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Wednesday 28 September 2016

वो आती है, मुँह चिढ़ाती है, भाग जाती है

वो आती है, मुँह चिढ़ाती है, भाग जाती है  
उत्ती मासूम है नहीं, जित्ती दिखाई देती है
कभी कैथा, कभी ईमली,  कभी अमियाँ
टिकिया गोलगप्पे मज़े ले ले के खाती है  
कभी स्कर्ट, कभी जीन्स तो कभी कुर्ता
कभी बॉब्ड कट कभी, दो चोटी रखती है
वैसे तो वो मेरी हर बात माना करती है
जो मांगू उससे बोसा, अंगूठा दिखाती है
अपने पापा अपने भाई सभी से लड़ती है
सिर्फ अपनी मम्मी की डांट, से डरती है
है खेल में पढ़ाई में, लिखाई में, अव्वल
संजीदा हो तो तो बड़ी मासूम दिखती है
ये और बात जुबां से वो न कहती है पर 
मगर मालूम है मुझसे ; प्यार करती है
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Monday 26 September 2016

रात के आँचल में मुँह छुपा के रोई

रात के आँचल में मुँह छुपा के रोई
ज़िन्दगी हादसों से घबरा  के रोई

फूल सा खिला करती थी सच्चाई
झूठ के हाथों आबरू लुटा के रोई

पहले ईश्क़ का नाम लिखा उसने
फिर नाम आँसुओं से मिटा के रोई

ज़ीस्त पहले तमाम दर्द सहती रही
फिर सारे ज़ख्म दिखा दिखा के रोई

मुकेश की ग़ज़लों में बहुत दर्द है ,,
ईश्क़ अपना दर्द सुना सुना के रोई

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Saturday 24 September 2016

तू मेरा अपना है

तू मेरा अपना है
ये मेरा सपना है
तेरा हँसना जैसे
पहाड़ी झरना है    
चाँद से मुखड़े पे
सादगी गहना है
जाने कब तक ?
हिज़्र में रहना है
इक दिन तुझसे
लव यू कहना है
मुक्कू से कह दो
ग़ज़लें सुनना है

मुकेश इलाहाबादी -

Friday 23 September 2016

रात के पाले में चाँदनी आयी

रात के
पाले में चाँदनी आयी
मैं,
दिन सा ऊगा
मेरे हिस्से
सूरज की गर्मी आयी

तुम,
फूल सा  खिलीं  तुम निकले
लपेटे खुशबू का हिज़ाब
हम खार थे
हमारे हिस्से
फ़क़त  उरियानी आयी

