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Wednesday 31 May 2017

आप की तस्वीर देखूं तो सुबह होती है

आप की तस्वीर देखूं तो सुबह होती है
आप से गुड़ नाइट करूँ तो रात होती है
कुछ ऐसे रिश्ते बन जाते हैं कि,मुकेश
जिन्से न मिलो तो ज़िंदगी उदास होती है

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

ग़म के आँसुओं को पिया है हमने

ग़म के आँसुओं को पिया है हमने
इस तरह तिश्नगी मिटाया है हमने

अपने घाव पे हमने फूल रख दिया
किस तरह ज़ख्म छुपाया है हमने

मेरा माज़ी मत याद दिला, उसको
बड़ी मुश्किल से भुलाया है हमने 

अंधेरी रातों में तन्हा भटका किये
किसी तरह ज़िंदगी जिया है हमने

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Tuesday 30 May 2017

मेरी दोस्ती से दिल भर गया शायद

मेरी  दोस्ती  से दिल भर गया शायद
तभी मेरे ख़त जवाब नहीं आया शायद

सुना है मुझसे बिछड़ के खुश रहते हो
तुम्हे मुझसे बेहतर मिल गया शायद?

जिस मुहब्बत को सब कुछ समझे थे
वो हक़ीक़त नहीं कोई ख़ाब था शायद

बेगुनाह  हो  कर भी सजा पा रहा हूँ  
सच को सच कहना नहीं आया शायद

वक़्त का मरहम भी नहीं भर पाया
मेरा घाव घाव नहीं नासूर था शायद 

मुकेश इलाहाबादी -------------------

छाता

जब
भी ईश्क़ की बदरिया
बरसती है
तुम,
लगा लेती हो
'खामोशी' का छाता
और बचा लेती हो
ख़ुद को भीगने से

मुकेश इलाहाबादी ------

तब, लबालब थीं - तुम


तब, 
लबालब
थीं - तुम

बही
उमड़ती
घुमड़ती
बलखाती

यौवन के सावन में

पर
कुछ दूर चल कर सूख गयीं
तुम

शायद पहाड़ी नदी थी - तुम और
तुम्हारा प्रेम

यदि नहीं तो
बरसो फिर बरसो
और मै भीगूँ
झम झमा झम - अनवरत -अहर्निश
बाहर से अंतरतम तक

मुकेश इलाहाबादी --------------------

अढ़ाई बूँद

हर,
रोज़ अढ़ाई बूँद अमृत की
पीला जाती हैं तुम्हारी यादें
और एक बार फिर
मै, जी जाता हूँ
मरते - मरते

