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Thursday 29 March 2012

जुगनू सा पीठ पे रोशनी लादे हुए

बैठे ठाले की तरंग -----------
 
जुगनू सा पीठ पे रोशनी लादे हुए
स्याह रातों में फिरता हूँ जगमाते हुए
ख़्वाबों की झील में तेरा अक्स
हर रोज़ हम देखा किये झिलमिलाते हुए
तफरीहन उनपे ज़रा सा तंज़ कास दिए
चल दिए महफ़िल से तमतमाते हुए
दिन ज़रूर मायूसी में गुज़रते रहे
मगर शाम बिताया किये गुनगुनाते हुए
 
मुकेश इलाहाबादी -------------

Wednesday 28 March 2012

तूफां में सारा जन्हा बह गया


          बैठे ठाले की तरंग -----------
            तूफां में सारा जन्हा बह गया
               मकीं बह गया, मकाँ बह गया
                    फ़क़त  उजड़ी  यादो  के सिवा
                      जो भी था सारा सामाँ बह गया
                          रेत पे छोड़  तड़पती  मछलियाँ
                              समंदर फिर जाने कंहा बह गया 
             मुकेश इलाहाबादी-----------------

Tuesday 27 March 2012

गिनते थे जिन्हें हम पर्दानशीनो में

बैठे ठाले की तरंग -----------------------

गिनते थे जिन्हें हम पर्दानशीनो में
आज उन्हें भी देखा, तमाशबीनो में

चाँद ने जब जब  भी अंगडाईयाँ  ली
तमाम कश्तियाँ डूबी इन सफीनो में 

सूरत ही नहीं सीरत भी उसकी अच्छी
लोग  लेते  हैं  नाम  उसका  नगीनो में

ऐ मुकेश कपडे तो ज़रा झटक के पहन 
अक्शर सांप पलते हैं इन्ही आस्तीनों में

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

अंग अंग संदल भयो,

बैठे ठाले की तरंग ----------------
 
अंग अंग संदल भयो, महके बावरे नैन
गोरी से लिपट प्रेमी क्यों न पावे चैन ?
बाँवरे पिऊ के नयन, पगला मोरा मन
पिऊ पिऊ की तेर सुन काटे कितने रैन
 
मुकेश इलाहाबादी --------------------

Monday 26 March 2012

ठिठका हुआ चाँद, ठहरा हुआ समंदर

बैठे ठाले की तरंग ---------------------
ठिठका हुआ चाँद, ठहरा हुआ  समंदर
हर तरफ देखूं आज,सहमा हुआ मंज़र
क्या हाल बयाँ करूं, अब इस शहर का
ये टूटी हुई मस्जिद, ये टूटा हुआ मंदर
बस  इक  जिश्म ही रह गया है साबुत
वरना है रेज़ा रेज़ा बिखरा हुआ अन्दर

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Sunday 25 March 2012

परती धरती और पहली बारिस (pahlee kisht)

           
परती धरती और पहली बारिस

बारिस की हल्की हल्की बूंदो के गिरते ही लगा बरसों की परती पडी धरती थरथरा उठी हो। माटी की पोर पोर से भीनी भीनी सुगंध चारों ओर अद्रष्य रुप से व्याप्त हो गयी थी। लॉन से आ रही हरसिंगार, मोगरा, गुड़हल और चमेली की खुषबू को संध्या अपने नथूनों में ही नही महसूस कर रही थी बल्कि अपनी संदीली काया के रोम रोम में सिहरन सा महसूस कर रही थी। बेहद तपन के बाद बारिष के मौसम की तरह वह अपने अंदर आये इस बदलाव से वह अंजान नही थी। पर उम्र के इस उत्तरायण में इस क़दर भावुक मन होना वह स्वीकार नही कर पा रही थी और अस्विकार भी।
फिलहाल, संध्या अपने मन के सारे विक्षोभों को परे धकेल, अपने आप को पूरी तरह मन के हवाले कर देना चाह रही थी। और फूलों की तरह किसी डाली से लगी रह कर डोलना व तितली की तरह उडना चाह रही थी। इस हल्की हल्की बारिस की बूंदों की सिहरन अंदर मन तक महसूस कर लेना चाहती थी। दिल तक।  इस अंजानी खुषी व षीतल छुअन ने पेड़ पौधों लताओं व गुल्मों को हौले हौले तो कभी जोर से हिलते पत्तों के संगीत में डूब जान ही चाहती थी।  बाहर गुलमोहर की पत्तियों से छन छन करती बूदें स्वर लहरियों में  खो जाना चाहती थी। ऐसे में संध्या सोच रही थी कि जीवन की इस संध्या में कोैन सा बसंत हरहरा रहा है। और हरहरा रहा है तो उसमे डूबना कितना उचित है पर वह इन सब बातो से बेपरवाह हो जाना चाहती है। बस इस वक्त तो बादल सा बरसने का ही मन कर रहा था। वह अपने को रोक नही पायी। बूंद बूंद बरसने से।
डेक मे एक सूफियाना गाना लगा।  न जाने कब ड्रेसिंगटेबल तक पहुंच दोनो हाथों को पीछे ले जा बालों का जूडा बानती हुयी अपने आप को देखने लगी। गौर से। मांग के  अगल बगल व कनपटी के दो चार बालों को छोड दिया जाये तो अभी भी सारे के सारे काले व घने बाल किसी भी औरत के लिये ईष्या का कारण बन जाते है। उसके चंद चांदी से बाल भी इस उम्र को और पका व निखरा ही बना रहे थे। चेहरे पर अभी भी नमक व गमक मोती से चमक रहे थे।
स्ंाध्या को लग रहा था आज जिंदगी मे पहली बार अपने आप को आइने में देखा है। कभी देखने का मौका ही न आया जिस उमर में लडकियां अपने खिलाव व उभारों को देख देख खुष होती हैं उस उमर मे ही तो रीतेष ने डोरे डाल दिये। पहली बार जव उसने प्यार का इजहार किया तब तक तो वह उसका मतलब भी ठीक से न समझ पाने की उम्र में थी। तब वह कितना घबरा गयी थी। हडबडाहट में उसने इय बात जा कर आई से कह आयी थी। कि रीतेष मुझसे षादी करने को कह रहा है। उस दिन तो लोगेां ने रीतेष की बातों को मजाक में लिया पर एक दिन जब यह खबर मिली कि रीतेष नदी में छलांग लगा दी थी कि अगर संध्या से षादी नही हुयी तो वह मर जायेगा। तब वह अंदर ही अंदर दहल गयी थी। उसे तो समझ ही न आ रहा था उसे क्या करना चाहिये। हालाकि उसकी साथ की सहेलियां उससे चुहल करती कि तेरे को कोई तो इतना चाहता है जो जान भी दे सकता है। यह सब सुन सुन कर उसकी चिडिया जैसी जान सूख जाती। वह समझ ही न पाती कि इस पर वह किस तरह रिएक्ट करे।
जब इस प्रकार की कई हरकतें रीतेष करने लगे अपनी पढाई लिखाई छोड गुमषुम से रहने लगे तो उसके घरवालों ने अपने एकलौते बेटे की खातिर उसके यहां रिष्ता लेकर आये जिसे पहले तो उसकी मॉ ने मना कर दिया। जिसका सबसे बडा कारण रीतेष का उनकी जात का न होना तो था इसके अलावा संध्या की उमर भी बहुत कम होना था। पहले तो उन्होने कहा कि अभी नही पहले बच्ची को पढ लिख तो लेने दीजिये पर बहुत समझाने पर चार साल बाद ही रीतेष के साथ हाथ पीले कर दिये गये। मॉ ने यह सोच कर भी हामी भर दी थी कि चलो अगर घर बैठे बैठाये अच्छे खाषे घर का रिष्ता आ रहा है। लडका इकलौता है अच्छी खाषी जायजाद है। लडका भी देखने सुनने में ठीक ठाक है। तो ऐसे मे न करके बाद में वह अकेले कहां कहां वर खोजती फिरेगी। हां कर दिया था।
षादी के वक्त उम्र ही क्या थी। उन्नीस साल। आज कल तो इस उम्र में लडकियां जींस टाप्स पहन कालेज में मटकती रहती है। अपने ब्वायफ्रेड के साथ धौल धप्पा करती हंसती खिलखिलाती। बिंदास चिडिया जैसी। हालाकि उस दौर में इतना खुलापन नही था। फिर भी लडकियां सलवार सूट में कालेज आना जाना षुरु कर चुकी थीं। पुरुष सहपाठियों से हल्के फुल्के मेलजोल को थोडे बहुत विरोध से सहमति मिल ही जाती थी। पर उसे तो इन सब बातों को मौका ही कब मिला।
मांग मे सिन्दूर भर कर कालेज जाना और कालेज मे भी रीतेष का साथ होना। चौबिसों घ्ंाटों के साथ मे रीतेष भी खुष रहता। उसे लगता जैसे बच्चे को उसके पसंद का खिलौना मिल गया हो। और वह उससे दिनरात खेल रहा हो। वह उसके इस प्रेम को देखती और खुष होती। धीरे धीरे उसे लगा यही तो प्रेम है। वह रीतेष के साथ हंसती खिलखिलाती। पर कहीं न कहीं मन मे उसे रीतापन सा व्याप्त रहता लेकिन वह इस बात को मन से झटक देती उसे लगता हो सकता है वह ही ठीक से न समझ पाती हो अपने आपको।
संध्या विचारों में और गहरे उतर पाती कि बीबी की आवज से वह चौक गयी। घडी की तरफ देखा षाम के पांच बज चुके थे। बीबी की चाय का वक्त हो चुका था। उसी के लिये आवाज दे रही थी।
संध्या ने जल्दी जल्दी एक कप चाय बीबी के लिये दूध वाली बना कर दे आयी और फिर अपने लिये एक कप बिन दूध की नीबू वाली काली चाय बना के फिर से अपनी खिडकी के पास आ कर बैठ गयी। खिडकी के षेड से पानी की बूंदे थम थम के गिर रही थी।
मन ही मन वह भी तो बूंद बूंद रिस रही रही है अपनी यादों में अपने सूने पन में अपनी उन इच्क्षाओं को लेकर जिसे वह कभी समझ ही नही पायी कि वे क्या इच्क्षाऐ हैं।
हो सकता है इसका मौका ही न आया हो। उसी तरह जिस तरह उसने कुवारे पन के प्रेम को जाना ही नही।
खैर संध्या अपने माज़ी मे डूबती उसके पहले ही मोबाइल मे एस एम एस फलैष की चमक देखते ही उसके चेहरे पे भी चमक आ गयी। जिसे वह चाह के भी नही रोक पाती। हालाकि उसे खूद पे भी आर्ष्चय होता कि ऐसा क्यूं।
मगर यह सब सोचना भी वह बाद के लिये मुल्तवी करके मोबाइल के एस एम एस को पढने लगी।
‘इक सपना ..... किसी अपने से मिलना
इक इत्तिफाक ... आपका हमारी जिंदगी में आना
इक हकीकत  ... आपसे दोस्ती होना
इक तमन्ना  ..... इस दोस्ती को ज़िदगी भर निभाना
गुड़ इवनिंग .....

संध्या के चेहरे पे मुस्कुराहट फैल गयी।





औरत एक नदी है।
स्ंाध्या ने कुछ देर तक तो खिड़की के बाहर उडते परिंदो को देखा, उनकी चहचह सुना, तितलियों को फूलों पे मंड़राते देखा, बारजे से टपकती बारिस की बूंदो को देखा। फिर होैले से बाहर के सारे द्रष्य छोड गुनगुनाती हुयी ड्रेसिंग टेबल के सामने खडी हो गयी। 
अपने आप को सी एफ एल की दूधिया चांदनी में देखने लगी। दूधिया चेहरा षरम से उफना गया। उसे लग ही नही रहा था यह वही संध्या है।
उसे लगता वह आजकल रोज रोज बदलती जा रही है। चेहरे पे रोज रोज निखार आ रहा है। इस उम्र में अपने अंदर के परिवर्तन को देख देख खुद न समझ पा रही थी। यह भावनाएं मन के किस कोने में दबी ढकी थी जो अब उभर रही हेै।
जैसे जलने के पहले ही बुझ गयी सी उपले की आग थोडा कुरेदते ही फिर से लहलहाने के लियो व्याकुल हो रही हो।
लेकिन इस आकुलता व्याकुलता में भी उतावला पन कहीं न था अगर हो भी तो वह किसी मैदानी इलाके में मंथर गति से बहती नदी की तरह अंदर ही अंदर से हरहरा रही थी।

क्या कोइ्र मैदानी इलाके की मंथर गति से बहती नदी को देख कर अंदाजा लगा सकता हेै कि यह पहाडी नदी अपने उदगम पे कितनी षुभ्र, और उज्जवल थी जिसे इस मैदान पे आने आने तक न जाने कितने पत्थर दिलों को चीरना पडा होगा न जाने कितनी चटटानों पर षिर पटकना पडा होगा, न जाने कितने अवरोधों को पार करना पडा होगा न जाने कितने पेड पौधेां व झुरमुटों को अपने अंदर ही अंदर बह जाने दिया होगा। न जाने कितनी बार अपने आप को मैली होने से बचाना पडा होगा। तब जा कर मैदान में आकर मंथर गति से बह पा रही है। पर अभी भी तो लोग सतह ही देख रहे हैं क्या किसी ने देखा कि उसके अंदर भी लहरे अभी भी मचल रही हैं अभी भी उसके अंदर गति करने का माददा है अभी भी वह नदी ही है जो हरहार सकती है अपनी पूरी स्निग्धता व भव्यता के साथ। पर नही कोई भी तो नही है जो उसके अंदर की हिलोरों को महसूस करता जो भी मिलता वह बस नहा के अपने आपको तरोताजा करने की नियत से ही पांव पखारने की कोषिष की। खैर अब तो वह किसी की भी परवाह नही करती। परवाह करने का यह मतलब नही, वह किसी को दुख देना चाहती है। हालाकि वह किसी को दुखी कर भी नही सकती। यह उसकी फितरत में ही नही है।
फिलहाल जलजले के बाद उसने अपने जीवन व बच्चों के बारे मे जो जो भी सोचा वह हो जाने के बाद, सब कुछ सामान्य हो जाने के बाद जब कि महज जलजले की स्म्रतियां ही षेष है। वह अपने जीवन को अपने तरीके से जी रही है। होैले हौले बहते हुए। अपने अंदर की लहरों को देखते हुए। 
फिलहाल जबकि बच्चे अच्छे से विदेषों मे जाकर षेटेल हो चुके हैं अपने अपने परिवार व बिजनेष में खुष रहने लगे।
तब जाकर उसने अपने आपको अपने तक सीमित कर लिया। अब तो उसने अपनी सारी दुनिया अपने कमरे मे ही सजा ली है।
कमरे के एक कोने मे बेड़, पढ़ने की मेज, मेज पे कम्पयूटर, किताब की षेल्फ,म्यूजिक सिस्टम और कैनवास व कलर्स व छुटपुट सामान बस। बस अब यही उसकी दुनिया है। और दूसरे कमरे मेे रह रही बूढ़ी मॉ। बस।
मॉ को समय समय से नाष्ता खाना व दवाई दे कर उनका टी वी चला देती और फिर वह अपने कमरे मे अपने आपको कैद कर लेती। फिर बहती मंथर गति से हौले हौले। बस तब वह बस बहती बहती ओर बह रही होती है। अपने अकेलेपन में अपने माज़ी में अपनी कल्पनाओं में अपनी कविताओं और पंेटिग्स में। कभी कभी मन बहलाव के लिये नेट पे बैठ बच्चेंा से चैट करलेती और हालचाल भी ले लेती। और फिर कभी खिडकी पे बैठ हरसिंगार की पत्तियों के पीछे से झांकती लम्बी खाली सपाट सडक को देखती। जिसमें इक्का दुक्का रहगुजर ही कभी कभी दिखाई पडते।
उस दिन वह जब पेंटिग करते करते उब गयी तब नेट पर किसी साहित्यिक अंर्तजाल पे जाकर किसी नयी रचना को पढ़ना चाह रही थी कि एक कहानी का षीर्षक देख नजरे रुक गयी। ‘पहाड़ और नदी’ जिसमें नायक नायिका से कहता है।
‘सरिता ! तुम अब एक ऐसी नदी हो जो मैली हो चुकी हैं जिसमें डुबकी लगाने का मतलब यह हेै कि अपने आप को मैला करना’
तब नायिका बिफर कर कहती है।
‘हां हां अब तो मै मैली हो ही गयी हूं पर इसे मैली करने में भी तो तुम्हारा ही हाथ रहा है। हां यह ठीक है कि तुम्हारे पहाड़ जेैसे व्यक्तित्व के आगे मेरी जैसी पहाड़ी नदी का क्या अस्तित्व। तुम्हारे अंदर तो न जाने कितनी नदियां बहती रहती हैं। पर यह भी जान लो अगर तुम्हारे पत्थर से दिल में मै न बहती तो तुम पत्थर ही रहते जिसमे कोई आर्कषण न होता। वह तो हमारी जैसी नदी के बहने से ही तुम इतने जीवंत हो तुम्हारे सीने पे जो इतनी हरियाली हे वह हमारी जैसी नदी की ही वजह से है। वर्ना तुम तो पत्थर हो जिसमें कोई आर्कषण नही होता अगर हरियाली न होती तो कोई तुम्हे पूछता नही। और फिर अगर मैली हुयी भी हूं तो उसका कारण तुम्ही हो। क्या तुमको नही मालूम कि जब षुरु में मै कितनी पावन व पवित्र थी यह मै नही तुम ही कहा करते थे। पर अगर इसे तुमने अपने ही सीने में बहने दिया होता अपने ही अंदर लहराया दुलराया होता तो मुझे क्या जरुरत थी तुम्हारी बाहों से निकल कहीं और बहने की। तब तुम्ही तो पत्थर बने रहते थे जिसे तुम अपनी तटस्थता और और ज्ञान मान तने रहते थे। क्या तुमने कभी मेरी कोमल भावनाओं को समझ मेरे संग कलकल किया कभी भी मेरे अंदर जंगल से बह आये झाडियों और गुल्मो को बहने से क्यों नही रोका । तब क्यों बह जाने दिया। तब तुमने क्यों नही उन्हे रोका जो मेरी खूबसूरती से प्रभावित हो अपने गंदे पांव पखारते की कोषिष करते तब तो तुम मौन बने थे। आज तुम्ही मुझे दोष दे रहे हो। ठीक है तुम पुरुष हो। कठोरता व स्थिरता तुम्हारा प्रक्रितिगत स्वभाव है कोमलता और बहना मेरा। पर यह जान लो चाहे मै जितनी मैली हो जाउं पर एक न एक दिन सागर में विलीन हो कर पूर्णत्व को पा ही लंूगी पर तुम तब भी इसी तरह इसी जगह खडे रहोगे धूप व ताप सहते हुये किसी और नदी  को दोषी ठहराते हुये।’
यह कहानी पढ कर बहुत देर तक वह रोती रही। और फिर रहा न गया तो उस कहानी के लेखक को मेल कर ही दिया।

