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Thursday 31 July 2014

रात खूं आलूदा हो गयी

रात खूं आलूदा हो गयी
चांदनी ख़फ़ा हो गयी

रो दिए तुम,बाद उसके
शाम ग़मज़दा हो गयी

दोस्त जब से तुम गए
ज़िंदगी बेमज़ा हो गयी

कंही चैन मिलता नहीं
हर बात बेमज़ा हो गयी

इक बार बता तो जाते
मुझसे खता क्या हो गयी 

मुकेश इलाहाबादी ----

गुलाल बन के महफ़िल में आपही उड़े होगे

गुलाल बन के महफ़िल में आपही उड़े होगे
वरना शाम बड़ी उदास उदास और सादी थी
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

सफरे हयात पे निकल पड़ा हूँ मै

सफरे हयात पे
निकल पड़ा हूँ मै
तेरे घर की ज़ानिब
चल पड़ा हूँ मै

राहे ईश्क पे अब
भटके न कोई
राह में
मील के पत्थर सा
गड गया हूँ मै

जानता हूँ
है ज़माना दुश्मन
अपनी दोस्ती का
पर अपनी ज़िद पे
अड़ गया हूँ मै

फ़ितरते गुल ले कर
कब तक खिला रहता ?
हर सिम्त धूप ही धूप थी
मुरझा गया हूँ मै

मुकेश इलाहाबादी -------

रिश्तों में थोड़ी तो आंच बचाये रखिये,

रिश्तों में थोड़ी तो आंच बचाये रखिये,
सिलसिला मुलाक़ात का बनाए रखिये

बहार तो तुम्हारे घर भी आ जायेगे, बस
मुहब्बत के दो चार फूल खिलाये रखिये

साँझ से ही घर में अँधेरा अच्छा नहीं
कम से काम इक चराग जलाये रखिये

नफरत की आग सब कुछ झुलसा देगी
मुहब्बत का इक दरिया बहाये रखिये

मुकेश होठों पे तुम कोई भी तराना रखो
दिल में मगर सब के लिए दुआएं रखिये

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Friday 25 July 2014

पहचान छुपा कर आ जाओ

पहचान छुपा कर आ जाओ
नक़ाब पहन कर आ जाओ

गर बादल सा उड़ना है तो
क़फ़स तोड़ कर आ जाओ

ज़माना तो मिलने न देगा
कोई बहाना कर आ जाओ

हुआ है मौसम आशिकाना
दोस्त समझ कर आ जाओ

तुम ख़फ़ा खफा क्यूँ बैठे हो
गुस्सा थूक कर आ जाओ

मुकेश इलाहाबादी -------

Thursday 24 July 2014

तुम्हारी बातों में सच्चाई है

दोस्त बड़े गुस्से में लगते हो
तल्ख़ तेवर में बात करते हो

तुम्हारी बातों में सच्चाई है
गैर देश के वासी लगते हो

नीली -२  झील सी आखों में
तुम किसके सपने बुनते हो

तुम  मुझे अपना पता दे दो
शहर में  तुम कहाँ रहते हो

तुमसे दोस्ती करना चाहूँगा
तुम मुझे अच्छे लगते हो

मुकेश इलाहाबादी ---------

Wednesday 23 July 2014

सुई पटक सन्नाटा है

सुई पटक सन्नाटा है
चौराहे पे बम फटा है

शहर घर में  दुपका है
बाहर पुलिस का डंडा है

बस्ती महफूज़ है पर
रहज़नी का ख़तरा है

किसी बहन - बेटी का
फिर चीर -हरण हुआ है

ग़ज़ल का मज़मून भी
अखबार जैसा हो गया है 

मुकेश इलाहाबादी -----

सड़क और कारखाना बना रहे हैं

सड़क और कारखाना बना रहे हैं
विकास का झुनझुना बजा रहे हैं

चेहरे की ये कालिख नहीं दिखती
मगर घर और गाड़ी चमका रहे हैं

जिस खेत में  अनाज उगा करते थे
आज मॉल औ एपार्टमेंट बना रहे हैं

पेरेंट्स इस बात से खुश हो रहे हैं
