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Monday 30 April 2018

सुनो , तुम अगर समंदर की तरफ जा रहे

सुनो ,
तुम अगर समंदर की तरफ जा रहे हो, तो
समन्दर से ले आना
थोड़ी गहराई
थोड़ी विशालता
थोड़ा खारापन
और ले आना उसकी लहरों से थोड़ा मचलना , उछलना, बहना
थोड़ी सी शीपी , थोड़ी से रेत्
यदि तुम जा रहे हो,
पहाड़ों से मिलना,
तो लेते पाना पहाड़ों से माँग के
थोड़ी से स्थिरता , थोड़ा सा ठोसपन
जो जाना तुम जंगल
ले आना मांग के जंगल से
थोड़ा हरियाली , थोड़ा बीहड़पन
थोड़ा सी  फूलों की महक थोड़ी थोड़ी
खुशबू जैसे चंदन और महुआ की
जो तुम मिलना बादलों से ले आना
थोड़ा सा जल थोड़ी सी गड़गड़ाहट
यदि कंही न जाना तो भी आ जाना
पर आना तुम - ज़रूर

मुकेश इलाहाबादी -------------------



अपने नैनो के तीर हमपे न चलाओ

अपने नैनो के तीर हमपे न चलाओ
बहुत सीधा- सादा हूँ हमें ने सताओ

तुम्हारी ज़ुल्फ़ों मे,कितने पेचोख़म
हमको मालूम है सब हमें न बताओ

रोई का फाहा हूँ मै ख़ाक हो जाऊँगा
यूँ अदाओं की बिजलियाँ न गिराओ

हमने तो अपना हाले दिल कह दिया
तुम भीतो अपने बारे में कुछ बताओ

गुमसुम - गुमसुम न बैठो इस तरह
थोड़ा तो हँसो थोड़ा तो मुकसकुराओ

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Friday 27 April 2018

हम कब सीखेंगे,

 हवाएं
 चुपचाप बहती हैं
 दे जाती हैं - ताज़गी

फूल खिलते हैं
चुपचाप
दे जाते हैं - झऊआ भर खुशबू

धरती
उठाती है हमारा बोझ
चुपचाप

हम कब सीखेंगे,
करना बहुत कुछ
और रहना चुपचाप ?

मुकेश इलाहाबादी -----------

सर्द मौसम में यही दिलासा है


सर्द मौसम में यही दिलासा है
मेरे बदन पे धूप का दुशाला है

अभी तो रोशनी थी अब नहीं 
किसने काला पर्दा गिराया है 

तुझसे मिल के रईस हो गया
तेरी हँसी चाँदी का सिक्का है

अभी कपडे बदलूंगा चल दूंगा
किसीने मिलने को बुलाया है

सभी भौंरें तितलियाँ उदास हैं
फिर कोई फूल रौंदा गया  है

मुकेश इलाहाबादी ------------

Thursday 26 April 2018

अत्र कुसलस्तु, तत्रास्तु

अत्र कुसलस्तु, तत्रास्तु
कह कर ख़त लिखने की कोई ज़ररत नहीं रह गयी है
आज - इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के समय में
जब कि
मिनट मिनट की खबर एक दूजे तक पहुंच जाती हो
एस  एम् एस और नेट के ज़रिये
ऐसे वक़्त में तुम्हे खत लिखना
इतिहास के पन्नो में लुप्त होती पत्र लेखन कला को ज़िंदा रखने
की मरी मरी कोशिश है।