मुकेश इलाहाबादी ----

Monday 29 May 2017

हवा में पुल


तुम्हारी
एक दुनिया है

मेरी
एक दुनिया है

एक दिन

उधर से
तुमने हँसी उछाली

इधर से
मै मुस्कुराया

और...  एक  पुल तामील हो गया
हवा में

और ! हम दोनों दौड़ के
लिपट गए इक दूजे से

और ,,, इस तरह लटकते रहे
हवा के पुल में

ख्वाब के टूटने तक

मुकेश इलाहाबादी ----------

Sunday 28 May 2017

तेरे यादों की खिडकियाँ खोल दी

बेहद
अँधेरा था
उमस थी
घुटन थी
बेचैनी थी

तेरे यादों की खिडकियाँ खोल दी
तेरे नाम की धूप जला दी

अब
धूप है
हवा है
रोशनी है
खुशबू है

अब ! मै काफी शुकून में हूँ

मुकेश इलाहाबादी -----------

इक पल को ही सही बात कर लेना

इक पल को ही सही बात कर लेना
किसी छुट्टी को मुलाकात कर लेना

जानता  हूँ  बहुत मसरूफ रहते हो
फुर्सत मिले तो हमे याद कर लेना

यूँ तो  हमने  कोई खता  नहीं  की
मिल के जी भर शिकायत कर लेना

कम से क़म इतना तो वास्ता रख
रस्ते में मिलूं तो सलाम कर लेना


मुकेश इलाहाबादी ----------------

Saturday 27 May 2017

कोइ नदी नहीं है, नाला नहीं है

कोइ नदी नहीं  है, नाला नहीं है 
फिर भी आगे का रास्ता नहीं है 

साथ-साथ सफर किया जिसके 
उस्से रिश्ता नहीं वास्ता नहीं है 

सिर्फ मुर्दा यादें यहाँ पे रहती हैं 
इस मकाँ में कोइ रहता नहीं है

सिर्फ  शोरो  गुल मिलेगा यहाँ 
कोई  किसी की  सुनता नहीं है 

सिल लिए मुकेश ने लब अपने 
किसी से कुछ वो कहता नहीं है 

मुकेश इलाहाबादी -------------

कोइ नदी नहीं है, नाला नहीं है

कोइ नदी नहीं  है, नाला नहीं है
फिर भी आगे का रास्ता नहीं है

साथ-साथ सफर किया जिसके
उस्से रिश्ता नहीं वास्ता नहीं है

सिर्फ मुर्दा यादें यहाँ पे रहती हैं
इस मकाँ में कोइ रहता नहीं है

मुकेश इलाहाबादी -------------

Friday 26 May 2017

इतिहासवेत्ता खोज लाये

इतिहासवेत्ता
खोज लाये
किताबों और
धरती को खोद के
हड़प्पा और मोहन जोदड़ो की सभ्यता 
खोज लाये
सभय्ता के इन खंडहरों में
भग्न इमारतें
टूटी हुई सड़के
बुझे हुए चूल्हे
सूखे हुए पोखर
टूटी हुई छतों के मुंडेर
काश ! इतिहास वेत्ता
इन भग्नावशेषों में खोज पाते
मानव गंध
शाश्वत प्रेम
तो ज़रूर वहां मिलता वो पोखर
जंहा तुम मुझसे मिलने आती थी
गागर भरने के बहाने
वो वट वृक्ष और अमराई भी मिल जाती
जिसके तले मैंने लिया था
तुम्हारा पहला चुम्बन
वो खेत जहाँ से साँझ लौटता
कंधे पे धरे धरे हल - मगन
और मिलती तुम
अपनी डेहरी पे करते हुए मेरा इंतज़ार
काश इतिहास वेत्ता खोज पाते ये सब भी
तो मुझे न दिलाना पड़ता याद, तुम्हे
कि मेरा तुमसे प्रेम आज या कल का नहीं
सदियों सदियों पुराना है
इतना पुराना जितना
मोहन जोदड़ो की सभ्यता
या की उससे भी पहले,
यानी कि वैदिक काल,
या की जब से मानव ने पृथ्वी पे कदम रखे हैं
ओ ! मेरी ईव
ओ ! मेरी शतरूपा
ओ ! मेरी सुमी - सुन रही हो न ??
तुम्हरा मनु
तुम्हरा ऐडम
मुकेश इलाहाबादी -------------------

तुम्हे क्या मालूम ?

तुम्हे  क्या मालूम ?

रिश्तों
के सूखे पत्तों
के अलाव से
काट रहा हूँ
ज़िंदगी की शेष
सर्द रातें

मुकेश इलाहाबादी ----

Thursday 25 May 2017

बंद , आँखों से भी पहचान लूँगा

बंद ,
आँखों से भी पहचान लूँगा
तुम्हे, तुम्हारी पदचाप से
हज़ार खुशबुओं में भी
जान लूँगा
तुम्हे, तुम्हारे बदन की खुशबू से
कि, तुम मुझमे समाहित हो
पंच महाभूतों
और , मन बुद्धि चित्त के साथ
हमेशा -  हमेशा के लिए
ओ ! मेरी प्रिये
मेरी आत्म खंड