प्रभात जी,
अभी अभी, नेट पर आपकी कहानी ‘पहाड़ और नदी’ पढी। खाषी भावुक व मन को छू लेनी वाली कहानी लिखी है। किसी पुरुष के द्वारा स्त्री के पक्ष में लिखी यह कहानी अंर्तमन तक हिला गयी। एक अच्छी रचना के लिये आप बधाई के पात्र है।
लेकिन क्या बात है इसके बाद आप की कोई रचना नही आयी।
यदि हो तो वह कहां व कैसे उपलब्ध हो सकती है।
स्ंाध्या

दूसरे ही दिन एक छोटा सा जवाब मेल बाक्स में नमूदार हुआ।

संध्या जी,
आपको मेरी कहानी अच्छी लगी। जान कर प्रसन्नता हुयी।
रही आपके प्रष्न की कि मेरी दूसरी रचनाएं क्यों नही आयी।
इस संदर्भ में मात्र इतना ही कहना चाहूंगा कि लेखन मेरा व्यवसाय या मिषन नही।
षौक है। लिहाजा जब तक कोई विचार अंदर तक हिलाता या भिगोता नही तब तक मेरी कलम चलती नही। लिखने के लिये लिखना आदत नही।
पर ऐसा नही कि इसके बाद लिखा नही थोडा बहुत जो भी लिखा उसे अपने तक ही सहेजे हूं। वेैसे भी मुझे छपास की कोई बहुत ज्यादा ललक कभी रही नही।
लेखन मेरे लिये एक रेचन की तरह है जिसके बाद मै अपने को हल्का कर लेता हूं। या कह सकती हैं स्रजन मेरा स्वांतह सुखाय कर्म है।
फिलहाल मै आप को अपनी एक और कहानी भेज रहा हूं।
यदि आपको पसंद आती है तो यह मेरा सोैभाग्य होगा।

प्रभात

उसके बाद से रचनाआंे और पत्रों का एक सिलसिला ही निकल पडा।
उसके बाद फोन पे बातों ने नदी के लिये एक नये और अंजानी मंजिल का रास्ता खुलता गया जो नदी की मंथर गति में होैले हौले गतिषीलता देता जा रहा था।
अचानक उसे खयाल आया एस एम एस का तो उसने जवाब ही नही दिया। पर इस वक्त वह इस मेल का जवाब देने की जगह बात करना ही उचित समझा।
संध्या की नाजुक उंगलियां मोबाइल के मुलायम की पैड़ पर खेलने लगीं।
बाहर अभी भी हरसिंगार की पत्तियों से व खिडकी के षेड़ से बूंदे गिर रही थी। जो नियॉन बल्ब की दूधिया रोषनी में चमक रहे थे।
संध्या की हंसी उसमे जलतरंग सा बज रही थी।


पहाडी बरसाती रात काली आज भी कालिमा से व्यप्त थी पर न जाने क्यूं उसे आज उतनी भयावह न लग रही थी। उस कालेपन में एक कोमलता व गहराई अनुभव कर रही थी। मन हौले होेेैले मस्ती में डूबना चाह रहा था दो चार दिनों में ही आये अपने अंदर के इस परिवर्तन को वह समझ तो रही थी। रोकना भी चाह रही थी पर न जाने मन देह व दिल सभी जीवन भर की आदत व तपस्या का संग साथ छोड रहे थे। पर वह उसी भाव में तो बहना चाह रही थी। मन की एक एक लहर को गिनना व जीना चाह रही थी। लिहाजा रात का खाना मॉ को खिला के खुद खा के अपना पसंदीदा टी वी सीरियल भी देखना छोड नेट पे आ बैठी षायद कोई नयी मेल आयी हो। मेल बाक्स ढेर सारी जंक और बेकार मेलों से भरा पडा था जिसे वह एक एक कर डिलिट करती जा रही थी। उसी मे वह मेल भी थी जिसमे उसने अपने बारे में लिखा था।

दीप्ति जी,
तुमने कभी रेगिस्तान देखा है। रेत ही रेत। रेत के सिवा कुछ भी नही। रेत, समझती हो न। पत्थर, जो कभी चटटान की तरह खडा रहता है सदियों सदियों तक, पर धीरे धीरे आफताब की तपिष और बारिष व तूफान से टूट टूट कर रेजा रेजा होकर बिखर जाता है। तब वही पत्थर रेत का ढेर कहलाता है। और जब पूरा का पूरा पहाड़ रेजा रेजा बिखर जाता है, तो वह रेगिस्तान कहलाता है।

उसी रेगिस्तान को कभी गौर से देखा है। जो दिन में आग सा दहकता और रात में बर्फ सा ठंड़ा होता है। जिसके सीने पर मीलों तक सन्नाटा पसरा रहता है, मौत सा गहरा सन्नाटा। जिसमें साथ देने के लिये पहाड़ों कि तरह चीड़ व चिनार के दरख्त नही होते। खूबसूरत लहलहाते फूल के गुच्छे नही होते। दिल की गहराइयों तक उतर जाने वाले ठंडे़ पानी के चष्में नही होते। झील व कलकल करती नदियां नही होती।
वहां ंजंगल में नाचने वाले मोर और कूकने वाली कोयल भी नही होती। षेर व चीता जैसे चिंघाड़ने वाले जानवर भी नही होते। यहां तक कि मासूस षावक व फुदकती हुयी गिलहरी भी नही होती। और न ही होती है मीलों तक एक के पीछे एक कतार से चलने वाली चींटियां।

ऐसा ही एक रेगिस्तान मेरे अंदर भी फैेला है। जिसमें हरियाली के नाम पर छोटी छोटी अपने आप उग आने वाली कंटीली झाड़ियां है या फिर अक्सर और दूर दूर पर दो दो चार चार की संख्या में खुरदुरे तने वाले ताड़ या कहो खजूर के पेड़ होते है। जिनकी जड़ों में पानी देने के लिये कोई नहर या झरना नही बहता। खाद व पानी देने के लिये कोई इंसान नही होता। फिर भी ये षान से और पूरी अलमस्ती से खड़े रहते है। बिना किसी षिकवा षिकायत के अपने उपर नुकीली पत्त्यिांे का छाता सा लगाये।
जानती हो। एसे बीराने मरुस्थल में ये दरख्त कैसे जिंदा रहते हैं।
तो सुनो
जब कभी कोई बदरिया अपने ऑचल के सारे जल को किसी पहाड़ या तराई पे बरसा के या कहो लुटा के फिर से सागर की ओर जा रही होती है। और उसका रहा सहा जलकण सूरज भी सूख चुका होता है। उसी छूंछे बादलों से ये पेड़ सूरज की रोषनी से ही कुछ जल चुरा लेते हैं। और फिर षान से जिंदा ही नही रहते बल्कि अपने अंदर भी मीठा मीठा जीवन रस पैदा करते और संजोते रहते हैं।
यही रस रात भर ऑसू की तरह बहते रहते हैं, चुपके चुपके धीरे धीरे ताकि किसी को एहसास न ही उनकी बीरानी का उनकी तंहाई का। लेकिन जमाने वाले उसे भी हंड़िया में बूंद बूंद भर लेते हैं। ंऔर सुबह पीते हैं जिसे ताड़ी कहते हैं। और जानती हो उस ताड़ी में हल्का हल्का मीठा मीठा सा नषा होता है। जो धूप चढ़ने के साथ साथ और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। इसके अलावा ये दरख्त उसी जल कणों से खजूर जैसे मीठे फल भी उगा लेते हैं। ये सीधे पर थोडे़ से तिरछे खड़े होकर किसी थके व तपे मुसाफिर को घनी छांह भले न दे पाते हों पर वे ताड़ी जैसा नषीला पेय और खजूर सा मीठा अम्रततुल्य फल जरुर देते हैं जो इस रेगिस्तान के मुसाफिरों के लिये वरदान है।
बस इसी तरह मै भी अपनी महबूबा और चाहने वालों से दूर चाहे कितनी दूर रहूं। पर उनकी यादों और फोन कॉलों से प्रेमरस खींचता रहता हूं और जिंदा रहता हूं।
लिहाजा मेरी बातों को ताड़ी और कविताओं को खजूर जानो।
बाकी तो एक पहाड़ हूं जो टूट टूट कर रेजा रेजा बिखर चुका है किसी रेगिस्तान की तरह। ी

प्रभात

नोट ...आपको तुम लिखने के लिये क्षमाप्रार्थी हूं। पर इस खत में आप से अपनापन नही आ रहा था। इसलिये यह गुस्ताखी की है। उम्मीद है आप मॉफ करेंगी।

इस खत को पढ कर कितना उदास हो गयी थी काफी देर तक रोती रही थी।
संध्या ने खत को आज भी पूरा का पूरा पढ गयी। ?
उदासी एक बार फिर उसके वजूद में पूरा का पूरा घिर आयी।

बाहर काली रात अब और काली हो चुकी थी। बारिष की बूंदे तेज और तेज हो कर खिडकी के षेड से अब बूद बूद की जगह धार से बहने लगी थी। और हर सिंगार का  पेड भी पानी से तरबतर हो रहा था खुले आकाष के नीचे।
संध्या के अंदर भी कुछ बह रहा था। पहले धीरे धीरे फिर जोर जोर ...

पापा के न रहने पर भी मॉ ने षादी मे कोई कोर कषर न छोडी थी वह नही चाहती थीं को बेटी को कहीं से यह अहसास हो कि उसके पापा नही है। और उधर रीतेष के घर वालों ने भी तो कोई कोर कषर न छोडी थी अपने हिसाब से जो भी अच्छे से अच्छा बन पडा किया। करते भी क्यूं न उनके एकलौते लडके का ब्याह जो हो रहा था। और बहू भी तो चॉद जैसी थी। सबसे बडी बात लडके को पसंद थी। सब कुछ कितना षौक से हुआ था। वह भी उस खुषी मे षामिल थी। उसे भी सब कुद अच्छा अच्छा लग रहा था।
दो चार दिनों मे ही तो उसने ससुराल के हर एक का मन मोह लिया था। जो भी आता उसकी तारीफ किये बगैर न रहता। सभी उसके रुप और गुण दोनो की तारीफ करते न अघाते।
और करते भी क्यों नही क्या नही था उसके पास सुंदर तो थी ही पढने लिखने मे भी अच्छी थी गाना बजाना उसे आता था। स्वभाव भी उसका सबके प्रति प्रेमपूर्ण था। रीतेष तो उसके प्रेम में पागल थे ही। पीछे पीछे उसके डोलते रहती। जहां वह जाती वहीं वह भी रहती। साथ सोना साथ जागना साथ साथ काले ज जाना। बी ए के अतिंम वर्ष में ही तो विवाह हो गया था। फिर एम ए मे दोनो ने एक साथ ही दाखिला लिया था। अब तो कालेज भी एक साथ जाना आना होता।
रीतेष सितार अच्छा बजाते जब वह बजाते तो वह गाया करती। दोनो की जोडी अच्छा समां बांधती। दोनेा कबूतर कबूतरी से हर दम गुटर गूं गुटर गूं करते रहते। हालाकि इतने ढेर सारे सुखों के बीच में भी संध्या के दिल में कहीं न कहीं एक खलिष की हल्की हल्की लहर कभी न कभी नदी की तलहटी से उपर आ ही जाती उसे लगता कि क्या यही प्रेम है क्या इसी के लिये लडकियां परेषान रहती है। वह अक्सर अपने आप से पूछती पर उत्तर न मिलता। तो वह फिर रीतेष की बाहों में अपना गौराया सा चेहरा दुपका के सो रहती।

झील सी गहरी ऑखों का मीठा मीठा पानी कसैला हो गया।

झील सी गहरी
ऑखों का
मीठा पानी
चेहरे के नमक से
घुलमिल कर
बरसा
और पानी
कसैला कसैला
सा हो गया

नदी गोमुख से निकल पहाडों पे कल कल कर रही थी अपनी पूरी भव्यता और सुंदरता के साथ।
संध्या की झील सी ऑखें हर समय झील से लहराती रहती।  रीतेष ही नही जो भी उसे देखता देखता ही रहजाता। जो कोई भी देखता बिना रीझे न रहता। हर कोई कहता।
रीतेष की बहू बहुत सुन्दर है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा गाती है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा बोलती है। रीतेष की बहू बहुत अच्छा बतियाती है। रीतेष की बहू की बोली बानी तो बिलकुल कोयल सी है। रीतेष की बहू पढने लिखने भी बहुत होषयार है। रीतेष की बहू रीतेष की बहू। जिसे देखो वही रीतेष की बहू के गुणगान में लगे रहते। वह भी मस्त और मगन कोयल सी कुहुकती व चिडिया सी फुदुकती रहती। खुष खुष। पर उसे यह तनिक भी अहसास न हो रहा था कि उसकी जितनी भी तारीफ होती है उतना ही मन का कोई कोना रीतेष के अंदर टूटता है। उसे लगता कि षायद संध्या के आगे तो उसका वजूद चुकता जा रहा है। वह उसकी दीप्ति के आगे छिपता जा रहा है।
अंर्तमुखी रीतेष के व्यवहार ने संध्या को यह अहसास ही न होने दिया कि इनफियारिटी कॉम्पलेक्स की कोई गांठ रीतेष के अंदर बन रही है। वह तो उनकी चुप्पी को उनका स्वभाव समझती और उन्हे ज्यादा से ज्यादा खुष रखने की कोषिष करती।
वह उन्हे जितना खुष रखने की कोषिष करती रीतेष उतने ही गुमसुम्म हो जाते और चुप हो जाते पहले तो दो चार दिन में फिर से सामान्य हो जाते पर उनका यह गुमषुम पना अंदर ही अंदर कया गुल खिला रहा है। जब तक उसे पता लगता लगता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तब तक जीवन का बसंत कब बारिस के मौसम मे बदलता गया जो धीरे धीरे तूफान में बदला अैार तूफान एक ऐसे जलजले में बदल गया जिसमें सब कुछ बह गया। जिसे संवारते संवारते आज इस किनारे पे आ लगी है। जहां साथ देने को सिर्फ है तो मॉ है जो उसकी जननी है।
पर फिलहाल यह सब सोचते सोचते उसे भी काफी देर हो चुकी थी। बाहर धुंधलकी बरसाती षाम कब काली अंधियारी रात में बदल गयी उसे पता ही न लगता अगर मॉ ने चाय व दवाई के लिये आवाज न दी होती।

...

