Pages

Monday 30 June 2014

अवसाद के काले नागों का डेरा है


अवसाद के काले नागों का डेरा है
शहर में हमारे अँधेरा ही अँधेरा है

ये किसी शैतान की साज़िश है,
हमारे ऊपर बुरे वक़्त का फेरा है

हम बंजारों का घर नहीं होता है
जहाँ रुक गए वही हमारा डेरा है

तुम ही सम्हालो,अपनी अमानत
अब से ये दिल हमारा नहीं तेरा है

बाद मरने के साथ कुछ न जाएगा
यहां न कुछ मेरा है न कुछ तेरा है

मुकेश इलाहाबादी --------------------

ऐसा नहीं कि सिर्फ उजाले मिले

ऐसा नहीं कि सिर्फ उजाले मिले
किले में कई अँधेरे तहखाने मिले

महफ़िलें सज़ती रहीं रास रंग की
वहाँ भी कई साज़ सिसकते मिले

बुलंद दरवाज़ा ऊंची मेहराबें थीं
मगर वहाँ बंद सारे दरीचे मिले

किताब ऐ  दिल भी पढ़ के देखा
वहाँ भी हमको झूठे फसाने मिले

जिन्हे हम फरिस्ता समझते रहे
वे भी हमारी तरह कमीने मिले

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Sunday 29 June 2014

तनहा सूरज तनहा चाँद

तनहा सूरज तनहा चाँद
तनहा धरती तनहा रात
कौन नहीं तनहा जग में
तू मुझको बतला दे आज

मुकेश इलाहाबादी ---------

रात, एक नदी है

रात,
एक नदी है
जिसमे अँधेरा बहता है
साझ होते ही
इस नदी में
मै डूब जाता हूँ
अपने ग़म और
खुशी के साथ
अपनी तन्हाई और
तुम्हारी यादों के साथ
और फिर
बहुत देर तक डूबा रहता हूँ
सुबह जब सूरज 
इस अंधेरी नदी को सोख लेता है
तब मै ताज़ादम हो जाता हूँ
एक बार फिर से
भागने के लिए
दौड़ने के लिए
ढेर सारा गम और
खुशी इकट्टा करने के लिए

मुकेश इलाहाबादी -------------

माज़ी का इक - इक धागा चुनता हूँ


माज़ी का इक - इक धागा चुनता हूँ
फिर यादों की झीनी चादर बुनता हूँ

तुम मुझको भूल गए हो लेकिन,पर 
मै हर शाम तुम्हारी ग़ज़लें सुनता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Saturday 28 June 2014

कभी अदाओं से करते हैं

कभी अदाओं से करते हैं
कभी बेवफाई से करते हैं
ये ठहरे सितमगर ज़नाब,
हर हाल में सितम करते हैं
मुकेश इलाहाबादी ------------ 

खुश्बुओं के पाँव नहीं महक होती है

खुश्बुओं के पाँव नहीं महक होती है
ढूंढ लेना तुम इन्हे अपनी साँसों में
मुकेश इलाहाबादी -------------------

धूप का टुकड़ा भी आखिर मचल गया

धूप का टुकड़ा भी आखिर मचल गया
फूल बन कर गालों पे खिल गया
मुकेश इलाहाबादी ------------------

घुल गया है मुकेश इन फ़िज़ाओं में





घुल गया है मुकेश इन फ़िज़ाओं में
क्यूँ ढूंढते हो उसे रेत के इन ढूहों में
खुश्बुओं के पाँव नहीं महक होती है
कि ढूंढ लो तुम उसे अपनी साँसों में