ओ ! मेरी सोल मेट

मुकेश इलाहाबादी -------

सलमा - सितारा

जब,
तुम अपनी उलझी लटों
को संभालते हुए
रसोंई के कामो को अधूरा छोड
मेरी अधूरी पहनी कमीज पे
टाँकती हो बटन
तब तुम बटन नहीं
रिश्तों की चादर पे 
टाँक रही होती हो, सलमा - सितारा

मुकेश इलाहाबादी ----------------

डेहरी पे बैठी स्त्री

घिरती
सांझ का अँधेरा हो,
या कि, इंतज़ार
की बेचैनी
डिगा नहीं पाती
हिला नहीं पाती
जब तक, कि
उसका प्रिय आ नहीं जाता
छज्जे पे खड़ी
या डेहरी पे बैठी स्त्री को

मुकेश इलाहाबादी ---------




निचाट अँधेरा था

मै
तो,
निचाट अँधेरा था
तुमने आ के
जगमग कर दिया
मुकेश इलाहाबादी -----

कोई, तो अदृश्य नाल है

कोई,
तो अदृश्य नाल है
जिसने जोड़ रक्खा है
हमको तुमको इक दूजे से 
वर्ना, कब के खो गए होते
ज़माने की भीड़ में

मुकेश इलाहाबादी ----

तुम्हारे चेहरे का नमक

तुम्हारे
चेहरे का नमक
और मीठी मीठी बातें
रिश्तों का ज़ायका बढ़ा देती हैं

मुकेश इलाहाबादी ----

Wednesday 24 May 2017

तुम्हारा , कहा सब कुछ करूँगा

तुम्हारा ,
 कहा सब कुछ करूँगा
 सिवाय तुझे चाहते रहने के
 मुकेश इलाहाबादी ----------

ग़र, तू नहीं तो

ग़र,
तू नहीं तो
मेरी
साँसों के आरोह - अवरोह
में कौन प्राण ऊर्जा भरता है ?
मुकेश इलाहाबादी ----------

आकाश एक शहर है

आकाश  
एक शहर है

इस बड़े खूब बड़े से शहर में
इक धरती है
इक  सूरज है

सूरज धरती  को देख
मुस्कुराता है
ब्रम्हांड में अहर्निश चक्कर लगता है
धरती सूरज के लिए नाचती है
अपनी धुरी पे
धानी चुनरी ओढ़े
सूरज के आकर्षण में बिंधी - बिंधी

इक चाँद भी है - धरती की मुहब्बत में गाफिल
जो हर रात नई - नई कलाओं से
लुभाना चाहता है धरती को

कुछ तारे  भी हैं -
जो चुप चाप देखते हैं
इश्क़ बाजी
चाँद की, सूरज की

इन सब के अलावा
इक सितारा भी है
उत्तर में
जिसे ध्रुव तारा कहते हैं

ये ध्रुव तारा भी
फिरफ्तार है - पृथ्वी की मुहब्बत में
अटल - निश्चल
ये तारा - ध्रुव तारा
चुप रहता है
कुछ नहीं कहता है
सिर्फ इक कोने से धरती को देखता है
शाम से सुबह तक
और फिर डूब जाता है आकश के न जाने
किस अँधेरे में
शाम को फिर से उगने और अपनी
प्यारी धरती को देखने के लिए

