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Thursday 31 July 2014

सफरे हयात पे निकल पड़ा हूँ मै

सफरे हयात पे
निकल पड़ा हूँ मै
तेरे घर की ज़ानिब
चल पड़ा हूँ मै

राहे ईश्क पे अब
भटके न कोई
राह में
मील के पत्थर सा
गड गया हूँ मै

जानता हूँ
है ज़माना दुश्मन
अपनी दोस्ती का
पर अपनी ज़िद पे
अड़ गया हूँ मै

फ़ितरते गुल ले कर
कब तक खिला रहता ?
हर सिम्त धूप ही धूप थी
मुरझा गया हूँ मै

मुकेश इलाहाबादी -------

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