मुकेश इलाहाबादी -------------------

हवा मुसलसल बहती रही


हवा मुसलसल बहती रही

बेहया ज़ुल्फ़ मचलती रही



आँचल पतंग सा उड़ता रहा

इधर बिजलियाँ गिरती रही



बेहद नाज़ुक से दिल पे मेरे

अदाओं की छूरी चलती रही 



ग़ज़ल उसके नाम की कहूँ

रख काँधे पे सर सुनती रही


मुकेश इलाहाबादी ------------

Friday 27 June 2014

तुम्हारी बोलती सी आखें अच्छी लगी

तुम्हारी बोलती सी आखें अच्छी लगी
ये महकती चहकती बातें अच्छी लगी

यूँ गुमसुम बैठे कर झील के पानी में
पत्थर  फेंकने की अदाएँ अच्छी लगी 

जिस्म से लेकर रूह तक महक जाए
धुप सी सुवासित साँसे अच्छी लगी

जी चाहे है, क़त्ल हो जाऊं तेरे हाथों
तेरी खंज़र सी निगाहें अच्छी लगी

इस बे मुरव्वत ज़माने में मुकेश,
मुहब्बत और वफ़ाएँ अच्छी लगी

मुकेश इलाहबादी ---------------

सुबहो शाम बदल दूँ क्या

सुबहो शाम बदल दूँ क्या
सूरज-चाँद बदल दूँ क्या

तू है लागे मस्त शराब सी  
अपना जाम बदल दूँ क्या

तू मुझको अपना सा लागे
अपना राम बदल दूँ क्या

चंद सिक्कों की खातिर मै
दीनो-ईमान बदल दूँ क्या

मै कँही और चला जाऊं ?
ये दरो-बाम बदल दूँ क्या

मुकेश इलाहाबादी ------

Thursday 26 June 2014

मेरे घर की तरफ से रास्ता है

मेरे घर की तरफ से रास्ता है
मेरा सिर्फ इतना ही राब्ता है

जिस दिन पड़ोस में रहने आयी
ज़िदंगी का वो इक हसीं हादसा है

आज भी उसके लिए मै अजनबी हूँ,
ये दिल जिसके नाम से धड़कता है

तूने जब  हिना ग़ैर के नाम की रचा ली
फिर मेरे ग़म ऑ खुशी से क्या वास्ता है

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Wednesday 25 June 2014

जब चराग़े रूह जगमगाता है

जब चराग़े रूह जगमगाता है
अन्धेरा मीलों दूर हो जाता है

दिनभर की उदासी खो जाती है
बच्चा जब गोद में मुस्कुराता है

जब पाकीज़गी दिल में होती है
तब खुदा अपना नूर बरसाता है

इंसान बड़ा मग़रूर होता है,उसकी 
जब जेब में सिक्का खनखनाता है 

ये नीली झील है दर्पन ज़मीन का
रात जिसमे चाँद झिलमिलाता है 

मुकेश इलाहाबादी -----------------

मुकेश हिचकियों में भी तुम हमारा नाम पढ़ लेना

मुकेश हिचकियों में भी तुम हमारा नाम पढ़ लेना
भेजा है यादों का ख़त हिचकियों के साथ पढ़ लेना
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

ख़तो किताबत से दिल अब भरता नहीं,,

ख़तो किताबत से दिल अब भरता नहीं,,
कि मुकेश मुलाक़ात होना बहुत ज़रूरी हैं
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

बेवज़ह दिल दुखाती

बेवज़ह दिल दुखाती हैं बातें बेवफाई की,
होती जो निशानियाँ वफ़ा की तो रख लेते
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

बुझा हुआ अलाव हूँ सिर्फ धुआँ बाकी है

बुझा हुआ अलाव हूँ सिर्फ धुआँ बाकी है
यँहा रोशनी मत ढूंढो सिर्फ अँधेरा बाकी है
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

न वो जज़्बात बाकी हैं

न वो जज़्बात बाकी हैं
न वो एहसास बाकी हैं
न जाने क्यूँ,,
फिर भी,

न वो जज़्बात बाकी हैं लहरें साहिल के सीने पे
अपना सिर फिर- फिर
पटकती हैं।
उधर,
अँधेरा पूंछता है
हमसे ये आ,आ कर
उजाला क्यूँ मिला तुमसे
इस उम्र में आ कर
जबकि,
न वो जज़्बात बाकी हैं
न वो एहसास बाकी हैं
हमने ,
इक उम्र गुज़ारी है
अंधरे के आँचल में
अब इस उम्र में आकर
कैसे छोड़ दूँ उसको
उजाले की ज़द में आकर ?
जबकि,
न वो एहसास बाकी हैं
न वो जज़्बात बाकी हैं
छोड़ आया हूँ इन बातों को
वक़्त के उन पड़ावों पे
जिनकी न तो
याद बाकी है
न निशान बाकी हैं
अब तो,
ढूंढता हूँ खुद को
अंधेरों की इन रिदाओं में
जहां न कोई आस बाकी है
न कोई पहचान बाकी है

मुकेश इलाहाबादी -------

Tuesday 24 June 2014

परों में मै अपने इतनी जान रखता हूँ

परों में मै अपने इतनी जान रखता हूँ
फ़लक़ तक उड़ने का अरमान रखता हूँ
मुकेश भले कोई मुझसे करे या न करे
होठो पे मुहब्बत का पैगाम रखता हूँ  
मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Monday 23 June 2014