सुमी,
इन सब में
तुम धरती और
मुझे ध्रुव तारा जानो

सूरज और चाँद में बारे में मुझसे  मत पूछो

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

Tuesday 23 May 2017

एक पति की आत्मस्वीक्रति

एक पति की आत्मस्वीक्रति

चुन्नों, मेरा चष्मा कंहा रखा है ? चुन्नो मेरी नयी वाली कमीज नहीं मिल रही है, चुन्नो तुमने मेरा रुमाल देखा है क्या ? चुन्नो एक कप चाय मिलेगी क्या? चुन्नो चुन्नो चुन्नो सच घर आते ही चुन्नो चुन्नो के नाम की माला जपने लगता हूं। सच आफिस मे रहता हूं तो आफिस की छोटी छोटी बातें नही भूलती पर घर आते ही जैसे यादें हैं कि साथ छोड के फिर से आफिस मे ही दुपुक जाती हैं ये कह के कि जाओ अब अपनी चुन्नो के साथ ही रहो मेरी क्या जरुरत है वो जो है न तुम्हारी और तुम्हारे घर की हर छोटी बडी चीजें याद रखने के लिये। और सच चुन्नो सिर्फ यादें ही क्यूं घर आते ही न जाने क्यूं निर्णय लेनी की क्षमता को भी जैसे ग्रहण लग जाता है। छोटी छोटी बातों के लिये भी तुम्हारी सलाह के बिना काम नही कर पाता चाहे वह सब्जी लाने का हो तो पूछना पडता है बाजार जा रहा हूं क्या सब्जी लाउं? शाम  की पार्टी मे कौन सी ड्रेस पहनूं ? इस दिवाली पे दीवारों पे कौन सा रंग करवाउं या कि दोस्त की सालगिरह पे क्या गिफट देना है, बेटे को इस सर्दी पे सूट बनवाया जाये कि ब्लेजर ही दिलवाया जाये, सच ये सब भी बिना तुमसे पूछे निर्णय नही ले पाता। भले ही तुम डिझकती रहो कि मैने हर बात का ठेका ले लिया है क्या कोई काम तुम अपने मन से नही कर सकते हो क्या। पर न जाने क्यूं तुमहारी ये झिडकी और डांट भी अच्छी लगती है और मै तुम्हारा मनुहार करने लगता हूं और तुम भी तो हो न थोडी देर बाद बनावटी गुस्से से उठ कर चल देती हो चाय बनाने या किचन का काम करने यह कहते हुये कि ‘मुझसे बार बार क्या पूछते रहते हो जो तुम्हारी मर्जी हो वो करो। हर काम मुझसे पूछ के करते हो क्या ? जब तुमको अपनी उस आफिस वाली के बर्थ डे मे जाना होता है तब तो नही पूछते हो कि आज कौन सी कमीज पहनू या कौन सा गिफट ले जाउू तब तो खुद ही बाजार से खरीदते हुए फुदकते हुये ले आये थे तो आज भी वही कर लो।’ और फिर मै अपनी सफाई देते हुए तुम्हारे पीछे पीछे किचेन तक आ जाता हूं और तुम कहती हो ‘जाओ नाटक मत करो मै सब समझती हूं’
सच चुन्नो आज षादी के उन्नीस साल बाद भी बाथरुम मे टॉवेल ले जाने की आदत नही पडी और तुम्हे ही आवाज देना पडता है। जब किसी दिन तुम घर पे नही होती हो तो सच, तब कई बार तो बाथरुम से गीले ही निकलना पडता है।

जानती हो चुन्नो आज इतने सालों बाद मै समझा कि अपने हिन्दू रीत रिवाजो वाली षादी मे फेरों के वक्त वर वधू के उपर धान से वर्षा करके क्यूं आषिर्वाद लेते है। तो सूनो एक तो धान से आर्षिवाद देना का मतलब होता हो कि ‘हे, वर वधू तुम लोगों का जीवन धन धान्य से परिपूर्ण रहे और जैसे धान की भुस मे धान लिपटा होता है वैसे ही तुम वर वधू भी एक दूसरे के पूरक रहो साथ रहो। तो सच चुन्नो तुम धान हो और मै धान की भूसी हूं और षायद तभी तुम जो अक्सर मजाक मे कहती हो कि तुम्हारे दिमाग मे भूसा भरा है तो सही ही कहती हो मेरी चुन्नो।

