बाद
दोपहर और फिर
सांझ के इंतज़ार में
शायद चाँद के इंतज़ार में

मुकेश इलाहाबादी --------------

मैंने भी सेल्फी ली

एक दिन
मैंने भी सेल्फी ली

सेल्फी में
मेरा पेट
बड़ा ही नहीं बहुत बड़ा
दिख रहा था
हंडिया से भी बड़ा
आकाश से भी बड़ा
इतना बड़ा की
समां जाए सारी दुनिया का
भोजन पानी
धन दौलत
मान सम्मान
यहाँ तक की
पेड़ पहाड़ और
जंगल भी सारी नदियों सहित
भी भी न भरे ऐसा पेट था
मेरा मेरी सेल्फी में

और एक जीभ थी
लपलपाती हुई
लाल बेहद लाल
लार से भरी हुई
जो स्वाद लेना चाहती थी
कच्चे और पक्के दोनों माँस का
और हर खाद्य अखाद्य का

सेल्फी में मेरी आँखें
एक गहरे लेंस की तरह नज़र आ रही थी
जिसकी एक आँख में
दूरबीन और एक आँख में म्इक्रोस्कोप फिट थे
जो अपने मतलब की हर चीज़ देख लेती थी
चाहे वो आसमान में हो या पातळ में
नज़दीक हो या दूर हो
पहाड़ सी ऊंची हो या
प्रोटॉन सी छोटी हो

मेरे पैर लम्बे और बेहद लम्बे
जो नाप सकते थे
अपना गॉव ही नहीं
पूरा भारत
पूरा एशिया
यहाँ से ले के कुस्तुन्तुनिया तक
और अंटार्टिका तक
उत्तरी ध्रुव से ले के
दक्षणी ध्रुव तक

और हाथ इतने लम्बे थे सेल्फी के
की उसके अंगूठे पूरी दुनिया को
अंगूठा दिखा सकते थे ओर
अपनी मुठी में पूरा देश
पूरा आसमान रख के भी
खाली की खाली रहती

खैर --
मैंने फिलहाल इस सेल्फी को
सिर्फ और सिर्फ अपने मोबाइल में
पासवर्ड लगा के रख दिया है

ताकि कोइ देख न सके

मुकेश इलाहाबादी -----------

Monday 28 March 2016

खामोश सफेदी पसरी थी

सुमी,
जानती हो ?
परवरदिगार ने
जब पहले पहल  दुनिया बनाई थी.
तब वह बेहद सादा सादा थी
कहीं कोइ रौनक न थी,
हर तरफ़ कफ़न सी
खामोश सफेदी पसरी थी
खुदा भी परेशान था
सोच रहा था
इतनी मेहनत से
क़ायनात बनाई
वो भी इतनी उदास और सादी
तुमसे ये उदासी देखी न गयी
और फिर तुमने
लिया

स्याह  रंग - अपने गेसुओं से
मूंगिया - होठों से
दूधिया - अपनी हँसी से
नीला  - आँचल से
गुलाबी  - गोर गोरे गालों से

और
उछाल दिया खुदा की तरफ़
परवरदिगार की तरफ
और,  देखते ही देखते
दुनिया रंग बिरंगी हो गयी

सच -
जब तक तुम हो
तभी तक दुनिया रंगीन है
वर्ना तो सब कुछ है
सादा - सादा
और बेरौनक

मुकेश इलाहाबादी ------



आवाहन



अदि पुरुष  ने
आवाहन किया
आत्मा को

आत्मा आ कर लिपट गयी
उसके इर्द गिर्द

फिर उसने
आवाहन किया
पृथ्वी को
वह उसके इर्द गिर्द लिपट कर
रचने लगी शरीर

फिर आदि पुरुष के
आवाहन पे
आकाश फ़ैल गया
शरीर के रग - रेशे में
अवकाश बन के


और फिर
उसने आवाहन किया
जल का
जल भी रुधिर बन के रग रेशों में
और आँखों में अश्रु बन कर
समाहित हो गया

वायु भी आवाहन करने पे
बसी स्वांस बन के

फिर आवाहन किया अग्नि का
जो बनी जिजीविषा जीने की

बस इन्ही पंच भूतों की तरह
और मैं जीता रहा इन पंच भूतों के साथ
अपने अहंकार में
अपनी अपूर्णता में
और अब ..