अत्र कुसलस्तु - तत्र कुसलास्तु
की ज़रूरत इस लिए भी नहीं है कि
मित्र तुम्हे भी पता है
जैसे मेरे शहर में बलात्कार हो रहे हैं
वैसे ही तुम्हारे यहाँ भी रोज़ रोज़ बलात्कार हो रहे हैं
वहां भी डीजल और पेट्रोल के दाम महंगे हो रहे हैं
रोज़ - रोज़
रोज़ रोज़ वंहा भी चोरी - छिनैती बढ़ रही है
हमारे यंहा भी
जिसकी सूचना
चीख चीख कर न्यूज़ चैनल तुम तक हमारे यहाँ की
हमारे यहाँ की खबर तुम तक पंहुचा ही रहे हैं
और
हमें भी मालूम है तुम्हारे यहाँ की सड़कें टूटी हैं
पुल बनने के पहले ढह रहे हैं
तुम्हारे यंहा भी हर साल बाढ़ और सूखा बदस्तूर आता है
और सरकार के कान में जूँ नहीं रेंगती है
मित्र तुम्हे भी मालूम है
राजा और मन्त्री बहरे हो चुके हैं
जनता के लिए - अंधे भी हो चुके हैं
और क्या लिखूँ मित्र तुम्हे भी मालूम है
डर से मै भी जी रहा हूँ
डर  तुम भी जी रहे हो
न जाने कब बम फट जाए
न जाने कब बहन बेटी अगवा हो जाएँ
पहले मंदिर मस्जिद में तो कम से कम थोड़ी शुकूनियत
की उम्मीद होती थी अब वो भी न रही
खैर.ये सब तो चलता ही रहेगा
और ये सब तो तुम इंटरनेट और टी वी से जान भी चुके होंगे
जो बात इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी न दे पायी है वो ये है
की बाबू जी कई साल पहले ही गुज़र गए
पारिवारिक कलह ने वक़्त के पहले ही  उन्हें देह और दुःखो से मुक्त कर दिया
माँ पिता जी के जाने के बाद चुप - चुप रहती हैं
पिता के पेंसन का सहारा है
बाकी वही पारिवारिक समस्याएं हैं
जो तुम्हारी हैं
वो स्कूल वाली को
फेसबुक और नेट में गूगल कर के बहुत बार ढूंढ चूका हूँ
नहीं मिली - शायद मेरी किस्मत में ही नहीं रही
तुम्हारी वाली मिली क्या?
मिली तो तो बताना - खत लिख के
शुगर और बी पी की शिकायत है
जा रहा हूँ दवाई खाने
लिहाज़ा ख़त यंही समाप्त कर रहा हूँ
हालांकि बहुत कुछ है जो बताने को
पर तुम्हारे खत के जवाब आने के बाद
फ़िलहाल के लिए इतना ही
बाकी अत्र कुशलम - तत्रास्तु - समझना
ख़त का जवाब जल्दी देना
टूटे हुए सिलसिले को बनाये रखना

तुम्हारा बचपनिया दोस्त

(वैसे इसे तुम मेरे दुखी मन का एकालाप कह सकते हो,
या फिर एक अतुकांत सी कविता कह सकते हो - या फिर
ख़त लिखने की विलुप्त होती कला को ज़िंदा रखने की
मरी -मरी कोशिश समझ सकते हो )

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------




Tuesday 24 April 2018

जो भी सच बोलेगा

जो भी सच  बोलेगा
वही जान से जाएगा

गुनाह किसी का हो
गरीब मारा जायेगा

चुनाव आने वाले हैं
फिर से दंगा होयेगा

जो जो बबूल बोयेगा
वो बबूल ही काटेगा 

मुकेश फलक बन जा
चाँद तेरा हो जायेगा

मुकेश इलाहाबादी ---

Monday 23 April 2018

कदम -कदम पे खुशबू कदम-क़दम पे रोशनी है

कदम -कदम पे खुशबू कदम-क़दम पे रोशनी है
मेरा महबूब एक साथ चाँद और गुले रातरानी है

होगा वो तुम्हारे ज़ालिम या  फिर होगा क़ातिल 
मेरे लिए तो साँस दर साँस है मेरी ज़िंदगानी है

कब का खो गया होता उदासियों की खलाओं में
हँस रहा हूँ मै महफिलों में ये उसी  मेहरबानी है

कुछ लोग कहते हैं वो मोम है कुछ कहे हैं पत्थर 
जो छूता हूँ बदन उसका,लगे दरिया की रवानी है 

मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

कदम -कदम पे खुशबू कदम-क़दम पे रोशनी है

कदम -कदम पे खुशबू कदम-क़दम पे रोशनी है
मेरा महबूब एक साथ चाँद और गुले रातरानी है
होगा वो तुम्हारे लिए होता या होगा वो क़ातिल 
मेरे लिए तो साँस दर साँस है मेरी ज़िंदगानी है

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

मै चींखना चाहता हूँ

मै
चींखना चाहता हूँ
चींख नहीं पाता
सिर्फ गों - गों कर के रह जाता हूँ
रोना चाहता हूँ - रो नहीं पाता
हँसना चाहता हूँ तो
हँसी की नदी न जाने किस रेगिस्तान में
जा के सूख जाती है ?
लेकिन
टी वी के रिमोट का बटन दबाते ही
मुझे हँसी आने लगती है
रोना भी आने लगता है
किसी गलत बात पे गुस्सा भी आने लगता है
यंहा तक कि मुट्ठियां भी भींच जाती हैं
और छोटी छोटी दुःख भरी घटनाओं पर
घंटो के लिए उदास हो जाता हूँ

(कंही टी वी के रोमोट का एक बटन मेरे
दिमाग़ में तो नहीं फिट हो गया है ?

