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Tuesday 31 July 2018

दोस्त, दर्द किसके जिगर में निहां नहीं है

दोस्त, दर्द किसके जिगर में निहां नहीं है
कोई बयाँ कर देता है, कोई कहता नहीं है

बड़े - बड़े पेड़ों  सी उसमे अकड़ नहीं होती
इसीलिए तिनका तूफां में भी टूटता नहीं है

भगवत गीता पढ़ने के बाद ये इल्म हुआ
शरीर नष्ट होता है, इंसान मरता नहीं है

जिस्म किसी मक़बरे से ज़्यादा कुछ नहीं
दिल में अगर किसी के कोई रहता नहीं है

जिसके भी जिस्म में लहू है, रवानी है,तो
वो कंही भी कोई भी ज़ुल्म सहता नहीं है

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

हर बरस बाढ़ आती है, हम डूब जाते हैं

हर बरस बाढ़ आती है, हम डूब जाते हैं
हम बेशरम के पौधें, हर बार उग आते हैं

शरम हया सब घोंट कर पी गए हैं, हम
चाहे जित्ता कूटो मारो हम मुस्कुराते हैं

कभी कुत्ता कभी बिल्ली तो कभी चूहा
तो हम कभी घोडा बन के हिनहिनाते हैं

ये हिटलर मुसोलनी जानते हैं हम सिर्फ
फेस बुक और व्हाट्स एप पे टरटराते हैं

हमारी बहु बेटियों की अस्मत लुटती है
हम विरोध में सिर्फ मोमबत्ती जलाते हैं

दुनिया ज्ञान विज्ञानं सिखाती है, हम
बच्चों को हिन्दू मुसलमान सिखाते हैं

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

Monday 30 July 2018

ईश्क़ एक जुंवा है

ईश्क़ एक जुंवा है -
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जब ,
कभी फुरसत में होता हूँ
तुम्हारी यादों के पत्ते फेंटने लगता हूँ
तब मुझे ऐसा लगने लगता है
जैसे मै आज भी तुम्हारे साथ
तास के खेल खेल रहा हूँ
कभी (फलास) तीन पत्ती , कभी रमी
तो कभी दहला पकड़
पर हर बार मै ही हारता हूँ
तुम ही जीतती हो
कारण - तीन पत्ती में
ब्लफ मै खेल नहीं पाता
और पत्ते मेरे पास आते नहीं
लिहाज़ा हर बाजी तुम जीत जातीं
और तुम खिलखिला के हँसती
कई बार मै खिसिया कर रह जाता
एक बार मेरे पास - तीन गुलाम आये
मै बहुत खुश था - कि ये बाजी तो मै ज़रूर जीतूंगा
मै चाल पे चाल चलता जा रहा था
और तुम भी चाल पे चाल चलती जा रहीं थी
हार कर मैंने ही पत्ते शो कराये थे
तुम्हारे पास उस बार - तीन बेग़म आयी थी
और तुम उस बार भी जीत गईं थी
फिर मैंने कहा ऐसा करो अब तीन पत्ती नहीं रमी खेलो
तुम राजी हो गयी थी
पर जब तुम रमी के खेल में रमी थी - उस वक़्त
मै तुम्हारी मोहक मुस्कान - सुनहरे बालों और
गोरे - गदबदे गालों में रमा था
लिहाज़ा फिर मै हार गया और तुम जीत गईं थी
तुम ज़ोर ज़ोर खिलखिला रही थी
तो तुमने कहा -
चलो " दहला पकड़" खेलते हैं ?
तो मैंने शरारतन कहा था
"नहीं दहला पकड़ " मुझे नहीं आता
"एक दूजे को पकड़ने वाला खेल खेलना है तो खेलो "
तब तुम मुँह चिढ़ा के भाग गयी थी
एक बार फिर से खिलखिलाती हुई
और फिर उसके बाद मै वही गुमशुम सा बैठा
न जाने कितनी देर 
तुम्हारी मुस्कान और ख़ूबसूरती, मीठी - मीठी बातों
व शैतानियों के बिखरे पत्तों को समेटता रहा था
और फिर तुम्हारी यादों के ताश के पत्ते समेट लाया था
उन्हें ही अक्सर खोल कर -
बार - बार तुम्हारे साथ खेलने लगता हूँ
कभी - तीन -पत्ती तो कभी रमी तो कभी दहला पकड़

