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Wednesday 24 December 2014

देखने की चाहत रख के भी निगाहें नीचे रखता हूँ

देखने की चाहत रख के भी निगाहें नीचे रखता हूँ
उनकी मुस्कराहट कहीं मेरी जान ही न ले ले
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

Monday 22 December 2014

जैसेकी सावन आया लगता है

जैसेकी सावन आया लगता है
तुमसे मिल के ऐसा लगता है
दिन होली और रात दिवाली
हरदिन त्यौहार सा लगता है
जाडेकी धूप मे हमतुम बैठे हैं
देखो कितना अच्छा लगता है
तेरेे बालों मे तिनका अटका है
तेरा आशिक आवारा लगता है
जब जब तुम साथ में रहती हो
लम्हा लम्हा खुशनुमा लगता है
मुकेश इलाहाबादी ................

भले ही जुबॉ अपनी खामोश रखती है

भले ही जुबॉ अपनी खामोश रखती है
मगर निगाहें उसकी सब कुछ बोलती हैं
सच तो ये है उसे भी हमसे मुहब्बत है
ये अलग बात आदतन मगरुर रहती है
मुकेश इलाहाबादी ---------------------

आसमान से उतर के फरिस्ते देखते हैं

आसमान से उतर के फरिस्ते देखते हैं
बादल भी तुझको थम थम के देखते हैं
उफ! खु़दा की ऐसी जल्वानिगारी है तू
देखने वाले तुझे जी भर भर के देखते हैं
तेरे बैगनी बोगन बेलिया से आंचल में
हम बिखरे बिखरे चॉद सितारे देखते हैं
सजसंवर के जब भी तू निकले है घर से
तुझे क्या मालूम हम छुप छुप के देखते हैं
मुसाफिर ही नही कारवां तक रुक जाते हैं
सडकों पे रहागीर तुझे मुड मुड के देखते हैं
हक़ीकत में तो ये मुमकिन नही लिहाजा
रोज शबभर ख्वाबों में हम तुझे देखते हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------------------

शबनमी अश्क ले कर रात रोती रही

शबनमी अश्क ले कर रात रोती रही
साथ मेरे घरकी दरो दीवार रोती रही
शानो शौकत,ऐषो आराम सब कुछ था
जिंदगी किसी की याद लेकर रोती रही
हवाओं मे नमी इस बात की गवाह है
चांदनी शब भर सिसक कर रोती रही

ये दहषत गर्द चैन ओ अमन ले गये
खौफजदा बस्ती शामो सहर रोती रही

तुम्हारे सामने चुप चुप रहा करती थी
बाद मे तुम्हारा नाम लेकर रोती रही

मुकेश इलाहाबादी ....................

तुम्हारी मज़बूरियां समझता हूँ

तुम्हारी मज़बूरियां समझता हूँ
इसीलिये तो मै भी चुप रहता हूँ

तेरे चेहरे पे इक तबस्सुम देखूं
सिर्फ इसीलिये गज़लें कहता हूँ

मेरे बाहर भीतर इक जंगल है
 

मै भावों के जंगल में रहता हूँ
तनहाई,रुसवाई तेज़ाबी बारिस
 
देखो आंधी तूफाँ में मै रहता हूँ

ज़मी औ खुला आसमाँ मेरा घर
देखो मै भी क्या क्या सहता हूँ
 
मुकेश इलाहाबादी -------------

कहीं जाऊं तो रास्ता कोई रोके तो

कहीं जाऊं तो रास्ता कोई रोके तो
घर से निकलूं और कोई टोंके तो

चुपचाप बैठै रहने का मन हो मेरा
कोई मुझको छेड - छेड के बोले तो

जब मै हंसू तो मेरे संग-संग हंसे   
मै  रोऊँ तो मेरे साथ कोई रोये तो

पाकर फूलों की सेज भी खुश रहे
वर्ना साथ मेरे जमीन पर सोये तो

गर पल भर  को भी बिछड जाऊं  
मेरे बारे मे ही हर लमहा सोंचे तो

मुकेश सफरे हयात हो तो ऐसा हो
एक रोये तो दूसरा ऑसूं पोंछे तो

मुकेश इलाहाबादी ................