तुम,
घर से निकले
क़दमों तले दिल बिछ गए
मेरा साथ देने
सिर्फ, तन्हाई आयी

मुकेश इलाहाबादी -------

Thursday 22 September 2016

न नीचे ज़मी न ऊपर आसमान है

न नीचे ज़मी न ऊपर आसमान है
खामोश दरिया अपने दरम्यान है

है निभा ले जाना उम्रभर मुश्किल
कहदेना लफ़्ज़े मुहब्बत आसान है

मुकेश ऊंचाई पे पंहुच  के देखना,
फिसल न जाओ चिकनी ढलान है

मुकेश इलाहाबादी -----------

मुझसे इस क़दर ख़फ़ा न हो

मुझसे इस क़दर ख़फ़ा न हो
फिर मिलें तो, शर्मिंदा न हों 

आना है तो, जल्दी लौट आ
ऐसा न हो, हम ज़िंदा न  हों

मेरी आदतें न बिगाड़ तू, कि  
बिन तेरे मेरा गुज़ारा न  हो

काँच सा दिल है टूट न जाए  
फिर देखने को आईना  न हो

महताब ख़फ़ा, सूरज ख़फ़ा
ऐसा तो नही, उजाला न हो 

मुकेश एहतियात  से रह तू
कहीं वही गल्ती दुबारा न हो

मुकेश इलाहाबादी ----------

Wednesday 21 September 2016

तू इक और रात सर्द दे दे



तू इक और रात सर्द दे दे
न सही खुशी तो दर्द दे दे

ले कर जिस्म का हरा पन
मुझे तो अब रंग ज़र्द दे दे

मुकेश, कुछ और नही तो
क़दमो की अपने गर्द दे दे


मुकेश इलाहाबादी -------

Sunday 18 September 2016

‘प्रेम’ के सम्बंध के सम्बंध मे



दोस्त,

पत्र मे तुमने ‘प्रेम’ के सम्बंध के सम्बंध मे मेरी राय जाननी चाही है, तो  इस सम्बंध मे सिर्फ इतना ही कहूंगा कि ‘प्रेम’ तत्व को कौन जान सका है ?
जिसने प्रेम को जान लिया उसने खुदा को जान लिया। वैसे भी जानने वालों ने कहा है ‘मुहब्बत’ खुदा का दूसरा नाम है, और खुदा को कौन जान सका है?
दोस्त, फिर मेरे जैसा अदना इंसान क्या कुछ जान पायेगा।
इतना तो तुम भी जानती होगी, कि आज तक ‘प्रेम’ को ले कर जितना कहा और लिखा जा चुका है उतना कोई और दूसरा विषय संसार मे कोई नही है। फिर भी यह ‘प्रेम’ तत्व आज तक अपरिभाषेय ही रहा आया है।
मेरे देखे भी तो प्रेम सिर्फ जिया जा सकता है। प्रेम मे सिर्फ हुआ जा सकता है। प्रेम के संदर्भ मे कुछ इशारे जरुर किये जा सकते हैं पर इसे पूरा का पूरा बयां नही किया जा सकता। क्योेकि एक बात और जान लो जब षब्द मौन हो जाते हैं तब प्रेम मुखरित होता है। लिहाजा तुम भी इसे सिर्फ गूंगे के गुड सा स्वाद तो लो पर बखान मत करो, वैसे तो कर भी नही पाओगी। और, अगर कोशिश किया भी तो कोई खाश नतीजा नही आने वाला।
चुकि तुमने इस संदर्भ मे मुझसे कुछ कहने को कहा है तो मैने आज तक जो कुछ भी ‘प्रेम’ के बारे मे सुना है, पढा है अनुभव किया है उसे तुम्हे पूरी ईमानदारी से बताने की कोषिष करुंगा।
तो दोस्त सुनो ........... सबसे पहले इस प्रेम तत्व को समझने के लिये हम भारतीय वांगमय के सबसे पुराने दर्षन पे जाते हैं और देखते हैं येह इस संदर्भ मे क्या कहता है।
सांख्य की माने तो आदि तत्व ‘महतत्व’ दो तत्वों का योग है। महायोग। जो दो होकर भी एक हैं और एक होकर भी दो हैं। यानी ‘अद्वैत’। वही अनादि तत्व प्रक्रिति और पुरुष जब कभी परासत्ता की इक्षावशात या यूं ही लीलवशात किसी विक्षोभ यानी रज; यानी क्रिया करती है तभी यह प्रक्रति और पुरुष अलग अलग भाषते हैं अलग -अलग जन्मते और मरते हैं। अलग - अलग जातियों में अलग -अलग रुपों में। लेकिन ये दोनो अनादि तत्व एक बार फिर से एक ही होने की अनुभूति के लिये भटकते रहते हैं। उसी रज; यानी क्रिया के कारण जो किसी इड़ा की तरह श्रद्धा यानी प्रक्रिति को पुरुष यानी मनु से मिलने नही देती। कारण रज; यानी क्रिया का भी अपना आर्कषण है अपना प्रभाव है। इसलिये कहा जा सकता है जबतक क्रिया का आर्कषण कायम रहेगा तबतक श्रद्धा व मनु एकाकार नही हो पाते बार -बार मिलने के बावजूद।
इसी बात को तंत्र इस तरह कहता है। आत्म तत्व जब परमात्म तत्व से अलग हुआ ‘अहं’ के रुप में तो उसी वक्त उसका प्रतिद्वंदी ‘इदं’ तत्व भी अलग हुआ था। पहला पुरुष प्रधान दूसरा स्त्री प्रधान। दोनो ही तत्व दो रुप एक ही सत्ता के अलग अलग दिषाओं में जन्म लेने लगे अलग अलग रुपों में फिर से एक बार मिल जाने की ख्वाहिष में।
जब कभी दोनो खण्ड एक दूसरे से फिर से एक बार मिल लेते है। तब एक अदभुत घटना घटती है। उसे ही कहते हैं राधा व कान्हा का मिलन। राम व सीता का मिलना। या फिर हीर का रांझा से मिलना या कि किसी सोहनी का महिवाल से मिलना।
तो मेरे हिसाब से ‘आत्म खण्ड’ के इन हिस्सों ‘इदं’ और ‘अहम’ के आपस मे दुबारा मिलने की जो तडप होती है और जो उसके लिये प्रयास किये जाते हैं उसी का नाम ही ‘प्रेम’ है।
इसको अब इस तरह से भी समझो।
‘प्रेम’ शब्द में हम यदि ‘प’ से प्रक्रति और ‘र’ से रवण यानी क्रिया व ‘म’ से पुरुष का बोध लें तो यह बात बनती है कि जब प्रक्रिति, पुरुष के साथ रवण या क्रिया करती है तो जीवन की जडों में एक धारा प्रवाहित होती है। जिसे ‘प्रेम’ की संज्ञा दी जा सकती है। यह प्रेम धारा ही उस जीवन को पुष्पित व पल्लवित करती रहती है साथ ही पुर्ण सत्य के खिलने और सुवासित होने देने का अवसर प्रदान करती है। यह धारा जीवन के तीनो तलों शरीर,  मन और आत्मा के स्तरों पर बराबर प्रवाहित होती रहनी चाहिये। यदि यह धारा किन्ही कारणों से किसी भी स्तर पर बाधित होती है तो जीवन पुष्प या तो पूरी तरह से खिलता नही है और खिलता है तो षीघ्र ही मुरझाने लगता है।
यही रस धार यदि प्रथम तल तल पर रुक जाती है तो उसे वासना कहते है। यदि यह मन पर पहुचती है तो उसे ही लोक भाषा में या सामान्य अथों में ‘प्रेम’ कहते हैं। और फिर जब यह रसधार आगे अपने की यात्रा पर आत्मा तक पहुंचती है तब उसे ही ‘सच्चा प्रेम’ या आध्यात्मिक प्रेम कहते हैं। और उसके आगे जब ये रसधार गंगासागर में पंहुचती है तो वह ही ब्रम्ह से लीन होकर ईष्वर स्वरुप हो जाती है।
प्रेम जब प्रथम तल पे होती है तो वह कामवासना के रुप मे फलित होती है। जब वह सूक्ष्म शरीर की तरफ बढ़ती है तो प्रेम का रुप ले लेती है और जब यही प्रेम की धारा शरीर के तीसरे कारण शरीर को छूती है तब वह भक्ति बन जाती है।
तभी तो रामक्रष्ण परमहंस अपनी पत्नी को मॉ के रुप मे ही देख पाये और वे दुनियावी तौर पे कभी पति पत्नी की तरह नही रहे।
और इसी तरह मीरा का भी पेम क्रष्ण से कारण षरीर तक पहुंचा हुआ प्रेम है।
लिहाजा प्रेम को समझने के लिये हमे अपने शरीर  के तीनो तलों तक की यात्रा करनी होगी तभी हम कुछ समझ पायेंगे उसके पहले तो सब कुछ वितंडामात्र है बातीं का खाली लिफाफा है। जिससे कुछ हासिल नही होने वाला है।
प्रेम जब पहले तल पे होता है तो सिर्फ प्रेमी के शरीर से मतलब होता है। वह उसे सुन्दर से सुन्दर देखना चाहता है। उसे भोगना चाहता है।
दूसरे तल पे वह सिर्फ देना चाहता है। इस तल पे प्रेमी शांति को उपलब्ध होते हैं और तीसरे तल पे आनंद को उपलब्ध होते हैं।

