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Saturday 31 May 2014

कुछ तो ख़्वाब सुनहरे बुन लूँ

कुछ तो ख़्वाब सुनहरे बुन लूँ
तुझको अपना साथी चुन लूँ

तू मेरे घर आये इसके पहले
मै प्रेम पंथ के कंकर चुन लूँ 

राग मिलन न जाना अबतक
कहे तो तेरी धड़कन सुन लूँ ?

कहे तो तेरे गज़रे की ख़ातिर
फ़लक से चाँद सितारे चुन लूँ

तो बोले तो जैसे सरगम बाजे 
ग़र छेड़ूँ ग़ज़ल तो तेरी धुन लूँ

मुकेश इलाहाबादी -------------

तमाम उरियाँ लोगों के बीच

तमाम उरियाँ लोगों के बीच मुकेश,हो के बालिबास नंगा था
मुर्दों के शहर में मरा साबित किया गया,जो शख्श ज़िंदा था
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------------------

बाबू राज़नीत का देखो खेल

बाबू राज़नीत का देखो खेल
बने हैं शिक्षा मंत्री इंटर फेल

अजब ज़माना आया बाबू
हम पढ़ लिख कर बेचे तेल

बाबू साम दाम दंड और भेद
है सरपट भागी भगवा  रेल

हर कोई होना चाहे न० एक
बाबू मची है देखो रेलम पेल 

जो सच के साथ खड़ा है बाबू
वो कब का पँहुच गया है जेल

मुकेश इलाहाबादी ------------

बहुत नज़दीकियों के तलबगार नहीं

बहुत नज़दीकियों के तलबगार नहीं
मुहब्बत में मगर दूरियां भी अच्छी नहीं

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

दोस्त दर्द ग़मे जुदाई का हम क्या जाने ?

दोस्त दर्द ग़मे जुदाई का हम क्या जाने ?
तू तो मेरे साथ याद बन के आज भी है --

मुकेश जिस्म न सही रूह तो आज भी है
तू किसी न किसी रूप में साथ आज भी है

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

संभल के चलाकर

संभल के चलाकर
इतना न  डराकर

तू मुश्किलों में भी
फूल सा खिलाकर

माना कि तू बडा है
कुछ तो झुकाकर 

दिन रात क्यूँ चले
थोड़ा तो रुकाकर

मुकेश की ग़ज़ल
कभी तो सुनाकर

मुकेश इलाहाबादी --

शेर भालू बन्दर मिलेंगे

शेर भालू बन्दर मिलेंगे
गिद्ध और कबूतर मिलेंगे

आदमी की खाल में तुम्हे   
कितने रंगे सियार मिलेंगे

मियाँ शहर के हर हौराहे पे
चीता चित्तीदार मिलेंगे

घूम आओ सारी बस्ती
इंसान दो चार मिलेंगे

एक बात जान लो तुम
जानवर समझदार मिलेंगे 

मुकेश इलाहाबादी ---------

Friday 30 May 2014

हौसला तो तूफाँ से लड़ने का रखता हूँ

हौसला तो तूफाँ से लड़ने का रखता हूँ
ये अलग बात कश्ती साथ नहीं देती
मुकेश इलाहाबादी -----------------------

आसमाँ से बड़ी है

आसमाँ से बड़ी है
ख्वाब की नदी है

हम - तुम वही हैं
ज़माना भी वही है

बीच में मगर यह
दीवार क्यूँ खड़ी है

दरम्याँ दो रूहों के
हवस हंस रही है

हिज़्र के चार पल
सदियों से बड़ी है

साहिलों के बीच
नदी बह रही है

मुकेश इलाहाबादी -

इतनी उदासी तेरे दामन में अच्छी नहीं लगती

इतनी उदासी तेरे दामन में अच्छी नहीं लगती
आ, खिलखिला ले तो कुछ फूल चुन में लाया हूँ
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

गाल गुलाबी हो गया

गाल गुलाबी हो गया
समाँ फागुनी हो गया

तेरी आखों की मय से
जँहा शराबी हो गया

नफरत दिल वाला भी
प्रेम पुजारी हो गया

इंद्रधनुषी आँचल से
मन सतरंगी हो गया

तो जब से ग़ज़ल बनी
दिल सारंगी हो गया

मुकेश इलाहाबादी --

मै इंक़लाबी हो गया

मै इंक़लाबी हो गया
लहज़ा बाग़ी हो गया

नेता की अगवानी में
शहर छावनी हो गया

मज़हबी बातों से ही तो 
आलम बारूदी हो गया

कल तक जो शायर था
वो भी व्यापारी हो गया

मुकेश इलाहाबादी --------

Thursday 29 May 2014

दर्द की बारिस है,

दर्द की बारिस है, और तुम बेलिबास निकले हो
मुहब्बत न सही, मेरी दुआओं के साये में हो लेते

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------

दर्द के आँसू छलक रहे हैं

दर्द के आँसू छलक रहे हैं
अपने अंदर दहक रहे हैं

ऊपर से तो दिखते सख्त
भीतर- भीतर दरक रहे हैं

घर आँगन में सन्नाटा है
छत पे पंछी चहक रहे हैं

ग़म पीकर बैठे दुनिया का
प्यार में तेरे बहक रहे हैं

जूही, बेला, चंपा, हरश्रृंगार
यार की खुशबू,महक रहे हैं

मुकेश इलाहाबादी -----------

ऐ दोस्त , ख़याल तो अच्छा है, अपने ज़ख्मों को ज़ुबाँ देने का

ऐ दोस्त , ख़याल तो अच्छा है, अपने ज़ख्मों को ज़ुबाँ देने का
ज़माने वाले जिस्म से ज़्यादा जुबां पे खंज़र चलाते हैं मुकेश
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------------------

हमांरे में वो हुनर कँहा जो खिलाड़ी बन सकें

हमांरे में वो हुनर कँहा जो खिलाड़ी बन सकें
मोहरों सा बिसात पे पीटना मुक़द्दर रहा है

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

खिलौना बन के रहोगे

खिलौना बन के रहोगे तो लोग खेलेंगे भी, तोड़ेंगे भी
कि ज़माना अभी अपने बचपने में ही है मुकेश
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------

मुझसे मुखातिब था वो ग़ैरों की तरह

मुझसे मुखातिब था वो ग़ैरों की तरह
जिसे हम अपना बनाये बैठे थे, मुकेश
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

सब कुछ छोड़ दोगे पर यादों को कैसे छोड़ पाओगे


सब कुछ छोड़ दोगे पर  यादों को कैसे छोड़ पाओगे
ये वो असबाब है जो सिर्फ मैयत के साथ जाता है.।
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

 

सुबह और सांझ का आलम इतना खूबसूरत और हंसी क्यूं होता ह

सुमी,
क्या तुम जानती हो, सुबह और सांझ का आलम इतना खूबसूरत और हंसी क्यूं होता ह ? ग़र नही तो सुनो ...