आज मैं तुम्हारा आवाहन करता हूँ

पूरे प्रण प्राण से
आ बस्ने के लिए
मेरे पूरे के पूरे अस्तित्व में

शिव पार्वती सा
राधा कृष्ण सा
इदं और अहम सा

मुकेश इलाहाबादी ----------

Tuesday 22 March 2016

मुट्ठी भर ताकतवर और बुद्धिमान



मुट्ठी भर
ताकतवर
और बुद्धिमान
लोगों ने
इकठ्ठा किया
ढेर सारे लोगों को
और
आवाहन किया 
कहा
"हमें इस धरती को
स्वर्ग बनाना है
और बेहतर बनाना है "

और हम
चल पड़े
तमाम जंगल काटते हुए
पहाड़ों को रौंदते हुए
नदियों को सोखते हुए 
समंदर के सीने को
चीरते हुए
हज़ारों युद्ध लड़ते हुए  
अपनों के ही खिलाफ 
और अभी भी चले
जा रहे हैं

ये और बात
हमारी एंड़ियां ही नहीं
पैर भी घिस चुके हैं
पीठ झुक चुकी है
आँखों में मोतिया बिन्द
हो चूका है
धरती क्षत विक्षत
और आकाश लाल हो चुका है
पर हम
आज भी अडिग हैं
धरती को स्वर्ग बनाने
और बेहतर बनाने के वायदे पे

मुकेश इलाहाबादी -------------




Monday 21 March 2016

मैंने तुम्हरे प्रति अपने प्यार को विस्तार देना शुरू किया

मैंने
तुम्हरे प्रति
अपने प्यार को
विस्तार देना शुरू किया
इतना
इतना
इतना कि
जितना बड़ा समंदर
और
हर हराने लगा
अपनी मस्ती में
तुमने भी
खुश हो कर
अनंत विस्तार लिए
अपना,
आसमानी आँचल
मुझपे वार दिया

अब,
तुम मुस्कुरा रही थी
और मै शांत था - अपनी लघुता देख

मुकेश इलाहाबादी ---------------

तुम सिर्फ रूप होते

तुम
सिर्फ रूप होते
बसा लेता मै
आँखों में

गर,
खुशबू भर होते
बसा लेता मै
साँसों में

स्पर्श भर होते
महसूसता
राग - रेशे में

या सिर्फ,
यादें भर होते
जी लेता तुझे
जी भर - हर -पल पल

पर ,
तुम इन सब में हो कर भी
इन सब से परे
और भी बहुत कुछ हो
शायद,
सब कुछ
और कुछ भी नहीं ,,

मुकेश इलाहाबादी -----

Thursday 17 March 2016

काश ! चाय की प्याली में

काश !
चाय की प्याली में घोल के पी जाता,
तुम्हारी हँसी और हो जाता ताज़ा दम !
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Wednesday 16 March 2016

तुम्हारी दूधिया हंसी

काश !
रख लेता
जेब में
मोड़ के
ख़त की
मानिंद
तुम्हारी
दूधिया हंसी
और पढता
खल्वत में
चुपके - चुपके

मुकेश इलाहाबादी --

Tuesday 15 March 2016

फूल हूँ कोई खिला के देखे तो

फूल हूँ कोई खिला के देखे तो
जुड़े में अपने लगा के देखे तो
चांदनी सा  बिछ जाऊँ  मै  भी
कोई, महताब बना के देखे तो
तीरगी - ऐ - ज़ीस्त मिटा दूँगा 
चराग़ हूँ कोई जला के देखे तो
सूरज सा मै माथे पे चमकूँगा
कोई, बिंदिया बना के देखे तो 
मुकेश इलाहाबादी -----------

एक नदी बहा ऊंगा इत्र की

एक नदी
बहा ऊंगा
इत्र की

उतारूंगा 
उसमे फूलों
की नाव

जिसपे बैठ के
चलेंगे
हम दोनों
पार
उस पार
जहाँ
बरसती होगी
चांदनी
खिलते होंगे
ईश्क के गुलाब
और
अहर्निश बजती होगी
सरगम
तुम्हारी पायल के
साथ करती रहेगी
संगत
और मै
देखूँगा
एक मीठी मुस्कान
तुम्हारे चेहरे पे

मुकेश इलाहाबादी --

रात जब हम सोते हैं

एक मत्ला दो शे'र
---------------------

रात जब हम सोते हैं
तेरे ही ख्वाब होते हैं
महफ़िल में मुस्काते
औ तन्हाई में रोते हैं
बिछड़ के तुझसे हम
कितना कुछ खोते हैं

मुकेश इलाहाबादी --

Monday 14 March 2016

गर आप हमारे हो गए,फिर

गर आप हमारे हो गए,फिर 
बातों में फिर बनावट कैसी
आप वैसे ही अच्छी हो,फिर
चेहरे पे ये सजावट कैसी ??
मुकेश इलाहाबादी ----------

मेरी यात्रा

सुमी,

मेरी यात्रा
खत्म हो गयी
तुम पे आ के
और तुम्हारी
शुरू हुई
इसके आगे ...