तुम मेरे जीवन के इश्क़ की वो बाजी हो जिसे हार कर भी आज खुश हूँ
उम्मीद है तुम भी खुश होगी - जंहा भी होगी -
मेरी प्यारी - सुमी

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------------------

Friday 27 July 2018

राजा का बाजा

सोचता
हूँ , मै भी राजा का बाजा बन जाऊँ
ताकि बड़े बड़े अधिकारी अपने हाथों में ले के
मुझे बजाएं -
लोग मन से या बेमन से ही सही मुझे सुनेंगे ज़रूर
क्यूँकि तब मै राजा का बाजा रहूंगा
और भोंपू सा बजूँगा
मै भी खुश रहूंगा
अधिकारी भी खुश रहेंगे
और राजा भी खुश रहेगा
पर, अफ़सोस अपनी फितरत तो
तूती की तरह पिपियाने की या फिर
सारंगी की तरह मिमियाने की है
जिसे नक्कार खाने में कोई नहीं सुनता

मुकेश इलाहाबादी --------------------

बुद्धिजीवी होने के विशिष्ट अहसास से भरा पूरा पाता हूँ

बारिश
की हल्की हल्की फुहार वाले दिन
या फिर जेठ की चिपचिपी गर्मी वाले दिन
या फिर जाड़े में कोहरे की चादर ओढ़े हुई दोपहर में
कनॉट प्लेस के बरामदे में टहलते हुए
पॉप कॉर्न खाते हुए या
फिर कॉफी हॉउस में कॉफ़ी पी कर
सिगरेट के छल्ले उड़ाते हुए जब
मै मौजूदा राजनीति पे गरमा गरम बहस कर के
कुछ भद्दे चुटकुलों को अपने मित्रों से शेयर कर के
कुछ न मौजूद मित्रों की आलोचना कर के
वापस अपने दड़बे नुमा कमरे में आता हूँ
तो अपनी तमाम हीनग्रंथियों पे विजय पाते हुए
खुद को बुद्धिजीवी होने के विशिष्ट अहसास से भरा पूरा पाता हूँ

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Thursday 26 July 2018

कुछ रिश्तों के रंग बहुत चटक होते हैं

कुछ
रिश्तों के रंग बहुत चटक होते हैं
जैसे सुर्ख गुलाब
भरते रहते हैं जीवन में एक उजास

कुछ रिश्ते होते हैं
शांत  सौम्य और श्वेत
जो चांदनी सा उजाला भरते रहते हैं - अहर्निश
और महकते रहते हैं - रजनीगंधा सम

कुछ
रिश्ते होते हैं रंग हीन , गंध हीन , स्वाद हीन
हवा की माफिक -
पर अक्सर जिस्म और रूह को देती रहती हैं
एक ताज़गी और जीवन

जैसे तुम और मै

मुकेश इलाहाबादी ---------------


जादुई चादर

तनहाई इक जादुई चादर है 
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मेरे
पास तनहाई की चादर है
जिसपे तुम्हारी यादों के बेल बूटे छपे हैं
इसे बिछा कर  मै बेहद आराम में होता हूँ

अक्सर ये चादर
इक जादुई चादर में तब्दील हो जाती है
चादर उड़ने लगती है
चादर के साथ साथ मै भी उड़ने लगता हूँ
उड़ते - उड़ते चादर दूर बहुत दूर निकल जाती है
रूई के फाहे जैसे बादलों के बीच
जंहा पहुंच के तुम्हारी यादों की ये जादुई चादर के
बेल बूटे सचमुच के बेल बूटों में तब्दील हो जाते हैं
जिनकी खुशबू से सारा आलम खुशबू खुशबू हो गया होता है
चादर हवा में उड़ने लगती है जिसमे से
न जाने कब तुम उड़ती हुई आ जाती हो
और हम न जाने कितनी देर केलि करने लगते हैं
और डूब जाते हैं एक
जादुई दुनिया में
देर और बहुत देर तक
फिर अचानक सब कुछ बदल जाता है
और एक बार फिर
सच मुच् के बेल बूटे चादर के बेल बूटों में तब्दील हो जाते हैं
और तुम भी फिर से हवा में विलीन हो जाती हो
और मै अपने आप को
तन्हाई की चादर में लिपटा पाता हूँ
पर अब मेरे चेहरे पे इक शुकून की मुस्कान होती है

ओ मेरी सुमी !
ओ मेरी जादू की चादर सुन रही हो न ???