पुरानी हवेली हूँ

पुरानी हवेली हूँ
यंहा सिर्फ
सन्नाटा बोलता है
या फिर,
रोशनदानों और
गुम्बद पे
कबूतर बोलता है
हर वक़्त यहां
खामोशी पसरी रहती है
हाँ , कभी - कभी 
झींगुर भी बोलता है
अगर तुम
सुनना ही चाहते हो  तो
मेरे जिस्म पे
कान रख दो
मेरा हर ज़ख्म
हर घाव बोलता है

मुकेश इलाहाबादी --

सुनो तो सन्नाटा बोलता है

सुनो तो सन्नाटा बोलता है
सुबह शाम परिंदा बोलता है

तुम जुबाँ क्यों नहीं खोलते?
इशारों से तो गूंगा बोलता है

हम सुनना नहीं चाहते, वर्ना
शहर का हर हादसा बोलता है

जनता सिर्फ चुपचाप सुनती है
हमारे यंहा सिर्फ नेता बोलता है

शायद हम बहरे हो गए मुकेश
क़ायनात का ज़र्रा- २ बोलता है 

मुकेश इलाहाबादी --------------

अब इस शहर में बचा कुछ नहीं


अब इस शहर में बचा कुछ नहीं
रंज़िशो ग़म के सिवा कुछ नहीं

खुशनुमा मौसम हुआ करता था
अब कड़ी धूप के सिवा कुछ नहीं

सिर्फ मुट्ठी भर ख़ाक मिली मुझे,
तलाश गुहर की,मिला कुछ नहीं 

यूँ तो मैख़ाना था सामने ही मेरे,,
देखता ही रह गया पीया कुछ नहीं

बेवज़ह गुलशन ढूंढते हो मुकेश
उजड़े चमन के सिवा कुछ नहीं

मुकेश इलाहाबादी --------------

Sunday 22 June 2014

आखें पत्थर की हो गयी

आखें पत्थर की हो गयी
दिल हो गया फौलाद का
या ख़ुदा अब तू ही बता दे
आगे क्या होगा इंसान का
अभी इंसानियत ज़िंदा है
फिर राज़ होगा शैतान का 
अभी धरम बिकता है,फिर  
होगा व्यापर भगवान का

मुकेश इलाहाबादी ----------

सर पे सूरज और रेत के मंज़र हैं

सर पे सूरज और रेत के मंज़र हैं 
शहर में नीला नहीं सुर्ख समंदर है

फ़िज़ाओं में बादल औ खुशबू नहीं
सिर्फ धूल और आंधी के बवंडर हैं

चमचाती इमारतें तुमको मिलेंगी
दिल ऐ मकाँ मगर सारे खंडहर हैं
 

जब से शेर गायब हुए हैं जंगल से
तब से वहां राजा औ मंत्री बन्दर हैं

सिर्फ मुकेश तबियत का कलंदर है
वर्ना बहुत से मुक़द्दर के सिकंदर हैं

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Saturday 21 June 2014

मै उसके असर में हूँ

मै उसके असर में हूँ
ज़माने की नज़र में हूँ

अखबार के पन्नों में
सबसे बड़ी खबर में हूँ

मिलने तो चले आओ
तुम्हारे ही शहर में हूँ

इंतज़ार की घड़ियाँ हूँ मै
ज़ेहन मे आठों पहर में हूँ

सिर्फ तेरे बारे में सोचूंगा
इस वक़्त मै बिस्तर में हूँ

मुकेश इलाहाबादी ---------

Friday 20 June 2014

कहो तो अपना सन्नाटा बाँट दूँ

कहो तो अपना सन्नाटा बाँट दूँ
सीली दीवार उजड़ा कमरा बाँट दूँ

उम्र भर साथ -साथ रहने के बाद
क्या क्या भला बुरा कहा बाँट दूँ

मेरे पास थोड़ी खुशी ढेरों ग़म हैं
 
अपने सीने में फैला धुँआ बाँट दूँ 

तुम भले आदमी लगते हो दोस्त
गर सुनो तो अपना दुखड़ा बाँट दूँ

तुम भी तो बहुत तनहा हो मुकेश
तुम्हे भी यादों का खिलौना बाँट दूँ

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Thursday 19 June 2014

आओ हंसा हंसाया जाए

आओ हंसा हंसाया जाए
ग़म को दूर भगाया जाए

जंहा नदियां नहीं बहतीं
वहाँ  नहर निकला जाए

दुनिया पत्थर की हो गयी
ख़ुद को मोम बनाया जाए

धूप ने गुलशन जला दिया
कुछ नए फूल खिलाया जाए

तुम्हारी बोली बानी मीठी है
चेहरे से नमक चुराया जाए

मुकेश इलाहाबादी -----------

Wednesday 18 June 2014

दिल की सूरत में, है फूल रख तो दिया

दिल की सूरत में, है फूल रख तो दिया हमने, चुपके से उनके दीवाने ग़ज़ल में
मुकेश सूख ना जाए, तितली के ये पंख, कंही उस दीवाने के दीवान ऐ ग़ज़ल में 
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------------------------------