Friday 19 December 2014

मिल के उनसे हाल ऐ दिल कुछ था इस क़दर

मुकेश मिल के उनसे हाल ऐ दिल कुछ था इस क़दर
न उनसे कुछ कहते बना न उनसे कुछ सुनाते बना
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------
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Tuesday 16 December 2014

दोपहर से ढला लगता है

दोपहर से ढला लगता है
सूरज भी थका लगता है
जाने क्यों आज की रात
चाँद ग़मज़दा लगता है
इस ख़ौफ़ज़दा आलम में
हर कोई सहमा लगता है
इक तुम्हारी महफ़िल में
हमको अच्छा लगता है
दोस्तों में सिर्फ मुकेश
सबसे प्यारा लगता है

मुकेश इलाहाबादी ---

Monday 15 December 2014

परछियाँ उदास हैं मैदान में

परछियाँ उदास हैं मैदान में
धूप सो रही है सायबान में
 
दोपहर अपनी मस्ती में है
साँझ ऊंघ रही है दालान में
 
दिल का चैनो शुकूं ढूंढता हूँ
तेरी यादों के बियाबान में
 
शहर की आपाधापी से दूर
आ बैठा हूँ इस सूनसान में
 
मुकेश आज के युग में तुम
सच्चाई ढूंढते हो इंसान में

मुकेश इलाहाबादी --------

Sunday 14 December 2014

चॉद आवारा धूप बेईमान निकली

चॉद आवारा धूप बेईमान निकली
दिन तनहा रात सूनसान निकली
हमतो समझे ईश्क मे मौज होगी
मुहब्बत कठिन इम्तहान निकली
करता रहा हर किसी पे भरोसा,
सारी दुनिया ही बेईमान निकली
पूरे शहर में बाजार ही बाजार थे
मंदिर औ मस्जिद दुकान निकली
तुम्हारी हंसी औ ये मासूम अदाएं
मेरे लिये मौत का सामान निकली
मुकेश इलाहाबादी------------------

Thursday 11 December 2014

आंसुओं के संग निकल गया

आंसुओं के संग निकल गया
जमा हुआ दर्द निकल गया

तुमको सब कुछ बता दिया
दिल का गुबार निकल गया

वो तन्हा घर में क्या करता
घर से बेवजह निकल गया

सूनी सड़क औ लम्बा रस्ता
फिर भी पैदल निकल गया

वापस लौट के नही आयेगा
मुकेश बहुत दूर निकल गया

मुकेश इलाहाबादी .........

Wednesday 10 December 2014

दोस्त तुम्हारी यादें,

दोस्त
तुम्हारी यादें,
अंधरी रात में
जुगनू की रोशनी
जाड़े में
सुबह की नर्म धूप
तितलियों के
नाज़ुक पंख
फूलों की महक
चिड़ियों की चहक
सन्नाटे दिल की
सरसराहट, और
प्रेम में पगे
दिल की धड़कन

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Tuesday 9 December 2014

पलकों को चूम कर गया

पलकों को चूम कर गया
ऑखों मे सपने रख गया

चॉद सितारे उसकी मंजिल
लौट कर आयेगा कह गया

डाल से टूटा हुआ पत्ता था
हवा के संग-संग उड गया

मेरा वजूद छोटा सा तिनका
दरिया के बहाव में बह गया

मुकेश फितरतन शायर था
तमाम ग़ज़लें वह कह गया

मुकेश इलाहाबादी ......................
....

ज़ख्मो की हमसे नुमाइश न की गयी

ज़ख्मो की हमसे नुमाइश न की गयी
दर्द ऐ दवा की फरमाइश न की गयी

चाहता तो बाजी जीत भी सकता था
मुहब्बत मे जोर आजमाइश न की गयी

लोग बेवफाई करके चले जाते हैं मगर
हमसे कभी किसी की बुराई न कीगयी

अदालत ने फैसला इक तरफा दे दिया
हमारी बेगुनाही की सुनवाई न की गयी

गुलशन में रहा आया हूं अबतक मुकेश
वीराने में हमसे तो रहाइश न की गयी

मुकेश इलाहाबादी ...............