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

खूब हंस ले खिलखिला ले आज तू

खूब हंस ले खिलखिला ले आज तू
महंगाई तू नाच तू नाच तू नाच तू

सिर्फ खुश रहें झूठ फरेब औ दबंग
बाकी जनता पर कर अत्याचार तू

हम तो रियाया हैं हमको लुटना है
सुन राजा, कर ले मन की आज तू

मुगलों ने किया, अंग्रेज़ों ने किया
जो बचा वो भी कर दे  बरबाद तू 

जब तक भाई चारा, रहे सलामत
कर तब तक हिन्दू मुसलमान तू  

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Wednesday 25 July 2018

थोड़ी सी धूप थोड़ा सा पानी है

थोड़ी सी धूप थोड़ा सा पानी है
थोड़ा ठहराव है थोड़ी रवानी है

कभी हँसाती, तो कभी रुलाती
जीवन सुख दुःख की कहानी है

कँही तो कांटे,झाड़ी और धतूरा
कंही पे गेंदा गुलाब रातरानी है

कंही पर खुशी के उड़ते गुलाल
कुछ जगह मौसम शमशानी है

इक राम नाम को ही सच जान
ये धन दौलत ओहदा बेमानी है

मुकेश इलाहाबादी ------------

Tuesday 24 July 2018

रात एक बदहवास नदी है

रात एक बदहवास नदी है
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सांझ ,
गहराते ही
रात की काली नदी में तब्दील हो जाती है
और मै उसमे रोज़ सा, उतर के
हिलग के तैरने लगता हूँ
तभी न जाने कँहा से
तुम्हारी चाँदी सी चमकती बाँहों की
मछली मेरे साथ - साथ तैरने लगती है
जैसे मेरा सिर पानी के ऊपर रहता है - तैरते वक़्त
ठीक वैसे ही तुम भी अपना मुँह नदी की सतह के ऊपर - ऊपर कर के
तैरने लगती है - वो तुम्हारी चाँदी सी चमकती बाँहों की मछली
हम दोनों खुश हैं -
तुम भी तैर रही हो - हौले - हौले
मै भी तैर रहा हूँ - हौले - हौले 
अचानक, न जाने कँहा से एक बड़ी सी मछली
नहीं - नहीं एक बड़ा सा मगरमच्छ नदी की सतह में उभरता है
और वो हम दोनों की तरफ अपने जबड़े फैलाये - फैलाये  बढ़ने लगता है
तुम डर के नदी में डुबकी लगा के
अपने डैनो को फड़फड़ाते हुए न जाने कँहा विलीन हो जाती हो
रात की उस साँवली नदी में
और मै तेज़ तेज़ हाथ पैर मारता हुआ
दूर तक निकल जाना चाहता हूँ
उस बड़ी मछली से - नहीं नहीं उस मगरमच्छ से बहुत दूर
तेज़ - तेज़ और तेज़ तैरते तैरते मै हाँफने लगता हूँ
बदहवास हो जाता हूँ
पसीने पसीने हो जाता हूँ
और -- तभी मेरी नींद खुल जाती है
और - मै घबराया हुआ अपने आप को अपने बिस्तर पे पाता हूँ
और - फिर एक लोटा पानी पी कर फिर से
देर तक घूरता रहता हूँ
सपाट दीवारों को
पर हिम्मत नहीं होती दोबारा रात की उस सांवली नदी में उतरूं

अक्सर ऐसा क्यूँ होता है मेरे साथ ??
क्या तुम्हे पता है ???
सुमी ! अगर तुम्हे पता हो तो बताना ज़रूर

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

Monday 23 July 2018

हमने इक दूजे को कोई इशारा नहीं किया कोई वादा नहीं किया

हमने
इक दूजे को
कोई इशारा नहीं किया
कोई वादा नहीं किया
कभी अकेले में नहीं मिले
सिर्फ सीधी - सच्ची मुलाकातें की
भीड़ में - फिर क्यूँ लगता है
हमने बहुत कुछ कहा है - एक दूजे से
बहुत कुछ सुना है - एक दूजे को
बहुत सारे वायदे कर के अलग हुए हैं - एक दूजे से

ऐसा क्यूँ ??
क्या तुम्हे पता है सुमी ???