बार- बार आना और जाना है

बार- बार आना और जाना है
दुनिया भी इक सरायखाना है

है दौलत के नशे में हर शख्श
मियाँ मग़रूर बड़ा ज़माना है

नज़र में तेरी शुरूर है नशा है
आखें हैं या कि शराबखाना है

रहता है जिस घर में मेरा यार 
अपने लिए तो वो बुतखाना है

मुकेश अपने बदन में क़ैद हूँ 
जिस्म बन गया क़ैदखाना है

मुकेश इलाहाबादी ------------

तुम्हारी मुस्कराहट का राज़ क्या है

तुम्हारी मुस्कराहट का राज़ क्या है
अलसाई आखों में ख्वाब किसका है

ज़ुल्फ़ों को झटका औ बारिस हो गयी
सच बताना ये किसका प्यार बरसा है

चन्दन की कलम और थरथराते हाथ
तुमने किसके ख़त का जवाब लिखा है

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Tuesday 17 June 2014

माना आप हंसी और खूबसूरत हो, मगर ऐ दोस्त

माना आप हंसी और खूबसूरत हो, मगर ऐ दोस्त,
मुझको इतनी तुनक मिज़ाजी अच्छी नहीं लगती
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------

यादों के आस पास गुज़री

यादों के आस पास गुज़री
मेरी हर शाम उदास गुज़री

नज़रें उस - उस तरफ घूमीं
जिस-जिस तरफ वो गुज़री

कभी जागे कभी लेटे तो बैठे
बड़ी मुस्किल से शब गुज़री

ज़िदंगी इक रेत का जंगल
वह  नहर की तरह गुज़री

कैसे कह दूँ , खुश हूँ मुकेश
ज़िंदगी ही ग़मगीन गुज़री

मुकेश इलाहाबादी -----------

Monday 16 June 2014

बादलों की राह चला हूँ

बादलों की राह चला हूँ
बुझाने मै प्यास चला हूँ

मासूम ज़िद्दी खूबसूरत
साथी के साथ चला हूँ

कोई साथ हो कि न हो
मै अपनी राह चला हूँ

मंज़िल ज़ेरे क़दम थी
मै सुबहो शाम चला हूँ  

राह फ़क़ीरी में मुकेश
मै अपने आप चला हूँ

मुकेश इलाहाबादी ----

मुकेश हम भी सूरत के नहीं सीरत के थे क़ायल

मुकेश हम भी सूरत के नहीं सीरत के थे क़ायल
मग़र वो कमबख्त भोली सूरत कर गयी घायल
उसकी ज़िद उसकी मासूमियत औ अल्हड़पन में
था कुछ ऐसा जादू कि ऐ दोस्त हम हो गए घायल
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

ऐ खुदा, या तो मुझको भी फूलों सा दिल दिया होता

ऐ खुदा, या तो मुझको भी फूलों सा दिल दिया होता
या फिर इतनी नाज़ुक व,मासूम सूरत न बनाया होता
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

Saturday 14 June 2014

सच के साँचे में ढल गया

सच के साँचे में ढल गया
मोम बनकर पिघल गया

ज़माना देखने की चाहत में
यायावर बन निकल गया

गाँव का सच्चा सीधा इन्सां
शहर की हवा में बदल गया

ज़िंदादिली उसकी ऐसी कि
ज़ख्म फूल बन खिल गया

दिल मुकेश का बच्चा था
देखकर चाँद मचल गया

मुकेश इलाहाबादी ----------

पत्थर होता तो बूत परस्ती से खुश हो गया होता

पत्थर होता तो बूत परस्ती से खुश हो गया होता
अजब शख्श है वो किसी बात से खुश नहीं होता
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

Friday 13 June 2014

दर्दो ग़म तो छुप जाता है

दर्दो ग़म तो छुप जाता है
चेहरे की शिकन नहीं छुपती

दिन के उजाले में
मेरा बदन, मेरी परछाई नहीं छुपती

चाँदनी तो बरस रही है,
दरीचों से इस क़दर
इस शब के आलम में भी
मेरी उरनियाँ नहीं छुपती