चुन्नो आज ष्षादी के उन्नीस साल बाद जब पीछे मुड मे देखता हूं। तो विस्वास नही होता साल के इन उन्नीस सालों मे हमने इतने सारे आंधी तूफान और आषा निराषा के ढेरों गहवर और र्पवत पार कर आयें हैं।
आज जब जीवन की लगभग सममतल भूमि पर चल कर लगता ही नही कि इतनी कठिन यात्रा किस तरह कट गयी।

मुकेश इलाहाबादी --------------------

हंसी इक चिड़िया है


तुम्हारी
हंसी इक चिड़िया है
जो कभी  - कभी
फुर्र - फुर्र उड़ती हुई
मुंडेर पे बैठ जाती है
और फिर मेरी उदास मुंडेर
देर तक मुस्कुराती है
नरम धूप का दुशाला ओढ़े हुए

मुकेश इलाहाबादी ------------

यादों की संदूकची


साड़ी ,
के रंग से मैच खाती
तुम्हारे गोल से चेहरे
की गोल सी बिंदी,
छोटी सी

तुम्हारी
दूधिया सी मखमली हंसी


कानो के कुंडल की
झपकती - चमकती परछाईं


चूड़ियों और कंगन की
खनखन

पायल की
छन - छन

और ढेर सारी यादें
तह कर रख ली हैं
एहतियात से 
यादों की संदूकची में

जिन्हे,
जब कभी जी उदास होगा
या, कि तेरी याद में हूब - चूब करेगा जी
तब संदूकची खोल देख लिया करूंगा तुझे

और इस संदूकची की चाबी किसी को नहीं दूंगा
किसी को भी नहीं दूंगा -
तेरी यादों की संदूकची की चाबी।

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Monday 22 May 2017

वो तो तेरे ख्वाब हैं, जो लोरियां सुना,सुला जाते हैं वरना नींद कहाँ आती है कमबख्त स्याह रातों में मुकेश इलाहाबादी ------------------------

वो तो तेरे ख्वाब हैं, जो लोरियां सुना,सुला जाते हैं
वरना नींद कहाँ आती है कमबख्त स्याह रातों में

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

मेरी खामोशी तेरी यादों से गुफ्तगू करती है

मेरी खामोशी तेरी यादों से गुफ्तगू करती है
लोग समझते हैं मुकेश खामोश रहता है
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

बुलुप की आवाज़ होती है

बुलुप
की आवाज़ होती है
और ........
दूर तक लहरें
वृत्ताकार हो कर फ़ैल जाती हैं
जब तुम फेंकते हो
ठहरे हुए जल में
एक कंकरी
बस ऐसे ही मन चंचल हो उठता है
जब तुम मुस्कुरा के चले जाते हो 
बिना कुछ कहे
बिना कुछ सुने