रीतेष के जिस घुन्नेपन को वह उसका स्वभाव समझती उसके पीछे कितना घिनौना चेहरा छुपा है उसे धीरे धीरे पता लगता गया। पहले तो उसकी और मीना और उसके मेल जोल को मोैसेरे भाई बहनों का स्नेह समझती कोई ज्यादा ध्यान ही न दिया पर बाद में उसे पता लगा कि उनलोगों को रिस्तो की पवित्रता का कोई अहसास नही है। वे दोनेा तो भाई बहन के इस पवित्र रिस्ते के पीछे इतना घिनौना खेल खेल रहे थे कि सुन के ही उसे उबकाई आ गयी। जिस दिन पहली बार इस बात का पता लगा वह विष्वास ही न कर पायी कि दुनिया में एसा भी हो सकता है और उसी के साथ हो सकता है ।
रीतेष और मीना को एक साथ आपत्तिजनक अवस्था में उसने खुद देखा। उस दिन उसके षरीर में फिर गंदे कीडे रेंगने लगे जिनसे निजात पाने के लिये वह कितना रोयी थी कितना तडपी थी यह उसकी आत्मा ही जान सकती है या वह खुदा जिसने उसे बनाया है।
इतने बडे आघात को वह महज इस लिये सह गयी कि अब तक वह फूल सी बच्ची व एक बेट की मॉ बन गयी थी। अब सवाल सिर्फ उसकी जिंदगी का ही नही रह गया था इन बच्चों का भी जीवन उसके व रीतेष के साथ जुड गया था।
और फिर वह पिता के न रहने का दर्द अच्छी तरह से जानती थी। इसलिये वह कोई ऐसा कदम नही उठाना चाहती थी कि उसकी बेटी को बाप को प्यार न नसीब हो। इस लिये उसने अपने सीने पे पत्थर रख कर भी रीतेष व मीना के घिनौने संबंध को स्वीकार कर लिया था। पर अब जब भी रीतेष उसे छूते तो वह तडप उठती लगता कि रीतेष के हाथ नही गंदगी से लिथडे हाथ हेैं जो गंदे कीडों सा षरीर पे रेंग रहे हैं पर वह उन गंदे कीडों को भी बरदास्त कर गयी। जब रीतेष ने रो रो के मॉफी मांगी थी और मॉफ न करने पर मर जाने की धमकी दी थी। । पर उसका मासूम मन तब भी नही समझ पा रहा था कि यह कसम भी उसी तरह की झूठी कसम है जिसे उसने षाादी के पहले खायी थी।

संध्या रोती जा रही थी और इन सब बातों को सोचती जा रही थी। उसके अंदर की एक एक लहर बह रही थी।
रीतेष माफी मांगने के बाद बहुत दिनो तक षर्मिंदा न रह सके कुछ दिन बाद उनकी मीना के साथ फिर वही रासलीला षुरु हो गयी। बस फर्क इतना था कि अब यह खेल थोडा ज्यादा ही लुका छिपा के खेला जाता पर यह लुकाव छिपाव भी ज्यादा दिन न चला उजागर हो ही गया।
लिहाजा इस बार संध्या ने कुछ कहा तो नही। बस रीतेष को अपने पास न फटकने देती।
वह उनके साथ रह के भी न रहती । उनको चुपचाप खाना दे देती। सारा काम कर देती जैसे वह उनकी नौकर हो।
वह बिलकुल टूटचुकी थी पर सास का स्नेह व ससुर का वरदहस्त ही था जो उसे सम्हाले हुआ था। वर्ना फूल की यह डाली तो टूट ही गयी थी।
सोचते सोचते संध्या की आंखें सावन भादों बन बरसने लगी। बाहर बादल भी पूरी जोर से बरस व गरज रहा हो मानो वह भी इस वक्त संध्या के दुख से दुखी हो गया हो।
वह न जाने कितनी देर और रोती रहती अगर मोबाइल की घ्ंाटी न बजी होती। उसने झट ऑखें पोछी और, हैंडसेट की लाइट में प्रभात का नाम चमक रहा था।


नेट पे रोज सा आज फिर प्रभात का ख़त पहले से ही मौजूद था। संध्या ने सबसे पहले उसे ही खोला पढते ही मन खुष हुआ।

संध्या जी,

आप जैसे मासूम और पाक दिल वालों की जिंदगी की चादर की बनावट बहुत झीनी होती है। जो फूल सी मुलायम व कपास सी उजली होती है। जिसे बहुत ही आहिस्ता व नजाकत से ओढ़ना व बिछाना पड़ता है, वरना जरा में ही मैली व बेनूर हो जाती है। पर आपने अपनी चादर इस बेमुरउव्वत जमान से जिस क़दर बचाकर आज तक रखी है, जो आज भी चॉदनी सी सुफेद और संदल सी महक लिये महकती व चहकती रहती है। वह निसंदेह काबिलू तारीफ है।
इसी बात के ही तो हम आपके कद्रदां होते जा रहे हैं। और सिर्फ यही बात क्यों आप जिस खनखनाती हंसी और ताजगी से भरी बातें करती हैं वह अपने आप में बेमिसाल है। ‘आपके जज्बात व रचनाऐं उससे भी ज्यादा’
कल आपका सुनाये षेर व अषरार काफी पसंद आये, उसी गुनगुनाहट को लिये दिये रात गुजार दी।
इस उम्मीद से कि कल फिर आपसे बातें होंगी। कल फिर कुछ सीखने को मिलेगा।
गुड़ डे।

प्रभात

सच जो भी उसे देखता यही कहता अरे यह तो बिलकुल फूल जैसी है। इतनी नाजुक और कोमल लोग कहते यह तो छूने भर से मैली हो जाने वाली है।
उस छोटी सी नाजुक सी गुडिया को जो भी देखता तारीफ किये बिना न रहता। पापा तो उसे रुई के फाहे सा उठाते और रखते। आफिस से आकर वह गोद में ही लिये लिये घूमा करते। मॉ बताती है वह जिस चीज की ओर उंगली उठा देती या जो चीज भी देखकर मचल जाती वह उसे ले जरुर आते चाहे वह मतलब की हो या न हो। पापा कॉफी प्यार करते। और करते भी अगर ...

 सच वह तन से ही नही मन से भी कोमल कोमल थी तभी तो जो कोई भी दो षब्द प्रेम से बोलता वह उसके प्रभाव में आ जाती। यही तो रीतेष ने भी किया हमेषा से उसे इमोषनल ब्लैकमेल किया मीठे मीठे बोल बोल के। ये तो कहो बच्चों की वजह से उसे बहुत कुछ कठोर होना पडा वर्ना रीतेष ने तो उसका जीवन नर्क करने मे कोई कषर न छोडी थी।


मौसम अपना मिजाज रोज रोज बदल रहा है। दो दिन पहले तपन थी कल बादल छाये थे और आज बारिस।
ऐसे ही संध्या का मन भी रोज रोज बदल रहा था। वह अपने अंदर आये इस बदलाव से पूरी तरह वाकिफ थी। पर बेबस थी इस बार उसकी इच्छा षक्ति काम न दे रही थी। ऐसा नही था इतने दिन की एकाकी यात्रा में कोई ऐसा रहगुजर न मिला हो जिसके साथ बैठना बोलना अच्छा न लगा हो। पर हर बार दो चार मुलाकातों में ही अपने घिनौने हाथ पैर पसारने षरु कर देते। देह में घिनौने कीड़े रंेगने लगते। जो मन तन को गंदा ओर वीभत्सता से भर देते  और वह घोर वित्रषणा से भर उठती। पता नही षायद वही वित्रषणा रही हो या कि कोई ओर अन्जाना कारण उसके अंदर गांठ के रुप में पलता बढता गया जो आज इस रुप में उभर आया है। जब वह किसी भी व्यक्ति और वस्तु को छूना उसे गंवारा नही होता। हर चीज व वस्तु जब तक दो तीन बार धो के साफ नही कर लेती उसे लगता यह चीज गन्दी है। हर चीज वह धो पोछ के ही इस्तेमाल करती है। उसकी इसी आदत से निजी जीवन भी बुरी तरह से बाधित होता गया। और वह धीरे धीरे और और एकाकी होती गयी। इधर दो तीन सालों में जब से बच्चे अपने अपने स्थानों में गये, तबसे तो घर में ही कैद हो के रह गयी है। जहां सिर्फ वह है और मॉ। मॉ का काम धाम करके बस दिन भर साफ सफाई में ही लगे रहना उसका षगल बन गया उसे लगता हर एक चीज मैली है गन्दी जिसे छू कर वह भी गन्दी हो जायेगी। कभी कभी तो उसे भिण्डी जैसी सब्जी में भी किसी पुरुष की उंगलियां नजर आती जो उसे छूना और डसना चाहती है। इस परेषानी को डाक्टर ओ सी डी कहते हैं जिसका इलाज भी कराया पर कोई खाष रिजल्ट नही आया। अब तो इलाज कराना भी छोड दिया है। इसे भी एकाकी पन की तरह स्वीकार्य कर लिया है।

देह में चिपके कीडों को पहली बार तब महसूस किया था।
महज आठ व नोै साल की खूबसूरत गुडिया । हर वक्त फूल किस खिली खिली। जो भी उसे देखता देखता ही रह जाता। तारीफ किये बिना न रह जाता कह ही उठता संध्या अभी इतनी सुंदर है तो बडी होकर तो किसी राजकुमारी से कम नही लगेगी। यही फूल सी राजकुमारी बंगले के अहाते में खेल रही है। अकेले ही एक पैर पे उचक उचक के अपने आप में ही मगन है। पास ही उससे कुछ बडा पर मोट और गबदू सा लडका भी खडा है । बाबर। वह  चुपचाप बडी देर तक तो फूल सी बच्ची को देखता रहा फिर पता नही क्या मन में आया कि उसने उसे अपने दोनो हाथों में दबोच के पास के ही गढढे में कूद गया। फूल बेहद डर गयी बाबर उसे दोनेा हाथों से पकडे था। वह घबराहट में रो भी न पा रही थी। पर पता नही कैसे वहां से उठ के भागी और जा कर आई की गोद में दुबक गयी। सबके बहुत पूछने पर भी वह कुछ न बोली उसके साथ क्या हुआ। पर रात सपने मे उसे लगा जैसे उसे बाबर नही किसी बडे से कीडे ने पकड लिया हो। वह सपने में ही घबरा गयी।
षायद तब से ही उसे हर चीज लिजलिजी व गंदी सी लगती कोई भी उसे छूता तो लगता कोई कीडा छू रहा हो।
उसके बाद तो न जाने कितनी बार नजरों के कीडे काटते चले आ रहे है उनसे बचते बचते आज एक उम्र गुजर गयी पर अभी भी कीडों से निजात नही मिली हर वकत उसे महसूस होता रहता है थोडा सा लपरवाह हुयी और कीडे रेंगना षुरु कर देंगे।
इन्ही कीडों से तो बचने के लिये ही उसने अपने आपको इस कमरे तक ही सीमित कर लिया है। 

Mukesh Allahaabaadee-------------------


















जब से आईना बन के देखा है

बैठे ठाले की तरंग -----------


जब  से  आईना बन के देखा है
दुनिया  को  कई  रंगों में देखा है

बहुतों  ने  पत्थर से वार  किया,
कईयों  ने  मुहब्बत  से   देखा है 

चाँद को भी आग सा जलते, और
सूरज को धुंध में लिपटते देखा है

क़तरा ऐ अब्र को समंदर बनते,औ
समंदर को कतरे  में  डूबते  देखा है

जो सिकंदर बनके इतराते थे, कभी
इक दिन ख़ाक में मिलते हुए देखा है

मुकेश इलाहाबादी ---------------------


सूरज को धुंध में लिपटते

Thursday 22 March 2012

आपकी दोस्ती, आपकी बातें, आपकी यादें आपकी कशिश


बैठे ठाले की तरंग --------------------------------------
आपकी दोस्ती, आपकी बातें, आपकी यादें आपकी कशिश
ज़िन्दगी इतनी खूबसूरत होगी हमने अब तक न जाना था

या खुशबू , ये बारिस, या बादल का पानी और ये पुरनम हवा
मौसम इतना भी खूबसूरत होता है हमने अबतक न जाना था
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------------------

डूबती आखों में सवाल ज़िन्दगी का

बैठे ठाले की तरंग -------------
 
डूबती आखों में सवाल ज़िन्दगी का
मिला नहीं माकूल जवाब ज़िन्दगी का

तमाम हसरतों का होना था यही हश्र
मिलना फिर बिछड़ना अंजाम ज़िन्दगी का

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Wednesday 21 March 2012

न कभी खुद को बढ़ा के देखा

बैठे ठाले की तरंग ------------

न कभी खुद को बढ़ा के देखा
न कभी खुद को घटा के देखा

जितनी रही मेरी चादर, अपने
बदन को उसमे सिमटा के देखा

हर एक की कुछ मजबूरियां थी
हमने सभी को आजमा के देखा

हकीकत की ज़मीं तो छोटी थी
ख्वाब कोही हमने बढ़ा के देखा

चाँद  तो  रोज़ ब रोज़  बढ़ता है 
उसे भी हमने घटता हुआ देखा

सूरज भी जो दिन भर तपता है
दिन ढले उसे छुपता हुआ देखा

कल  तलक  जो इंसान ज़िंदा थे
मुकेश उसे आज मरता हुआ देखा 


मुकेश इलाहाबादी ----------------




चॉद और डैम


चॉद और डैम
डैम का गहरा नीला पानी पूरी तरह शांत था। बिलकुल खामोश  रोज की तरह। कंही कोई हलचल नही आवाज नही। चारो तरफ खडे पहाड भी किसी योगी की तरह खडे थे समाधिस्थ।चारो तरफ हर वक्त एक सन्नाटा पसरा रहता। जो कभी कभी मोटरसायकिल की फटफट या किसी बैलगाडी की चरर मरर और गाड़ीवान के हर्र.हर्र से थोडी देर के लिये भंग होती फिर वही सन्नाटा पसर जाता है। मानो रह रह के जल मे कोई छोटा सा कंकड डाल दिया जाता हो और लहरे थोड़ी  दूर जाके फिर शांत  हो जाती हों।


आसपास  बसे लगभग आधा दर्जन गांवो का जीवन भी तो बांध के पानी की तरह  है। उपर से कितना शांत हलचल रहित पर अंदर से कहीं गहरा तो कहीं उथला कहीं जंगली झाडियां तो कहीं पेडो के ठूंठ खडे हैं। लेकिन ये सारी चीजे उनके जीवन के अन्दर  उतर के ही जानी जा सकती हैं। किनारे  पे बैठ के नही। पर कभी कभी उपरी सतह पर भी कुछ हलचल होती रहती है जो  मेरे जैसे व्यक्ति को किनारे पे बैठ के भी दिखायी पड जाती है। जो कुछ देर के लिये विचलित करती है फिर शांत  हो जाता हूं इसी डेैम के पानी की तरह। भाव शून्य,संवेदना शून्य।

रधिया को देख कर कुछ ऐसे ही खयाल मन मे आने लगे थे। अन्दर  ही अन्दर खलबली सी मच गयी थी । पर रधिया के  भोले व शांत चेहरे को देख कर ये अनुमान भी नही लगाया जा सकता कि उसके जीवन मे अभी अभी कितना बडा तूफान आके गुजर चुका है। वह अपनी ही धुन मे गोबर का टोकरा रखे गोशाला की दीवार मे पथे हुए उपले बीनने जा रही थी।

गंदुमी रंग भरे बदन साधारण नाक नक्ष की कुछ कुछ आर्कषक सी यह गवई गोरी अचानक उस दिन मेरे लिये पक प्रेम कहानी का पात्र्र बन गयी। एक लहर बन गयी बंधे हुए पानी की लहर जिसे थोडी देर बाद जाके गुम हो जाना है अथाह जल मे ।