दिल में तेरे लिए चाहत है कितनी
ये बात मेरे असआर औ,
मेरी आखों से नहीं छुपती

मुकेश इलाहाबादी ---------

झूठ भी मुहब्बत में अक्सर में कितना हंसी हो जाता है

झूठ भी मुहब्बत में अक्सर में कितना हंसी हो जाता है
मुकेश ये बात तेरे नमकीन चेहरे से बखूबी बयां होती है
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------

आप हम पर तोहमद लगा दीजिये

आप  हम पर तोहमद लगा दीजिये
मुहब्बत को मुल्ज़िम बना दीजिये

हमको कोई भी शिकायत न होगी
जो जी चाहे हमको सज़ा दीजिये

मुकेश इलाहबादी -------------------

Thursday 12 June 2014

है अपनी कोई चाह नही

है अपनी कोई चाह नही
दुनिया की परवाह नहीं

देख समंदर इतना गहरा
है जिसकी कोई थाह नही

दर्द  के मारे दोहरा था, पर
निकली उसकी आह नही

बड़े हुलस के मिलने जाऊं 
अपना ऐसा भी उत्साह नहीं

मुकेश तेरे दर पर आना है
ये इतनी भी आसाँ राह नहीं

मुकेश इलाहाबादी ------------

तुमसे उम्मीदे वफ़ा भी नहीं

तुमसे उम्मीदे वफ़ा भी नहीं
तुमसे ग़िला शिकवा भी नहीं

यंहा कोई समंदर नहीं बहता
औ यहां कोई दरिया भी नहीं

ये पत्थर के बुतों का शहर है
और यहां कोई  खुदा भी नहीं

ज़रा सी बात पे तुम रूठे, जो 
इतना बड़ा मसअला भी नहीं

मुकेश इलाहबादी ------------

Wednesday 11 June 2014

कभी तो मेरा नगर देख जाओ

कभी तो मेरा नगर देख जाओ
उजड़ा हुआ शहर देख जाओ

बग़ैर शाख, समर पत्तियों का
होता है कैसा शज़र देख जाओ

नदी से निकल कर किस तरह
बहती है इक नहर देख जाओ

ज़र्द पत्तियों सा काँपते चेहरे
चेहरों पे छपा डर देख जाओ

माना तुम बहुत मशरूफ हो
बीमारे दिल को मग़र देख जाओ

मुकेश इलाहाबादी -------------

सुना है शहर में ग़म बोलते हैं

सुना है शहर में ग़म बोलते हैं
पढ़े लिखे लोग कम बोलते हैं

है तासीर सच्चा स्वाद कड़ुआ
मुँह में रख कर नीम बोलते हैं

मुहब्बत में जब जुबां न बोले
समझ लेना कि वहम बोलते हैं

सारा जहाँ चुप हो जाए मुकेश
महफ़िल में तब हम बोलते हैं

मुकेश इलाहाबादी --------------


Tuesday 10 June 2014

ग़र मुकेश, दरमियाँ दोनों के न राहू आया होता

ग़र मुकेश,  दरमियाँ दोनों के न राहू आया होता 
न चाँद बेवफा कहलाता, न ज़मी को गिला होता
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

यूँ ही, वज़ह- बेवज़ह बैठे रहना

यूँ ही,
वज़ह- बेवज़ह
बैठे रहना
अच्छा लगता है

सिर्फ और सिर्फ
तेरे बारे में
सोचते रहना
अच्छा लगता है
बंद खिड़की, दरवाज़े
और परदे के पीछे
तनहा रहना
अच्छा लगता है

तेरे ख्यालों में ही
खोये रहना
अच्छा लगता है

मुकेश इलाहबादी ----

Monday 9 June 2014

दर्द की दास्ताँ हो गए

दर्द की दास्ताँ हो गए
गुज़रे हुए जहाँ हो गए

यंहा कोई नहीं रहता
टूटे हुए मकाँ हो गए

तेरा प्यार पा के हम
बड़े बदगुमाँ हो गए

कल तक सहरा थे
अब गुलिस्ताँ हो गए

तुम तो खफा थे,क्यूँ
आज मेहरबाँ हो गए

मुकेश इलाहाबादी ---

सरे महफ़िल रुस्वा कर गया

सरे महफ़िल रुस्वा कर गया
उम्र भर को तनहा कर गया
निगोड़ा सब कुछ छीन कर
भी मुझको अपना कर गया
मुकेश इलाहाबादी -------