मुकेश इलाहाबादी ---

Thursday 10 March 2016

लड़की ने लिखा

लड़की ने
लिखा
बड़ा
खूब बड़ा
आकाश
आकाश में उड़ती
चिड़िया
रंग बिरंगी
तितली,
फिर लिखा
झूला
झरना
हंसी - ठिठोली
पो शम्पा भई  -पो शम्पा
और फिर
खिलाये
रात रानी,
रजनी गंधा,
चंपा - चमेली
होठों पे मुस्कान
गालों पे टेसू के फूल 
आगे लड़की
कुछ और
लिखती
इसके पहले
तेज़ हवा
और समंदर की
लहरों ने
मिटा दिया
रेत् पे लिखी
खूबसूरत नज़्म को

मुकेश इलाहाबादी ---

मुकेश इलाहाबादी ---

Wednesday 9 March 2016

ग़ज़ल में गीतों में बातों में रवानी तेरी है

ग़ज़ल में गीतों में बातों में  रवानी तेरी है
मेरी रूह मेरी सांस मेरी ज़िंदगानी तेरी है

ये फूल ये खुश्बू ये गुलशन ये चाँद सितारे 
हर गली हर कूंचे हर शह्र में कहानी तेरी है

परियों के हूरों के जो किस्से हैं किताबों में
अयां  इनमे हुस्न, दरअस्ल जवानी तेरी है

ये हया , ये अदा ये , जान लेवा तेरे नखरे
जुदा है तू सबसे,जो दुनिया दीवानी तेरी है 

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

ग़र, तू कहे तो कुछ देर सो लूँ

ग़र, तू कहे तो कुछ देर सो लूँ
तेरे काँधे पे सर रख कर रो लूँ
लगे हैं तमाम दाग़  दामन में
पश्चाताप के आंसुओं से धो लूँ
जब आ ही गया  हूँ तेरे  शहर
क्यूँ न कुछ देर तेरे घर हो लूँ 

मुकेश इलाहबदी -------------

Tuesday 8 March 2016

जब - कभी मै ख़लाओं चिल्लाता हूँ

जब -कभी ख़लाओं में चिल्लाता हूँ
अपने ज़िंदा होने की गवाही देता हूँ
इक कहानी अनकही अक्सरहां इस
रात के गहरे सन्नाटे को सुनाता हूँ
जब जब मै अपने हक़ के लिए लड़ा
मै अपनी बेगुनाही  की सज़ा पाता हूँ
मुकेश इलाहाबादी -----------------

इक लम्बा अरसा गुज़र जाने के बाद भी

इक लम्बा अरसा गुज़र जाने के बाद भी
तेरा चेहरा तेरी बातें नहीं भूला आज भी
आंसूं से तरबतर है जिस्म यहाँ तक कि
बरसात से नम है वज़ूद की बुनियाद भी
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

पंख अपने नोच कर

पंख अपने नोच कर
फेंक दिया  तोड़ कर
जा रहा हूँ  दोस्त  मै
शहर तेरा  छोड़  कर
रख लिया है, जेब में
चिट्ठी तेरी मोड़  कर
मुकेश इलाहाबादी ---

सिर के नीचे कुहनी मोड़ कर

सिर के नीचे कुहनी मोड़ कर
रात सो गया उदासी ओढ़ कर
ख्वाब में मेरे मेरा ख़ुदा आया
कुछ  न माँगा  तुझे छोड़ कर
चाहता तो हूँ उड़ के आ जाऊँ
ज़ंजीरें  ज़माने  की तोड़  कर
समान्तर रेखाओं सा दूर पर
हम दोनों जुड़े हैं सिर जोड़ कर


मुकेश इलाहाबादी -----------

Thursday 3 March 2016

चुगलियां कर देती हैं पायल

चुगलियां
कर देती हैं पायल 
तुम इन्हे
पहन के मत
आना 
जब तुम
मुझसे मिलने आना
तुम सिर्फ मुस्कुराना 
जब तुम मुझसे मिलने आना क्यूँ कि 
चुगलियाँ कर देती हैं
तुम्हारी खनखनाती हँसी 
 
मुकेश इलाहाबादी --

इस फागुन में

तुम्हारे,
होठों की
खामोशी
जिसमे छिपे हैं
मेरे तमाम
सवालों के जवाब
या एक टीस ,जिसे
चुरा कर
लगा देना
चाहता हूँ 
एक बित्ता मुस्कान
और देखूँ इसे
खिलते हुए टेसू सा
इस फागुन में 

मुकेश इलाहाबादी --------

Tuesday 1 March 2016

तुम सबको प्यारी लगती हो


तुम सबको प्यारी लगती हो
सारे जहां से न्यारी लगती हो
जब सतरंगी आँचल लहराए
रंग बिरंगी तितली लगती हो
लहंगा, चुनरी,बिंदिया कंगन
दुल्हन नई नवेली लगती हो
तेरी कविता के हैं सब दीवाने
तू तो सब्को अच्छी लगती है
प्यारी बहना आज के युग की
तू  शुभद्रा  कुमारी लगती हो

मुकेश इलाहाबादी -----------