मुकेश इलाहाबादी ---------------


Sunday 21 May 2017

एक और सूरज ऊगा देंगे लोग

एक और सूरज ऊगा  देंगे लोग
बहते हुए दरिया सुखा देंगे लोग

कारखाने और दुकान बनाने को
सतपुड़ा, हिमालय ढहा देंगे लोग 

शह्र बसाने है तरक्की पसंदो को 
खेत और जंगल मिटा देंगे लोग

धरती का आँचल धानी नहीं पीला
आसमान को सुर्ख बना देंगे लोग

स्वार्थ इस क़दर होता जायेगा तो  
ज़मी से इंसानियत मिटा देंगे लोग

मुकेश इलाहाबादी -------------

Friday 19 May 2017

लिखता रहूंगा प्रेम

मै,
उम्र भर
लिखता रहूंगा प्रेम
और तुम
अस्वीकारती रहोगी
अपनी मौन 'हाँ; से

मुकेश इलाहाबादी ----

ढाई आखर

उम्र,
भर मौन रह कर
प्रतीक्षा करूँगा
तम्हारे मुख से
ढाई आखर सुनने को

मुकेश इलाहाबादी --

Wednesday 17 May 2017

दिल में सूरज उगाये बैठे हैं,

दिल में सूरज उगाये बैठे हैं,
आग इश्क़ की लगाये बैठे हैं

जाने कब चाँद छत पे आये
सभी टकटकी लगाए बैठे हैं

कोइ दवा न देगा, इसीलिए
ज़ख्म अपने छुपाये बैठे हैं

करते हैं बात, साफ़ सुथरी
मन में गिरह लगाए बैठे हैं

जब से कलंदरी रास आयी
हम सब कुछ लुटाये बैठे हैं

मुकेश इलाहाबादी ---------

Tuesday 16 May 2017

तुम, जब चलती हो ले के माथे, पे घूंघट

तुम,
जब, चलती हो ले के
माथे,
पे घूंघट,
हथेलियों पे मेहंदी,
कलाइयों में,
खन -खन चूड़ियाँ
छम - छम करती पायल
महावर लगे पाँव

तब देवताओं का भी आसान डोलता है

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Monday 15 May 2017

आओ चलो कुछ दूर घूम आयें

आओ चलो कुछ दूर घूम आयें
खुशनुमा मौसम से मिल आयें
देखो तो बारिश होने वाली है
पानी में छप - छप कर आयें
 मुकेश इलाहाबादी ------------

कभी हमको भी तो ख़त लिखा करो

कभी हमको भी तो  ख़त लिखा करो
ख़त न सही एस एम् एस किया करो
तुम्हारे पास स्मार्ट फ़ोन तो होगा ही
हमको भी तो व्हाट्स ऐप किया करो
बहुत प्यारी प्यारी ग़ज़लें लिखता हूँ 
तुम  सिर्फ  मेरी ही  पोस्ट पढ़ा करो
ऍफ़ बी सब मजनू धोके बाज़ है, कि
तुम केवल मुकेश से चैट किया करो

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Sunday 14 May 2017

तड़पता है तो सिर्फ तेरे लिए तड़पता है

तड़पता है तो सिर्फ तेरे लिए तड़पता है
वर्ना तो दिल मेरा हरदम  खुश रहता है

यूँ तो  मेरा गुले दिल मुरझाया मिलेगा
पाऊँ तेरा साथ तो खिला खिला रहता है

सूरज की कड़ी धूप मेरा क्या कर लेगी
तेरी यादों का साया सिर पे जो होता है

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Friday 12 May 2017

बहुत प्यारा सा इत्तेफ़ाक़ हुआ है

बहुत प्यारा सा इत्तेफ़ाक़  हुआ है
आँख खुलते ही तेरा दीदार हुआ है

तू छत पर बाल सुखाने क्या आयी
आज सुबो सूरज नहीं चाँद ऊगा है

जो दिल अब तक फिरता था आवारा
तुझे देखा तो हमको भी प्यार हुआ है

मुकेश इलाहाबादी ---------------

तुम, ही छन्द हो

तुम,
ही छन्द हो
तुम ही बंद हो
तुम ही लय हो
तुम ही अर्ध विराम
तुम ही पूर्ण विराम हो
तुम ही आरम्भ
तुम अंत हो
मेरी कविता का
ओ ! मेरी कविता
ओ ! मेरी सुमी
सुन रही हो न ?
पढ़ रही हो न मेरी कवितायेँ ?