तेरे लब का गीत बनूँ

तेरे लब का गीत बनूँ
मै तेरा मनमीत बनूँ

खामोश निगाहों की
इक नई तहरीर बनूँ

खोल दरीचा तू अपना
तेरे दर की धूप बनूँ

मत्ला मक़्ता बन जा
तेरे लिए ग़ज़ल बनूँ 

ग़र तू शम्मा बन जा
मुकेश तेरा दीप बनूँ


मुकेश इलाहाबादी ----

Saturday 7 June 2014

ऐ समंदर,मिट के भी गहराई नाप लूँगा

ऐ समंदर,मिट के भी गहराई नाप लूँगा 
मै नमक हूँ तेरे रग राग में घुल जाऊंगा

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

चल रहे हैं

चल रहे हैं
रुक रहे हैं

बिन आग
जल रहे हैं

बिन नदी
बह रहे हैं

जीवन पर्वत
चढ़ रहे हैं

दर्द ही दर्द
सह रहे हैं

तुमसे प्यार
कर रहे हैं

मुकेश इलाहाबादी ---

Friday 6 June 2014

कभी ज़ुल्फ़ें , कभी अदाएं , तो कभी आँखें बोलती हैं

कभी ज़ुल्फ़ें , कभी अदाएं , तो कभी आँखें बोलती हैं
फिर भी ज़नाब कहते हैं हम तो कुछ बोलते ही नहीं
मुकेश इलाहाबाई ---------------------------------------

ऐसा भी नहीं, तुम चले जाओगे तो ज़िंदगी अधूरी रहेगी

ऐसा भी नहीं, तुम चले जाओगे तो ज़िंदगी अधूरी रहेगी
मगर ये भी सच है मुकेश,तुम बिन ज़िंदगी न पूरी होगी
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------------

लोग खामखाँ मरे जाते हैं कम उम्र वालों पे ?

लोग खामखाँ मरे जाते हैं कम उम्र वालों पे ?
हमने तो ढलते हुए सूरज पे भी शबाब देखा है
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

तुमने कभी जंगल देखा है ?

सुमी,

तुमने कभी जंगल देखा है ?

