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Wednesday 18 July 2018

मै , पचास का हूँ तुम पैंतालीस की तो होगी ज़रूर

मै ,
पचास का हूँ
तुम पैंतालीस की तो होगी ज़रूर
आज हम दोनों इस पेड़ के नीचे बैठे हैं
एक दुसरे की हथेली में अपनी अपनी
उँगलियाँ फंसाए हुए
पिघलना चाह के भी बिन पिघले हुए
कुछ देर बाद
कुछ गर्म उच्छ्वासें हमारे मुँह से निकलेंगी
और विलीन हो जाएंगी शून्य में
और हम लोग भी अँधेरा होते होते
विलीन हो जाएंगे अपने अपने आदर्शों के
गुप्प अंधेरों में
बिना पिघले हुए
फिर तुम लौट के नहीं आओगी
दुसरे दिन
तीसरे दिन या  भविष्य के किसी और दिनों में
पर मै लौट लौट कर आता रहूंगा
निरास वापस जाता रहूँगा
हो सकता है - कुछ सालों बाद
सत्तर - पचहत्तर सालों बाद जब मै न आ पाऊँगा
पर तब भी मेरी यादें हवा बन कर आयेंगी
और फिर इस पेड़ के नीचे के शून्य में तुम्हे न पाकर
गोल गोल घूमेंगी और फिर चक्रवात में तब्दील हो कर
शून्य में बहुत दूर विलीन हो जाएंगी
या ये भी हो सकता है
मेरी यादें घास का तिनका बन के आज से कुछ सौ सालों बाद
इसी पेड़ के नीचे अपनी नुकीली शान के साथ उगे
इस उम्मीद पे शायद आज भी तुम्हारे पाँव इसी बेंच के नीचे
धरती से लगे होंगे -
लेकिन फिर तुम्हे न पा कर एक बार फिर
वक़्त के हाथों रौंद दिया जाए
मेरी यादों का मेरे ख्वाबों का वो हरा तिनका

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------


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