उनके बच्चे ऐप् व  नेट चला रहे हैं

मुकेश इस बात को लेकर दुखी है
ये किस विनास की ओर जा रहे हैं

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Tuesday 22 July 2014

वही रात वही ख्वाब पुराने

वही रात वही ख्वाब पुराने
वही बस्ती वही लोग सयाने

वही सितार और वही तम्बूरा
वही  साज़ वही  नगमे पुराने

हमारे घर आज भी मुहर्रम है
वो गया चाँद संग ईद मनाने

फिर वही दर्द  वही ज़ख्म है
सूखने में जिसे लगे ज़माने

कोई नया क़लाम हो तो छेड़ो
लगे वही पुरानी ग़ज़ल सुनाने

मुकेश इलाहाबादी ---------

रेत् के बंज़र खेत में बिरुवा उगता हूँ

रेत् के बंज़र खेत में बिरुवा उगता हूँ
पानी की सतह पर  नज़्म लिखता हूँ  
सयानों की महफ़िलों में जाता नहीं,,,
सीधे सादो को अपनी ग़ज़लें सुनाता हूँ
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

मन में उजास लिए बैठी है




मन में उजास लिए बैठी है
आखों में लाज लिए बैठी है
रचा के हाथ - पैरों में मेहंदी
पिया का ख्वाब लिए बैठी है
मुकेश इलाहाबादी ---------

Monday 21 July 2014

सूख रहा पोखर और नदियों का आब



सूख रहा पोखर और नदियों का आब
बचा नहीं अब तो आखों का भी आब
सारे काट के जंगल और तोड़ के पहाड़
मूरख मानव मांग रहा बादल से आब

मुकेश इलाहाबादी -----------------------


ख्वाब में तो रोज़ - रोज़ आते ही हो

ख्वाब में तो रोज़ - रोज़ आते ही हो
कभी हकीकत में भी आ जाया करो
माना कि नाज़ तेरे दुनिया उठाती है
कभी ये मौक़ा हमको भी दिया करो
तेरी इक नज़र से बहार आ जाती है
हमपे भी  नज़रें इनायत किया करो
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Sunday 20 July 2014

तेरी आखों का काजल बन जाऊं

तेरी आखों का काजल बन जाऊं
इन होठों की मुस्कान बन जाऊं

सफर में तो धुप होगी ही तेरे लिए
ज़ुल्फ़ों की ये घनी छाँव बन जाऊँ

तेरा आँचल क्यों रहे सादा - सादा
चाँद सितारे आसमान बन जाऊँ

तू गुमसुम न रहा कर, तेरे लिए
मै दुनिया की सौगात बन जाऊँ

तुझे खूबसूरत ग़ज़ल बना कर
और मै खुद प्रेम राग बन जाऊं 

मुकेश इलाहाबादी --------------

हर शख्श बेक़रार क्यूँ है

हर शख्श बेक़रार क्यूँ है
रिश्तों में ये  दरार क्यूँ है

अब हमें सोचना ही होगा
हर दिल में बाज़ार क्यूँ है

जिसने भी मुहब्बत की है
वो दिल गुनहगार क्यूँ है

पैसों से शुकूं मिलता नहीं
फिर भी तलबगार क्यूँ है

मुकेश तुम बेचैन रहते हो
आखों में ये इंतज़ार क्यूँ है

मुकेश इलाहाबादी -----------

आखों में कुछ शोले, दिल में तूफ़ान डाल दो

आखों में कुछ शोले, दिल में तूफ़ान डाल दो
लहू बन गया है आब , थोड़ा तेज़ाब डाल दो

ज़िंदगी के नाम पे, अपनी सलीब ढो रहे हैं
हो सके तो इन मुर्दों में, थोड़ी जान डाल दो

इन बुझी - बुझी आखों में रेगिस्तान रवाँ है
समंदर या दरिया न सही इक नहर डाल दो

लोग हाथ मिलाते हैं पर बड़े सर्द लहज़े से
शर्द  होते रिश्तों में थोड़ी तो आग डाल दो