रधिया की पीठ मेरी तरफ थी। छी्रट दार ढीला ढाला सलवार शूट  व दुपटा उसके शरीर  के उभार छिपा नही पा रहे थे। भरे हुए गोल गोल मान्शल  नितंब हौले हौले हिलते तो लगता मानो  बांध के पानी मे कोई नाव धीरे धीरे बह रही हो।उसके शरीर के कटाव भराव व गोलाइयां मन मे एक अजीब सी खुमारी पैदा कर रहे थे। आंखे लगातार रधिया के उपर टिकी थीं। उधर रधिया अपनी अलमस्त अदा से व बेफिक्री से उपले बीनती जा रही थी। उपले निकालते समय उसके हांथ व नितंब भी एक लय के साथ हिलते जिन्हे देख कर अजीब सी हलचल मचने लगती।

जिससे बचने के लिये आंखे दोबारा डैम के ठहरे हुए पानी मे टिका दी मन कुछ अलग विषय पे सोचने की कोशिश मे था कि एक मछली उछल के पानी के बाहर आयी और फिर पानी मे डूब गयी। आस पास का पानी हिलने लगा उसमे कुछ परछाईंया   नजर आने लगीं। परछाइया गहरी होने लगी। परछाइयो मे कुछ अक्श उभरने लगे किसी फिल्म की तरह। और वे चेहरे आपस मे  गडड मडड होने लगे।


रधिया का चेहरा - रामजस का चेहरा- उसके नौकर बल्लू का चेहरा
तीनो चेहरे अलग अलग हो कर अपनी अलग पहचान बना पाते या उनमे एक सूत्रबद्धता ढूंढ पाता तभी सूरज पष्चिमी छितिज पे डूबने लगा षाम गहराने लगी सन्नाटा कुछ ज्यादा ही सांय-सांय करने लगा । बिलकुल उस रात की तरह।

रात के ग्यारह बज रहे थे। दिन भर की भागदौड के बाद बिस्तर पे लेटा ही था कि कपूर साहब का हरकारा आया। सूचना दी। साहब तुरंत बुला रहे हैं। आगे कुछ पूछता कि फोन की द्यंटी बजने लगी उधर से कपूर साहब ही थे बोले ‘यार जल्दी आजाओ एक समस्या आगयी है’ मैने ‘यस सर कहा’ जल्दी जल्दी कपडे पहने मोटर साइकिल उठाई और कपूर साहब के गेस्ट हाउस की तरफ चल दिया। 

मौसम एक हद तक ठंडा था फिर भी कपूर साहब सिर्फ कुर्ता पजामा व हवाई चप्पल पहने कमरे के बाहर टहल रहे थे। काफी बेचैन से नजर आ रहे थे। देखते ही लपक के आये जीप की चाबी देते हुए बोले ‘जल्दी नयी साइट की तरफ चलो’ और आगे की सीट पे बैठ गये। मैने गाडी पे एक गार्ड को बैठाया और पहाडी इलाके  के लगभग दो हजार एकड मे बसी कम्पनी कैम्पस के उबड खाबड रास्तो मे जीप को दौडा दी।
अमावष की रात जंगल मे सांय-सांय कर रही थी। काफी डरावना व भुताहा सा माहौल। कहीं कोई आवाज नही कोई हलचल नही, कभी कभी झींगुरो की भुनभुनाहट जरुर सुनाई पड जाती।
कारण जानने के लिहाज से पूछां ‘सर , कोई ख़ास बात’
‘हां सिक्योरिटी वालो ने सूचना दी है कि नई साइट के पास जो पहाडी नाला है वहां कुछ गांव वाले कोई लाश जला रहे है।’
‘वहां तो कोई शमशान नही है और फिर वह तो अब कम्पनी की जमीन है’
‘इसीलिये तो आप को बुलाया है कि चल कर देखे क्या बात है’
 कपूर साहब ने जवाब दिया
‘पर कम्पनी परिषर मे वे आये कैसे’
‘आप तो जानते ही है कि लगभग सारे सेक्यारिटी गार्ड गांव के ही है। उन्हे डरा धमका के आगये होंगे’
हम लोग यही बात कर ही रहे थे कि गाडी उस पहाडी नाले के पास आ गयी।
सडक के किनारे ही गाडी खडी कर के नाले की तरफ थोड़ी  दूर ही गये होंगे कि अंधेरे मे पंदरह बीस परछाईयाँ हिलती डुलती नजर आरही थी। हम लोग सिक्योरिटी की सूचना पर पूरा पूरा विष्वास कर पाते और टार्च की रोषनी के सहारे सहारे उनतक पहुचते, तब तक आग की लपटों  के बीच कोई लाश  जलती साफ- साफ नजर आने लगी। उन लपटो की रोषनी मे रामजस व षरपंच का चेहरा साफ-साफ नजर आ रहा था। अचानक हम लोगो को देख कर वे लोग कुछ अचकचा गये। सवालिया निगाहो से हमारी तरफ देखने लगे। इस पहाडी इलाके के इतिहाष और भुगोल से ज्यादा परिचित न होने की वजह से और मौके की नजाकत को ध्यान मे रखते हुए मैने ही बात की शुरुआत की
‘सरपंच हम लोगो को सूचना मिली कि यंहा कोई लाश  जलाई जा रही है इसलिये तहकीकात करने आगये हैं। मरने वाला आपका कोई खाश  आदमी था।’ सरपंच ने जवाब दिया
‘नही साहब ये जो अपना रामजस है उसी के यहां एक नौकर था बुल्लू वही आज दोपहर मे डैम  मे नहाते वक्त डूब गया। अभी अभी तो हम लोग पंचनामा व पास्टर्माटम करा के लाये हैं।’
‘वह सब तो ठीक है पर आप लोग हमारे कम्पनी परिषर मे यह सब क्यो कर रहे हैं’ कपूर साहब ने गंम्भीर आवज मे पूछा।
यह सुनते ही रामजस का काला चेचक के दागो वाला चेहरा सुर्ख होने लगा। सरपंच ने बात को सम्हालते हुए कहा ‘कपूर साहब- आपको गलत सूचना दी गयी है। यह षमषान कम्पनी के परिषर मे नही है। आपकी जमीन नाले के उस पार तक ही है । जबकी नाले के इस पार आदिवासियो का षमषान है। यहां आप देख सकते है कई कब्रे भी बनी है।’
हम लोगो ने देखा और जायजा लिया। षरपंच की बात सही थी।
थोडी ही देर मे हम लोग दोबारा अपने क्वार्टर की तरफ चल पडे थे। कपूर साहब ष्षांत और आष्वस्त थे कि लाष उनकी जमीन मे नही जलायी जा रही है। पर मेरे जेहन मे कई सवाल उमड द्युमड रहे थे। उन सवालो के बीच मे रामजस के नौकर बल्लू का चेहरा बार बार उभर आता।
सधारधतःमै आस पास के गांव वालो से ज्यादा मेल मिलाप नही रखता था पर रामजस का मकान कम्पनी के पास ही होने की वजह से अक्षर उसी के द्यर के सामने से गुजरना हो जाता तो उसका नौकर बल्लू जो द्यर के किसी न किसी काम मे व्यस्त रहता था मुझे देखते ही ‘साहब नमस्ते’ कह कर अभिवादन जरुर करता था।
अचानक बल्ल्ूा के मरने की खबर पे विष्वास नही हो रहा था। पर रात के सन्नाटे मे उसकी जलती लाष देख कर विष्वास न करने का कोई कारण नही रह जाता।मन बार बार किसी आषंका से भर उठता और दिल यह मानने को तैयार न होता कि महज यह एक दुर्द्यटना है। यही सब सोचते सोचते न जाने कब मैने कपूर साहब को उनके कमरे छोडा और जाकर बिष्तर पर करवटे बदलते बदलते सो गया।

सुबह रात की द्यटना केा एक सपने की तरह भूल कर रोज की तरह अपने काम मे लग गया । आफिस पहुंचते ही कपूर साहब ने जमीन र्सवेयर को साथ करते हुए बोले आप इसके साथ जा कर कल रात वाले जगह को देखिये की लाष हमारी जमीन पे तो नही जलायी गयी है।

पहाडी नाले के पास पहुचते ही सर्वेेयर नक्षे के हिसाब से जमीन की नाम जोख मे लग गया। मै समय काटने के लिये इधर उधर देखने लगा। पर नजर हर बार बल्ल्ूा की चिता की तरफ ही चली जाती। चिता पूरी तरह जल चुकी थी पर कुछ हडिडयां बिनजली पडी थी। जिसमे से सिसकारी सी सुनायी पडरही थी। मै उन सिसकारियो से अपने आप को बचाने के लिये र्सवेयर के काम को देखने लगा। और उससे जल्दी जल्दी काम खत्म करने को कहा।

र्सवेयर ने तो अपना काम जल्दी ही खत्म कर दिया पर बल्ल्ूा की कहानी खत्म नही हुयी भी वह कई हफतो तक खुषुरपुषुर के रुप मे टुकडो टुकडों मे सुनायी पडती रही जिन्हे मैने इस असंवेदनषील समाज की एक साधरण द्यटना समझ भूल सा गया था।

पर आज रधिया को देख कर टुकडे टुकडो मे सुनी सारी बाते एक एक कर जुडने लगी। डैेम की परछाइ्रयां आपस मेे मिल कर गडड-मडड हो कर सिसकने लगी।

सिसकियां आज से लगभग पंद्रह सोलह षाल पहले की बाते कर रही थी। तब।
डेैम का काम काफी जोरो पे था। सैकडो मजदूर रोज काम पक लगे रहते थे।  दिन भर डैेम के लिये ख्ुादाई करते,ईट गारा ढोते।षाम आस पासे ही अपने अपने चूल्हे जला खाना बनाते पकाते। उन्ही मजदूरो मे एक जोडा इन पहाडियो मे से सबसे उंची पहाडी पर बसी आदिवासी जाति का भी था। मरद का नाम फन्न्ूा और औरत का नाम बुलिया था। पहाड की एक एकड बंजर जमीन उनके पेट की आग षांत करने की जगह उन्हे ही जलाने लगी तो ये लोग उसे छोड डैेम मे मजूरी करने लगे। उनके एक बेटा था। जिसका नाम मरद ने बडे प्रेम से अपनी औरत से मिलता जुलता रखा बुल्ल्ूा।तीनेा काफी खुष थे।

ष्षरकंडे जैसे हाथ पैर से  बल्ल्ूा दिन भर मॉ के अंचरे को पकडे पकडे पीछे पीछे द्यूमता रहता। और उसकी माई गारा मिटटी ढोती रहती। कुछ महीना बाद जब डैेम का काम खत्म हुआ तब तक कम्पनी का काम चालू हो गया। बल्ल्ूा के मॉ बाप अब कम्पनी के लिये ईटा मिटटी ढोने लगे। गाडी अपनी पटरी से उतरते उतरते फिर दौडने लगी।

बल्लू के मा-बाप का झोपडा रामजस के द्यर के पास ही बना था। लिहाजा बल्ल्ूा का बाप व मा रामजस के द्यर का भी छोटा मौटा काम करदेते। बदले मे राम जस भी उनका खयाल रखता।

बरषात के दिन थे। डेैम पूरी तरह लबालब भरा था। बल्लू की माई पीने का पानी लेने के लिये डेैम गयी थी । वही उसका पैर पानी मे फिसल गया और वह दोबारा वापस नही आयी। बल्ल्ूा कई दिनो तक रोता रहा। माई माई चिल्लता रहा। उसका बाप मन ही मन रोता रहा।
फन्न्ूा अब अक्षर षाम को कच्ची दारु पी के डैम के पास बैठ पानी को ध्यान से देखने लगता और बडबडाता कि ‘देख देख बल्ल्ूा की मॉई हमका बुलाय रही है कह रही है हमका पानी से निकाल लेव’। उसके साभी इसे महज उसके नषे की बकझक व दुख समझते पर एक षाम फन्न्ूा जब हमेषा की तरह कच्ची दारु चढाकर डेेैम के पास बैठे पानी को बडै गौर से देख रहा था तो वह अचानक अपने आपमे ही   बुदबुदाने लगा ‘बुल्लू की माई द्यबरा जिन हमहू तोहरे पास आई थी’ और पानी की तरफ दौडने लगा। साथियो ने नषे मे होने के बावजूद उसे पकडने की काफी कोषिषे की पर उसे तेा बुल्लू की माई के पास जाना था। और बल्ल्ूा का बाप फन्न्ूा डैेम मे कूद कर बुल्ल्ूा की माई के पास चला गया। हमेषा के लिये।

इस बार फिर बल्लू कई दिनो तक बापू बापू कह के रोता रहा । जिसे रामजस बासी राटी व सब्जी दे देकर चुप कराता रहता। धीरे धीरे बल्ल्ूा रामजस के खेत व खलिहान दोनेा का काम अपने छोटे छोटे हाथेा से करने लगा।
इससे गांव वाले खुष कि चलो इय अनाथ को एक सहारा मिला। और रामजस खुष कि एक मुफत का नौकर मिला।

समय के साथ साथ रामजस बडा आदमी होता गया।उसकी लडकी रधिया भी बडी होती गयी। उनके साथ साथ बल्ल्ूा भी बडा होता गया। बडता जा रहा था रधिया और बल्ल्ूा के बीच स्नेह संबंध। पर था यह संबंध नौकर और मालकिन का ही।

बचपने मे दोनेा खेलते तो रधिया सिपही बनती बल्ल्ूा चोर। डाक्टर-डाक्टर खेलते तो रधिया डाक्टर बनती और बल्ल्ूा मरीज। रधिया झूला झूलती तेा बल्ल्ूा झूला झुलाता। अगर किसी खेल मे रधिया हारने लगती तो वह खेल छोड बल्ल्ूा से लडने लगती पर बल्ल्ूा बिना कुछ कहे रधिया की बाते सुनता रहता विरोध मे कभी कुछ न कहता। बल्कि रधिया का हर काम दौड-दौड के करता रहता।

पकौडे जैसी नाक, उभरी ऑख, तांबई बाल व काले रंग का बल्ल्ूा आम अदिवायिों से कतई अलग नही लगता था।हां खानपान अच्छा होने व हाडतोड मेहनत करने से उसका षरीर अच्छा हो गया था। ज्यादातर वह चुप ही रहता। बोलता भी तो किससे बोलता और कब बोलता। रामजस व उसकी द्यरवाली हर समय उसे किसी न किसी काम मे लगाये रहते।

सुबह उठ के सारे द्यर का झाडू पांेछा करना। जानवरो को चारा पानी देना। द्यर भर के कपडे साफ करना। खेत का सारा काम देखना। इन सब से उसे फुरसत ही न मिलती। कभी दो चार द्यडी सुस्ताने केा मिलते भी तो रधिया के दस काम आन पडते। पर कभी भी बल्ल्ूा के चेहरे पे सिकन न रहती । षायद उसे वक्त और जमाने ने सिखा दिया था कि वह इसी सब के लिये बना है। जमाने ने उसे यह भी बता दिया था कि उसकी माई बाप ने अपने षिर पे बोझा ढो ढो के डैेम बनाने मे काफी मेहनत की थी। और फिर एक दिन उसकी माई इसी डैम मे डूब गयी थी जिसकी याद मे बापू भी इसी डेैम मे डूब मरा।
बुल्ल्ूा  भी बाप की तरह  जब कभी खाली समय पाता डेैम के पास बैठ चुपचाप न जाने क्या देखता रहता। अक्षर नींद मे बडबडाता ‘अम्मा बापू हमहू तुम लेागन के पास आवेै चाहित ही।’ यह बात रामजस व उसके द्यरवालो सभी को मालुम थी।
रामजस व उसकी द्यरवाली को यह भी मालूम हो गया था कि इधर रधिया और रामजस कुछ ज्यादा ही एक दूसरे का खयाल रखने लगे हैं। अगर रधिया कोई काम कहदे तो रामजस द्यर के दूसरे सभी कामो को छोड कर उसका काम करता है। और रधिया भी इस बात का खयाल रखती की बल्ल्ूा को खाने मे ताजी रोटी व सब्जी दी जाय और बासी खाना जानवरो केा दिया जाय।