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------

Thursday 19 July 2018

आओ पानी में छप-छप किया जाए

आओ पानी में छप-छप किया जाए
बारिश के पानी में थोड़ा भीगा जाय

बहुत दिनों बाद इंद्रधनुष निकला है
थोड़ा, मौसम का आनंद लिया जाए

अहा देखो देखो सोने के दाने से भुट्टे 
आओ गरमा गरम भुट्टा खाया जाए

गाँव के सिवान पे पुरानी पुलिया है
कुछ  देर वहाँ पे जा कर  बैठा जाए

मुकेश, उदास हो के यूँ न बैठो तुम
बारिश में इश्क़ का मज़ा लिया जाए

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Wednesday 18 July 2018

मै , पचास का हूँ तुम पैंतालीस की तो होगी ज़रूर

मै ,
पचास का हूँ
तुम पैंतालीस की तो होगी ज़रूर
आज हम दोनों इस पेड़ के नीचे बैठे हैं
एक दुसरे की हथेली में अपनी अपनी
उँगलियाँ फंसाए हुए
पिघलना चाह के भी बिन पिघले हुए
कुछ देर बाद
कुछ गर्म उच्छ्वासें हमारे मुँह से निकलेंगी
और विलीन हो जाएंगी शून्य में
और हम लोग भी अँधेरा होते होते
विलीन हो जाएंगे अपने अपने आदर्शों के
गुप्प अंधेरों में
बिना पिघले हुए
फिर तुम लौट के नहीं आओगी
दुसरे दिन
तीसरे दिन या  भविष्य के किसी और दिनों में
पर मै लौट लौट कर आता रहूंगा
निरास वापस जाता रहूँगा
हो सकता है - कुछ सालों बाद
सत्तर - पचहत्तर सालों बाद जब मै न आ पाऊँगा
पर तब भी मेरी यादें हवा बन कर आयेंगी
और फिर इस पेड़ के नीचे के शून्य में तुम्हे न पाकर
गोल गोल घूमेंगी और फिर चक्रवात में तब्दील हो कर
शून्य में बहुत दूर विलीन हो जाएंगी
या ये भी हो सकता है
मेरी यादें घास का तिनका बन के आज से कुछ सौ सालों बाद
इसी पेड़ के नीचे अपनी नुकीली शान के साथ उगे
इस उम्मीद पे शायद आज भी तुम्हारे पाँव इसी बेंच के नीचे
धरती से लगे होंगे -
लेकिन फिर तुम्हे न पा कर एक बार फिर
वक़्त के हाथों रौंद दिया जाए
मेरी यादों का मेरे ख्वाबों का वो हरा तिनका