मुकेश माना ज़माना है तेरी सूरत का मुरीद 
कभी तो हम जैसों पर  भी तो नज़र डाल दो

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

Saturday 19 July 2014

हंसने की आदत है, हंसना चाहता हूँ

हंसने की आदत है, हंसना चाहता हूँ
ग़मे दौराँ में भी मुस्कुराना चाहता हूँ

यूँ तो कहने के लिए कुछ भी नहीं है
फिर भी मै तुझसे  मिलना चाहता हूँ

टूट के ज़र्रा ज़र्रा ख़ाक हो गया वज़ूद
अब तेरे दामन से लिपटना चाहता हूँ

तेरी रुसवाई हो शहर में मेरे नाम से
इसके पहले बस्ती छोड़ना चाहता हूँ

सूना है तुझे ग़ज़ल का शौक है दोस्त
तेरे लिए कुछ गुनगुनाना चाहता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ---------------------


आज जी भर के देख लेने दो

आज जी भर के देख लेने दो
दिल को तसल्ली कर लेने दो

तेरे पहलू में ज़न्नत होती है
पल दो पल तो ठहर लेने दो 

ये धड़कने भी कुछ कह रही हैं
ज़रा इनकी भी तो सुन लेने दो

तू चश्मे हयात लिए फिरती है
खुश्क होठो को तर कर लेने दो

गर सफर ऐ ज़ीस्त में तू नहीं 
मुकेश को तन्हा ही रह लेने दो

मुकेश इलाहाबादी ---------------

Friday 18 July 2014

साथ कुल्हाड़ी रखता है

साथ कुल्हाड़ी रखता है
ज़ुबाँ से वार करता है

कुछ तो बात हुई होगी
जो तन्हा-तन्हा रहता है

जिस्म पत्थर बना लिया
अब गर्मी सर्दी सहता है

दिल मे अपने आग लिए
दरिया - दरिया फिरता है

लोग ख़फा हो जाते हैं
जब कोई सच कहता है

मुकेश इलाहाबादी ------

Thursday 17 July 2014

दोस्त तुम भी अजब कमाल करने निकले हो,

दोस्त तुम भी अजब कमाल करने निकले हो,
मोम के लिबास मे धूप के सफ़र पे निकले हो

हथेली पे जो लोग बुझे चराग़ लिए फिरते हैं ,,
उन्ही से तुम रोशनी का पता पूछने निकले हो?

इन गूंगे बहरों के शहर मे स र ग म की बातें
तुम भी किन्हे राग जै जैवंती सुनाने निकले हो

शहर मे कर्फ़्यू लगा है और बेहद तनाव भी है
फ़साद हो रहा है और तुम तफरीह पे निकले हो