उस दिन रधिया आंगन मे बैठी फागुनी षाम की हवा का आनंद ले रही थी। माई छुट पुट कामो मे लगी थी। बल्लू अकेले ही अपनी पीठ पर बोरे लाद कर र्टैक्टर से उतारता और लेजाकर अनाजद्यर मे रखता जाता। अभी उसने पूरे साठ बोरे रख कर कमर सीधी भी नही की थी कि रधिया की मॉइ ने कहा बल्ल्ूा गौषाला का छप्प्पर टूट रहा है। जरा उसकी मरम्म्त करदो। यह सुनते ही रधिया से न रहा गया। बोली ‘माई तुम्हे अपने जानवरो की इतनी चिन्ता है। पर जानवरो की तरह काम करते हुए आइमी की बिलकुल चिन्ता नही है। अरे जरा उसे पीठ तो सीधी करलेने देती। उसके बाद कोई काम कहती।’ यह सुनकर बल्ल्ुा तो चुप ही रहा। पर रधिया की दुनियादार माई ने बात बनाते हुए कहा ‘ हां हां बल्ल्ूा पहले तू थांेडा आराम करले फिर सह सब करना।’ पर इस द्यटना के दूसरे ही दिन से बल्ल्ूा की खाट द्यर से हटा कर आम के बगीचे मे कर दी गयी थी। बहाना यह था कि पिछले साल गांव वालो ने काफी आम चुरा लिये थे। इसलिये वहां रात को किसी न किसी को रहना बहुत जरुरी है। इसके अलावा अब बल्ल्ूा को द्यर के काम के लिये कम से कम कहा जाने लगा। उसे ज्यादातर खेत खलिहान के काम से बाहर ही रखा जाता।

पहले तो यह परिर्वतन बल्ल्ूा की समझ मे नही आया पर धीरे धीरे वह सब कुछ समझने लगा। अब उसका काला गम्भीर  चेहरा और गम्भीर दिखने लगा। कई कई दिन हो जाते लोगो को उसकी आवाज सुने। अब वह सिर्फ खेत खलिहान का काम करता। और खाली समय मे डेैम  के षांत जल केा देखता रहता।

और एक दिन गांव वालो को पता लगा कि बल्लू डैम मे डूब के मर गया।

यहीं से कहानी कई सूत्रों मे बट जाती है।
कुछ लोगो के अनुषार बुल्ल्ूा रधिया से एक तरफा प्रेम करता था। अैार रधिया की सगाई किसी दूसरे के संग हो यह नही सह पाया। और डेैम मे डूब के अपनी जान देदी।

कुछ लोगो के अनुषार बल्लू को जब से पता लगा कि उसके माई बाप भी डेेैम मे ही डूब के मरे थे। उस दिन से अपने बाप की तरह कुछ कुछ पगला गया था। कहता था कि उसके माई बापू उसे बुला रहे हैं। और उस दिन दोपहर को ही ताडी लगा कर पगलाने लगा। उसी बकझक मे डेैम मे डूब कर आत्म हत्या कर ली।

कुछ लोगो के अनुषार रामजस ने ही बुल्ल्ूा को डैम मे डुबो के मार डाला है क्योकि उसके संबंध रधिया से होगये थे। और दोनेा लाख मारने पीटने के बाद भी एक दूसरे के साथ जीने मरने की कसम खारहे थें।
    
खैर वास्तविकता चाहे जो भी हो। पर कहानी के सूत्रो को जोडते जोडते रधिया न जाने कब उपले लेकर द्यर जा चुकी थी। षाम गहरा कर डैेम के गहरे नीले पानी से एकाकर हो गयी थी। परछाइयो की सिसकियां भी अस्पस्ट हो गयी थी। उन परछाइयो मे मुझे अब रामजस व रधिया की जगह बुल्लू के माई बाप नजर आरहे थे परछाइयो मे बुल्ल्ूा तो पहले से ही मौजूद था।  और पता नही तीना माइ बाप व बेटे इस षांत गहरे जल मे डूबे हुए एक दूसरे का दुख बाट रहे थे।


हां अलबत्ता चंाद जरुर आसमान मे काफी उपर निकल आया था। जिसकी परछाई डेैम के पानी मे साफ नजर आ रही थी। जो हिलती डुलती हुयी बल्ल्ूा की परछाई के साथ अठखेलियां कर रही थी।

डैेम का गहरा नीला पानी पहले की तरह षांत था।







Tuesday 20 March 2012

ख़ुद को ख़ुद से जलता हुआ देखूं

बैठे ठाले की तरंग ---------------
 
ख़ुद को ख़ुद से जलता हुआ देखूं
अपने ही जिस्म को बर्फ सा गलता हुआ देखूं
अजाब आदतों का शिकार हो गया हूँ
ख़ुद को कभी रोता हुआ, कभी हंसता हुआ देखूं
बात मै किसी ग़ैर की नहीं कर रहा
मुहब्बत के नाम पे ख़ुद को ही मरता हुआ देखूं
मीलों तलक सहरा,मंजिल की राह में
तपती हुई रेत पे ख़ुद को चलता हुआ देखूं
यूँ तो मेरे मकां में दरीचे ही दरीचे ही हैं
फिर भी अपनी सांस को घुटता हुआ देखूं

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

महकी महकी रातें हैं, बहके बहके दिन

बैठे ठाले की तरंग -----------------------

महकी महकी रातें  हैं, बहके बहके दिन
बोली तेरी सुन कर हम चहके सारे दिन

फीका महुआ, आम दशहरी,खटटे सारे फल
मीठी मीठी बातें  तेरी, हम गुनते सारी दिन

जान न पायी दुनिया सारी, पी कर आये बोतल
थोडी़  तेरी ऑखों से पी, हम बहके सारा दिन

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

Monday 19 March 2012

मुहब्बत बेशर्त होती है

दोस्त,
मुहब्बत बेशर्त  होती है। मुहब्बत जब होती है तो बस होती है। जैसे धूप खिली हो, सूरज चमक रहा हो और अचानक बदरिया तन जाये, ओर सूरज ढ़क जाय। बस, ऐसे ही मोहब्बत होती है। बदरिया सी। बदरिया जब बरसती है तो खूब बरसती है।
बदरिया कभी नही देखती कब बरसना है, कहां बरसना है, कितना बरसना है। कोई पैरामीटर लेकर नही बरसती, बस बरसती है ओर बरस कर खाली हो जाती है, ओर फ़िजां ताजा ताजा हो जाती है। धुली धुली।
बस ऐसे ही मुहब्बत कब हो जाये कहां हो जाये किससे हो जाय पता नही। सच मुहब्बत को कुछ पता नही होता। वह तो बस होती है और हो जाती है। बिना शर्त - बिना बात।
ओर सुना है जब मुहब्बत होती है, रोंवा रोंवा पुलक से भर जाता है। मन हुलस हुलस जाता  है । कदम बहक बहक जाते हैं। ऑखें नशे  में डूबी डूबी रहती हैं।
मुहब्बत को इससे कोई लेना देना नही रहता। वह जिसपे बरस रही है। वह काला है, गोरा है, बड़ा है, छोटा है उंच है नीच है बस उसे तो होना होता है और अपने महबूब पे प्रेम उडेलना है, उसे दुलराना है, बतियाना है, लडियाना है, लड़ना है, झगड़ना है बस  उसी के लिये पलके पांवडे़ बिछाये रखन होता है।
अगर ऐसा है तो जान लो मुहब्बत हो गयी है।
अगर नही तो जानो वह मुहब्बत नही दगाबाजी है, समझौता है , सौदा है चाहे वह अपने आप से हो चाहे महबूब से हो और चाहे जमाने से हो
बस।

मुकेश इलाहाबादी

किसी दिन लिखे  दो शे'र  अर्ज है।

चराग़ की रोशनी में देखता हूं
खु़द से बड़ी परछाईयां देखता हूं।

आईने में खुद को देखकर
है ये शख्श कौन ? सोचता हूं।

दोस्त, ये तो नसीब नसीब की बात है

बैठे ठाले की तरंग --------------------
 
दोस्त, ये तो नसीब नसीब की बात है
मिली है तुझे वफ़ा और मुझे बेवफाई 
गर मानता है तू ,है ये खुदा का करम
तब  तो खुदा की  भी अज़ब  है खुदाई


मुकेश इलाहाबादी ---------------------

ऐ खुदा तू ये बता,


बैठे ठाले की तरंग ---------------
ऐ खुदा तू ये बता,
वो हमसे दूर क्यूँ हुई ?
उसकी कुछ मजबूरियां थी ?
या हमसे कुछ भूल हुई ?
राह जो फूलों से गुज़र रही थी,
वह अचानक शूल क्यूँ हुई ?
ऐ खुदा ये बता - वो हमसे दूर क्यूँ हुई ?
( मित्र एस एस रावत जी के द्वारा सूनी हुई व्यथा से)
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------
 

उठा के ख़ाक राह की कलेजे से लगा लूं

बैठे ठाले की तरंग -----------------
उठा के ख़ाक राह की कलेजे से लगा लूं
अभी अभी इधर से मेरा मासूक गुजरा है

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Sunday 18 March 2012

धूप का टुकडा भी आखिर मचल गया

बैठे ठाले की तरंग ----------------

धूप का टुकडा भी आखिर मचल गया
जुल्फों से छन के गालों पे खिल गया

अज़ब नाज़ुकी देखी उनके बदन की
फूलों की छूने से भी  छिल छिल गया

बहुत  सख्त  जाँ बनता था,खुद को
पाके मुहब्बत की आंच पिघल गया

मुकेश इलाहाबादी -------------------

सहरा,हर सिम्त नज़र आता है

बैठे ठाले की तरंग -----------

सहरा,हर सिम्त नज़र आता है
चाँद भी सूरज नज़र आता है

ज़रा लिबास उतार के भी देख
इंसान जानवर नज़र आता है

खिला हुआ सुर्ख गुलाब डाल पे
जाने क्यूँ अंगार नज़र आता है

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Saturday 17 March 2012

उनका, तफरीहन मेरी गली में आना हुआ

बैठे ठाले की तरंग ----------------
उनका, तफरीहन मेरी गली में आना हुआ
मेरे लिए तो ज़िन्दगी भर का फ़साना हुआ

मुकेश इलाहाबादी ------------------

मेरे ख़्वाबों में बस्ती क्यूँ हो ?

बैठे ठाले की तरंग ----------

मेरे ख़्वाबों में बस्ती क्यूँ हो ?
मेरी यादों में रहती क्यूँ हो ?

ज़ब तुम मुझसे हो गयी जुदा
हर मोड़  पे  मिलती  क्यूँ हो ?

मेरे  गीतों  में जब नहीं रवानी
शामो सहर गुनगुनाती क्यूँ हो ?

ज़ख्म भरने की खातिर आया
रह रह के नमक छिड़कती क्यूँ हो ?

ज़ब प्यास नहीं बुझानी थी
झरने सा फिर बहती क्यूँ हो ?

मुकेश इलाहाबादी ---------------

तोड़े हैं सैकड़ों जाम शौक की खातिर

बैठे ठाले की तरंग -----------------
 
तोड़े हैं सैकड़ों जाम शौक की खातिर
जाम टूटने की खनक उनको भा गयी
 
मुकेश इलाहाबादी--------------------

Friday 16 March 2012

हमने भी पी है शराब किसिम - किसिम की

बैठे ठाले की तरंग ----------------------------

हमने भी पी है शराब किसिम - किसिम की
तन्हाई की,रुसवाई की औ उनकी बेरुखी की  


मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

तुम्हारी इन नशीली जुल्फों के साथ


बैठे ठाले की तरंग ------------------------------------------------------
तेरी इन नशीली जुल्फों के साथ लहराना हमने भी सीख लिया
झटकती हो इन्हें किस कदर,पर बिखरना हमने भी सीख लिया


मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------------------------

शामो सहर वीरानियाँ सी क्यूँ है ?

बैठे ठाले की तरंग --------

शामो सहर वीरानियाँ सी क्यूँ है ?
हर वक़्त ये बेचैनियाँ सी क्यूँ है ?

मिलते भी हैं, गुफ्तगू भी होती है
फिर,दर्मयाँ हमारे दूरियां सी क्यूँ है ?

प्यारा शख्स है, हंसता भी हैं खूब
फिर घर उसके सिसकियाँ सी क्यूँ है ?

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Tuesday 6 March 2012

यूँ तो निकल आया हूँ महफ़िल से बहुत दूर

बैठे ठाले की तरंग ----------
 
यूँ तो निकल आया हूँ महफ़िल से बहुत दूर
फिर क्यूँ हर नफ़स में तेरी याद महकती है ?
 
मुकेश इलाहाबादी ------------

किसी उदास दिन की डायरी से ----

किसी उदास दिन की डायरी से ----

ज़िन्दगी कागज़ पे लिखी इबारत होती तो कब का गंगा में बहा आया होता। रेत पे लिखी नज़्म होती तो लहरों ने खु़द ब ख़ुद मिटा दिया होता। हवा में बने हस्ताक्षर होते तो खुशबू  में ढ़ल गये होते या फिर हवा की तमाम खुश्बुओं में खो गये होते।
लेकिन माज़ी तो पत्थर पे लिखी इबारत है जो एक बार खुदने के बाद सदियों सदियों का दस्तावेज बन जाती हैं, जो इंसान के हाथो में लकीरों सा उभर आती हैं। जिनके अर्थों  को समझना हमारे जैसों की बात नही। ये लकीरें उन के लच्छे भी नही जिन्हे सहूलियत से सुलझा लिया जाये। आडी तिरछी, जन्मो जन्मों की दस्तावेजी उलझी लकीरें इन्सान को ताज़िंदगी उलझाए रखती हैं।
और इंसान सुख दुख के सागर में गोते लगाता रहता है। यह अलग बात है कोई इस सागर में कुछ दूर तन्हा छटपटाता है तो कोई किसी के साथ हिलोरे खाता है। पर इस भवसागर में डूबते उतराते सभी हैं।
आज फिर मै अपने हाथों की आडी तिरछी लकीरों में अपने माज़ी को देखते की कोशिश करता हूं तो खुद उलझ जाता हूं। बेतरह।
फिलहाल मै इन उलझी लकीरों के कारण उलझा हुआ हूं या फिर उलझा हुआ हूं इसलिये लकीरें उलझी हैं मै नही जानता मगर यह तय है कि अब एक उलझी ज़िंदगी के साथ जी रहा हूं। खैर .....
कई दिनो से मौसम बेतरह गीला और चिपचिपा है। न तो बरसात पूरी तरह से खिलखिला रही है और नही चुप हो रही है। रात होते ही इस बियाबान के घुप्प अंधेरे में बिना दिया बाती के खामोषी के साथ
बैठा हूं, रोशनी  के नाम पे कुछ पतिंगे अपनी पूंछ मे थोडी सी आग लिये फिरते हैं उन्ही से अपने आपको रोशन पाता हूं।
उसी रोषनी में दो चार लाइने लिखी हैं जो आप सभी से बाटना चाहता हूँ । हो सकता है आपको पसंद आये और न पसंद आने की स्थिति में कूड़ेदान में फेंकने के लिये आप स्वतंत्र हैं।


था हौसलों से लबरेज़ दिल मेरा
सितारों को छू लेता शगल मेरा।

अनहलक़ का न था दावा मेरा।
फिरभी सलीब पे टंगा बदन मेरा।

कितनी बेरहमी से हुआ क़त्ल मेरा।
जान जाआगे उठा कर क़फ़न मेरा।

कोई गै़र नही वह अजीज़ था मेरा
लूट कर ले गया जो चमन मेरा।


मुकेष श्रीवास्तव
22.06.2011
                                                                                                                   

एक लडकी सलोनी सी -------


दिनांक 20-12-2001
कोल्हू के बैल की मानिन्द जीवन चक्र में गोल-गोल घूमते हुए अड़तीस वर्ड्ढ हो गये। परिणामतः बैल की तरह वहीं का वहीं हूं। बिना किसी मन्जिल पर पहुचे  हुए। जिस तरह कोल्हू का बैल घूम-द्यूम कर ढेर सारा तेल और कचरा निकालता है उसी तरह हमारे पास भी बेचैनी, हताषा और बेकार के अनुभवों का कचरा जमा  हुआ है। जिसकी सडांध से खुद जार-जार होता जा रहा हूं। बेचैनी तब और ज्यादा बढ़ जाती है जब सोंचता हूं अभी न जाने कितने चक्कर और लगाने है? न जाने कितना कचरा और इक्कठा करना है।
कई बार सोंचा और कोशिश  भी की कि इस कचरे को एक एक कर बीनू। शायद  कुछ काम की चीजें हो पर, सब की सब अधूरी कोषिषें ही साबित हुयी।
आज फिर एक नए संकल्प के साथ उस कचरे को एक-एक कर बीनने की शुरुआत की है, देखे क्या होता है?