यामिनी, जब अपना सांवला ऑचल फैलाये फैलाये क़ायनात के आँगन  मे चॉद तारों के संग खेल खेल के थक चुकी होती है तब उसे अपने प्रेमी ‘उजाला’ यानी कि दिवस की याद आती है और वह अपना आंचल समेट चल देती है, दिवस से मिलने, उधर दिवस भी अपनी प्रेमिका यामिनी के लिये पलकें पांवडें बिछाये इंतजार कर रहा होता है। और वह अपनी सूरज की किरणों रुपी बाहें फैला देता है स्वागत में।
यामिनी धीरे धीेरे दिवस की बाहों मे सिमटने लगती है, गलने लगती है, पिघलने लगती है खोने लगती है।  और ....
उधर ....
यामिनी और दिवस के इस महामिलन को देख क़ायनात का ज़र्रा ज़र्रा नाच उठता है। फूल खिलने लगते है, कलियॉ मुस्कुराने लगती है, चिडियॉ चहचहाने लगती हैं भंवरे बाग मे गुनगुनाने लगते हैं। मंदिर में घंटे और मस्जिद में अजान के स्वर सुनाई देने लगते हैं। नदियॉ अंगडाई ले के बहने लगती हैं हवांएं ठण्डी हो कर बहने लगती हैं बृक्ष झूमने लगते है।
तुम कह सकती हो पूरी की पूरी क़ायनात खिलखिलाने लगती है।

सारा इस महामिलन का साक्षी हो उठता है।
तभी तो इस खूबसूरत वक्त को भी खुदा ने अपने लिये चुना है। कहा है कि गर तुम इस वक्त मे उसे पुकारोगे तो वह तुम्हारे अंतस की यामिनी से दिवस का उजाला बन मिलने जरुर आयेगा।
और सुमी यामिनी व दिवस के इस महामिलन केा हर एक संजीदा दिल ने हर एक कवि ने कलाकार ने संगीतकार ने बयॉ किया है उकेरा है कभी गीतों मे तो कभी रागों मे कभी षब्दों मे कभी कागज पे कभी पत्थरों पे तो कभी छंदों मे । जिनकी बानगी तुम देख सकती हो वेद की ऋचाओं मे कुरान की पॉक आयतों में, नानक के षबद में कबीर के दोहों में और मीरा के भजनों मे।
और ----  इसी तरह जब ‘दिवस’ दिन भर की भाग दौड से थक चुका होता है। तन और मन दोनो व्याकुल हो रहे होते हैं। जिस्म का पोर पोर थकन से चूर चूर हो रहा होता है तब उसे अपनी यामिनी की बेतरह याद सताने लगती है, वह अपनी मुहब्ब्त से मिलने सब कुछ छोड़ छाड़ चल देता है। उधर यामिनी भी इस मिलन के लिये अपना सांवला आंचल और काले गेसू फैलाकर स्वागत के लिये आकुल व्याकुल दिखती है। और धीरे धीरे दिवस रात के ऑचल मे गिरने लगता है, पिघलने लगता है, सिमटने लगता है। यहां तक कि अपने वजूद को ही खोकर खुद को मिटाने लगता है।
दूसरी तरफ  ...

सारे जहांन का जर्रा जर्रा दिन और रात के इस मिलन को खामोषी से देखने लगता है। तब शेष रह जाती है। नदियों की शांत होती लहरें, मंदिर की घंटियां  आरती की आवाजें, मस्जिद से आती मग़रिब के नमाज की आवाज। जो इस महामिलन मे अपना सुर संगीत छेडे रहती है। और का़यनात एक बार फिर उत्सब में डूबी होती है।

तों सुमी, अब तो तुम समझ गयी होगी कि जिन लम्हों में सब कुछ सब कुछ खिल खुल और मुस्कुरा रहा होता है। वह पल इतना मोहक खूबसूरत और हंसी क्यूं होता हैं।

तो आओ क्यूं न हम और तुम भी यामिनी और दिवस की तरह इस महामिलन के साझी बन जायें।

वैसे जानकार इस यामिनी को अज्ञान और दिवस को ज्ञान कहते हैं। कुछ लोग इस मिलन संध्या को आत्मा व परमात्मा का मिलन भी कहते हैं।

बहरहाल आओ हम लोग भी क्यूं न उस यामिनी और दिवस बन जायें इसे आलम के साक्षीदार हो जायें, साझीदार हो जायें

खुदा के करीब हो जायें ।

तुम्हारा,

मुकेश ----

Wednesday 28 May 2014

आधी सदी चलते रहे

आधी सदी चलते रहे
यूँ ही तनहा बढ़ते रहे

वो और लोग रहे होंगे
कारवाँ  में चलते रहे

धुंध तीरगी आँधियाँ 
मुश्किलों में बढ़ते रहे

सोचता हूँ तो लगता है
ज्यूँ ख्वाब में चलते रहे

मुहब्बत आग का दरिया
मुकेश डूब कर बढ़ते रहे 

मुकेश इलाहाबादी ----

तीरगी से दुश्मनी नहीं,

तीरगी से दुश्मनी नहीं,पर
लड़ रहा हूँ रोशनी के लिए

मुकेश इलाहाबादी --------

भले ही मकाँ छोटा रक्खो

भले ही मकाँ छोटा रक्खो
पै दिल अपना बड़ा रक्खो

इतनी तंगख़याली क्यूँ है?
विचार थोड़ा खुला रक्खो

अँधेरे में भटक जाओगे
चराग इक  जला रक्खो

इतनी खुदगर्ज़ी ठीक नहीं
थोड़ी शराफत बचा रक्खो

ख़ुदा औ बुज़ुर्गों के सामने
सर अपना नीचा रक्खो

मुकेश इलाहाबादी --------

Tuesday 27 May 2014

रात भर के जागे; लगते हो

रात भर के जागे; लगते हो
किसी ग़म में डूबे लगते हो

चलो मै दरख़्त बन जाता हूँ
मुसाफिर तुम थके लगते हो

इतना भोलापन भी ठीक नहीं
इंसान तो तुम भले लगते हो

कहो तो मै दरिया बन जाऊं
बहुत दिनों के प्यासे लगते हो,,

मुझे भी अपने कारवाँ में ले लो
मुसाफिर तुम अच्छे लगते हो

मुकेश इलाहाबादी --------------

मिलती होगी दरख़्त से ज़िंदगी ऐ दोस्त ?

मिलती होगी दरख़्त से ज़िंदगी ऐ दोस्त ?
मौत के सौदागर इसे जड़ से उखाड़ लेते हैं
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

दिल जलाने से भी रोशनी नहीं होती

दिल जलाने से भी रोशनी नहीं होती
मुकेश रूह के इर्द-गिर्द कोहरा घना है
मुकेश इलाहाबादी ---------------------

चराग़ जला नहीं,चाँद भी उगा नहीं


चराग़ जला नहीं, चाँद भी उगा नहीं
तीरगी दूर हो तरीका,कोई बचा नहीं

साँझ से जाने क्यूँ,दिल है बुझा बुझा
उदासी का शबब, किसी ने पूछा नहीं

जाने किस बात से यार खफा हो गया
वज़ह जानूँ ऐसी कोशिश किया नहीं

फक्त ज़रा सी बात पे खफा हो गया
मुलाक़ात के लिए मैंने भी कहा नहीं

ऐ दोस्त लाख उदास है मुकेश,लेकिन
ग़ज़ल में मैंने ज़िक्र उसका किया नहीं

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

एक अंधी सुरंग

एक अंधी सुरंग
सूखी तलहटी पाओगे
मै एक सूखा कुँआ हूँ
मुझसे कुछ न पाओगे

तुम दरिया हो
रास्ता बदल दो
मै एक सहरा हूँ
तुम भी सूख जाओगे

जाओ , खुले आकाश में उड़ जाओ
तुम्हे आज़ाद करता हूँ

मै इक बंजारा,
मुझसे कुछ न पाओगे

मुकेश इलाहाबादी ----

Monday 26 May 2014

खुदा न करे ग़म और तन्हाई आपका दामन छुए

खुदा न करे ग़म और तन्हाई आपका दामन छुए
 वैसे ये तोहफे खुदा ने हम जैसों  के लिए बनाये हैं
 मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------

गर इतना ही डर है दिल किसी के टूट जाने का

गर इतना ही डर है दिल किसी के टूट जाने का
फिर लेते ही क्यों हो ये अंगड़ाई जिस्म तोड़ के
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

रह रह के चिलमन से झांक जाते हैं


रह रह के चिलमन से झांक जाते हैं
हर बार हमको वंही पर खड़ा पाते हैं

झट से परदा सरका के लौट जाते हैं
कुछ सोचते हैं मुस्काते हैं झुंझलाते हैं

टी वी ऑन करके चैनल कई बदलते हैं
कभी पुरानी किताब के पन्ने पलटाते हैं

कभी बेवज़ह पंखा तो कभी घड़ी देखते हैं
दो चार फालतू फालतू फ़ोन घनघनाते हैं

फिर अचानक चिलमन पे लौट आते हैं
हमको वंही पा के फिर झुंझला जाते हैं

देख देख कर उनकी ये बेचैनी बेकरारी
हम  सोचते हैं वे हमारे लिए ही आते हैं

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

 