मुकेश इलाहाबादी --------------------------
ज़रूरी जानकारी -------------------------------------------------------------

मेरी वाल से बहुत सारे मित्रों के इन बॉक्स में कुछ विडिओ के लिंक जा रहे हैं।
शायद ये कोई वायरस है जो फ्लोट हो रहा है।  ऐसा कोई लिंक मेरी तरफ से
नहीं भेजा जा रहा है।  अगर किसी मित्र के इन बॉक्स में आता है कोई अन्नों
मेसेज तो उसे इग्नोर करें।  और पूछ ताछ न करें।

धायनवाद।

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Saturday 21 April 2018

रोज़-रोज़ गरल पी रहे हो तुम

रोज़-रोज़ गरल पी रहे हो तुम
मर-मर के क्यूँ जी रहे हो तुम
बहुत कुछ बोलना तो चाहते हैं
फिर होठं क्यूँ सी रहे हो तुम ?
मुकेश इलाहाबादी ------------

वह पत्थर की मुर्ती थी।

वह पत्थर की मुर्ती थी।
सुना तो यह गया है, वह पत्थर की देवी थी। पत्थर की मूर्ति। संगमरमर का तराशा हुआ बदन। एक - एक नैन नक्श, बेहद खूबसूरती से तराशे हुए। मीन जैसी ऑखें ,सुराहीदार गर्दन, सेब से गाल। गुलाब से भी गुलाबी होठ। पतली कमर। बेहद खूबसूरत देह यष्टि। जो भी देखता उस पत्थर की मूरत को देखता ही रह जाता। लोग उस मूरत की तारीफ करते नही अघाते थे। सभी उसकी खूबसूरती के कद्रदान थे। कोई ग़ज़ल लिखता कोई कविता लिखता। मगर इससे क्या। . .. ? वह तो एक मूर्ति भर थी। पत्थर की मूर्ति।
सुना तो यह भी गया था, कि वह हमेसा से पत्थर की मुर्ति नही थी। बहुत दिनो पहले तक वह भी एक हाड मॉस की स्त्री थी। बिलकुल आम औरतों जैसी। यह अलग बात वह जब हंसती तो फूल झरते। बोलती तो लगता जलतरंग बज उठे हों। चलती तो लगता धरती अपनी लय मे थिरक रही हों।
उसके अंदर भी हाड मासॅ का दिल धडकता था। वह भी अपनी सहेलियों संग सावन मे झूला झूला करती थी। उसके अंदर भी जज्बात हुआ करते थे। वह भी तमाम स्त्रियों सा ख्वाब देखा करती थी।
वह भी सपने मे घोडा और राजकुमार देखा करती ।
और ------ एक दिन उसका यह सपना सच भी हुआ ।
उसके गांव मे एक मुसाफिर आया। बडे बडे बाल, चौडे कंधे। उभरी हुयी पसलियां । आवाज मे जादू , वह उसके सम्मोहन मे आगयी। वह उसके प्रेम मे हो गयी।
अगर पुरुष यानी वह मुसाफिर कहता तो वह। गुडिया बन जाती और उसके लिये कठपुतली सा नाचती रहती। अगर पुरुष कहता तो वह सारंगी बन जाती, सात सुरों मे बजती। अगर पुरुष कह देता तो वह नदी बन जाती, पुरुष उसमे छपक छंइयां करता।
और पुरुष कहता तो वह फूल बन जाती और देर तक महकती रहती। गरज ये की वह पुरुष को परमात्मा मान चुकी थी,खुद को दासी।
पर एक दिन हुआ यूं कि। खेल - खेल मे स्त्री पुरुष के कहने से फूल बनी और पुरुष भौंरा। और तब भौंरे ने उसने फूल को सारा रस ले लिया और फिर खुल गगन मे उड चला न वापस आने के लिये। इधर स्त्री फूल बन के उसका इंतजार ही करती रही। इंतजार ही करती रही। और जब उसने दोबारा स्त्री बनना चाहा तो वह स्त्री तो बनी पर रस न होने से वह पत्थर की स्त्री बन गयी। और तब से वह पत्थर की ही थी।
मगर उस पत्थर की मुर्ती मे भी इतना आकर्षण था कि जो भी देखता मंत्रमुग्ध हो जाता। जो भी देखता उसे देखता रहा जाता। लोग उसे देखने के लिये दूर दूर से आते, देखते और तारीफ करते।
और एक दिन दूर देश के एक कला परखी ने जब उस पत्थर की स्त्री के बारे मे सुना तो उससे रहा न गया।