दोस्त हम इस इस संदर्भ मे आगे चर्चा करेंगे फिलहाल इतना ही।

तुम्हारा दोस्त ...............

Thursday 15 September 2016

अच्छी लगती हो,

बस !
कहे देता हूँ ,
तुम मुझे
अच्छी लगती हो,
तो लगती हो 

मुकेश इलाहाबादी --

ख्वाबों को नए पर मिल जाते हैं

ख्वाबों को
नए
पर मिल जाते हैं
मैं उड़ने लगता हूँ
नील गगन में
ऊपर - ऊपर और ऊपर

डगमगाती,
नाव को के पाल संभल जाते हैं
और मैं
डूबने से बच जाता हूँ

पीले निश्तेज चेहरे पे
सुबह के
सूरज की
रौशनी आ जाती है

बदन चंदन सा महक उठता है

और ,,,,,,
ये सब होता है मेरे साथ
तुमसे मिल के

और सिर्फ तुमसे मिल के

सुमी - सुन रही हो न ??

मुकेश इलाहाबादी ---

Wednesday 14 September 2016

टूटे हुए परों को जोड़ कर

टूटे हुए परों को जोड़ कर
उडा रहा हूँ कुछ सोच कर
अपनी सूरत देखता हूँ मै
टुकड़े आईने के जोड़ कर
वो मिल गया था रस्ते में
की बातें उसको रोक कर
आओ प्यार की बातें करें
शिकवे शिकायत छोड़कर
रात फिर सो गया तनहा
मुकेश यादें तेरी ओढ़ कर
मुकेश इलाहाबादी ------

Monday 12 September 2016

नदी, बहना चाहती है

नदी,
बहना चाहती है
अपने साहिल की बाँहों में
कभी
निष्पन्द
कभी हौले - हौले
तो, कभी तेज़ धार से

कभी तो, लाड में आकर
उछल कर 
देर तक, 
अपनी फेनिल ज़ुल्फ़ों को
साहिल के सीने पे
गिरा कर
फिर से बहना चाहती है
शांत और निष्पंद
बहुत दूर तक 
और देर तक
देखते हुए
दिन के नीले
रात के सांवले आकाश को
चाँद और सितारों के साथ 

मुकेश इलाहाबादी ------------


Friday 9 September 2016

सच की राह में रोडे बहुत हैं

सच की राह में रोडे बहुत हैं
अच्छे  इन्सान  थोडे बहुत हैं

रेस का मैदान बन गया शहर
यहां आदमी कम घोडे बहुत हैं

फूल मुहब्बत के खिलाये कम
राकेट मिसाइल छोडे बहुत हैं

मुकेश इलाहाबादी ..............