Monday 8 December 2014

तेरी आखों में काजल है

तेरी आखों में काजल है
मै समझूँ की बादल है

तेरा लाल दुपट्टा ले उड़ी
हवा कितनी पागल है

इन गोरे - गोरे पांवो में
रुनझुन करती पायल है

तेरी मस्त अदाओं का
पूरा शहर ही क़ायल है

नज़रें तुझसे क्या मिली
दिल मेरा भी घायल है

मुकेश इलाहाबादी ---

Saturday 6 December 2014

ये कैसी खामोशी है

ये कैसी खामोशी है
अजब से बेचैनी है

सुबह के मुखड़े पे
ओस की नमी है
देखो सूरज में भी
खूं ज़दा रोशनी है
इन पीले चेहरों पे
छाई मुर्दनगी है 
बाज़ार जाना है पै
जेब में अठन्नी है

मुकेश इलाहाबादी --

Thursday 4 December 2014

आइना भी अपनी किस्मत पे इतराया होगा

आइना भी अपनी किस्मत पे इतराया होगा
जब - जब भी तू सज संवर के निकली होगी
तुझे देख के हरइक ने माशाअल्ला कहा होगा
आस्मा से उतरी उजली उजली परी लगती हो
तुझको तो फरिश्तों ने भी सज़दा किया होगा
महताब अपनी खूबसूरती पे मगरूर हुआ होगा
तब ख़ुदा ने उसके मुक़ाबिल तुझे बनाया होगा
मुकेश, कुछ अलग ही तबियत का इंसान था
ज़रूर तुझसे मिल के ही वह शायर बना होगा

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

Wednesday 3 December 2014

दिल को शुकूं मिलता है हक़ीक़त

दिल को शुकूं मिलता है हक़ीक़त से
ख़्वाबों से कंहा तबियत बहलती है
मुकेश इलाहाबादी --------------------

जब भी अपना माजी देखता हूं

जब भी अपना माजी देखता हूं
अपने ही सूखे ज़ख्म कुरेदता हूं

तुम सर्द मौसम की नर्म धूप हो
तुम्हारी यादों की धूप सेंकता हूं

इन सूखे हुये दरख्तों मे अक्सर
अपना मुरझाया अक्श देखता हूं

चांद सितारे मेरा दर्द समझते हैं
मै इन्हे हर रोज ख़त भेजता हूं

इन तन्हा रातों मे जब सोता हूं 
खाबों के हीरे मोती समेटता हूं

मुकेश इलाहाबादी ...................

तुमने कभी समंदर देखा है ?

सुमी,

तुमने कभी समंदर देखा है ? नही देखा है तो देखना, और ग़ौर से देखना।
ये जो कभी हरा तो कभी नीला गहरा नीला सा समंदर है न, दरअसल से जमीं का आंचल है, लहराता सा हरहराता सा, लुभाता सा। जिसे ज़मी अपने दोनो हांथो से फैलाकर अपनी धूरी पे नाच रही है, लहराती, बलखाती, तब से जब, मै न था तुम न थी ये गांव न था, ये शहर न था, कोई सभ्यता न थी । था तो सिर्फ ये अपनी धुरी पे नाचती ये ज़मी थी, चॉद तारे थे ये मीलो फैला आसमॉ था। और .... उसी आसमॉ में था, लाल सुर्ख जवां और अपनी मस्ती में झूमता सूरज।
और इधर सतरगी यूवा शोख चंचल धरती। यानी जमीं।

उधर सूरज आसमॉ पे नाचता गाता गुनगुनाता, इधर धरती अपनी धुन मे।
और ... एक दिन जब जमी की निगाह इस जवां सूरज पे पडी तो वह इसकी मुहब्बत मे हो गयी।
और, तब से वह रोज रोज अपना आंचल फैला के सूरज का इंतजार करने लगी।

मगर सूरज है कि न जाने किसकी मुहब्ब्त मे पागल हो के रोज अक्खा दिन सुबह होते ही निकल पडता है, चल पडता है। जलता हुआ, सुलगता हुआ, धधकता हुआ।
और फिर .......
सारा दिन जलने के बाद भी धधकने के बाद भी चलने के बाद भी जब उसे अपनी मुहब्ब्त नही मिलती तो सांझ होते ही जमी मे समंदर रुपी इसी आंचल मे छुप जाता है।
धरती भी उसे बडी शिददत से अपने आंचल मे समेट लेती है। अपने पागल प्रेमी को।
मगर जिददी सूरज रात ठंडा हो के आराम कर के फिर अपनी उसी अनाम प्रेमिका को ढूंढने निकल पडता है। मगर ज़मी बिन नाराज हुये या कुछ कहे फिर भी मुस्कुराती रहती है नाचती रहती है सोचती रहती है कि सूरज देखती हूं तुम कितना भटकते हो। एक न एक दिन तो तुम मेरे पास आओगे ही न, या फिर मै ही यूं हीे नाचती गाती तुम तम पहुंच ही जाउंगी और तब तुम मुझे अपनी बाहों मे भर लोगे। और फिर मै तुममय हो जाउंगी।