जंगल बीहड जंगल, जहां सब कुछ बेतरतीब होता है। जिसकी बेतरतीबी में ही तरतीब होती है, एक खूबसूरती होती है। एक भव्यता होती है। जो कभी लुभाता भी है तो डराता भी है।
वही जंगल बीहड जंगल जहां बडे बडे पेड होते हैं चीड के सागौन के महुआ के अषोक के देवदार के महोगनी के। जिनमे कुछ तो इतने कंटीले होते हैं कि जिनसे जिस्म छू भर भी जाये तो अंदर तक छिल जाये। जिस्म तार तार हो जाये। इनमे कुछ तो इतने घने होते हैं कि गर आसमान थोडा भी झुक जाये तो व उसे छू लें, कुछ पेड इतने गझिन होते हैं कि जिनकी छांव मे बैठते ही मुसाफिर की सारी थकन छू मंतर हो जाये। यही जंगल मे तुम्हें अन्जान मुसाफिरों के लिये कंदमूल भी मिल जायेगा जिसे खाकर भगवान राम ने वनवास के चौदह साल विताये थे। यहीं तुम्हे धतूरा भी मिलेगा जो षंकर भगवान का प्रिय फल है यहीं तम्हे आम और महुआ जैसे मीठे फल भी मिल जायेंगे। इन्ही जंगलों मे तुम्हे अमर बेल भी किसी पेड से लिपटी मिल जायेगी जिसके रस को पी कर कहा जाता है इन्सान अमर हो जाता है यहीं तुम्हे किसी  किशोरी सा शरमा जाने वाली लाजवंती भी मिल जायेगी। यहीं तुम्हे हरडा, बहेडा और आंवला भी मिलेंगे जिनसे त्रिफला चूर्ण जैसी अचूक आयुर्वदिक औषधियॉ बनायी जाती है। इसी जंगल में तुम्हे नीम इमली भी मिलेंगे। यहीं पे बटब्क्ष भी मिल जायेगा जिसके नीचे बैठ के इन्सान बुद्धत्त की उंचाइयों को भी छू सकता है। जंगल में तुम्हे ऐसे भी दरख्त मिलेंगे कि जिनमे एक भी पत्ता हरा नही होता बस ठूंठ सा खडे रहते हैं वर्ष भर निचाटं,पेडों के बीच मे अपनी उरियानियों के साथ मस्त और मगन, पूरी षान से।
सुमी, जंगल वो जगह होती है। जहां नदियॉ इस तरह अठखेलियां करती हैं जैसे किसी नवयौवना को सावन, सखियॉ और अमराई एक साथ मिल गये हों। वे वहा उछलती बिछलती बहती रहती हैं किलोल करती रहती हैं। ये कभी पत्थरों का सीना चीरकर खिलखिला कर आगे बढ जाती हैं तो कभी यूं ही मंद मंद बहती रहती हैं।
यंहा तुम देखोगी कि कहीं पर पत्थरों की षिराओं से जल धारा रिस रिस के कोटर सा बना रही हैं या फिर बेहद पतली धार मे बह रही है। मानो जंगल रो रहा हो कभी खुषी के ऑसू तो कभी दुख के ऑसू। इन्ही जंगलों मे तुम झील भी देखोगी जो इस जंगल की नीरवता में नीरव और षांत भाव से बहती रहती है। जिसका जल दिल में स्फटिक सा पारदर्षी और नीला होता है। जिसकी तलहटी में रात को चॉद भी उतर आता है और इसकी कुवारी और छोटी - छोटी लहरों के साथ छुपा छुपी खेल जाता है। इसी षांत झील में तुम कभी जंगल के राजा षेर को तो कभी सबसे चालाक जानवर सियार और लोमडी को भी अपनी प्यास बुझाते देख सकती हो। इसी जंगल में तुमको चिंघाडते हुये गजराज भी दिख जायेंगे जो अपनी मस्त चाल से जंगल को हिला देते हैं। वो गजराज जो एक ही बार में अपनी सूडं से पूरा का पूरा दरख्त उखाड लेते हैं। और झुंड के झुंड में चलते हैं जबकि षेर अकेला और तनहा ही रहता है और चलता है। जो कि जब तक भूखा न हो किसी से कुछ कहता नही बोलता नही भले ही मूसक राजा उसकी नींद में उसकी नाक पे चढ जाते हों।
तुम्हे इस जंगल में ही अपनी चोंच से मजबूत से मजबूत पेड़ के तने को तोडता हुआ कठफोडवा दिख जायेगा। गाती हुयी बुलबुल मिलेगी। कोयल मिलेगी। हरियल तोता भी किसी डाल में किसी फल को कुतरते मिल जायेगा। इन पडों की डालों पे उछलते कूदते खिखियाते मसखरे बंदर भी दिखेंगें। सचमुच तुमको जंगल मे बहुत कुछ मिलेगा। यहां एक के पीछे एक कतार मे चलती हुयी चीटियों की क़तारें भी मिल जायेंगी। किसी झाडी के पीछे से अपने खूबसूरत कानों को खडा किये चमकीली ऑखों से झाकता खरगोष भी दिख जायेगा जो जरा सा भी आहट पाते ही कुलॉचे मार भागा जाता है। यहां तुम्हे सांप और अजगर भी रेंगते हुये मिलेंगे अपनी मस्ती में दिखेंगे। एक से एक जहरीले साप जिनके काटे का कोई इलाज नही होता। कोई मंतर नही होता । हां इन सबमे कोई इतना जहरीला सांप न मिलेगा जितना कि इंसान होता है।
सुमी जंगल मे एक अलग दुनिया ही बसी होती है। गर किसी इंसान ने अपनी जिंदगी मे जंगल नही देखा तो कुछ भी नही देखा। सच जंगल की खूबसूरती के आगे पेरिस, न्यंयार्क और रोम की खूबसूरती भी फीकी पड जाये।
सुमी, सच जंगल एक ऐसा जादू होता है जिसके जादू मे एक बार आ जाने के बाद शहर का जादू काम नही करता। तभी तो जितने भी
ज्ञान पिपासू रहे हैं। या साैंदर्य प्रेमी होते आये हैं उन सभी ने कभी न कभी जंगल का रुख किया ही किया है।
सच सुमी जंगल ही तो है जहां हरियाली बच रही है वर्ना अब तो ज़मी से हरियाली गायब ही हो गयी है। गांव मे तो खेती के मौसम में थोडी बहुत हरयिाली दिख भी जाती है पर षहरों मे तो बस गमलों मे ही बच रही है।
खैर, तो सुमी, जंगल ही हैं जो हमे जीवन देते हैं अगर ये जंगल न होंते तो हम कब के मर खप गये होते। इन्ही जंगलों की वजह से तो बारिस होती है। बरसात में उफनती नदी के वेग को भी तो यही जंगल रोकते हैं।
यही जंगल ही तो हैं जो हमे लकडी देते हैं, फल देते हैं फूल देते हैं। तरह तरह की औषधि वाली जडी बूटियॉ देता है। और धरती की हारमनी को बनाये रखता हैं।
मगर आज का इंसान है इन्ही जंगलों को काट रहा हैं। खतम कर रहा है। बिना ये सोचे कि जिस दिन ये जंगल न रहेंगे तो हम भी न रहें गे।
खैर ... सुमी तुम मुझे भी ऐसा ही एक जंगल जानों जिसके सीने में न जाने कितने बबूल और नागफनी डेरा डाले हुये हैं। भावों और विचारों की न जाने कितनी नदियॉ हर वक्त उफनाती रहती हैं। जिनमे गर एक बार डूब जाओ तो उबरना मुस्किल हो जाये। सच तुम इस वजूद के अंदर इन पेड पौधों और झाड़ियों  के अलावा न जाने कितने खतरनाक जानवर भी पाओगी जो कभी कदात ही पहचान मे ंआते हैं वर्ना आमतौर से तो इंसान की खाल में छिपे रहते है। तुम इस वजूद के अंदर शेर जैसी बहादुरी भी पाओगी तो लोमडी जैसी चालाकी भी पाओगी हाथी जैसी बुद्धिमता भी मिलेगी तो चूहे जैसी कुतर्की बुद्धी भी मिलेगी।
तो सुमी गर तुम जंगल में न भी जाना चाहे तो एक बार मेरे संग साथ रह लेना तुम्हे एक साथ पेड, पहाड, नदिया, झील, पशु - पक्षी और जानवर मिल जायेंगे।