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

Wednesday 16 July 2014

यूँ तो कोई ख़ास काम नहीं

यूँ तो कोई ख़ास काम नहीं
फिर भी चैनो आराम नहीं

माँ की दवाई लानी है, पर
पैसे का कोई इंतज़ाम नहीं  

हमारे लिए धुप ही धूप है
ज़िदंगी सुनहरी शाम नहीं

अजब मुसलसल बारिस है
रुकने  का  कोई  नाम नहीं

मुकेश सारे ग़म दूर हो जाएं
ऐसी कोई दवा या जाम नहीं

मुकेश इलाहाबादी -----------

Tuesday 15 July 2014

साँसे तेरी खुशबू - खुशबू

साँसे तेरी खुशबू -खुशबू
बातें  तेरी ग़ज़ल ग़ज़ल

देख मुसाफिर तेरी सूरत
भटके कितनी डगर डगर

दर - दर तेरा पता पूछता
घूम के आया नगर नगर

हैं  विरह में साँसे बेकाबू
देखी आखें  सजल सजल

है प्रेम गली अति सांकरी
देखो चलना संभल संभल

मुकेश इलाहाबादी -------

ये तो दुनिया है इसी तरह चलती रहेगी

ये तो दुनिया है इसी तरह चलती रहेगी
कंही तो तूफ़ान होगा कंही आग जलेगी

आज हम यंहा हैं कल हम लोग नहीं होंगे
दस्तान ऐ  इश्क़ तो दुनिया सुनती रहेगी

अभी धूप है मत आना कुम्हला जाओगी 
शाम को उसी पुलिया में मुलाक़ात रहेगी

ज़माने की कब तक तुम परवाह करोगी
दुनिया तो हर हाल में बदनाम ही करेगी

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

Monday 14 July 2014

कोई भी इम्तिहान ले लो

कोई भी इम्तिहान ले लो
सिर्फ इक मुस्कान दे दो

तुम्हारी हंसी मेरी साँसे हैं
उखड़ते दम को जान दे दो

मुकेश इलाहाबादी --------

सर पे सूरज, ज़मीन पे रेत के मंज़र हैं

 
सर पे सूरज, ज़मीन पे रेत के मंज़र हैं
हमारे शहर में नीले नहीं सुर्ख समंदर हैं
फ़िज़ाओं में खुशबू और बादल की जगह
सिर्फ और सिर्फ धूल आंधी औ बवंडर हैं
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

दिन नया खबर पुरानी है

दिन नया खबर पुरानी है
वही लूट घसोट रहजनी है

तूफान मे शज़र गिर गये
दूब अपनी जगह तनी है

देखो धन दौलत के वास्ते
भाई - भाई मे ही ठनी है

सांझ की उतरती हुई धूप
बरामदे मे लेटी अन्मनी है

मुकेश झूठ और फरेब में
उंगलियाँ सब की सनी है

मुकेश इलाहाबादी --------

Saturday 12 July 2014

अंधेरे मे भी झिलमिलाती है

अंधेरे मे भी झिलमिलाती है
ज़िंदगी अब भी मुस्कुराती है

दिन तो आवारा हो गया पर
सांझ तेरी याद कुनमुनाती है

तू लगती है गुलशन गुलशन
ख्वाहिशें पंख फड़फड़ाती हैं !

हवेली खंडहर हो गयी मगर
कोयल आज भी गा जाती है

तुम कुछ नही बोलती हो पर
तेरी आँख चुगली कर जाती है

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Friday 11 July 2014

इज़हारे मुहब्बत को सिर्फ इक मुस्कान काफी है

इज़हारे मुहब्बत को सिर्फ इक मुस्कान काफी है
वरना लिखते रहिये ख़त सुबहो शाम ना काफ़ी है
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

Thursday 10 July 2014

हुस्न मे उसके दरिया सी रवानी

हुस्न मे उसके दरिया सी रवानी
देखी नही मैने उसकी सी जवानी

पल भर भी जुदा होने नही देती
ज़माने मे नही उसकी सी दीवानी

चाँदी सी रंगत और सोने से बाल
लगती है मुझको परियों की रानी

हर अंदाज़ नज़ाकत नफ़ासतभरा
बातों मे उसके मुहब्बत की कहानी

फैला दे जुल्फ तो छाँव ही छाँव
तपते हुए मौसम मे शाम सुहानी

मुकेश इलाबाबादी ----------------

शहर ग़मज़दा था

शहर ग़मज़दा था
कुछ तो हुआ था

हर इंसान चुप था
हर शख्श ख़फ़ा था

हवाएं बोलती थी
सन्नाटा चीखता था

वह घर जा रहा था
बेक़सूर मारा गया था

मुकेश तुम चुप रहो
कितनी बार कहा था

मुकेश इलाहाबादी ---

वो घर ग़मज़दा था

वो घर ग़मज़दा था
ग़म का मैक़दा था

कुछ चिंगारियां थी
बाकी तो धुंआ था

हवा की सरसराहट
अजब सन्नाटा था

दरो दीवार सीली थी
वो रात भर रोया था

शक इक वज़ह थी
घर बिखर गया था

मुकेश इलाहाबादी ---

Wednesday 9 July 2014

ये तो हमारी मुहब्बत है जो उन्हें वक़्त पे खींच लाई है

ये तो हमारी मुहब्बत है जो उन्हें वक़्त पे खींच लाई है
वर्ना तो उन्हें बज़्म में देर से आने की पूरानी आदत है
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------
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दिन में चैन रातों को आराम नहीं है