उस कला के पारखी ने उसे देखने की ठानी। उसने अपने घोड़े की जीन कसी। अपनी पीठ पे अपनी असबाब बांधे और चल दिया उस पत्थर की देवी को देखने । उस कद्रदान ने तमाम नदी नाले पार किये। तमाम शहर , कस्बों और जंगलात से गुजरा और पता लगाते- लगाते एक दिन उस पत्थर की मूर्ति के गांव पहुच ही गया।
उस कला के कद्रदान ने जब उसे देखा तो देखता ही रह गया उस पत्थर की स्त्री को।उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। कद्रदान उसे जितना देखता उठी ही उसकी इच्छा बलवती होती जाती और वह उसे देखता रहता देखता रहता। देखते देखते क़द्रदान को उस पत्थर के मूर्ति से प्यार हो गया वह प्रेम मे पड गया, बुरी तरह से, वह उसकी अभ्यर्थना करने लगा। पर इससे उस स्त्री पे क्या फर्क पडना था। वह तो पत्थर की थी।
लोग उस कद्रदान पे हंसते, उसे पागल कहते , फब्तियाँ कसते कहते अरे कभी कोई पत्थर की मूर्ति ने भी किसी से प्रेम किया है ? पर, वह कददान तो जैसे उस पत्थर की देवी के लिए पागल हो गया था । वह दिन रात उस मूर्ती की पूजा करता अर्भ्यथना करता उसके सामने गिडगिडाता। उससे प्रेम की भीख मांगता, उसके लिये कविता लिखता चित्र बनाता गीत गाता। पूजा करता। और कभी कभी तो उसके कदमो पे सिर रखकर खूब और खूब रोता।
और यह सिलसिला दिनो नही सालों साल चलता रहा।
आखिर उस कद्रदान का प्रेम रंगलाया। पत्थर की मूर्ति जीती जागती स्त्री में तब्दील हो गयी थी।
यह देख कर वह कद्रदान बहुत खुश हुआ, स्त्री भी एक बार फिर खुश हुई।
वह एक बार फिर कठपुतली बनी, सारंगी बनी नदी बनी फूल बनी अपने इस नए क़द्रदान के लिए। और एक दिन फिर वह फूल बनी। जिसे कद्रदान सूंघ सकता था। अपने हथेलियेां के बीच ले के महसूस कर सकता था। उसकी कोमलता को , उसकी ख़ूबसूरती को।
जिसे वह कद्रदान अपनी हथेलियों के बीच आहिस्ता से लेकर उसकी महक को अपने नथूनों मे भर के खुश हो रहा था। अब वह खुशी से झूम रहा था नाच रहा था। हंस रहा था मुस्कुरा रहा था। वह मुर्ति भी उसके हाथों फूल सा खिल के महक के खुश थी। पर वह अपनी खुषी मे पागल कद्रदान यह भूल गया कि अगर उसने अपने अंजुरी को मुठठी मे तब्दील कर लिया या जोर से बंद किया तो फूल की पंखडियां बिखर जायेंगी आैंर फिर फूल फूल न रह जायेगा। पर उस कद्रदान ने ऐसा ही किया। नतीजा। फूल की पंखडियां हथेली मे बहुत ज्यादा मसले जाने से टूट गयीं और बिखर गयीं। अब वह फूल फल न रहा। एक सुगंध भर रहा गयी।
कद्रदान को जब होष आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसके सामने अब न तो वह पत्थर की मुर्ति थी और न उसकी अंजुरी मे फूल थे जो उस मुर्ती के तब्दील होने से बने थे।
कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।
पर कहने वाले यह कहते हैं कि। वह कद्रदान आज भी।फूलों की उस खूबसूरत वादी की पहाड़ी चटटानों पे सिर पटकता है और जोर - जोर रोता हुआ भटकता हैं कि शायद उस खूबसूरत सुगंध वाला फूल या यूं कहो की वह स्त्री जो पत्थर की मूर्ति थी। जो उससे नाराज हो के फिर से पत्थर बन गयी है एक दिन फिर मूर्ति बनेगी और फिर उसके प्रेम से फूल बन के खिलेगी।
पर इस बार वह अपनी अंजुरी को कस के नही भींचेगा । पंखुरियों को नही बिखरने देगा।
मुकेश इलाहाबादी -------------------

Friday 20 April 2018

तुम बोलना नहीं जानती '

तुम
बोलना नहीं जानती '
मै - कहना नहीं चाहता
तो , चलो
तुम मेरे सीने पे अपना सिर रख दो
मै तुम्हारी खामोशी सुनूँ
तुम मेरी धड़कने

मुकेश इलाहाबादी --------

Thursday 19 April 2018

तुम्हे वायलिन बजाना आता है ?