मुकेश इलाहाबादी ---------

Wednesday 10 May 2017

होगी सुबह होते होते

होगी सुबह होते होते
कटेगी रात रोते रोते

निशाने इश्क़ जाएँगे
आँसुओं से धोते धोते

बेतरह  थक  गया हूँ
तेरी यादें ढोते - ढोते

तमाम उम्र  काट  दी 
बिस्तर पे सोते सोते

मुश्किल से मिला है
मेरा चाँद खोते खोते


मुकेश इलाहाबादी ----



Tuesday 9 May 2017

फिर बहुत बरसा है मन

फिर बहुत बरसा है मन
तुम बिन तड़पता है मन

तू अब किसी ग़ैर की है
क्यूँ नहीं मानता है मन

रातों -दिन समझाता हूँ
मेरी कहाँ सुनता है मन  

दिन,परिंदे से उड़ता है
साँझ, चहचाता है मन

इक बार, तू भी बता दे
क्या कहता है तेरा मन


मुकेश इलाहाबादी -----

Monday 8 May 2017

एक प्यारी सी कविता लिखूँ


सोचा
एक प्यारी सी कविता लिखूँ
जो चाँद सी प्यारी प्यारी हो
कपास सी
उजली उजली हो
गुलाब सी
महकती महकती हो
रेशम सी
मुलायम - मुलायम  हो
और नदी सी छछलाती सी हो

तो बहुत देर सोचने के बाद
फैसला लिया
क्यों न तुम पर कविता लिखी जाए

तो क्यूँ - लिखूँ ??? दोस्त

मुकेश इलाहाबादी ------

तुम चले जाओगे तो

तुम
चले जाओगे तो
ज़िंदगी अधूरी तो न होगी
पर, तुम बिन ज़िंदगी
पूरी भी न होगी

मुकेश इलाहाबादी ----

Saturday 6 May 2017

न जाने किस बेहतर ज़िंदगी की उम्मीद लिए

कमर,
झुक कर
कमान हो चुकी होगी
नाक एड़ियों को छू रही होंगी
हम कीड़ों - मकोड़ों की तरह
रेंग रहे होंगे ज़मीन पे
सूरज हमारी
हमारी पीठ पर तांडव कर रहा होगा
हम रोना चाह के भी रो नहीं पा रहे होंगे
कुछ बहु बली अट्ठास कर रहे होंगे
फिर भी हम ज़िंदा होंगे
न जाने किस बेहतर ज़िंदगी की उम्मीद लिए

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

Friday 5 May 2017

चाँद पे आदमी के कदम

चाँद पे
आदमी के कदम
पड़ चुके हैं
अब वो अपने बूट से
उसके धड़कते सीने पे दौड़ेगा
चाँद को भी धरती की तरह रौंदेगा
लोहा, बॉक्साइट, सोना चाँदी
और तरह तरह के खनिज निकालेगा 
अपने रहने लायक जगह बनाएगा
और फिर ढेर सारा धुँवा और ज़हर उगलेगा
एक दुसरे का क़त्ले आम करेगा
पूरे चाँद को हथियाने के लिए
चाँद को लहू लुहान करेगा
तब चाँद की उजली उजली धरती लाल हो जाएगी
उसके खूबसूरत चेहरे पे सिर्फ धब्बे ही धब्बे रह आएंगे
और फिर धीरे धीरे चाँद
चाँद  न रह कर बड़ा सा बदसूरत धब्बा रह जाएगा
एक पिंड भर रह जाएगा -
आसमान पे लटकता हुआ
और तब
बच्चे उसे चंदा मामा नहीं कहेंगे
हम चाँद पे कविता नहीं लिखेंगे
औरतें व्रत रख के चलनी से चाँद को नहीं देखेंगी

मुकेश इलाहाबादी --------------


एक ही नासिका के दो स्वर हैं

एक
ही नासिका के
दो स्वर हैं
तुम चंद स्वर
मै सूर्य स्वर

एक ही
जिस्म के
दो हिस्से हैं
तुम बायाँ
और मै दाँया


मुकेश इलाहाबादी ---

क्यूँ ,

क्यूँ ,
सब कुछ
अनावृत कर देती हो
मेरे समक्ष
फिर क्यूँ
छुपाए रखती हो ?
मुझसे अपने दुखः
अपनी तकलीफ
अपने घाव
अपना पहला प्यार