खामोश समंदर में

एक ---

मेरे, उसके बीच
बहता है
एक खामोश दरिया
जिस पे कोई पुल नहीं है
चाहूँ तो
शब्दों के खम्बो
वादों के फट्टों का
पल खड़ा कर सकता हूँ
मगर
मुझे अच्छा लगता है
 दरिया में
उतारना खामोशी से
और फिर
डूबते उतराते
उतर जाना उस पार

दो ----

अनवरत
चल रहा हूँ
नापता
शब्दों की सड़क
ताकि पहुंच सकूँ
अंतिम छोर तक
कूद जाने के लिए
एक खामोश समंदर में
हमेशा हमेशा के लिए

मुकेश इलाहाबादी -----------

उस पार

जीवन इक प्यास है

जीवन इक प्यास है
बस तुमसे ही आस है

तुम साथ- साथ हो
ज़िंदगी मधुमास है

बिखेर दो लटों को
हर साँस  सुवास है

तुम्हारा संग साथ
लगता कुछ ख़ास है

रात काली ही सही
तू है तो उजास है

मुकेश इलाहाबादी --

लड़कियाँ ----

लड़कियाँ ----
ज़्यादातर लडकियां मासूम और पाक दिल की होती हैं। जिनकी ज़िंदगी की चादर की बनावट और बुनावट बहुत झीनी होती है। जो फूल से मुलायम और कपास सी उजली होती है।  इस चादर को बहुत ही आहिस्ता व नज़ाक़त से ओढ़ना बिछाना पड़ता है , वरना ज़रा में ही मैली व बेनूर हो जाती है। 
अक्सरहाँ , अपनी इस फूल सी चादर को बचाने के लिए खुद को तार तार करती रहती हैं।

अगर लड़कियों  को फूल कहा जाए तो गलत न होगा, अक्सरहाँ ये फूलों सा खिलखिलाती और मह्माती रहती हैं , तो ज़रा सी आंच और धुप से मुरझा जाती हैं। 
मगर  ये बात ज़माना कब समझेगा ?

लडकियां चन्दन होती हैं।  पवित्र और न ख़त्म होने वाली खुशबू, शीतलता लिए हुए।  जिसके जिस्म पे तमाम शार्प लिपटने को आकुल व्याकुल  हैं।
जिन्हे ज़माना काटता है  घिसता है और अपने बदबूदार बदन पे मलता है - खुशबू के लिए। मगर ये चन्दन रूपी लडकियां बार बार काटे और घिसे जाने के बावजूद अपनी सुगंध और शीतलता नहीं छोड़तीं।

लडकियां चादर हैं , फूल हैं , चन्दन हैं।  अल्द्कीयां आधी आबादी और पूरी आबादी की जननी हैं।  फिर भी आज भी इतनी शोषित और उपेक्षित  क्यूँ हैं ? क्यूँ हैं ? क्यूँ हैं ?

एक अनुत्तरित प्रश्न।

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

Sunday 25 May 2014

एक दिन मै छत पे,तनहा था

एक दिन
मै छत पे,तनहा था
और तनहा चाँद को देख रहा था
चाँद रूई के फाहे सा शुभ्र और कोमल था
चाँद की मुस्कराहट में हल्की सी उदासी थी
वो उदासी सब को नहीं दिखती थी
सिर्फ तनहा लोगों को दिखती थी
मै रोज़ रोज़ उसे देखता
सिर्फ, चुप-चाप उसे देखता
बोलता कुछ भी न था मै
एक दिन चाँद ने खुद ब खुद पूछा
'तुम मुझे इतने गौर से क्यों देखते हो'
मैंने कहा ' तुम्हे तो मै  ही नहीं पूरी दुनिया देखती है '
चाँद ने कहा ' तुम्हारे देखने में और दुनिया दे देखने में
अंतर नज़र आता है इस लिए पुछा
वैसे मुझे भी मालूम है मै सुन्दर हूँ
मैंने जवाब दिया ' हाँ ये सही है - मै भी
तुम्हारी सुंदरता के कारण अाकर्षित  हूँ
पर  मै तुम्हरी इस खूबसूरत मुखड़े के पीछे
एक उदासी भी देखता हूँ '
चाँद मुस्कुरा दिया
'तुम्हे इससे क्या -
तुम्हे तो मेरी सुंदरता से मतलब है
तुम्हे मेरी चांदनी से ग़रज़ है'
मैंने भी ज़िद ठान ली
'अगर तुम अपना दुःख नहीं बताओगी मुझसे
तो मै यही बैठा रहूँगा तनहा खाली छत पे
अनंत अनंत काल तक के लिए
यंहा तक की बैठे बैठे फना हो जाऊंगा
तब से चाँद से मेरी दोस्ती हो गयी है
और अब हम दोनों खूब बातें करते हैं
अब तुम चाँद का नाम मत पूछना
फिलहाल मै मुझे चाँद से मिलने जा  रहा हूँ
क्यूँ की छत पर वो भी तनहा होगा मेरी तरह

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

तुम, इस खामोशी से यह मत समझो


तुम,
इस खामोशी से
यह मत समझो
हमें कुछ कहना नहीं
दर असल, जब कभी तुम
अनसुनी कर देते हो
बात,  तब सारे के सारे शब्द
उतर जाते हैं
एक गहन गह्वर में
और वंहा से
फिर कभी लौट कर नहीं आते
हमारे शब्द

लिहाज़ा
तुम्हे सीख लेना चाहिए
इस खामोशी को भी
समझने का हुनर
वर्ना , तुम वंचित रह जाओगे
हमसे गुफ्तगू करने के लिए
हमेषा हमेषा के लिए

तुम,
खामोश दरिया को भी देखकर
मत समझना इसे कुछ कहना नही
दर असल यह भी
अपनी आरज़ूओं को लेकर
इतना मचल चुका है कि
कुछ कहने से बेहतर, इसे
चुपचाप बहना अच्छा लगता है

लिहाज़ा तुम भी इसके साथ
गुप चुप बहना सीख लो
वर्ना चुप रहना ही बेहतर होगा
हमारे लिए तुम्हारे लिए

मुकेश इलाहाबादी ---------

Saturday 24 May 2014

रश्मे उल्फत मै निभाऊं कैसे

रश्मे उल्फत मै निभाऊं कैसे
है पाँव में मेहंदी तेरे दर आऊँ कैसे

इज़हार कर तो दूँ निगाहों से
हया का बोझ है पलकें उठाऊं कैसे

आ तो जाऊं किसी बहाने से
लौट के मै पीहर घर जाऊं कैसे

सखियाँ छेड़े हैं तेरे नाम से पहले भी
बातें दिल की मै सुनाऊँ कैसे

जले है दिल मेरा इक ज़माने से
हिज़्र की आग को बुझाऊं मै कैसे

मुकेश इलाहाबादी -----------------

मशगूल रखता हूँ खुद को

मशगूल रखता हूँ खुद को तुझे भूल जाने के लिए
वर्ना इतने बड़े कारोबार की मुझे ज़रुरत क्या है ?