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------


आँखों में अब कोई हसीन ख्वाब नहीं आता


कोई हसीन मंज़र देखा हो, याद नहीं आता
आँखों में अब कोई हसीन ख्वाब नहीं आता

सुर्ख से नीला व तासीर से ठण्डा हो गया है
कित्ता भी खौलाओ लहू में उबाल नहीं आता

न जिस्म में कोई हरकत है न रूह  में जान
मै ज़िंदा हूँ ? अब तो ये भी याद नहीं आता

ज़ुल्म सहने की ऐसी आदत हो चुकी है कि
मेरा भी कोई वज़ूद है ये ख़याल नहीं आता


मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Tuesday 17 July 2018

अक्सर जो बसे होते हैं सांसों में

अक्सर जो बसे होते हैं सांसों में
दिखते नहीं, हाथ की लकीरों में

मरी तितली के पँख सा अक्सर
ख्वाहिशें मिलती हैं किताबों में

जो चाहो वो मिल जाता है बस
ईश्क़ नहीं मिलता दुकानों में

मिलना है तो आ जाओ जल्दी
वर्ना ढूंढ लेना मुझे सितारों में

तुम आज नहीं तो कल मानोगे
कि मुकेश जैसे होते हैं लाखों में



मुकेश इलाहाबादी ----

Monday 16 July 2018

मै डरता हूँ तुमको बताने के लिए

मै  डरता हूँ तुमको बताने के लिए
जी रहा हूँ तुझे गुनगुनाने  के लिए

जस का तस हूँ तुम्हारे सामने मै
मेरे मुखौटे तो हैं ज़माने  के लिए

मै कोई जोकर नहीं मसखरा नहीं,  
लतीफे सुनाता हूँ, हंसाने  के लिए

चल - चल के बहुत थक गया हूँ मै
तेरी छाँव में आया हूँ सुस्ताने लिए

मुकेश इलाहाबादी ---------------

Thursday 12 July 2018

ठीक दिखता है फिर भी दर्द रिसता है


ठीक दिखता है फिर भी दर्द रिसता है
बद्तमीज़ है ज़ख्म कुरेदो तो हँसता है

बार बार पूछता हूँ,दर्द की दवा क्या है
ज़ख्म सिर्फ मुस्कुराता है चुप रहता है

बहुत कोशिश की ठीक हो जाऊँ मै भी
मगर कोई न कोई ज़ख्म हरा रहता है

हाँफने और गिरने की हद तो दौड़ता हूँ
ज़ख्म भी उतनी तेज़ी से पीछा करता है

बाद  मरने के ही वो मेरा पीछा छोड़ेगा
मुझसे पुरानी दोस्ती है ज़ख्म कहता है


मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Wednesday 11 July 2018

मैंने आवाज़ तो दी थी किसी को सुनाई न दिया

मैंने आवाज़ तो दी थी किसी को सुनाई न दिया
तनहाई के कुँए में था किसी को दिखाई न दिया

रोशनी कम थी सच्चाई के जुगनू थे मेरे हाथों में
गुप्प अँधेरा था शहर में कुछ भी सुझाई न दिया

मै अकेला था घर में, अकेला ही निकला सफर में
मुकेश किसी ने नम आँखों से मुझे  बिदाई न दिया

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------


Monday 9 July 2018

वही ज़ख्म वही दर्द वही तन्हाई

वही ज़ख्म वही दर्द वही तन्हाई
शब-भर फिर तू,बहुत याद आई
उठा -गिरा,फिर उठा फिर गिरा
ज़िंदगी मेरी बेबसी पे मुस्कुराई
मुझको मेरे यार से मिला दे, तू
या फिर ऐ ज़िंदगी दे - दे बिदाई
मुकेश इलाहाबादी -------------

भीगा जाती है मेरी रूह -रूह मेरा गात

भीगा जाती है मेरी रूह -रूह मेरा गात
है सावन की फुहार तेरी हँसी तेरी बात

कितना भी उदास हो परेशान हो मन
खुश कर देती है मुझे तेरी  मुलाकात

सांझ तू सज धज के आई थी मिलने 
फिर शुबो तक महकती रही मेरी रात

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Thursday 5 July 2018

ज़ुल्फ़ें खोलो तो हरियाली हो जाती है

ज़ुल्फ़ें खोलो तो हरियाली हो जाती है
हंस दो तो चाँदनी चाँदनी हो जाती है
दिल खिलखिलाता रहता है तुम्हारे से
तुम चली जाती हो उदासी हो जाती है
मुकेश इलाहाबादी ------------------

कभी धुआँते हुए तो

कभी
धुआँते हुए तो
कभी धू - धू करते हुए
वक़्त की लकड़ी सा जल रहे हैं
अनवरत ,,,
देखना एक दिन जब
ख़ाक हो जायेगा ये वज़ूद
तो यही वक़्त की लकड़ी तब्दील हो जाएगी
नदी के सैलाब में
और बहा ले जायेगी सारी ऱाख
शेष कुछ भी न होगा
अस्तित्व शेष 
न हवा में - न पानी में - न आकाश में

मुकेश इलाहाबादी ---------------

उम्र भर के लिए तलबग़ार बना लेता है

उम्र भर के लिए तलबग़ार बना लेता है
जिससे भी मिलता है यार बना लेता है

सच कहता हूँ खिल्ल खिल्ल हंस कर
उदास महफ़िल खुशगवार बना लेता है

खिला कर अपनी हँसी के गेंदा गुलाब
सारे आलम को खुश्बूदार बना लेता है 

ये शोख़ी, ये शरारत अजब मुस्कुराहट
हर इक को अपना दिलदार बना लेता है

मुकेश इलाहाबादी ------

Wednesday 4 July 2018

चलो आओ टहलें दूर तक

चलो
आओ टहलें दूर तक
बिना किसी मकसद
बिना कुछ बोले
एक दूजे से
बस
महसूसते हुए
हवाओं को बहते हुए
छू के गुज़र जाते हुए बदन को
सिर्फ देखें
दूर उड़ते हुए पंछियों को
बिना उनके बारे में कुछ विचार करते हुए
बस चहलकदमी करते रहें
चलते रहें - चलते रहें
थक जाने की
बुरी तरह थक जाने की हद तक
और फिर...
वहीं कंही किसी नदी के किनारे
रेत् पे गिर जाएँ
लेटे रहें तारों को बिना गिनते हुए
जब तक कि गिर न  जाएँ
एक गहरी समाधिस्थ सी निद्रा में

मुकेश इलाहाबादी -------------