लड़की,
ने कहा 'सुनो ! तुम्हे वायलिन बजाना आता है ?
लड़के  ने कहा  "हाँ " "क्यूँ ?"
"मुझे सीखना है "  लड़की इठलाई
लड़के ने कहा "ओ के , पास आओ , थोड़ा और ,,,,
"हूँ ! अब ये लो वायलिन अपनी गोद में रखो, उँगलियाँ तारों पे "
"नहीं - नहीं , ऐसे नहीं "
लड़के ने उसको पीछे से पकड़ के काँधे पे
अपनी ठुड्डी टिकाते हुए  "ऐसे नहीं ऐसे ,,,
लड़की के दोनों हाथो पे अपने हाथ रखते हुए उँगलियों को पकड़ के 
"देखो , ऐसे ,,,,,
अब ! दोनों की उँगलियाँ वायलिन पे तेज़ी से दौड़ने लगी
लड़की की दोनों आँखे पहले चमकी
फिर बंद हो गयीं और
इधर दोनों की उँगलियाँ वायलिन के  तारों पे दौड़ रही थीं 
उधर
एक नए सुर की सृष्टि हो रही थी
वायलिन पे

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

जादू

उसने, 
कहा - "आओ ! तुम्हे जादू दिखाऊँ "
"दिखाओ" ! हुलस के दुसरे ने कहा 
"अपनी आँखे बंद करो" - पहले ने कहा 
मासूमियत से सामने वाले ने आँखे बंद कर लीं 
पहले वाले ने ,
सामने वाले के दोनों कंधो पे अपने दोनों हाथ रक्खे 
फिर अपने होठों को गोल - गोल किया 
और ,,,,, रख दिए - बड़ी आहिस्ता से 
पलकों पे 
और, फुसफुसा के कहा "जादू दिखा ?"
"हाँ दिखा " 
और वो जादू देखने में मशगूल हो गयी 

(शायद एक जादू ऐसे भी देखा और दिखाया जाता है )

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

जाने क्या क्या सपने बुनने लगता है मन

जाने क्या क्या सपने बुनने लगता है मन
तुमसे बतियाऊं तो महकने लगता है मन
बुझा हुआ अलाव था मेरा मन तुमसे मिल
जाने क्यूँ हौले- हौले दहकने लगता है मन
मुकेश इलाहाबादी --------------------------

Monday 16 April 2018

छोटे कलेवर का बृहद काव्यसंग्रह - तुम्हारे जाने के बाद - कवियित्री - मधु सक्सेना ----------------------------------------------------------------------------------------

छोटे कलेवर का बृहद काव्यसंग्रह - तुम्हारे जाने के बाद - कवियित्री - मधु सक्सेना
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सोचो,
जीवन की पगडंडी पे
चले जा रहे हो, आप
ख़रामा - ख़रामा
खुश - खुश
सब कुछ गुड़ी - गुड़ी
और,,,,,
अचानक आप का जीवन साथी
सीने में दर्द की  बात कहता है
और आप कुछ समझो - समझो वो
आप का हाथ छुड़ा के
हवा में विलीन हो जाता है
हमेशा - हमेशा के लिए
और छोड़ जाता है
एक न भरने वाला शून्य
इसी शून्य को अपनी कविताओं से भरने का  सार्थक और प्यारा प्रयास है
आभासी दुनिया की मेरी एक बहुत प्यारी मित्र और एक बहुत अच्छी कवियित्री "मधु सक्सेना" जी का ताज़ा काव्य संग्रह, 'तुम्हारे जाने के बाद'