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------

ऐतबार कर के देखा होता

ऐतबार कर के देखा होता
फिर मुझे झूठा कहा होता

फैसला लेने के पहले मेरी
बेगुनाही सुन लिया होता

बेशक रास्ता बदल लेते
मुझे तो बता दिया होता

अग़र कोई शिकायत थी
मुझको तो बताया होता

ग़ज़ल में अपनी कहीं तो
मेरा भी ज़िक्र किया होता


मुकेश इलाहाबादी ------------

जो भी हुआ अच्छा न हुआ

जो भी हुआ अच्छा न हुआ
वक़्त कभी हमारा न हुआ

तारीखें बदलीं हैं कलैंडर में
साल, लेकिन नया न हुआ

चलो आज दिन अच्छा गुज़रा
शहर में कोई हादसा न हुआ

अपनी सूरत तेरे दिल में देखूं
हमारे पास आइना न हुआ

अपनी दास्ताँ फिर से सूना दूँ
अभी ये किस्सा पुराना न हुआ 

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Friday 23 May 2014

जब भी चाँद उगता है


जब भी चाँद उगता है
हरदम बातें करता है
 

आज सुबह से चुप है
कुछ उदास लगता है
 

हमसे न बोले है, पर 
अपना सा लगता है
 

चिलमन से वो झांके है
औ हौले से मुस्काता है

चाहत है कि पूंछूं हाल,
पै मुझको डर लगता है 

मुकेश इलाहाबादी -----

गर उगेगा चाँद तो चाँदनी बरसेगी ही बरसेगी

गर उगेगा चाँद तो चाँदनी बरसेगी ही बरसेगी
रक़ीबों के घर पूरी, हमारे घर कुछ तो बरसेगी
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

दिल में दरिया बहा रक्खा है

दिल में दरिया बहा रक्खा है
तमाम ज़ख्म छुपा रक्खा है

ज़ालिम ने हुस्न के दम पर
ज़माना सर पे उठा रक्खा है

बहुत मासूम सा है क़ातिल
ग़दर जिसने मचा रक्खा है

खामोश निगाहों के पीछे
तमाम राज़ छुपा रक्खा है

मरने वालों की फेहरिस्त में
हमने  नाम लिखा रक्खा है

मुकेश इलाहाबादी ---------

Thursday 22 May 2014

बुरी हो अच्छीे हो जी लिया जाए

बुरी हो अच्छीे हो जी लिया जाए
ज़िंदगी ज़हर सही पी लिया जाए

हो गया अज़नबी तेरे जाने के बाद
अब, शहर से रुखसती लिया जाए 

ख़ुद को जला के रौशन हुआ जाए
अपनी ख़ुदी से रोशनी लिया जाये

मुकेश इलाहाबादी -------------------

सुना था बहारों से मिल के

सुना था बहारों से मिल के तबीयत बहल जाती है
बस यही सोच के तेरे पहलू में हम आ कर  बैठे हैं
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------

कब्र पे अपनी खुद फ़ातिहा पढ़ आये


कब्र पे अपनी खुद फ़ातिहा पढ़ आये
बाद मरने के मेरे कोई आये न आये

पैगामे आख़िरी रुखसती कहला दिया
मेरी बला से अब चाहे आएं या न आएं

हमने तो दे दिया जाँ मुहब्बत के नाम
मातमपुर्शी को भी कोई आये  न आये

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

Wednesday 21 May 2014

कौन किसको याद रखता है

कौन किसको याद रखता है मुकेश मर जाने के बाद
लोग बेवज़ह बात करते हैं इतिहास में लिखे जाने की

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------

रघुवा तू अपना सूना

रघुवा तू अपना सूना
दुःख का आल्हा सुना

झोपड़पट्टी , फुटपाथ
ईंट और  गारा सुना 

गिरवी रक्खा खेत
घर, बूढ़ी माँ सुना 

रात, रोटी -आचार,,
दिन में फांका सुना 

नेता को झंडा मिला
तुझे मिला डंडा सुना

खैनी, बीड़ी औ सुर्ती
तू अपना बिरहा सुना

मुकेश इलाहाबादी ---

आ मै तुझे संवार दूँ

आ मै तुझे संवार दूँ
प्यार को विस्तार दूँ

सारा जँहा समेट कर
तेरे आँचल में डाल दूँ

आ बैठ पहलू में मेरे
तू जो कहे उपहार दूँ

मन की वीणा को छू
प्रेम को नई झंकार दूँ

गूँथ के तारों की माला
तुझे नया पुष्पहार दूँ

मुकेश इलाहाबादी ---

समय से संवाद कर

समय से संवाद कर
खुद से भी बात कर

इतना तनहा क्यों है
मेल मुलाक़ात कर

क्यों लेटा आलस में
चल, उठ, काम कर

पहले मेहनत कर ले
फिर, तू आराम कर

कोई छोटा हो कि बड़ा
तू सबको परनाम कर

मुकेश इलाहाबादी ----

Tuesday 20 May 2014

बात साहिल की कब सूनी नदी

बात साहिल की कब सूनी नदी 
अपनी ही रौ में बहती रही नदी

न चैनो क़रार आया साहिल को
न चैनो शुकूं से है बह सकी नदी

बेवफा चाँद की मुहब्बत में नदी
रात पूनो में तड़पती दिखी नदी

तोड़ तटबंध जब जब बही नदी
मुकेश सिर्फ लाई बरबादी नदी

मुकेश इलाहाबादी -----------------

लो फिर वो आ गया

लो फिर वो आ गया
बुझे चराग़ जला गया

बुझी -बुझी आखों में
फिर से नूर आ गया

तपते माह में फिर
बादल बन छा गया

कुछ देर को ही सही
गीत प्रेम का गा गया 

आशिक़ आवारा सही
दिल को मेरे भा गया

मुकेश इलाहाबादी ----

सोचता हूँ



सोचता हूँ

बन के तराना
तेरे होठों पे गुनगुनाऊँ

बन के सितारा
तेरे आँचल से लिपट जाऊंं
कि ,
ऐ कँवल
तेरे शाख पे
भँवरे सा बैठ जाऊं

वैसे,
अब तो
दिल ने भी
कर दी बग़ावत
अपने सीने से निकल
तेरी धड़कनों में बस जाऊं

मुकेश इलाहाबादी -------

Monday 19 May 2014

मै खुशबू हूँ,


मै खुशबू हूँ, मुझको भी लिपट जाने दो
झट्कोगी  इन ज़ुल्फ़ों को तो और भी महक जाओगी

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------

है ज़माने का दस्तूर चेहरे कई रखता हूँ


है ज़माने का दस्तूर चेहरे कई रखता हूँ
ख़ुदा कसम दिल मगर एक ही रखता हूँ

ये अलग बात कि मुहब्बत में झुक जाऊं
तबियत में अपनी मगर खुद्दारी रखता हूँ

मुकेश यूँ तो कई चेहरे हँसी पसंद हैं हमें
जेब में तस्वीर मैँ तुम्हारी ही रखता हूँ ,,

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Sunday 18 May 2014

ख़त का हमारे जवाब आया लेकिन

ख़त का हमारे जवाब आया लेकिन
हमको दुश्मने जाना लिखा लेकिन

बैठे तो थे हम भी महफ़िल में उनके
सबको देखा हमको न देखा लेकिन

हुई तबीयत ऐ नाशाज़ जिनके वास्ते
मिज़ाज़पुर्शी को भी न आया लेकिन

जी तो उसका भी बहलता है मुझी से
फिर क्यूँ मुझको न बुलाया लेकिन ?

ख़ाक बन के लिपट जाऊं कदमो से
फिर कुछ सोच के रुक गया लेकिन

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

ले के आये हैं हम उसके पाँव का बोसा

ले के आये हैं हम उसके पाँव का बोसा
हमारे लबों पे अभी भी खुशबू ताज़ा दम है
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

है क्या दरिया के दिल में क्या जानू

है क्या दरिया के दिल में क्या जानू
डूब रहा हूँ या उबर रहा हूँ क्या जानू

लफ़्ज़ों में कुछ बोले तो कुछ समझूँ
खामोश निगाहों में है क्या क्या जानू

हमने तो कह दी अपने  दिल की बात
अब इंकार मिले या इक़रार क्या जानू

सूरज बनकर टंग गया हूँ आसमान में
जल रहा हूँ या चमक रहा हूँ क्या जानू

हूँ इंतज़ार में मै पथ में फूल बिछाकर
आएंगे या न आएंगे मै अब क्या जानू

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

मुख़्तसर सी सही मुलाक़ात तो कर

मुख़्तसर ही  सही मुलाक़ात तो कर
कुछ और न सही कुछ बात तो कर
क्यूँ अज़नबी शहर में अज़नबी सा रहें
आओ एक दूजे से जान पहचान तो कर