तो सुमी तुम मुझे भी ऐसा ही एक जलता हुआ पागल सूरज समझो जो आज भी न जाने किस बात की जुस्तजूं मे फिर रहा है। न जाने किस सच की तलाश में फिर रहा है न जाने किस संमंदर के लिये भटक रहा है। जबकि जानता हूं सारे समंदर सारा आकाश सारी क़ायनात तो मेेरे ही अंदर है, तुम्हारे ही अंदर है।
खैर छोडो, तुम सोच रही होगी कि आज फिर मै न जाने कौन सी बहकी बहकी बातें करने लगा। मगर सुमी मै ये बाते इस लिये कह रहा हूं कि हम भी तो अपने अंदर कोई न कोई सूरज लिये दहक रहे हैं फिर रहे हैं न जाने किस की तलाश में जुस्तजूं में।
जब कभी डूब के सोचता हूं तो लगता है तुम ही मेरी जमी हो तुम ही मेरी जुस्तजूं हो तुम ही मेरा आकाश हो तुम ही मेरा पाताल हो तुम भी भूत हो और वर्तमान भी तुम्ही हो और तुम ही मेरी सुमी हो। प्यारी सुमी, अच्छी सुमी, नटखट सुमी सुमझदार सुमी।
सच सुम,ी ये सब कह के मै तुम्हे मसका नही लगा रहा हं। मगर से सब सच है सच है उतना ही सच हे जितना आकाश में तारे हैं जितना सच तुम हो जितना सच मै हूं।
लिहाजा अब तुम वापस आ जाओ और हम नाचें गायें गुनगुनायें। जमी की तरह आफताब की तरह।

तुम्हारा प्रेमी


Tuesday 2 December 2014

स्कूल या कॉलेज में पढाया नही जाता



स्कूल या कॉलेज में पढाया नही जाता
ईश्क हो जाता है सिखाया नही जाता

पहला प्यार पत्थर की लकीर समझो

लिख जाती है तो मिटाया नही जाता


जो तुम्हारे दुख को समझे उसे बताओ
हरकिसी को तो ग़म बताया नही जाता


धूपमे कहते हो तुम्हारा बदन जलता है
और सर्दियों का मौसम सहा नही जाता


मुकेश जिससे होती है उसी से होती है
हर किसी से मुहब्बत किया नही जाता

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Monday 1 December 2014

खून भी अब पानी हो गया

खून भी अब पानी हो गया
हर रिश्ता बेमानी हो गया
ये प्यार मुहब्बत झूठी बाते
ईश्क भी जिस्मानी हो गया
दो दिन बादल क्या बरसे,
ज़मी का रंग धानी हो गया
तूने अपनी चुनरी लहरायी
फ़लक आसमानी हो गया
महफिल मे तेरे आने से ही
माहौल शादमानी हो गया
कल तक था जो अजनबी
आज जिन्दगानी हो गया
मुकेश इलाहाबादी ---------------

हुए हैं खाक हम भी इश्क़ में परवाना बन कर

हुए हैं खाक हम भी इश्क़ में परवाना बन कर
ग़र जली हो तुम रात भर शमा बन कर !!!!!
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------

मै जब भी तेरे घर आउंगा

मै जब भी तेरे घर  आउंगा
तमाम तोहफे लेकर आउंगा

अभी हाले मुफलिसी  है  पर
देखना खूब कमाकर आउंगा

कंगन पायल झुमकी के संग
सतरंगी चूनर लेकर आउंगा

ग़र तुम जमाने से डरती हो
रात चाँदनी बनकर आउंगा

तुम अपनी पलकें बंद रखना
हंसी ख़्वाब बन उतर आउंगा

मुकेश इलाहाबादी .............