21-12-2001
कल शाम  बेवजह तालाब के किनारे टहलते समय कुछ वजह और कुछ बेवजह के ख्यालो में डूबा हुआ था और ख्याल थे कि लाख कोशिशों  के बाद भी सिलसिलेवार न हो पा रहे थे। थक कर तालाब के किनारे बैठ शांत  और ठहरे हुए पानी को बहुत देर तक देखता रहा और देखता रहा। न जाने कब छोटा सा कंकड हाथ से छूट कर पानी में जा गिरा। बुलुप की आवाज के साथ पानी में एक बिन्दु सा बना और उसके बाहर बड़ा सा वृत्त बना। यूं कहो बिन्दु के बाहर एक चक्कर सा बन गया। उसके बाद एक और चक्कर और चक्कर पर चक्कर बढ़ते जा रहे थे। उन चक्करों में तब्दील होता कोल्हू और बैल, बैल और कोल्हू - चक्कर न जाने कितने चक्कर।
फिर वही चक्कर और कचरा। न जाने कब चक्करो का क्रम छूटेगा। कुछ हासिल होगा  भी या यू ही चक्करो का क्रम चलता रहेगा।
अनवरत । हे भगवान।

22-12-2001
कोल्हू का बैल अपनी रफ्तार से हौले-हौले द्यूम रहा था। आज कोई खास हादसा न हुआ।
रोज की तरह दूध वाले की सायकिल की घंटी ने नींद की खुमारी से जगाया। मैं बर्तन हाथ मे लिये खड़ा हो गया। फिर पूर्ववत स्नान ध्यान व नास्ते  के बाद ऑफिस का रूख कर दिया था। ऑफिस में भी दिन रोज की तरह चिल्ल-पो व फोन की घंटियां सुनते बीता।
कोल्हू का बैल न जाने कैसे बिना कुछ सोचे चक्कर पर चक्कर लगाता जाता है ? पर मुझे आगे के चक्कर लगाने के लिये चाहिए बीती यादों की ऊर्जा या र्स्विणम कल की बातें।  शायद  र्स्विणम कल तो न मिले पर बीती बातें चक्कर लगाने के लिये दे जाती हैं एक ताकत और मै वक्त के चक्कर को पीछे की तरफ धकेलने लगता हूं।
उन चक्करों के परे मैं देख रहा था। आखों मे मजबूरी व जहालियत की पट्टी बांधे बहादुर चौकीदार को, धन के चारों और चक्कर लगाते सेठ बनवारी लाल को, आदर्षवादिता व व्यवहारिकता के षिकंजे में जकडे समाज की वर्तमान व्यवस्था में छटपटाते हुए किषोर को, पति नामक खूंटे से बंधी सलोनी को। इसके अलावा और न जाने कितने पात्रों को जो आप और हम सब के बीच अभी भी ससार चक्र में हैं। कोल्हू के बैल की तरह।