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

कोई न कोई बहाना ढूंढ लेता हूँ ,

कोई न कोई बहाना ढूंढ लेता हूँ ,,
रोज़ ब रोज़ तुझे याद कर लेता हूँ

जब भी तनहा और उदास होता हूँ
तेरे खतों को बार बार पढ़ लेता हूँ

तेरी यादों का ज़खीरा और माज़ी
सफर किसी तरह से काट लेता हूँ

कोई आरज़ू नहीं शिकायत  नहीं
ज़माना जो भी कहे है सुन लेता हूँ

रोज़ रोज़ पीने की कुव्वत कंहा रही
कभी कदात गला तर कर लेता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Saturday 17 May 2014

तहरीर मेरी खामोशी की पढ़ लो


तहरीर मेरी खामोशी की पढ़ लो
कह न सका जो बात समझ लो

हों जोभी गीले शिकवे शिकायत
हूँ फुर्सत में मै आज तुम कह लो

खुद डूब के भी तुझको बचा लूंगा
बस इक बार मेरा हाथ पकड़ लो

बचा लूंगा तुझे सूरज की तपन से
हूँ मै दरख़्त  मेरी छाँह में रुक लो

होंगे सुख़नवर ज़माने में और भी
बस इक बार मेरी ग़ज़ल सुन लो

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

ज़िंदगी जब तक रही

ज़िंदगी जब तक रही
तिश्नगी तब तक रही

हुस्न और जवानी
साथ कब तक रही

कुछ कह न सके
बात लब तब रही

तूफ़ान के बाद भी
ख़ामुशी देर तक रही

रुस्वाइयां हमारी
दूर दूर तक रही

मुकेश इलाहाबादी ---

खुशबू ऐ बदन जिसकी

खुशबू ऐ बदन जिसकी
रूह में मेरे अबतक रही

दो चोटी हिरनी सी आँखें
मुझे याद अब तक रही

निगाहें वहीं टिकी रहीं
मेले मे वो जबतक रही

बात उस मुलाक़ात की
दिल की दिल तक रही

मत्ला और मक़्ता वही
ग़ज़ल की मेरे बहर वही

मुकेश इलाहाबादी ---------

Friday 16 May 2014

ज़ख्मो पे मरहम इस लिए नहीं रखते

ज़ख्मो पे मरहम इस लिए नहीं रखते
ज़ालिम की कोई तो निशानी साथ रहे
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Thursday 15 May 2014

भले शिकवा करो शिकायत करो

भले शिकवा करो शिकायत करो
यूँ खामोश न रहो कुछ बात करो

अनदेखा करके गुज़रना ठीक नही
कुछ और न सही दुआ सलाम करो

ज़िंदगी मशरूफ़ियत का ही नाम है
कभी कभी तो मेल - मुलाकात करो

मियाँ खाने ,कमाने, घूमने के सिवा
दुनिया याद करे ऐसा कोई काम करो

ज़िदंगी की तमाम भाग दौड़ के बीच
मुकेश बंदगी खुदा की शुबो शाम करो

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Tuesday 13 May 2014

सिर्फ चेहरा धोकर क्या होगा ?

सिर्फ चेहरा धोकर क्या होगा ?
लिबास बदलकर क्या होगा ?

जब तक सोच न बदलोगे ,,,,
सिर्फ भाषण देकर क्या होगा ?

दिल का मैल न निकले तो ,,,
फिर हाथ मिलाकर क्या होगा ?

गर मन मे श्रृद्धा न हो तो
पूजा घर जा कर क्या होगा ??

प्रेम का पत्तर पढ़ा नहीं तो
पोथी पढ़ पढ़ कर क्या होगा ??

मुकेश इलाहाबादी -----------------

बगैर चराग़ तुम रोशनी न पाओगे

बगैर चराग़ तुम रोशनी न पाओगे
मै अँधेरा हूँ मुझे हर जगह पाओगे

जा रहे तो जाओ अब न मनाऊँगा
लौट के तुम फ़िर मेरे पास आओगे

यकीनन लोग बात करेंगे फलक की
मेरे पास तो फ़क़त मुहब्बत पाओगे

माना कि मै समंदर सा गहरा नही
मगर प्यास के लिये आब पाओगे

भले ही मशरूफ़ियत मिलने न दे
करोगे याद तो अपने पास पाओगे

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Monday 12 May 2014

ऐ दोस्त ! मै तो बदनाम ही अच्छा ठहरा


ऐ दोस्त ! मै तो बदनाम ही अच्छा ठहरा
पर तेरी ये रुसवाई हमसे सही नहीं जाती
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

एक इल्तज़ा -----------------------------


या ख़ुदा कुछ ऐसी सज़ा मुझको भी दे दे
छीन के आज़ादी मेरी क़ैदे मुहब्बत दे दे
भूल जाऊंगा मै ग़म सारे ज़माने भर के
बस इक बार मुझको मेरी मुहब्बत दे दे
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

अच्छा लगा सुन के आप भी किसी को याद करते हो

अच्छा लगा सुन के आप भी किसी को याद करते हो
हमने तो सुना था के आप तो सिर्फ़ मशरूफ रहतें हो
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------------

तेरे जिस्म औ ज़ेहन का ज़र्रा - ज़र्रा

तेरे जिस्म औ ज़ेहन का ज़र्रा - ज़र्रा मेरे वजूद का हिस्सा है
कि, तेरी इन महकती साँसों से ही ज़िंदगी मिलती  है 
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------------------

जानते हो वज़ह बीमार ऐ दिल का

जानते हो वज़ह बीमार ऐ दिल का
कहते हो फिर भी, वज़ह हम नहीं
मुकेश इलाहाबादी -----------------

कि बेचराग़, बेधुआँ जल रहे हैं हम

कि बेचराग़, बेधुआँ  जल रहे हैं हम
रंग नहीं खुशबू नहीं खिल रहे हैं हम

राह नहीं मंज़िल नहीं हमसफ़र नही
औ बेवज़ह मुद्दतों से चल रहे हैं हम

धूप ही धूप है कुछ इस क़दर राह में
क़तरा  - २ बर्फ सा पिघल रहे हैं हम

हादसों की फेहरिश्त क्या सुनाएँ अब
जान लो किसी तरह संभल रहे हैँ हम

आफ़ताब की तपन ने  है सुखा दिया
वरना इस तालाब के कँवल रहे हैं हम

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Saturday 10 May 2014

ठाकुर जी से मांगे घरभर कि ख़ुशहाली अम्मां


ठाकुर जी से मांगे घरभर कि ख़ुशहाली अम्मां
नाती पोता की किलकारी से खुश रहतीं अम्मा

जबतक हम घर नलौटें घड़ी देखती रहतीं अम्मां
बदले में अपनी खातिर हैं कुछ न कहतीं अम्मा

घरभर खाये मालपुआ अम्मा खायें केवल दलिया 
बात -२ पे बहूकी झिडकी सुन चुप रह जातीं अम्मां

बिजली का बिल पानी का बिल सब हैं भरती अम्माँ
गर बाबू की पेंशन न होती तो फ़िर क्या करतीं अम्मां

जब घर वाले मेला देखें चौकीदारी करतीं रहतीं अम्मां
बाबूजी जी के जाने के बाद हुई कितनी अकेली अम्मा

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------

आग हवा और पानी लिखूंगा,,

आग हवा और पानी लिखूंगा,,
जो भी लिखूंगा तूफानी लिखुंगा

एक हासिये पे अल्ला हो अकबर
दुसरे पे राजा रामचंदजी लिखुंगा

इश्क्बाज़ों को तोहफे तमाम
दहशतगर्ज़ों को फाँसी लिखूंगा

बच्चों को तालीम भूखो को रोटी
हर घर हर रात दिवाली लिखूंगा

स्याह फलक को फ़िर आसमानी
ज़मीं का रंग फ़िर से धानी  लिखूंगा

मुकेश इलाहाबादी -------------------
 

Friday 9 May 2014

वक्त के टंडीले पे एक षोकगीत

वक्त के टंडीले पे
एक षोकगीत
उभरेगा
जिसमें
नाचेगें कंकाल
झूमेंगे प्रेत
बजेंगी हडिडयॉ
झांझ- मजीरों की तरह