दिन में चैन रातों को आराम नहीं है
इश्क़ के सिवाए कोई काम नहीं है

उड़ते पंछी,पतंगो के लड़ते पेंच देखूं
मेरे पास वो फ़लक़ वो बाम नही है

तसल्ली से बैठे सिर्फ तेरे बारे में सोचूँ
इतनी तो फुरसत औ इंतज़ाम नहीं है

दुनिया के मैखाने मैखाने घूम के देखा,
तेरी आँखों से बेहतर कोई जाम नहीं है 

तुम्हारी यादों और चाँद ग़ज़लों के सिवा
दुनिया की कोई दौलत मेरे नाम नहीं है

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Tuesday 8 July 2014

मैंने बहते हुए पानी पे अंजाम लिख दिया

मैंने बहते हुए पानी पे अंजाम लिख दिया
दरिया की रवानी पे तेरा नाम लिख दिया

मेरे लम्हे - लम्हे का हाल तुझे मिलता रहे
गुलशन के हर  फूल पे पैगाम लिख दिया

ख़ुदा और मुहब्बत में कुछ भी फर्क नहीं है
है इश्क़ की इबारत सुबहो शाम लिख दिया

मुहब्बत की इक पाक सी कहानी लिखी जाए
दुनिया ने तो इसे बहुत बदनाम लिख दिया

मुकेश तेरे घर का पता मुझे मालूम नहीं है
लिहाज़ा ख़त तुझे हमने गुमनाम लिख दिया

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

वो इतने तीर चला देता है

वो इतने तीर चला देता है
ज़ख्म भी मुस्कुरा देता है

इतना मासूम मत समझो
क़त्ल के निशाँ मिटा देता है 

उसकी हंसने  की आदत है
ग़म को यूँ ही उड़ा देता है

इंसां जब अपने पे आ जाए 
क़ायनात भी हिला देता है

मुकेश आदत से चुप्पा है
हर बात पे मुस्कुरा देता है

मुकेश इलाहाबादी ----------

Monday 7 July 2014

यूँ खनखना के न हंसा कीजिये



यूँ खनखना के न हंसा कीजिये
दिल के तार झनझना जाते हैं
मुकेश इलाहाबादी --------------

कभी तो तनहा भी रहा कीजिये

कभी तो तनहा भी रहा कीजिये
ज़िदंगी को यूँ भी जिया कीजिए

इतनी मशरूफ़ियत अच्छी नहीं
कभी तो बेवज़ह भी घूमा कीजिए

हमेशा मतलब से  ही  मिलते हो ,,
कभी बेमक़सद भी मिला कीजिए

सूरज ढल गया अभी ऑफिस में हो
साँझ तो अपने घर में रहा कीजिये

खबर तो रोज़ सूना करते हो कभी
अपनों का भी दुःख दर्द सुना कीजिए 

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Sunday 6 July 2014

आफ़ताब की आरज़ू है तो तपना होगा

आफ़ताब की आरज़ू है तो तपना होगा
तमन्ना ऐ मुहब्बत है तो जलना होगा
ग़र चाहत है तुझे मुकम्मल मंज़िल की
जान लो कि आग तूफां में चलना होगा
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

शहर में ऐसा कोई घर नहीं

शहर में ऐसा कोई घर नहीं
जंहाँ ग़म का बिस्तर नहीं

इन आखों में जो दरिया है
उससे बड़ा तो समंदर नहीं

जो कुछ भी हूँ मेहनत से हूँ
मुक़द्दर का मै सिकंदर नहीं

गरीब सही, मन का राजा हूँ 
किसी का मै का नौकर नहीं

टुकड़े - टुकड़े बिखर जाऊँगा
मुकेश मै कांच हूँ पत्थर नहीं 

मुकेश इलाहाबादी -----------

Friday 4 July 2014

ये ज़ुल्फ़ें और ये आँखें बोलती हैं




ये ज़ुल्फ़ें और ये आँखें बोलती हैं
तुम्हारी मरमरी बाहें बोलती हैं

जब तुम कुछ नहीं बोलती हो
तब तुम्हारी अदाएं बोलती हैं

जब कभी साँझ देर से लौटूं
इंतज़ार में निगाहें बोलती हैं

तुम ऐसा गुलशन हो जिसकी 
फूल और फिज़ाएँ बोलती हैं

तुम्हारे घर में रहने भर सेही
घर की दरो दीवारें बोलती हैं  

मुकेश इलाहाबादी ------------

हर शख्श रोता मिला जहां जाऊं

हर शख्श रोता मिला जहां जाऊं
ग़म लेकर मै अपना कहाँ जाऊं ?