एक लडकी सलोनी सी
यूं तो दुनिया के झमेले मे बहुत कुछ खो गया
दुख मगर ये हे के तेरी याद न गुम हुयी
कुछ जाने और कुछ अजाने कारणो से, द्यिर आयी उदासी के बादल आज कुछ छंट से गये थे। कोल्हू का बैल उसी मंथर गति से द्यूम रहा था। उसने अपनी नाक पर चढी मक्खी को अपने सिर को इधर उधर द्युमा कर भगाया। नथुनो से फुर्र फुर्र की आवाज निकाली और फिर द्यूमने लगा गोल गोल।
पुनरावष्त्ति आदमी के भीतर एक ऊब पैदा करती है। यही पुनरावष्त्ति मजबूरी बन जाय तो आदमी को उदास बेजान मषीन सा बना देती है। आज फिर सलोनी अपने भीतर फैले वैक्यूम को परे धकेल कर बारजे पर खडी सामने की बंद खिडकी को देख रही थी। बेवजह निरूद्देष्य अचानक उसके जेहन में एक शक्ल उभरने लगती है किषोरदा की।
साधारण कद, सांवले रंग व हसंमुख स्वभाव के किषोरदा से अन्तिम मुलाकात कब हुई थी ठीक से याद नही पर उनका साथ उनकी बहुत सी बातें एक एक कर याद आती चली जा रही थी। जिन्हें एक सिलसिलेवार ढंग से सोचने के लिए बारजे से हट, कमरे में आ गयी। पलंग पर पहले औंधे फिर चित्त लेटकर आंखो पर हांथ रख लिए। धीरे-धीरे वह आज से बीस वर्ष पीछे पहुंच गई थी।
सलोनी उस वक्त दस या ग्यारह वर्ड्ढ की भरे बदन फूले-फूले गालों वाली खूबसूरत बच्ची ही तो थी। जब एक दिन वह शाम के वक्त टी.वी. पर कार्टून देख रही थी पापा मम्मी से कह रहे थे ”जानती हो आज मेरे साथ कौन आया है?“ मम्मी ने पापा के साथ आए युवक को पहचानने की कोशिश  करते हुए कहा ”नही“।
युवक ने आगे बढ कर मम्मी के पैर छू लिए ।”ये गांव वाली ष्यामा चाची के बेटे हैं पापा ने बताया। यहां इलाहाबाद में एम.ए. करने के साथ-साथ कम्पटीषन की तैयारी कर रहे हैं। रामबाग में कमरा किराये पर लेकर रह रहें हैं। आज अचानक रास्ते मे मुलाकात हो गई तो मै इन्हे ले आया।“
मम्मी ने मुस्कुरा कर खुशी  जाहिर की और रसोंई में चाय बनाने चली गयीं। पापा ने उसे बुला कर कहा ”बेटा ये तुम्हारे किषोरदा हैं। गांव में दादी-बाबा के पास रहते हैं। नमस्ते करा“ फिर किषोरदा से उसका परिचय कराते हुए बोले ”यह सलोनी है जो मेरी बेटी और बेटा दोनो है“। किशोरदा  उसकी तरफ मुस्कुरा कर बोले ”वाकई नाम की तरह देखने मे भी सलोनी है।“ सलोनी कुछ समय तक वहां खडी रही फिर जाकर टी.वी. देखने लगी।
उस दिन के बाद से तो किषोरदा का उसके घर  रोज आने का नियम सा बन गया। किषोरदा षाम आठ बजे आते। आते ही पापा के साथ षतरंज की बिसात बिछा कर बैठ जाते। ठीक साढे नौ वह अपने द्यर पैदल चल देते। अक्सर पापा और वो राजनिति, साहित्य, कला, विज्ञान और न जाने कितने विषयों  पर बहस करने लग जाते। पर हर बार किषोरदा की ही बातें ज्यादा वजनदार लगती। हलाकि षतरंज की बाजी वह जरुर हार जाते। एक दिन वह एक मैथ्स की प्राबलम लेकर पापा के पास गई तो उन्होने किषोरदा से पूंछ लेने को कहा और किषोरदा से सलोनी को पढाई मे हेल्प करने को कहा।
किषोरदा की माली हालत अच्छी न थी पर वह किसी तरह अपनी पढाई आगे बढा रहे थे। युनिवर्सिटी का खर्च और मकान का किराया वह अखबार व पत्रिकाओं में लेख लिख कर पूरा करते। थोडा बहुत द्यर से मंगा लेते।
उनका व्यक्तित्व विशेष  प्रभावित न करता था। सांवला रंग, साधारण कद, इकहरा बदन, कपडे़ भी काफी साधारण पहनते। शायद  दो या तीन सेट कपडो़ को ही अदल बदल कर पहनते। अपने रहन सहन के प्रति भी कोई खास गम्भीर न थे। कई कई दिनों तक शेव  न बनाते। अक्सर कई महिने बढी रहती। जब मम्मी टोंक देती तो बनवा लेते वर्ना फिर वही लीचडपन। सिगरेट की बदबू मुहं से हमेश आती रहती। इन सब बातों के बावजूद भी उनके भीतर कुछ ऐसा आकर्षण था कि जिससे भी एक बार मिल लेते वही उनकी तारीफ करता। धीरे धीरे वह घर के सदस्य से हो गये।
उस दिन पापा के कहने के बाद किषोरदा लगभग रोज ही उसे पढाने लगे। हर रोज शाम सात बजे दरवाजे की द्यंटी बजती और वह हाजिर रहते। वह सीधे जाकर मम्मी के पास बैठ जाते और उनसे हसंते बोलते रहते। किषोरदा की खास आदत थी कि वह हर किसी के साथ हसीं मजाक कर लिया करते। यहां तक कि पापा को भी न छोडते। सीरियस रहना जानते ही न थे। इतने वर्ड्ढो में शायद ही उन्हें कभी सीरियस पाया हो। अपनी स्टडी टेबल पर बैठे बैठे जब वह ऊब जाती उनसे कहती कि आज आप पढाएगें या नही तो हसंते हुए आते और कुर्सी पर पालथी मार के बैठ जाते। फिर षुरु होता उनके पढाने का दौर। किसी भी चीज को कितनी आसानी से समझा देते कि यकीन ही न होता कि यही बात स्कूल में टीचर के कई बार बताने के बाद भी समझ में न आती थी। मजे की बात यह थी वह कोई भी विषय  पूरे अधिकार के साथ पढाते और किताब बहुत कम खोलते।
किसी विषय को समझाते वक्त कभी कापी पर पेन या पेन्सिल से समझाने के लिए लकीरें, गोले या न जाने कैसी-कैसी आकृतियाँ बनाते जाते। अगर कुछ लिखते भी तो समझ में ही न आता। कभी वह कहती भी कि आप कितने गंदे तरीके से लिखते है तो हसं कर बोलते कि ”बडे-बडे प्रोफेसर लोग इसी तरह पढाते हैं और हर बडे आदमी की हैंडराइटिंग इसी तरह होती है।“ यह सुनकर वह मुंह चिढा देती तो हौले से मुस्कुरा कर रह जाते। किषोरदा का यही मस्तमौलापन सलौनी को अच्छा लगता।
किसी दिन न आते तो सलोनी की शाम कटनी मुश्किल हो जाती। हालाकि किषोरदा से यही कहती कि ”किसी दिन आप आना क्यों नही भूलते।“ तब मुस्कुरा कर रह जाते।
आज भी उसे वह दिन अच्छी तरह याद है। किषोरदा गांव गये थे तभी उसका वार्षिक रिजल्ट आया था। वह अच्छे नम्बरों से पास हुई थी। यह खबर वह जल्दी से जल्दी किषोरदा को सुनाना चाहती थी किन्तु कई दिनों के इन्तजार के बाद भी किषोरदा न आए थे। उन्ही दिनों उसे काफी तेज बुखार चढ गया था। एक दिन जब मम्मी ठंडे पानी की पट्टियां माथे पर रख रही थी कि बुखार कुछ कम हो, तभी किषोरदा आ गये। मम्मी किषोरदा से कह रहीं थी ”भईया सलोनी कल से बुखार में तुम्हे ही बुला रही है ताकि वह अपने पास होने की खबर सुना सके“। किषोरदा ने माथे पर हांथ रख कर कहा ”अरे इसे काफी तेज बुखार है“। फिर उनकी सलौनी से नजरें मिलने पर हमेषा की तरह हसं कर बोले ”मिठाई न खिलानी पडे इस लिए तुम बीमार पड गयी। चलो कोई बात न ही ठीक हो जाने पर सूद ब्याज सहित खा लूंगा“। वह किषोरदा की तरफ देख कर मुस्कुरा दी थी। किषोरदा अब सलोनी के लिए सिर्फ किषोरदा न रह गये थे बल्कि शिक्षक और दोस्त भी हो गये थे।
द्यर में उसका कोई भाई-बहन न था। लिहाजा वह अक्सर बिना वजह के उन्हीं से लडती रहती। उन्हें परेशान करती रहती। एक बार फर्स्ट अप्रैल को  पानी में नमक मिला के पिला दिया था। तब भी वे मुस्कुरा कर रह गये थे। मम्मी भी इस बात पर हसं रही थी पर पापा बहुत गुस्सा हुए थे।
स्कूल की सहेलियों की भी बहुत सारी बातें वह किषोरदा को बताया करती। लेकिन अगर किषोरदा ने कुछ कहा तो वह उनसे लडने लगती। किषोरदा भी उसे छेडने के लिए उसकी सहेलियों को अक्सर लडाका, चुडैल या भुतनी कह कर चिढाया करते।
धीरे-धीरे पूरा वर्ड्ढ कैसे बीत गया पता ही न चला। सलोनी बचपन छोड किषोरवय में आ गई। उसके भरे-भरे बदन में कसाव उभरने लगे थे। कली खिलने के लिए तैयार थी।
वार्ड्ढिक इम्तहान खत्म होने के बाद स्कूल-कालेज में दो माह की गर्मी की छुट्टी हो गई थी। सलोनी अपनी मम्मी के साथ अपने मामा के द्यर चली गयी। वहां से लौटने पर पता लगा कि किषोरदा गांव गए हुए हैं। ऐसे समय पर उसे किषोरदा का न होना, बहुत बुरा लग रहा था। मामा-मामी के द्यर की कितनी हीं बातें उसे किषोरदा को बतानी थी। इन दो महीनें में किषोरदा ने उसे कभी याद भी किया या न ही। इस बात को लेकर उसे लडना भी था। उसे और न जाने कितनी बातें करनी थी।
दिन तो कट जाता पर षाम होते ही किषोरदा याद आ जाते। दरवाजे की द्यंटी बजती या आहट होती उसे लगता किषोरदा आ गये।
किषोरदा के कालबेल बजाने का अपना अलग अंदाज था। दो बार ट्रिंग-ट्रिंग करते बस। अगर दो बार कोई न सुनता तो द्यंटी न बजा कर द रवाजा खटखटाते।
मामा के यहां से आए कई दिन हो गए थे पर किषोरदा के गांव से आने या न आने का कोई भी समाचार न मिल रहा था। स्कूल भी खुलने को थे। उनकी कमी मम्मी पापा भी महसूस करते। एक दिन पापा मम्मी से कह रहे थे ”किषोर को अब तक गांव से आ जाना चाहिए। न जाने क्यों न आया“। उसे किषोरदा के ऊपर झुंझलाहट आ रही थी कि जल्दी से आते क्यों न ही।
उस दिन शाम वह चाचा चौधरी वाली कामिक्स पढ रही थी और मम्मी चावल बीन रही थी कि अचानक कालबेल जोर से दो बार बजी ट्रिंग-ट्रिंग। सलोनी खुशी से उछलते हुए कामिक्स को दूर फेंक दरवाजे की तरफ लपकी, चिल्लाते हुए ”मम्मी किषोरदा आ गए“। दरवाजा खोलते ही सामने वही शेव  बढाये मुंह से आती सिगरेट की महक के साथ किषोरदा खडे थे। सलोनी को देख मुस्कुरा कर बोले ”और सलोनी क्या हाल है“। उसने सोचा एक वह है जो इनके इंतजार में परेशान है और एक यह है जिनकी बात से लगता है कि कुछ हुआ ही नही। बस पूंछने के लिए पूंछ लिया ”सलोनी कैसी हो“। गुस्से के मारे उसने भी र्सिफ इतना कहा ”ठीक हूं“ और वापस कामिक्स पढने लगी।
किषोरदा मम्मी के पैर छू कर उन्ही के पास बैठ गए। फिर दोनो गांव व दुनियादारी की न जाने कितनी बातें करने लगे। पापा के आने के बाद उनसे बातें करने लगे। मम्मी पापा और किषोरदा सभी बहुत खुश थे। मम्मी ने उनसे रात को खाना खा कर जाने के लिए कहा। फिर पापा और किषोरदा दोनो षतरंज खेलने लगे।
सभी लोग खुश थे सिवाये सलोनी के। उसे लग रहा था कि किषोरदा जानबूझकर उससे बात न करना चाहते। खैर कोई बात
न ही। कल से वह भी उनसे बात न करेगी। अपने आपको न जाने क्या समझते हैं। अगर स्टडी में सहायता न करेगें तो क्या वह फेल हो जायेगी। पापा से कह कर कोई दूसरा अच्छा सा टीचर लगवा लेगी। और उन्हें दिखा देगी कि दुनिया मे उनसे जयादा पढे-लिखे और अच्छा पढाने वाले लोग भी हैं। यही सब सोचते सोचते वह न जाने कब सो गयी।
दूसरे दिन जब किषोरदा षाम को आये तो उसने दरवाजा न खोला। अन्त में मम्मी को उठ कर जाना पडा। गुस्से के मारे वह बेडरुम मे लेटी रही।कामिक्स पढती रही। आज मम्मी से जल्दी छूटकर किषोरदा उसके पास आए । पलंग के किनारे बैठ कर बोले ”सलोनी अब तुम सातवीं कक्षा में आ गयी हो मिठाई न खिलाओगी“। तब वह लडना चाह कर भी कुछ न बोली। यंत्रवत उठ कर फ्रिज से मिठाई व एक ग्लास पानी ला कर रख दिया और फिर कामिक्स पढने लगी। षायद किषोरदा ऐसे व्यवहार के लिए तैयार न थे। उन्होने धीरे से मिठाई उठाई और बोले क्या बात है ”तुम कल से कुछ कम बोल रही हो। क्या मामी ने तुम्हें गुगौरी खिलादी है। शायद कुछ बदल भी गयी हो“। सलोनी सोच रही थी ”मुझे कह रहे हैं अपने आपको न ही देखते कितना बदल गये हैं“। पर धीरे-धीरे उसका गुस्सा कम होता गया। फिर उस दिन न जाने कितनी देर वह उनसे बातें करती रही। वैसे तो किषोरदा पापा के बाद उन्ही के पास जा बैठते पर उस दिन वह उसी के साथ बातें करते रहे थे।
दूसरे दिन पापा किषोरदा से कह रहे थे ” किषोर अगर तुम्हारी जान पहचान हो तो सलोनी के नाम किसी अंग्रेजी स्कूल में लिखवा दो“। तब किषोरदा ने कितनी दौड-धूप करके उसका नाम अंग्रेजी स्कूल में लिखाया था। उस दिन वह, किषोरदा, मम्मी, पापा सभी बहुत खुष थे।
कोल्हू का बैल अपनी रफ्तार से चलता रहा।
हर षाम किषोरदा के अपना सलोनी को पढाना, मम्मी से बातें करना और पापा के साथ षतरंज खेलना फिर पैदल रामबाग अपने कमरे चल देना।
एक वर्ड्ढ और बीत गया।
अब सलोनी अधखिली कली सी लगती। उसकी किषोरावस्था कुछ और उभार पर आ चुकी थी। उसका मन नये-नये सपने बुनने लगा। किषोरदा भी इस सब से अन्जान न थे। वे भी भावनरओ के उतार-चढाव में डूब-उतरा रहे थे। किन्तु व्यवहार और हाव-भाव से कोई यह न जान सकता था कि उनके मन में क्या चल रहा है।
इस बार भी वार्ड्ढिक इम्तहान खत्म होने के बाद सलोनी गर्मी की छुट्टियों में मामा के द्यर व किषोरदा अपने गांव गये थे। इत्तफाकन दोनो एक दो दिन से आगे पीछे वापस आये थे।
किषोरदा उसी दिन उसके द्यर आये। आते ही सलोनी ने उनको अपने पास होने की खबर सुनाई। पिछले सालों की तरह मम्मी ने उनको फ्रिज से मिठाई निकाल कर खिलाया। प्रोग्रेस रिपोर्ट देख कर बोले ”मै किसी को पढाऊं और वह फेल हो जाये, सम्भव ही
न ही“। यह सुन कर उसने उनको मुंह चिढा कर कहा था ”आप तो ऐसे कह रहे है जैसें कि मैने तो कोई मेहनत ही न की थी“। उसके इस तरह बोलने के अन्दाज को देखकर मुस्कुरा भर दिये थे हमेषा की तरह। और वह किषोरदा को दुबारा मुंह चिढा कर रसोंई मे चाय लेने चली गयी।
किषोरदा से उसकी आत्मियता या एक अन्जाना सा संबन्ध दिन प्रतिदिन प्रगाढ होता जा रहा था। वो भी अब रोज पढाने के बाद देष-दुनिया व समाज की ढेर सारी बातें करने लगे थे। सलोनी भी उन्हे अपने स्कूल की व सहेलियों की व दिनभर की बातें बताया करती। लेकिन उसका किषोर मन था कि इतने से न भरता। उसे लगता कि वह किषोरदा के साथ खूब-खूब और ढेर सारी बातें करती रहे और तब तक करती रहे जब तक कि सारी बातें खत्म न हो जायें। किषोरदा भी उसे सारे जहां की ढेर सारी बातें बताते रहं और बताते ही रहें।
पर किषोरदा थे कि उसके साथ ढेर सारी बातें करते व हसंते हुए भी अपनी मर्यादा व बड्प्पन को बनाये रखते और वह सोचती कि अजीब किस्म के आदमी हैं।
अचानक सलोनी को लगा षायद उसे कोई बुला रहा है। उसकी आखें खुल गयी। देखा द्यड़ी दिन के दो बजा रही थी ”बहू बच्चा स्कूल से आ गया है“। वह उठ कर यंत्रवत बच्चे को ऊपर कमरे मे लाकर रोज की दिनचर्या मे लग गयी।
बैल ने दोबारा नाक पर चढी मक्खी को भगाया। गले की द्यंटी टुन-टुन बज रही थी और वह धीरे-धीरे दूसरे चक्कर की ओर बढ रहा था।
सलोनी कल की अपेक्षा आज अपने आप को काफी संयत और षांत महसूस कर रही थी। हलाकि किषोरदा की बातें रह रह कर याद आती रहती। सुबह का काम जल्दी से खत्म कर के आज छज्जे पर भी न गयी। सीधे बिस्तर पर लेट गयी।
धीरे धीरे किषोरदा की षक्ल एक बार फिर उभरने लगी।
सलोनी कक्षा नौ मे आ चुकी थी। उम्र का खतरनाक व खूबसूरत मोड। उसका भी कोमल मन पखं फडफडा कर आसमान मे अपने राजकुमार के साथ उड जाने को चाहता। उसकी सभी सहेलियों का कोई न कोई ब्वायफ्रेंड था जिसके बारे मे वे खूब हसंकर बातें करती। तब वह उनकी बातें सिर्फ चुपचाप सुनती रहती। अक्सर कोई षैतान लडकी उसे किषोरदा का नाम लेकर छेड देती तो वह कह देती ”हमारे किषोरदा इस तरह के आदमी न ही हैं“। तब दूसरी सहेलियां हसंते हुए कहती ”अच्छा तू ही बता दे कि तेरे किषोरदा किस तरह के आदमी हैं“। यह सुनकर सब लडकियां खिलखिला कर हसं देती और वह खिसिया कर रह जाती।
उसका कोई ब्वायफ्रेंड न होने से व किषोरदा के निर्विकार व्यवहार ने उसे कुछ उदास सा बना दिया था। यहां तक कि पढाई में भीे मन कम लगने लगा था। हर षाम किषोरदा का इन्तजार तो रहता पर अब वह बेचैनी न रहती। यहां तक कि अब वह उनके द्वारा दिया होमवर्क भी समय पर करके न रखती। आखिर एक दिन इसी बात पर किषोरदा ने उससे कहा ”सलोनी इधर मैं कई दिनों से देख रहा हूं तुम्हारा मन पढाई में कम लग रहा है बल्कि इधर उधर की बातों में ज्यादा रहती हो“। उसके बाद एक अच्छा खासा आधे द्यंटे का लेक्चर दे डाला। इतने गुस्से में उसने उन्हें पहले कभी न देखा था। वह सिर्फ सिर झुकाए सुन रही थी। थोडी देर में न चाहते हुए भी उसके आंखो से आसंू बहने लगे। यहां तक कि वह हिचकियां ले कर रोने लगी। यह देखकर किषोरदा भी द्यबडा गये थे।डांट छोडकर समझाने के लहजे में बोले ”सलोनी यह सब मैं तुम्हारी भलाई के लिये ही समझा रहा हूं। अगर मेरी बातें बुरी लग रही हों तो मै कल से कहना छोड दूंगा। और अगर तुम्हें कोइ प्राबलम है तो वह मुझे बताओ। मुझसे न कह सकती तो मम्मी को बताओ। पापा को बताओ और अगर न बताओगी तो तुम्हारी समस्या दूर कैसे होगी“। वह किषोरदा से कैसे बताती कि उसकी समस्या तो वह खुद हैं। इतना सुनने के बाद भी जब उसने कोई जवाब न दिया तो आगे बोले ”मुझसे जितना हो सका बडे होने के नाते समझा दिया अब समझना न समझना तुम्हारी मर्जी। अब तुम इतनी छोटी बच्ची भी न रह गयी हो कि तुम्हे मार पीट के समझाया जाय।“ यह कह कर उन्होने किताबें बंद की और हमेषा की तरह मम्मी के पास किचन में जाकर वहीं जमीन पर बैठ गये और हसं हसं कर बातें करने लगे। मानो कुछ हुआ ही नहो।
उधर वह अपनी खुली किताब में तब तक सिर झुकाए रही जब तक कि किषोरदा द्यर से चले न गये। शाम की बात वह भूल न पायी थी। यहां तक कि उस दिन स्कूल में भी दिन भर खोयी खोयी सी रही पर स्कूल से आने के बाद उसे न जाने क्या हुआ उसने किषोरदा का दिया हुआ सारा होमवर्क किया। यहां तक कि किषोरदा के आने का समय हो गया था पर वह अभी भी अपनी पढ़ाई में लगी थी। उस दिन कॉमिक्स भी न पढ़ी। कार्टून भी नही देखा।
किषोरदा ने उसे पहले से पढ़ते देखा तो वह सीधे उसी के पास आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए, मम्मी से कोई खास बातें न की, मम्मी भी अपने काम मे व्यस्त रहीं।