दर असल
यह उत्सव आयोजित है
सूरज के बेहद गरम
और चॉद के बेहद
ठंडा हो जाने 
ओजोन परत में छेद हो जाने
मानवता के छीजने
और सभ्यता के
तीसरे विष्व युद्ध के
मुहाने पे पहुच जाने
के उपलक्ष्य में

षायद जब
यह षोकगीत
गाया जा रहा होगा
किसी आदि कवि दवारा
किसी जंगल या पहाड की चोटी पर
या कि समुंदर के रेतीले ढूह पर
नंगे पांव हव्वा के साथ चलते हुये

तम हम जिंदा न हों


05.05.2014

तुम्हारे वक्त में
कविता धानी हुआ करती थी
अब मेरे वक्त में होती है
लाल
नीली
और कभी कभी तो पीली भी

तुम छीट देते थे
थोडे से सरसों के बीज
और पूरी धरती हो जाती थी
धानी धानी
तब तुम गाते थे प्रेम गीत


हालांकि मै भी चाहता हूं
बरसात में मेढ़क की तरह टर्राना
या कि मोर सा नाचना
और भीगते हुए
धान रोपना
पर हत भाग्य
एक विरुआ भी नहीं उगा पाता
इस लाल जमीन पर

लिहाजा

उकेर आया हूं
इन पत्थरों पे
एक चिड़िया
एक  औरत
और धान की बाली

इस उम्मीद पे कि
अगली बार लौटते वक्त तक
मेरी भी कविता हो जायेगी धानी
और मै गाउंगा एक प्रेम गीत


Mukesh Allahaabaadee

तुम्हे क्या मालूम नदी मे भी आग होती है


तुम्हे क्या मालूम नदी मे भी आग होती है 
बुझाकर प्यास औरों की खुद सुलगती है  

साँझ होते - होते  किनारे सो जाते हैँ
साहिल क्या जानें नदी दिन - रात बहती है

कभी सहरा कभी जंगळ कभी बस्ती
नदी जाने किस- किस राह गुज़रती है

सैकड़ों नदियां हैं समंदर क़ी बाहों मे
फिर भी नदी उसी की आस मे बहती है

है मुकेश मीलों तक फैला रेत का मंजर
जाने क्यूँ हर नदी मुझसे दूर बहती है

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

धूप तो खिली है खिलखिलाहट गायब है

धूप तो खिली है खिलखिलाहट गायब है
शाम से ही हवा की सरसराहट गायब है

तितलियाँ शाख पे पँख मोड़ कर बैठी हैं
बाग़ में भँवरों की गुनगुनाहट गायब है ,,

बाज़ार की सड़क पे सरपट दौडने वाले
रेस के घोड़ों की हिनहिनाहट गायब है

साँझ फ़िर दो बम फट गये  बाजार मे
सुबो से शहर की मिनमिनाहट गायब है

खा गये हैं धोखा आशिकी मे मुकेश जी
पीके बैठे हैं चेहरे की मुस्कराहट गायब है

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

Thursday 8 May 2014

तुम्हारा ही सहारा था

तुम्हारा ही सहारा था
वरना कौन हमारा था

बस्ती लुट गयी कबकी
अपना जंहा ठिकाना था

सूरज को गौर से देखा
बड़ा सा काला धब्बा था

तुनक मिज़ाज चाँद का
शाम से ही मुँह टेढ़ा था

गुलाब की गोदी मे इक
काला भंवरा  बैठा था

धुप सिर पे नाचती थी
मै मुँह  ढककर सोता था 

तुम आ जाओ इक दिन
ढेरों दुख- सुख कहना था 

मुकेश इलाहाबादी ----------

चलो अच्छा हुआ दिल टूटने की आवाज़ न हुई

चलो अच्छा हुआ दिल टूटने की आवाज़ न हुई
वरना लोग इस बात का भी अफ़साना बना देते

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

हाल-चाल लिये जाओ

हाल-चाल लिये जाओ
खोज खबर दिये जाओ

बहुत दिनों पे आये हो
रुको,चाय पीये जाओ

ज़िंदगी इसी का नाम है
हंसी- खुशी जिये जाओ

कुछ मिले याकि न मिले
ज़हरे ज़ीस्त पियें जाओ

तरक्की मिलेगी ज़रूर,,
बड़ों की दुआ लिये जाओ

मुकेश इलाहाबादी ---------

हवा में खुनक सी है

हवा में खुनक सी है
कंही तो बारिस हुई है

चलो कुछ दूर चलते हैं
वहाँ इक नदी बहती है

दर्द से बोझिल हैं आखें
तुम्हारी पीर नई नही है

तिनकों के इस घोसले मे
इक सुन्दर बया रहतीं है

अक्सर नानी कहा करतीं
वीराने मे इक शै रहतीं है

नदी के उस मुहाने पे रात
इक सुन्दर परी उतरतीं है

चलो अब घर लौट चलते हैं
बारिस  तेज़  होने वाली है

मुकेश इलाहाबादी ---------

Wednesday 7 May 2014

ज़िंदगी को लतीफे सा सुनाया जाये

ज़िंदगी को लतीफे सा सुनाया जाये
चलो सारा ग़म हंसी मे उड़ाया जाये

जला कर राख कर देगी सारा चमन
ये आग है नफरत की बुझाया जाये

ये इल्म और मुहब्बत की दौलत है
इज़ाफ़ा ही होगा जितना लुटाया जाये

ज़िंदगी मशरूफ़ियत का नाम है प्यारे
पल दो  पल तो हंसा गुनगुनाया जाये

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

चेतावनी --- हर सवाल का जवाब कंप्यूटर से निकाला जायेगा

चेतावनी ---

हर सवाल का जवाब कंप्यूटर से निकाला जायेगा
देखना एक दिन इन्सान मशीनो में ढ़ाला जाएगा

आज़ादी क़ैद होगी चन्द मुट्ठी भर लोगों के हाथ में
बाकी जनता को गुलामी का टीका लगाया जायेगा

बादल नदियां और समंदर सब के सब सुख जाएंगे
देखना फ़िर रेत से बून्द बून्द पानी निकाला जायेगा

न  सुख़नवर होंगे हम जैसे न सुनने वाले आप जैसे
मशीने ग़ज़ल लिक्खेंगी मशीनो से दाद दिया जायेगा 

बाद कुछ दिनो के ऐसा भी आयेगा, सुन लो ऐ मुकेश
इंसानियत का पाठ सिर्फ़ किताबोँ मे पढ़ाया जाएगा

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------





 

Tuesday 6 May 2014

शब्द तोड़ देते हैं

शब्द

तोड़ देते हैं
गहन मौन को भी
अपने पदचाप से

हरहरा कर
उलीच देते हैँ खुद को
कागज़ के कैनवास पे

या कि,
राख की ढेरी मे
सुलगते रहते हैं
देर तक
लगभग बुझ चुके
अलाव मे 

पर कभी

धू - धू करके
नहीं जलते
दावानल सा
या कि
फट नहीं पड़ते
किसी ज्वालामुखी सा 

शायद शब्दों की
कोई सीमा रेखा / मज़बूरी हो
जिसे हम न समझ पा रहे हों

मुकेश इलाहाबादी -------------

अब जात कुजात का हम जानी

अब जात कुजात का हम जानी
मानुष हौं मानुष की भाषा जानीं 
ई ठाकुर ऊ बाम्हन तुम मल्ला
बस इ है ककहरा हम ना जानी
ई आलिम-फ़ाज़िल होइहैं कोई
बांचै प्रेम का पत्रा पंड़ित जानी

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Monday 5 May 2014

रात, मेरी हथेली ;पे

रात,
मेरी हथेली ;पे
उलीच देती है
एक चाँद
और, ढेर सारे तारे
जिनसे मै
प्यार करना चाहता हूँ
मगर
तारे मेरी हथेली से
दूर छिटक जाते हैं
और,,,, चाँद मैरी बाँहो से
बाहर गुलमोहर
मेरी इस बेबसी पर
मुस्कुराता है
तब मै उदास हो कर
रात के आँचल मे
मुँह  ढक कर
सो जाता हूँ
एक सुहानी सुबह के
इंतज़ार में

मुकेश इलाहाबादी ------------

Sunday 4 May 2014

जेब का वज़न कंहा बढ़ता है ?