तुम्हारे जाने के बाद मधु जी का काव्य संग्रह न केवल अपने जीवन साथी के प्रति सच्ची निष्ठा और भावांजलि है, बल्कि अपने प्रेमी और पति के
लिए लिखा जाने वाला अनूठा काव्य संग्रह है।  जो शायद आज तक किसी और कवियित्री ने अपने प्रेमी या पति की याद में रचा हो।
मधु जी से पिछले दिनों उनके दिल्ली प्रवास के दौरान मुलाकात हुई.
सौम्य व्यवक्तित्व , हँसता हुआ चेहरा - और स्नेह पूर्ण व्यव्हार - मधु जी के व्यक्तित्व की वो खाशियत है जो किसी को भी अपना बना लेने के
लिए पर्याप्त हैं , मधु जे से मुलाकात फेसबुक की दुनिया में हुई और कुछ ही दिनों में एक अच्छे मित्र में या मुलाकात तब्दील हो गयी।
खैर ,,, बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ की कोई काव्य संग्रह एक ही बैठक में सांस रोक के पढ़ा हो -
47 छंद मुक्त कविताओं की यह काव्यमाला पढ़ते वक़्त ऐसा लगा जैसे एक लघु उपन्यास  या एक कथा पढ़ा रहा हूँ - अपने से बिछड़ने की -
एक एक कविता एक एक मनोभावों और घटनाओ का न केवल सजीव चित्रण करती है बल्कि पाठक को भावों के ऐसे समंदर में डुबो ले जाती हैं
जंहा सिर्फ और सिर्फ एक आर्तनाद होता है सिसकियाँ होती हैं अपने प्रिय से हमेशा के लिए बिछड़ने का दंश होता है और वैधव्य की त्रासदी होती है,
और होता है एक न भरने वाला शून्य जिससे पाठक देर तक उबर नहीं पाता ,
जंहा आधे रंगीन और आधे स्वेत - श्याम रँग का कवर पेज संग्रह के कथ्य और मूल भाव से मेल खाता है, वही सुंदर छपाई और कलेवर वाली 'बोधि प्रकाशन'
से प्रकाशित मात्र सैंतालीस रचनाओं के इस बृहद काव्य संकलन के लिए - मधु जी को ढेरों बधाई -
विशेष बात यह भी है मधु जी ने साग्रह की भूमिका भी अपनी सहेलियों से लिखवाई है


मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

Friday 13 April 2018

तुम्हारी सादगी और ख़ूबसूरती बेमिसाल है

तुम्हारी सादगी और ख़ूबसूरती बेमिसाल है
और तू मेरी दोस्त है इस बात पे हमें नाज़ है
गेंदा, देखा, गुलाब, देखा देखे हमने ढेरों फूल
जो गुलों से भी जो खूबसूरत है,आप के गाल हैं
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

जब हम गुफाओं से निकले थे

जब
हम गुफाओं से निकले थे
असभ्य थे
पर बर्बर न थे
हिंसक थे
पर पेट भरने तक
तन पे कपडे न थे
पर आँखों में हया के वस्त्र होते थे
जब हम गुफाओं से निकले
धरती - माता
चंदा हमारा मामा होता था
पत्थर हमारा देवता होते थे
पर हम पत्थर के नहीं थे
जब हम गुआओं में रहते थे
तब तो ऐसे न थे ??
असभ्य तो थे
पर बर्बर तो न थे
मज़हब के लिए
पैसे के लिए
यूँ मरते कटते तो न थे
जब हम
गुफाओं से निकले थे
तब ऐसे तो न थे ??

मुकेश इलाहाबादी ------------

तेरी तस्वीर देखता हूँ कुछ सपने बुनता हूँ

तेरी तस्वीर देखता हूँ कुछ सपने बुनता हूँ
तनहा रातों में तेरी यादों के मोती चुनता हूँ

लोग पूछते हैं इतना खामोश क्यूँ रहता हूँ
उन्हें क्या पता दिल के अंदर तुझको सुनता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

Thursday 12 April 2018

बदन का हर हिस्सा सुलगता हुआ लगता है


बदन का हर हिस्सा सुलगता हुआ लगता है 
कौन सा सूरज है,? जिस्म के अंदर जलता है

दूर तक कोई नहीं है फिर ये पदचाप किसकी 
मेरे ज़ेहन की वीरान छत पे ये कौन चलता है

जब तलक कोई अपना न था कोई बात न थी
कोई अपना हो के बिछड़ जाये तो खलता है

जानता हूँ उसके दिल में मेरे लिए कुछ नहीं
फिर क्यूँ आँखों में उसी का सपना पलता है 

ये और बात मुझे छोड़ कर चला गया मुकेश
अक्सर मुझे याद करता होगा ऐसा लगता है

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------

Wednesday 11 April 2018

सच है ग़मो की इन्तहां हो तो बेचैनियाँ बतियाती हैं


सच है ग़मो की इन्तहां हो तो बेचैनियाँ बतियाती हैं
लफ्ज़ खामोश हो जाएँ तो खामोशियाँ बतियाती हैं