Wednesday 7 September 2016

किसी के दिल को मैं रास आया नहीं

किसी के दिल को मैं रास आया नहीं
ज़िदंगी में मेरी मधुमास आया नहीं

दरिया तक मैं जा कर करता भी क्या
किसी ने मेरी प्यास को जगाया नहीं

सज संवर तो लेता मगर जाता कहाँ
कभी किसी ने मुझको बुलाया नहीं

जाने वो कैसी हिचक थी या डर था
हाले दिल मैंने, उसको बताया नहीं

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Monday 5 September 2016

अंधेरी , रातों में

अंधेरी ,
रातों में
तुम्हरे नाक की
लौंग चमकती है
किसी ध्रुव तारे सा
और मैं काट देता हूँ
तमाम सर्द रातें

मुकेश इलाहाबादी -----

किसी दोराहे या चौराहे पे


कभी तो,
किसी दोराहे
या चौराहे पे मुलाकात होगी
भले ही
तुम्हारे और मेरे रास्ते
कितना ही अलग - अलग हों

तब तुम मुझसे
कतरा के निकल जाना चाहोगे
और मैं तुम्हे
ठिठक कर देखता रहूँगा
देर तक -
दूर तक
जब तक की तुम मेरी नज़रों से
ओझल नहीं हो जाओगे

मुकेश इलाहाबादी ---------

बह जाना चाहता हूँ

तुम,
कलकल करती
नदी हो
जिसके साथ- साथ मैं भी
बह जाना चाहता हूँ
हिमालय से ले के
गंगा सागर तक
और समां जाना चाहता हूँ
हरहरा कर
समंदर की  अथाह जल राशि में
तुम्हारी लहरों के साथ

मुकेश इलाहाबादी ----------

Saturday 3 September 2016

अब तो, तुम्ही से रौशन हैं मेरे रातो दिन

अब तो, तुम्ही से रौशन हैं मेरे रातो दिन
ये चाँद और सितारे मेरे किसी काम के नहीं
मुकेश इलाहाबादी -----------------------

तुम्हारे वायदों की तरह

तयशुदा,
वक़्त पे,
तुम नहीं आये
आये भी तो, देर से आये
कभी तो, नहीं भी आये

मग़र,
मैंने किया इंतज़ार, तुम्हारा

हमेशा,
पार्क की  कोने वाली
बेंच पे, सूरज के डूबने
और चाँद के डूबने के
बहुत देर बाद तक भी
इस ख़याल से
शायद तुम कभी भी
दबे पाँव पीछे से आकर
अपनी हथेली से
मेरी पलकों को बंद कर
मुझे चौंका दोगी
और मैं भी सारे गीले - शिकवे भूल
तुम्हारी कलाई पकड़
तुम्हे अपनी गोद में गिरा लूँगा
और तब तुम
अपनी दूधिया हँसी बिखेर दोगी
मेरी हथेलियों पे

मगर,
मेरे ये ख्वाब भी
हकीकत में बदलने से पहले
दगा दे गए
तुम्हारे वायदों की तरह

फिर भी मैं, करूँगा इंतज़ार
तुम्हरा, तुम्हारे आने तक

सुमी , सुन रही हो न ??

मुकेश इलाहाबादी ---------
 

Friday 2 September 2016

कोई छुट्टी नहीं होती

कोई
छुट्टी नहीं होती
कोई इतवार नहीं होता
तुम्हरी यादों का
कोई नागा नहीं होता

और, मैं भी तो
बिना थके
बिना रुके
बिना झुंझलाए
रहता हूँ
तुम्हरी यादों के संग

सुमी,,

मुकेश इलाहाबादी ----

Thursday 1 September 2016

आ इक गुनाह हम भी कर लें

आ इक गुनाह हम भी कर लें
थोड़ा सा प्यार हम भी कर लें
ईश्क़ इक खूबसूरत दरिया है
ये, दरिया पार हम भी कर लें
दीवानो  की फेहरिश्त में नाम
अपना शुमार हम भी कर लें

मुकेश इलाहाबादी ------------