जेब का वज़न कंहा बढ़ता है ?
राशन का वज़न घट जाता है

पहले किलो भर दुध आता था
अब पाव भर मे काम चलता है

अंग्रेज़ी दवा शूट नही करती,,,,
माँ का इलाज़ वैद जी से होता है

बिटिया सरकारी स्कूल मे ही है,,
बेटा कान्वेंट स्कूल मे पढ़ता है..

कुछ पगार कुछ उधार का सहरा
महीना किसी तरह कट जाता है

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Saturday 3 May 2014

हर चेहरे पे मुस्कान दिखाई देती है

हर चेहरे पे मुस्कान दिखाई देती है
मुखौटों पे झूठी शान दिखाई देती है

ये झूठ है ज़िंदगी ख़ुदा की नेमत है
हमको तो इम्तहान दिखाई देती है

स्कूल से बच्ची अभी घर नही आयी
लड़की की माँ परेशान दिखाई देती है

खुशी और शुकूनियत की तलाश में
सारी दुनिया हलकान दिखाई देती है

भीड़ ही भीड़ है झूठ की राह पे मुकेश
सच की राह सुनसान दिखाई देती है

मुकेश इलाहाबादी --------------------

ज़मीन कराहती है, आसमान रोता है

ज़मीन कराहती है, आसमान रोता है
हम मर भी जाएं तो कौन पूछ्ता है ?

तुम तो दो चार हादसों से घबरा गये,,
हमारे शहर मे तो रोज़ ही ऐसा होता है

ज़िंदगी से लड़ने  उसका ये तारीका है
शाम दो चार पैग लगा मस्त सोता है

ज़मींदारी  ख़त्म हो गयी तो क्या हुआ
अब गाँव का सरपंच हमको लूटता है

हादसे इक खबर हुआ करते हैँ मुकेश
ख़बर के बारे में कौन इतना सोंचता है

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

Friday 2 May 2014

हर सिम्त फ़ैली तीरगी बताती है र

हर सिम्त फ़ैली तीरगी बताती है
रात ढलने में वक़्त अभी बाक़ी है

मुझे संगमारी की सज़ा दी गयी है
तेरे हाथ का पत्थर आना बाक़ी है

फ़क़त ग़ज़ल सुन के मत लौटो
मेरी मौतकी खबर आना बाकी है

आज जी भर के पिलाओ मुकेश
मैखाने में जब तक शराब बाकी है

मुकेश इलाहाबादी --------------

रिटायरमेंट


 केदार के मरने की खबर सुनते ही एक मिनट को राय साहब चौंके फिर अपने को सामान्य करते हुये बस इतना ही कहा अरे अभी उसी दिन तो आफिस में आया था पेंशन लेने तब तो ठीक ठाक था। ‘हां, रात हार्ट अटैक पड गया अचानक डाक्टर के यहां भी नही ले जा पाया गया’ राय साहब ने कोई जवाब नहीं दिया बस हॉथो से इशरा किय, सब उपर वाले की माया है, और चुपचाप चाय की प्याली के साथ साथ अखबार की खबरों को पढने लगे। खबर क्या पढ रहे थे। इसी बहाने कुछ सोच रहे थे।
चाय खत्म करके राय साहब ने अपनी अलमारी खोल के देखा पचपन हजार नकद थे। उन्होने पचास हजार की गडडी निकाली जेब में रखा और गाडी की तरफ चल दिये। आज उन्होने ड्राइवर को भी नही पुकारा। अकेले ही चल दिये केदार के घर की तरफ।
चार दषक से ज्यादा के फैलाव में वो चौथी बार केदार के घर जा रहे थे। पहली बार वो केदार की शादी पे गये थे दूसरी बार उसके पिता सूरज के मरने पे तीसरी बार तब गये थे जब केदार बहुत बीमार पड गया था। और आज चौथी बार उसके घर जा रहे थे।

वैसे तो राय साहब अपने किसी कामगार के यहां कभी नहीं आते जाते सिवाय एक दो मैनेजर लोगों के। केदार ही उनमे अपवाद रहा।
राय साहब की गाडी आगे आगे जा रही थी और राय साहब के विचार पीछे और पीछे की तरफ दौड रहे थे।

सन 1971 के आस पास ही का वक्त था। वह बिजनेष मैनेजमेंट की शिक्षा लेकर पैत्रक व्यवसाय मेें लग चुके थे। पिताका काम बखूबी सम्हाल लिया था। पिताजी व्यवसाय से अपने को अलग करने लगे थे फिर भी पिताजी की राय और बात उनके लिये आज्ञास्वरुप ही रहा करती। जिसे वे किसी भी कीमत में काट नही सकते थे। उन्ही के हाथ की चिठठी लेकर उनके फैक्टी का चौकीदार अपने जवान होते बेटे को लेकर आया था। नौकरी के लिये। रायसाहब ने पढाई लिखाई के हिसाब से उसे असिस्टेंट क्लर्क के रुप में रख लिया था। केदार को।
हाई स्कूल  पास केदार पढाई लिखाई मे तो भले ही होषियार न रहा हो पर मेहनती और ईमानदार था। यही वजह रही केदार राय साहब सभी वह काम उसे सौंपने लगे जिसमें ईमानदारी की ज्यादा दरकार होती।
केदार  की एक बात और राय साहब को पसंद थी जहा केदार  उनका हर नौकर व मैनेजर उनके आस पास रहने और उनके आर्डर की प्रतीक्षा करता रहता वहीं केदार इन सब बातों से उदासीन सिर्फ अपने निर्धारित काम से काम रखता। केदार चापलूसी नहीं करता। यही कारण थे कि राय साहब और केदार के बीच एक मालिक और नौकर के अलावा एक अलग तरह के आत्मीय सम्बंध बन गये थे। शायद  एक और बडा कारण यह भी रह हो कि केदार और केदार के पिता दोनो लगभग साठ साल से उसके यहां काम कर रहे थे।
यह सब सोचते सोचते राय साहब केदार के घर पहुंच चुके थे।