किषोरदा उसकी नाराजगी को समझ रहे थे इसलिए माहौल को सामान्य करने के लिहज से बोले ”क्या बात है आज तुम कॉमिक्स न पढ कर कोर्स की किताब पढ़ रही हो। शायद तुम्हारा कल का गुस्सा अभी उतरा नही  है“। उनकी बातो का बिना कोई जवाब दिये होमवर्क की कॉपी सामने खिसका दी। उन्होने होमवर्क चेक किया और बोले वेरी गुड अगर तुम रोज इसी तरह अपना होमवर्क कर लिया करो तो कितना अच्छा रहे। इससे न तो मुझे डंाटने की जरूरत पड़ेगी न तुम्हे नाराज होने की। फिर आगे बोले सलोनी तुम बहुत अच्छी लड़की हो पर कभी-कभी बिगड जाती हो।
इतने सालों में पहली बार किषोरदा ने इतने सीरियस होकर उसकी तारीफ की थी। सुन कर अच्छा लगा। फिर भी वह सिर झुकाये चुप रही। फिर बात आगे बढ़ाने के लहजे से पूछा ”बताओ आज क्या पढ़ना है?“ धीर धीरे चीजें फिर सामान्य हो गयी।
मन कुलांचे भरने लगा। वह हर तरह से कोषिष करती कि किषोरदा उसे अच्छा कहें उसकी खूबसूरती की तारीफ करें। कई बार वह उनके सामने सज संवर कर गयी पर वो ध्यान ही न देते।
एक दिन जब वह काफी सज संवर के नये कपडे पहन कर पढ़ने आयी तो किषोरदा ने पहले गौर से देखा फिर कुछ सीरियस हो कर बोले ”पढ़ने लिखने वाले बच्चों को ज्यादा फै्यन नही करना चाहिये“। उस दिन वह कितना दुखी हो गयी थी कह न सकती यहां तक कि रात में ठीक से खाना भी न खा सकी।
लेकिन एक दिन अजीब बात हुयी। वह अपनी एक सहेली की बर्थडे पार्टी मे जाने के लिये तैयार थी। बाब्ड कट बाल व गुलाबी सूट में काफी खूबसूरत लग रही थी। यहां तक कि शीशे  में अपने आपको देख कर खुद शर्मा  गयी थी। तभी दरवाजा खुलने की आवाज सुन कर चौंक गयी। किषोरदा ड्राइंगरूम तक आ गये थे और उसे आवाज दे रहे थे।
उस वक्त वह बला की खूबसूरत लग रही थी। सलोनी को देख कर किशोर एक सेकेंड के लिये बिना पलक झपकाए उसे देखते रहे फिर मुस्कुरा के बोले ”कहीं जा रही हो क्या?“ उसने जवाब दिया ”एक सहेली का बर्थडे है“। फिर उन्होने पूछा भाभी कहां है? बताया वह के द्यर में नही है कहीं महिला संगीत है वहीं गयी है।। यह सुनते किषोरदा बोले ”अच्छा फिर मै जा रहा हूं। कल आऊगा“। उसने किषोरदा से कहा रूकिये थोड़ी देर में मम्मी आती होगी। आप यहां बैठिये, मै चाय बना के लाती हूं” कुछ देर सोंचने के बाद सोफे पर बैठ गये बोले ”अच्छा जाओ जल्दी से चाय बना लाओ“।
सलोनी बहुत खुश  थी। झट वह दुपट्टे को सम्भालती हुयी चाय बनाने चली गयी। यह पहला मौका था जब सलोनी द्यर पर अकेली थी और किषोरदा आ गये हो। वह भी उस वक्त जब वह सजी धजी तैयार हो। उसे यकीन ही न हो रहा था पर न जाने क्यों मन ही मन घबरा भी रही थी। चाय लेकर जब ड्राइंगरूम में आयी तो किषोरदा आंखे बन्द किये ना जाने क्या सोंच रहे थे, लेकिन उसके पैरों की आहट सुन के आंखे खोल दी।
किषोरदा सिर झुकाये चाय पीते रहे। बीच बीच में इधर उधर की हल्की फुल्की बाते करते रहे। उधर सलोनी सोच रही थी कि आज तो किषोरदा उसकी सुन्दरता की तारीफ तो जरूर करेंगे और वह सभी बातें कहेंगे जिन्हे सुनने के लिए बेचैन रहती है। पर
धीरे-धीरे चाय भी खत्म हो गयी किन्तु किषोरदा ने ऐसा कुछ भी न कहा। अचानक उठते हुए बोले मम्मी से कह देना मै कल आऊगां और तुम बर्थडे में जाओ“ और पलट कर दरवाजे की तरफ बढ़ गये। अचानक मुडकर उसे गौर से देखा और हसं कर बोले अरे हां सलोनी तुमसे एक बात तो कहना भूल ही गया पार्टी मे जाने के पहले काला टीका जरूर लगा लेना। आज तुम बहुत सुन्दर लग रही हो“ वह ्यरमा गयी। वह उनसे कुछ कहती इसके पहले वे दरवाजे के बाहर यह कहते हुए चले गये ”अच्छा कल आउंगा“।
उस दिन किशोर की इतनी सी बात सुन कर वह कितनी ज्यादा खुष थी। पार्टी में भी सबसे ज्यादा चहक रही थी। कई सहेलियों ने इस परिवर्तन को महसूस तो किया पर कोई यह न समझ पा रहा था इसका राज क्या है?
वह अब अपने दोनो के बीच की अजानी डोर को और ज्यादा षिददत से महषूष करने लगी थी। किषारदा और अच्छे लगने लगे थे।
इसी तरह हसंते बोलते वह कक्षा दस मे आ गयी। दिन बीतते जा रहे थे। एक साल और बीत गया।
भावनाओं का ज्वर बढ़ता जा रहा था। सलोनी भी किषोरवय छोड़ जवानी में प्रवेष कर गयी थी। इस साल वह पन्द्रह वर्ड्ढ पूरे करके सोलहवें में लगने वाली थी। अब वह और ज्यादा खूबसूरत लगने लगी थी। शरीर के सारे उभार पूरी उफान पर थे। उम्र के हिसाब से वह शरीर  और मन दोनो से अपनी हमउम्र लड़कियों से ज्यादा परिपक्व थी। अब वह किषोरदा से पहले की तरह लड़ती न थी। लडती भी तो उन्हे छेड़ने के लिये। अब उसके व्यवहार में भी एक शोखी व नजाकत रहती जिसे किषोरदा देखते समझते जरूर पर ऊपर से अपने मन की बात जाहिर न होने देते।
सलोनी भी किषोरदा को काफी अच्छे से समझ गयी थी। उसे अच्छी तरह अहसास हो गया था कि किषोरदा भी उसे पसंद करते है पर अपने मुंह से कुछ कहना नही चाहते। शायद  यह उनकी समझदारी थी या बडप्पन, या वक्त की नजाकत। या कुछ और जिसे वह नही समझ पा रही थी।
धीरे धीरे सलोनी को भी यह बात समझ में आ गयी थी कि इस प्रकार का संबंध बढ़ाना मम्मी पापा किसी को भी पसंद न आयेगा। इसके अलावा मम्मी-पापा का उसके व किषोरदा, दोनो के ऊपर से विष्वास हट जायेगा। वह अपने मम्मी-पापा का दिल दुखाना न चाहती थी। अतः उसने परिस्थितियो के साथ ताल मेल बैठा लिया था।
फिर भी उसका मन चाहता कि एक बार किषोरदा अपने मुंह से कह दें कि वह उसके बारे में क्या सोचते है। पर किषोरदा न जाने किस मिट्टी के बने थे कुछ कहते ही न थे।
सलोनी के लिए यह साल कई विषेड्ढ घटनाए लेकर आया था। एक तरफ तो उसे हाईस्कूल की परीक्षा के लिये मेहनत करनी पड रही थी। दूसरी तरफ किषोरदा ने डबल एम.ए. करने के बाद किसी पब्लिषर के यहां नौकरी कर ली थी। अब वह शाम को देर से आते और जल्दी चले जाते। किसी किसी दिन बिना बताये गोल हो जाते। बाद मे आकर मुस्कुराते हुये कोई न काई बहाना बना देते। वह झुंझला कर रह जाती। उसने इस बारे उनसे कुछ न कहने की कसम खा रखी थी इसलिये उनके बहानो को सुन भर लेती पर कुछ न कहती।
उसने भी अब उन्ही की तरह अपने मन के भावों को छुपाना सीख लिया था। इसलिये वह कभी जाहिर न होने देती की उसे उनके आने का कितना इंतजार रहता है। उन्ही दिनों एक विषेड्ढ घटना घटी। सलोनी की बड़ी बुआ कुछ दिनों के लिये उनके यहंा रहने आयीं। बुआ को किषोरदा का आना और इस तरह घुलमिल कर सलोनी से बातें करना अच्छा न लगता। कई बार उन्होने मम्मी से इस बारे में इषारा भी किया किन्तु मम्मी ने उनसे कहा कि वह किषोर को कई सालों से जानती हैं। वह इस तरह का नही है और फिर अपनी सलोनी भी ऐसी नही है। किन्तु बुआ पर इन बातों का कोई प्रभाव न पडा।
एक दिन शाम को जब वह पढ़ रही थी तब किसी बात पर वह दोनो हसं दिये थें तो किचन से बुआ की आवाज आयी मम्मी से कह रही थी ”आज कल दोनो पढते पढाते कम और हसंते ज्यादा है“ यह बात किषोरदा और उसके दोनो के कानो में पड़ गयी। शायद  बुआ ने दोनो को सुनाने के लिहाज से ही कहा था। फिर मम्मी ने उनसे क्या कहा यह तो सुनायी न पड़ा पर किषोरदा ने इस बात सुन कर भी अनसुना कर दिया। लेकिन अगले दिन से वह काफी सीरियस रहने लगे। आना भी कुछ कम कर दिया। पहले हफ्ते में एक दो दिन न आते थे पर अब अक्सर गोल कर जाते। यहां तक की अब वह उससे अकेले में बात करने से भी कतराते।
उस दिन उसे बुआ पर बहुत गुस्सा आया। वह सोच रही थी कि बुआ कौन होती है उसके घर के मामले में बोलने वाली? बोलना है तो अपने घर जाकर बोंले। फिर जब उसके मम्मी पापा कुछ नही कहते है तो उन्हे क्या अधिकार है? जिसके बारे में ज्यादा मालूम न हो तो उसके बारे मे ऐसा बोलना नही चाहिये और न जाने क्या क्या वह बुआ के बारे में सोंचती रही।
उम्र व पद के कारण वह कुछ न कह सकी। पर वह अब बुआ से मतलब भर की बात करती बस। यहां तक कि जिस दिन बुआ को वापस अपने घर जाना था वह जानबूझ कर अपनी सहेली के यहां चली गयी थी ताकि उसे उनसे नमस्ते भी न करनी पड़े। बुआ के जाने कुछ दिन बाद चीजें फिर धीरे-धीरे सामान्य होने लगी।
पापा-मम्मी दोनो को किषोरदा व सलोनी दोनो पर पूरा विष्वास था। किषोरदा को अपने ऊपर विष्वास था अगर कोई कमजोर था तो वह सलोनी ही थी। लेकिन इस कमजोरी की वजह से कभी भी वह अपने से रास्ते विचलित न हुयी।
वह अपनी कमजोरी व मनोभावों को छुपाना अच्छी तरह सीख गयी थी। अतः वह अपने भावों का समंदर अपने मन में ही रखती। हर वक्त किषोरदा के ख्यालो में डूबे रहने के बावजूद कोई यह न समझ सकता था कि उसके मन में किषोरदा के लिये कितनी श्रद्धा व प्रेम है। सलोनी को वह घटना याद आ रही थी जब वह गुलाबी सूट पहन कर नीतू की बर्थडे पार्टी में जा रही थी और किषोरदा ने उससे कहा था ”सलोनी तुम काला टीका लगा कर जाना क्योकि आज तुम बहुत सुन्दर लग रही हो“ और वह शर्मा कर रह गयी थी। तभी उसके मन में भी अपनी बर्थडे भी धूम-धाम से मनाने का हो गया।
वैसे तो उसके बर्थडे पर कोई खास प्रोग्राम न रहता। वह अपनी तीन चार सहेलियों को बुला लेती और आपस में चाय नाष्ता कर लेते। शाम को मम्मी घर में पूड़ी सब्जी बना लेती और किशोर  अपनी तरफ से कोई न कोई गिफ्ट ले आते। जब कभी सलोनी मम्मी से बर्थडे धूम-धाम से मनाने को कहती तो वह यह कह कर टाल देती कि उनके यहां बर्थडे मनाने का रिवाज नही है। पर उस साल उसने भी तय कर रखा था कि वह अपना बर्थडे अच्छे से मनायेगी। अपनी सारी सहेलियों को बुलायेगी। और खूब बड़ा सा केक कटवायेगी। पहले तो मम्मी-पापा राजी न हुए पर बाद में तैयार हो गये थे।
उस बार का बर्थ डे काफी शानदार ढंग से मनाया गया था। उसने अपनी सारी साहिलियों  को बुलाया था। पापा के कई दोस्त और कई रिष्तेदार आये थे। किषोरदा को उसने पहली बार ही सजे धजे देखा था। उस दिन किषोरदा ने ब्राउन कलर का सूट और उससे मैच करती टाई व शर्ट  पहन रखी थी। दाढ़ी बनवा कर आये थे। बाल भी करीने से कटे हुए थे। उस दिन वह काफी आकर्ड्ढक लग रहे थे। लग ही न रह था कि ये वही लीचड से बने रहने वाले ही किषोरदा है।
उन्हे इस तरह सजे धजे देखकर काफी खुषी हुई थी। वह इस बात से काफी डर रही थी कि कही आज भी वह उसी लफसट अंदाज में न आ जायें। कायदे से आने के लिए वह उनसे कहना भी चाहती थी लेकिन यह सोचकर उसने न कहा था कि कही बुरा न मान जाये। पर वैसा न हुआ। किषोरदा उसके मन मुताबिक ही बने ठने आये थे। उस दिन बर्थ डे में किषोरदा पूरे जोष में थे। सब से हसं हसं कर बातें कर रहे थे। सहेलियों के साथ काफी देर तक बातें करते रहे।
मेहमानो को पापा ने एक साथ ड्राईगरूम में बैठा दिया था। तब सब लोगो ने कुछ न कुछ गीत, चुटकुले या कविताएं सुनायी। किषोरदा ने उसमें भी बाजी मार ली। सब को अपनी कविताएं व गीत सुनाकर। सभी लोग बहुत खुश  थे, ऐसा लगने लगा था शायद आज उसका दिन न होकर किषोरदा का दिन हो। पर इस बात से उसे अफसोस नही बल्कि खुषी थी।
दूसरे दिन जब वह स्कूल गयी तो उसकी खास सहेली षिखा ने उसको अकेले ले जाकर कहा ”यार तेरे किषोरदा तो बहूत छुपे रूस्तम निकले। कल उन्हे देख कर लग ही न रहा था कि ये वही किषोरदा है“। उस दिन वह अपने आपको काफी खुष व हल्का-हल्का महसूस कर रही थी। यहां तक की उस दिन शाम  को किषोरदा का न आना भी न खला। वह मम्मी से कल की पार्टी की बाते करती रही थी।
दो दिन बाद जब फिर वह आये थे तो फिर वही पुराने वाले किषोरदा मुंह मे सिगरेट की बदबू दो तीन की बढ़ी दाढ़ी। आज तो पैर में जूते भी न पहन कर हवाई चप्पल पहने हुए थे। यह देख कर सलोनी को बहुत गुस्सा आया। उसने तय कर लिया आज चाहे जो हो जाये वह भी उनको सिखायेगी। उस दिन इत्तफाक से मम्मी भी घर पर न थी इसलिए खुल कर बातें भी कर सकेगी।
हमेषा की तरह जब वह आकर कुर्सी में एक पैर ऊपर व एक पैर लटका कर बैठ गये और बोले ”बर्थडे की थकावट उतरी या न ही?“ तब उसने किशोर  की बात का जवाब न देकर उल्टे ही पूछ लिया ”पहले आप यह बताइये दो दिन कहां थे?“ तब वह बोले एक साहित्यि सम्मेलन के आयोजन में फसंे रहने के कारण न आ सका।
किशोर दा  ने आगे पूंछा ”अच्छा यह बताओ उस दिन पार्टी के बाद तुम्हारी सहेलियों ने मेरी कविताओं को खराब तो न हीं कहा“। इसी बात से सलोनी को मौका मिल गया वह कहने लगी आपको कविताऔ की तो तारीफ कर रही थी पर आपकी बुराई कर रही थी। कह रही थी किशोरदा है तो अच्छे हैं पर हमेषा लल्लू से बने रहतें है। तो किशोर दा हसं कर बोले बाइदवे मै हूं ही र्स्माट। उसके बाद सलोनी ने उनको रहने सहने व उनकी आदतों को लेकर बहुत सारी बातें सुनाई। सलोनी ने यह भी कहा कि वह अपनी उम्र के लोगो की तरह फैषन वाले और नये-नये कपडे क्यो नहीं पहनते? शेव रोज क्यो नहीं बनाते? इसके अलावा उसने सिगरेट पीने की आदत पर भी टोंका था कि अगर आदमी खुद गलत काम करता है तो वह किसी और को किस तरह समझा सकता है।
तब बहुत देर तक वह सलोनी की बातें सर झुकाये सुनते रहे। अंत में हसंते हुये बोले ”अच्छा मेरी दादीजी आपकी सारी बाते मैने मान ली पर फैषन के मामले में मै अनाड़ी हूं इसलिये अब तुम ही अपनी पसंद के कपडे ला देना। रही बात रोज सेव करने की तो उसकी आदत कल से डालने की कोषिष कयंगाा और तीसरी शर्त  सिगरेट न पीने की रही वह इतनी जल्दी न छोड पाऊंगा पर कम करने का वादा जरुर करता हूं“। बाद में बोले लिखने पढ़ने में सिगरेट सहायता करती है तब अन्त मे यह फैसला हुआ कि कम से कम सिगरेट पी कर उसके यहां न आयेगे।
इसके बाद से सलोनी को न तो किषोरदा को शेव बढ़ी दिखी और न ही सिगरेट पीते हुए देखा। हां कभी-कभी उसे चिढाने के लिये जरूर दोनो काम कर लेते।
बाद में सलौनी एक दिन मम्मी के साथ बाजार जाकर किशोरदा  के लिये अच्छी सी टी-शर्ट  व पैंट खरीद कर लायी। जिसकों उसने बाजार से कई दुकानों को देखने के बाद पसंद किया था और बड़े शौक से किशोरदा के बर्थडे पर गिफ्ट किया था।
उस दिन के समझौते ने दोनो के संबंधो को और प्रगाढ कर दिया। लेकिन उस अन्जाने व नैसर्गिक संबंध की पवित्रता अभी भी बरकरार थी। साथ ही सलोनी की किषोरदा के मुंह से कुछ विशेष सुनने की बेकरारी भी बरकरार थी।
हसीं खुषी दिन गुजर रहे थे कि दिसम्बर आ गया। अब सलोनी के बोर्ड के इम्तहान के मात्र तीन महीने बचे थे इसलिये वह पढ़ाई में ज्यादा व्यस्त हो गयी। दूसरी तरफ किषोरदा भी साहित्यिक गोष्ठियों व नौकरी में कुछ ज्यादा व्यस्त रहने लगे। पर सलोनी के लिये वक्त निकाल लिया करते।
किषोरदा के प्रकाषक ने उनका ट्रान्सफर दिल्ली कर दिया कि वह जाकर उसके नये आफिस को सम्भालें। उन्होने मार्च तक का समय यह सोंच कर मांगा कि तब तक सलौनी के इम्तहान भी खत्म हो जायेंगे और अगर इसी बीच इलाहाबाद में ही कोई दूसरी नौकरी मिल जायेगी तो वह दिल्ली जाने का प्रपोजल छोड़ेगे। किन्तु बात बनती न नजर आ रही थी।
अन्ततःकई सालों तक रोज होने वाली मुलाकातों की उल्टी गिनती शुरू  हो गयी।
अब जब भी किषोरदा आते कलेन्डर की तरफ देख कर कहते ”सलौनी चलो अच्छा है अब मै दिल्ली चला जाऊगां। तुमको भी खुषी मिल जायेगी कि तुम्हे रोज-रोज डांटने व टोकने वाला चला गया और मै भी खुष रहूंगा कि चलो लडाका से छुट्टी मिली“। तब वह भी ऊपरी मन से कहती ”हां हां अच्छा है आप चले जायें। मै तो कहती हूं मार्च में तो अभी कई महीने हैं आप कल ही चले जाइये“। यह सुनकर वह हसं कर रह जाते।
इस तरह दोनो रोज कलेन्डर देखते और लडते झगडते। धीरे धीरे महीने कम हुये फिर हफ्ते बचे। फिर मात्र कुछ दिन रह गये मार्च आने में और फिर मार्च भी आ गया। सलोनी के इम्तहान शुरू हो गये पर अभी उसके इम्तहान खत्म भी न हो पाये थे कि किषोरदा के प्रकाषक ने उनसे कह दिया कि अगर वह दिल्ली न जाना चाहते तो वह उसकी नौकरी छोड़े।
किषोरदा को इलाहाबाद में और कोई अच्छा ऑफर न मिल रहा था। इसके अलावा दिल्ली का आफर उन्नति के लिहाज से भी अच्छा था।
और एक दिन किषोरदा दिल्ली चले गए।
दिल्ली जाने से पहले जब आखिरी बार मिलने आये तो उस दिन भी सलोनी को उम्मीद थी कि शायद आज किशोरदा  कुछ बोलेगे पर जाते समय  मम्मी-पापा के पैर छुये और सलोनी से सिर्फ मुस्कुरा कर कहा अच्छा सलोनी मन लगा कर पढना। मै इलाहाबाद आऊगां तो मिलने जरूर आऊगां और पास होने की मिठाई भी खाऊगां। वह कुछ न बोली सिर्फ चुपचाप सिर हिला दिया था। मम्मी ने जरूर चिट्टी लिखते रहने को कहा। उसके बाद वह मुड कर चल दिये।
उस दिन किशोर  के जाने के बाद पापा चुपचाप टी.वी. देखने लगे। मम्मी बिना कुछ बोले खाना बना रही थी और सलोनी बिस्तर पर जाकर कॉमिक्स पढ़ने के बहाने अकेले ही न जाने कितनी देर रोती रही।
आज इन सब बातों को याद करके सलोनी की आंखो से दो गरम-गरम बूंदे बिस्तर पर गिर गयी और उसकी आंख खुल गयी। सलोनी का गला प्यास से सूख रहा था। उसने बढ कर एक ग्लास पानी पिया और पल्लू से आंसू पोंछ कर घड़ी की तरफ देखा जो दो बजा रही थी उसके बच्चे के आने का वक्त हो गया था।
सलोनी की कहानी सोंचते-सोचते बैल भी उदास हो गया था उसकी चाल कुछ धीमी हो गयी थी।