मुकेश इलाहाबादी -----



बतियाती है - हम दोनों के बीच,

तुम ,
मुझसे कुछ नहीं बोलती
मै- तुमसे कुछ नहीं कहता

फिर भी,
तुम्हारा अनकहा सुन लेता हूँ
तुम मेरा मौन समझ लेती हो

ये कौन सी भाषा है ?
जो बोलती है
बतियाती है - हम दोनों के बीच,

मुकेश इलाहाबादी ----------------

बहुत बोलती हो
मै, बहुत लिखता हूँ 
मै - तुम्हे नहीं सुनता
तुम - मुझे नहीं पढ़ती

फिर भी हम तुम
एक दूजे को पढ़ लेते हैं
एक दूजे को सुन लेते हैं

ये कौन सी भाषा है ?
जो बोलती बतियाती है
हम दोनों के बीच ?

मुकेश इलाहाबादी ------------

ये कौन सी भाषा है ?

तुम ,
मुझसे कुछ नहीं बोलती
मै- तुमसे कुछ नहीं कहता

फिर भी,
तुम्हारा अनकहा सुन लेता हूँ
तुम मेरा मौन समझ लेती हो

ये कौन सी भाषा है ?
जो बोलती है
बतियाती है - हम दोनों के बीच,

मुकेश इलाहाबादी ----------------

ये कौन सी भाषा है ?

तुम
बहुत बोलती हो
मै, बहुत लिखता हूँ 
मै - तुम्हे नहीं सुनता
तुम - मुझे नहीं पढ़ती

फिर भी हम तुम
एक दूजे को पढ़ लेते हैं
एक दूजे को सुन लेते हैं

ये कौन सी भाषा है ?
जो बोलती बतियाती है
हम दोनों के बीच ?

मुकेश इलाहाबादी ------------

उलाहना

तेरा उलाहना सच है  रे ,,,,,,,,
मै तुझे याद नहीं करता

(ख़ुद से ख़ुद को कौन याद करता है ? री पगली )

(पर, ये भी सच है - तुझे बहुत मिस करता हूँ - सुमी )

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------

Tuesday 2 May 2017

बोलती हुई आँखे, बतियाता हुआ चेहरा तेरा

बोलती हुई आँखे, बतियाता हुआ चेहरा तेरा
बुलबुल की कूक सा चहकता हुआ चेहरा तेरा
भूल के दुनिया जहान मेरे ज़ेहन में रहता है
शुबो - शाम सोचूँ मै  दूधिया सा चेहरा तेरा
मुकेश इलाहाबादी --------------------------

तुम्हे क्या मालूम !

एक 
-----

तुम्हे क्या मालूम !

तुम्हारे 
आने की उम्मीद में
आज भी  
प्रतीक्षा रत हैं
मेरे घर की डेहरी / आँगन 
और तुलसी चौरा 

दो 
---- 
तुम्हे क्या मालूम !

तुम्हारे न आने से 
लौट जाता है बसंत 
मेरे द्वार से,
आते - आते 

तीन 
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तुम्हे क्या मालूम !

तुम्हारी 
एक हल्की सी 
चितवन भी 
दे जाती है
शीतल एहसास 
मेरे धधकते उत्ताप को 

मुकेश इलाहाबादी --

Monday 1 May 2017

भीड़ बुलाएँ, उठो मदारी

भीड़ बुलाएँ, उठो मदारी
खेल दिखाएँ, उठो मदारी

खाली पेट जमूरा सोया
चाँद उगाएँ, उठो मदारी

रिक्त हथेली नई पहेली
फिर सुलझाएँ, उठो मदारी

अन्त सुखद होता है दुख का
हम समझाएँ, उठो मदारी

देख कबीरा भी हँसता अब
किसे रूलाएँ, उठो मदारी

pradeep kant kee gazal
kavita kosh se saabhar