दो कमरों के जर्जर मकान के आंगन में केदार का शव  दो चार रिस्तेदारों के बीच पडा था। केदार की पत्नी ने उन्हे देखते ही घूंघट कर लिया और उसकी सिसकियां बढ गयी। केदार की छोटी बेटी और बेटा भी वहीं सिर झुकये उदास बैठै थे। आफिस के एक दो कर्मचारी भी आ गये थे वे ही दौड के रायसाहब के लिये कुर्शी ले आये।
माहौल बेहद उदास और खामोष था। न तो राय साहब के पास बोलने के लिये कुछ था और न ही उनके परिवार के पास। सारी परिस्थितयां ही तो हैं जो सब कुछ बिन कहे बयाँ हो रही थी। और फिर राय साहब से केदार के घर की कौन सी थी जो उन्हे नहीं पता थी।
राय साहब ने ही खामोषी तोडते हुयी उसकी बडी बेटी से जो ससुराल से आ चुकी थी कहा अभी पंद्रह दिन पहले तो जब पेंशन  लेने आये था तक तो ठीक ठाक था केदार फिर अचान क्या हो गया ?’
बडी बेटी ने फिर सारी बातें रायसाहब को बतायी जिन्हे वे पहले सुन भी चुके थे। खैर फिर उसके बाद राय साहब ने केदार के बेटे को किनारे ले जाकर उसके हाथं मे पचास हजार थमाते हुये कहा ये रख लो फिर कभी कोई जरुरत होगी तो बताना। यह कह के केदार को अंतिम प्रणाम कहा और नम ऑखों को रुमाल से पोछते हुये गाडी पे वापस लौटने के लिये चल दिये।
गाडी की रफतार के साथ साथ यादों के काफिले एक बार फिर पीछे की तरफ घुमने लगे।
केदार का माली पिता सूरज अपने पीछे तीन अनब्याही बेटियॉ और कुछ कर्ज छोड के मरा था। जिनसे उबरने में ही केदार की जवानी और छोटी पगार स्वाहा होती रही। बहनों की शादी के बाद काफी देर से खुद की शादी ब्याह और बच्चे  किये नतीजा साठ की उम्र आते आते भी उसी सारी जिम्मेदारियां सिर पे ही थी किसी तरह कर्ज और पी एफ के फंड से बडी बेटी का ब्याह और बच्चों की पढाई ही करा पाया था। बेटा अभी पढ ही रहा था जब केदार रिटायर हुआ। हालाकि वह चााहता था कि गर पाच साल उसकी नौकरी और चलने पाती तो बेटा कम से कम ग्रेजुएट हो जाता और छोटी का विवाह भी फिर देखा जाता पर ...
अचानक कम्पनी ने निर्णय लिया और वह रिटायर कर दिया गया। हालाकि रायसाहब खुद भी उसे रिटायर नही करना चाह रहे थे पर अब उन्ही की कम्पनी में उनके बेटे की चलती है। बेटे से कई बार दबी जबान में कहा भी कि ‘बेटा, पुराने कर्मचारी बोझ नहीं सम्पति होते हैं’ पर बेटे के अपने तर्क थे ‘पिताजी, ये सब पुराने सिद्धांत है अगर आप वक्त के साथ साथ नहीं बदले तो वक्त आपकेा बहुत पीछे छोड देगा आप लोगों को वक्त कुछ और था। तब टेक्नालाजी इतनी तेजी से नहीं बदलती थीं। मार्केंट में इतना कमपटीशन भी नहीं था। और आज हमे वो वर्कर और कामकार चाहिये जो कम्पयूर चला सकते हों धडाधड अग्रेंजी बोल सकते हों। आफिस का भी काम कर सकते हों और लायसनिंग का भी। अगर आप केदार की बात करते हो तो उनके पास ये सब क्वालिटीस कहां है। बहुत कोषिष तो की पर क्या वो आज तक कम्पयूटर ठीक से सीख पाये। कौन सी फाइन कहां सेव कर दी उन्हे याद ही नहीं रहता। इसके अलावा वह काम में भी स्लो हैं। पहनाव ओढाव से भी वो किसी अच्छी कम्पनी के एम्पलाई नहीं लगते को डेलगेटस आ जाय तो उनका परिचय भी नहीं करा सकते। आजकल तो उनसे अच्छ पहन के तो आफिस के चपरासी आते हैं। फिर इन सब के अलावा उन्हे हर महींने किसी न किसी बहाने से एडवांस चाहिये होता है इन सब के अलवा उनके  घरेलू प्राब्लम्स इतनी रहती है कि वे उन्ही से नहीं उबर पाते तो आफिस का क्या काम करेंगे और कितना मन लगा के कर पायेंगे। अब आप ही बताइये मै क्या करुं। मेरे पास क्या अब कर्मचारियों की  समस्याएं ही सुलझाने का काम रह गया है अगर यही सब करुंगा तो बिजनेष कब करुंगा इसी लिये मैने पूराने और कम काम के सारे स्टाफ को हटाने का फेसला लिया है। हां अगर आपको केदार से इतना ही स्नेह है तो दो चार हजार की पेंशन  बांध दीजिये जो आप के एकाउंट से दे दी जायेगी हर महीने। इससे ज्यादा आप अब कम्पनी से न उम्मीद करिये।’
राय साहब बेटे की बातों को सुन के चुप रह गये थे। वे सोच नहीं पा रहे थे कि क्या कभी वो अपने पिता से इस तरह बात कर सकते थे। उन पिता से जो कि घर के नौकरों से भी अदब से न बात करने पर नाराज हो जाया करते थे। और उन्होने हीे तो राय साहब के बताया था कि बेटाा घर के पुराने नौकर बोझ नहीं सम्पत्ति होते हैं।
राय साहब बेटे का विरोध इस लिये भी नहीं कर पा रहे थे कि उसकी बातों में कहीं सच्चााई भी थी।
आज जब यह साठ साला कपडे की मिल अपनी पुरानी टेक्नालाजी के कारण साल दर साल घाटे की चपेट में थी जिसे उसके बेटे ने ही तो उबारा है अपनी सूझ बूझ और मेहनत से। आज उसी की वजह से तो ‘राय साहब एण्ड एसोसिएटस’ एक बार फिर से उन उंचाइयों पे पहुंचता दिखाइ्र दे रहा है। जिन उंचाइयों पर अपने वक्त में खुद राय साहब अपने पिता के छोटी सी मिल को ले के आये थे। पर क्या मजाल थी कि राय साहब उनके खिलाफ कुछ बोल पाये हों उनके मते दम तक।
खैर राय साहब ने बेटे की इन बातों का कोई जवाब तो नहीं दिया था। हां चुपचाप उस ऑर्डर पे दस्तखत कर दिया था जिसमें केदारे के रिटायरमेंट और उसको पॉच हजार पेंशन की बात लिखी थी।

राय साहब के पास केदार जब इस पत्र को लेकर आया था इस उम्मीद से कि उसकी नौकरी पॉच साल और बढाा दी जाये तो राय सहाब ने कम्पनी का निर्णय बताकर अपने को अलग कर लिया था। और केदार अपने आदत अनुसार बिना कुछ ज्यादा कहे केबिन के बाहर चला गया था। उस दिन केदार के जाने के बाद से राय साहब भी अपने आफिस के केबिन में कम ही देखे गयेे।
शायद  उन्हे लगा कि आज केदार ही नहीं वो खुद भी रिटायर हो चुके हैं।
और वो दिन था कि आज का दिन मात्र दो महीने ही तो हुये थे। जिंदगी के सारे ग़म और समस्याओं को अपनी खामोषी से पी लेने वाला केदार इस रिटायरमंट के ग़म को न सह पाया।
राय साहब ने अपनी कार पार्टिकों में पार्क की और कपडे बदल के सीधे
अपने कमरे मे जा चुके थे।
उधर केदार की चिता धू धू कर के जल रही थी।
मुकेष श्रीवास्तव
30.01.2014     पूणे


Thursday 1 May 2014

मुहब्बत का सफ़र कौन रूह तक तय करता है ?

मुहब्बत का सफ़र कौन रूह तक तय करता है ?
तसव्वुर से हो के जिस्म पे जा कर रुक जाता है
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------

जब कि नशों मे दौड़ता हो

जब कि
नशों मे दौड़ता हो
लहू बन के
व्यभिचार
भ्रष्ट्राचार,

क्रोध
उत्तेजना
उद्दिग्नता
बन गए हों
स्थायी भाव

तब भी
हम उम्मीद रखते हों
खुशहाली की
शुकूनियत की
रूहानियत की

शायद,  यह हमारी
मूर्खता है
विवशता है
या की ,
प्रकृति का कोई खेल ?

मुकेश इलाहाबादी -----

औरत , मर्द और रोटी


दृश्य एक
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औरत,
गीले आटे की
गोलाइयों को
हथेलियों के बीच
और ज़्यादा
गोलाई दे रही है
अब, उस गोलाई को
थपकी देकर
पलेथन लगा रही  है

पलेथन लगीं गोलाई
चकले बेलन के बीच
गोल - गोल घूम रही है 

सुडौल हो चुकी रोटी
तवे पे सिझाई जा रही है
आँच पे अलट - पलट के
पकाई जा रही है

लो, अब रोटी पक चूकी है
गोल, फूली , चकत्तेदार

मर्द रोटी खा कर
खुश और तृप्त है

दृश्य दो
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औरत तब्दील हो गयी है
गीले आटे की लोई में
मर्द गोलाइयों को
थपकी देकर
बेल रहा है सिझा रहा है
पका रहा है
खुश हो रहा है
रोटी बेल के 

औरत तृप्त है
रोटी सा सीझ के 

मुकेश इलाहाबादी ---------