जब दीवारें उठ कर दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं तो
सिसकते हैं रोशनदान और  खिड़कियाँ  बतियाती हैं

मुकेश, आओ कुछ देर को भौंरा बन गुलशन में चलें
हम भी देखें क्या गुलों से ये तितलियाँ बतियाती हैं


मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------

Sunday 8 April 2018

जानती हो ! ये जो समंदर है न,

सुमी,
जानती हो ! ये जो समंदर है न, आज से हज़ारों हज़ार साल पहले आज की तरह
न तो खारा था और न ही यह एक जगह ठहरा हुआ था, इस  समंदर का भी पानी नदियों के जल की तरह
मीठा होता था और बहा करता था।  यंहा से वंहा तक, वंहा से वंहा तक, जंहा तक ज़मीन
हुआ करती थी दूर - दूर तक। ये समझ लो सुमी, ये समंदर एक महाद्वीप से दुसरे महाद्वीप
तक दुसरे से तीसरे महाद्वीप तक बहा करता था।  कभी अपनी मौज़ में आ कर ठांठे मारा करता  था,
तो कभी बिलकुल शांत हो जाया करता था, तो कभी हौले हौले बहा करता था अपनी मौज़ में।
पर था अपनी तनहाई में खुश और प्रसन्न।  लेकिन एक दिन एक आसमानी परी जो ज़मी पे
तफरीहन आयी थी जो बिलकुल तुम्हारी तरह थी, कजरारी आँखे, मरमरी बाहें और प्यारी मुस्कान
वाली,वो अपना आसमानी आँचल फैला के समंदर किनारे चहलकदमी करने लगी।
जैसे उस दिन तुमने किया था, आसमानी परी के गुलाबी कोमल पाँव समंदर के किनारे की रेत् पे
अपनी कोमल छाप छोड़ रहे थे , जैसे तुम्हारे कदमो के निशान थे उस दिन जैसे।
समंदर उस आसमानी परी की अठखेलियाँ देख चंचल हो उठा और वो अपनी उत्तल तरंगो से उसके
पाँव पखारने लगा, आसमानी परी खिलखिला उठी बर्फ से ठन्डे और कोमल जल से वो लहरों के
संग - संग खेलने लगी, समंदर भी अपनी मौज़ में उस प्यारी और सोणी सी परी
के साथ - साथ खेलने लगा, जैसे उस दिन तुम लहरों संग मौज़ कर रही थी।  खैर, परी
समंदर की बाँहों में बहुत देर तक खेलती रही - खेलती रही, और खेलते - खेलते कब साँझ हो गयी
उसे पता न लगा, उसे पता तब लगा जब फलक पे प्यारा और सलोना सा चाँद उग आया ,
चाँद भी समंदर संग अठखेलियां करती इस परी को देख मोहित हो गया और वहीं से अपनी
चांदी सी शीतल लहरें लुटाने लगा - जिसकी रोशनी में उस आसमानी परी की ख़ूबसूरती
और और बढ़ गयी।  परी ने नज़रें उठा के फ़लक़ पे अपनी कजरारी कजरारी नज़रें उठा के देखा।
नज़रें चार हुई चाँद की और उस आसमानी परी की।  आँखों आँखों में न जाने क्या बात हुई और
कुछ इशारे हुए , वो आसमानी परी अपने पँख फैला के समंदर को "बाय - बाय" , "सी यू दोस्त "
 कहती अपने चाँद के पास उड़ती हुई चली गयी।
सुना है,  समंदर तब से बहुत उदास है , और तब से ही वो उसी जगह पे स्थिर है।  इस उम्मीद पे
शायद किसी दिन उसकी आसमानी परी इश्कबाज़ चाँद को छोड़ उसके पास आएगी।
और समंदर का  पानी भी ताबेहे से समंदर के आंसुओं से खारा हो गया है।

हो सकता है, ऐसा कभी न हुआ हो और ये सब मेरी कल्पना हो, पर सुमी ये तो सच है ,
मेरे लिए तो तुम ही किसी आसमानी परी से कम नहीं हो जिसके जाने के बाद से जीवन की सारी
यात्राएं तुम्हारी यादों के इर्द गिर्द फैले तट पे ठहर गयी हैं।

सुन रही हो न मेरी सुमी ??


मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------------------------

Friday 6 April 2018

तुम आना,

तुम ,
उदास होना तो आना,
मै तुम्हे लतीफ़ा सुनाऊँगा
तुम हँसना,

तुम जब, अनमनी होगा 
तब आना,
मै तुम्हे गुदगुदी लगाऊँगा
तुम खिलखिलाना

तुम जब खुश होना - तब आना
हम तुम कट्टम - कुट्टा खेलेंगे कागज़ पे
और हंस हंस कर करेंगे धौल - धप्पा

तुम बारिस हो तब आना
हम तुम भुट्टा खाएंगे, और
टहलेंगे कनॉट प्लेस के बरामदे में

लेकिन तुम आना,
जब मन हो - तब आना

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

चाँद उगते ही चलने लगता हूँ मै भी

दर
रोज़ चाँद उगते ही
चलने लगता हूँ मै भी, उसके साथ - साथ

क़दम ताल करते हुए
चाँद के साथ साथ कभी धीरे तो कभी तेज़

पर चाँद - कभी इठला कर तो कभी मुस्कुरा कर
बादलों के पीछे छुप जाता है
किसी पहाड़ या ईमारत के पीछे
और मै तनहा रह जाता हूँ
जी रोने रोने को करता है
पर थोड़े ही देर में चाँद फिर मेरे साथ साथ चलने लगता है

पर चाँद कभी भी बगलगीर हो के नहीं चला मेरे साथ

बहुत बार ऐसा भी हुआ है
चाँदनी रातों में लेटा रहा छत पे तनहा
सोचता हुआ चाँद के बारे में
बतियाता रहा चाँद से , चाँद के ही बारे में
इस उम्मीद पे शायद किसी दिन
सितारों की तरह किसी दिन चाँद भी
टूट कर फलक से गिरे और मै उसे लोक लूँ अपनी बाँहों में
पर ! ऐसा भी नहीं हुआ कभी


बस यही इक अफ़सोस है

सुन रह हो न मेरे चाँद ??

मुकेश इलाहाबादी --------------

Thursday 5 April 2018

तू, मेरी कोई रिश्तेदार नहीं

तू, 
मेरी कोई रिश्तेदार नहीं
बिज़नेस पार्टनर या ऑफिस कलीग नहीं
यंहा तक कि पड़ोसी भी नहीं
कि ज़रूरत पड़ जाये गाहे - बगाहे
फिर क्यूँ ऐसा लगता है
तू नहीं तो - कुछ भी नहीं है
ज़िंदगी में

मुकेश इलाहाबादी -----------

Wednesday 4 April 2018

जब कभी लिखना चाहा कविता

जब
कभी लिखना चाहा कविता
धरती की धारणा शक्ति और सहनशीलता पे
तब तुम बहुत याद आये

गर कभी
लिखना चाहा कविता
किसी फूल पे
तब तब तुम बहुत याद आये

जब जब लिखना चाहा कविता
तुम बहुत याद आये

मुकेश इलाहाबादी ----

हया है नाज़ुकी है खुशबू है ख़ूबसूरती है

हया है नाज़ुकी है खुशबू है ख़ूबसूरती है
तू ऐसा फूल है जिसमे क्या कुछ नहीं है

जिस्म साँस लेता है,तो कह लो ज़िंदा हूँ
तुझ बिन ये ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है

जिसका पानी पी कर  कोई भी न बचा 
मुकेशजी मुहब्बत ऐसी ज़हरीले नदी है

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Sunday 1 April 2018

जी तो चाहता है

जी
तो चाहता है
मक्खन के गोले से भी ज़्यादा
मुलायम और सफ़ेद गालों पे
खिलने वाली इस क्यूट
मासूम और नटखट मुस्कान को
अपनी कानी उंगली से छू कर
होंठो से लगा लूँ
और चख लूँ इस ताज़े ताज़े मक्खन का स्वाद

या फिर
तुम्हारे इस गुलू - गुलू गालों को
अपने दोनों हाथों की चुटकी बना कर
जोर से खींचूं और भाग जाऊँ
तुम्हारी पहुंच से बहुत दूर

या कि
ऐसा करूँ
तुम्हारे इस प्यारे से गालों को
अपनी हथेली की अंजुरी में ले कर
कर दूँ किस्सी की बरसात


मुकेश इलाहाबादी --------------------

जब से,

जब से, 
पौधा रोपा है
तुम्हारे नाम का
महकता है मेरा तन-मन
अहर्निश

रात,
लगा लेता हूँ तकिया
तुम्हारे नाम की
और डूब जाता हूँ
एक गहरी नींद में

मन
उदास होता है
तो तुम्हे याद कर लेता हूँ
और मुस्कुराता हूँ अकेले में
बहुत देर तक


मुकेश इलाहाबादी --------------