तुम्ही बताओ ऐसा कौन सा दर है
जहाँ कोई ग़म न हो, मै वहाँ जाऊं

सूना है अंगूर की बेटी खुश रखती है 
सोचता हूँ एक दिन उसके यहां जाऊं

ग़र तुम्हे गैरों से फुरसत मिल जाए
फिर भला क्यूँकर  मै यहां-वहाँ जाऊं

सुनाने के लिए मेरे पास चंद लतीफे हैं
किस किस को हंसाने कहाँ कहाँ जाऊं

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

जब से छोड़ के गए हो तुम शहर मेरा

जब से छोड़ के गए हो तुम शहर मेरा
तब से ये आख्नें किसी की मुंतज़िर नहीं
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

फ़लक़ ऐ ज़ीस्त में कभी सूरज भी तुलू होगा ?



 फ़लक़ ऐ ज़ीस्त में कभी सूरज भी तुलू होगा ? 
तेरी ज़ुल्फ़ों के छाँव में हमने ये सोचा ही नहीं !
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

Thursday 3 July 2014

सुन के अपनी तारीफ़ लजा के बैठी है

सुन के अपनी तारीफ़ लजा के बैठी है
रात  आँचल में सितारे सजा के बैठी है

बहुत प्यारी बहुत खूबसूरत लगती है
माथे पे चाँद का टीका लगा के बैठी है 

चेहरे का नूर चांदनी बन कर पसरा है
साँझ से ही सारे दीपक बुझा के बैठी है

अपने पिया की दुलारी है, राजरानी है
गोरे गोरे हाथो में मेहंदी रचा के बैठी है

क़ायनात का ज़र्रा ज़र्रा प्यार करता है
रात,जो साँवला आँचल लहरा के बैठी है

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Wednesday 2 July 2014

सफर में था मगर फेहरिश्ते हमसफ़र में न था

सफर में था मगर फेहरिश्ते हमसफ़र में न था
हैसियत मेरी कुछ भी नहीं पर सिफर में न था

मुझे बगैर सुनाए कोई बात उसकी पूरी न होती
यूँ तो मै हर किस्से में था मग़र ज़िकर में न था

बन के खुशबू शामिल उसके नफ़स नफ़स में था
मुकेश गर कोई ढूँढता तो मै उसके शहर में न था

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

Tuesday 1 July 2014

वो रेत् का घरौंदा बनाती थी

वो रेत् का घरौंदा बनाती थी
लहरें आ के मिटा जाती थी

नीचे सजना खड़ा होता,और
वो छत पर बाल सुखाती थी

गोरा - गोरा चाँद सा मुखड़ा ,,
उसपे बिंदी चटक सजाती थी

जब - जब प्यार जताऊं मै 

वो कितना तो शरमाती थी

जब अपनी ग़ज़ल सुनाता
वह मंद - मंद मुस्काती थी

मुकेश इलाहाबादी --------------

भौंरा बन कानो में गुनगुना आया

भौंरा बन कानो में गुनगुना आया
इस तरह अपनी ग़ज़ल सुना आया

बद्तमीज़ आवारा पागल कहा पर
अपनी इक पहचान तो बना आया 

मशरूफ थे जाने किसके ख्यालों में
पर मै तो  दिल की बात सूना आया  

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

कागज़ की कश्ती थी

कागज़ की कश्ती थी
औ रेत का समंदर था

इक तूफ़ान बाहर और
दूजा दिल के अंदर था

मिल के गले गया है जो
उसके हाथ में खंज़र था

जिसको गुलशन समझे
वह तो उजड़ा मंज़र था

ऊपर से शायर दीखता
दिल से एक कलंदर था

मुकेश इलाहाबादी -------