बाकी तुम्हारी मर्जी।

मुकेश   इलाहाबादी



Thursday 5 June 2014

चलो कपडे बदल लेते हैं बाहर हो आते हैं

चलो कपडे बदल लेते हैं बाहर हो आते हैं
मुफलिसी सही मुकेश बाज़ार हो आते हैं
न कोई साथी है न कोई संगी है न पैसे हैं
बड़े मनहूस दिन हैं कंही घूम कर आते हैं
दो रुपये के भीगे चने और दो सिगरेट में
मियाँ मुकेश चलो दुनिया देखकर आते हैं
सूना है दुनिया बड़ी रंगी और खूबसूरत है
चलो इसी बहाने सब कुछ देख कर आते हैं
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

अधूरे वज़ूद के साथ ज़मी

अधूरे वज़ूद के साथ ज़मी के चारों और घूमता है चाँद माह भर
फिर रात पूनम की पूरा हो, जी भर चांदनी लुटाता है रात भर
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------------
---

दिले किताब से खूबसूरत कोई किताब नहीं होती

दिले किताब से खूबसूरत कोई किताब नहीं होती
दिले किताब पढ़े बग़ैर ज़िदंगी कभी पूरी नहीं होती
ग़र आप अपनी दिले किताब पढ़ने न देंगे मुकेश
आप के नाज़ो अंदाज़ की कोई कीमत नहीं होगी भी
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------

कभी पानी में देखा कभी आईना में देखा

कभी पानी में देखा कभी आईना में देखा
दिल को कभी आईना बना के न देखा
मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Wednesday 4 June 2014

हवा की रवानी है हमारी ज़िंदगानी

हवा की रवानी है हमारी ज़िंदगानी
बाद मरने के कोई निशाँ न पाओगे
गर कभी ढूंढने भी जाओगे हमको
खुशबू सा अपनी साँसों में पाओगे
मुकेश इलाहाबादी -------------------

हवा की रवानी है हमारी ज़िंदगानी

हवा की रवानी है हमारी ज़िंदगानी
बाद मरने के कोई निशाँ न पाओगे
गर कभी ढूंढने भी जाओगे हमको
खुशबू सा अपनी साँसों में पाओगे
मुकेश इलाहाबादी -------------------

विडम्बना ---

विडम्बना ---
अक्सरहाँ ग़म भी इतना अज़ीज़ हो जाता है,,,
मुकेश चाह कर भी किसी से बांटा नहीं जाता है
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------

यादों के सिवा कोई और असबाब नहीं है

यादों के सिवा कोई और असबाब नहीं है
ये वो रात है जिसकी कोई सुबह नहीं है
ऐ दोस्त, मुकेश वो फ़क़ीर मुसाफिर है 
जिसके पास ग़ज़ल के सिवा कुछ नहीं है
मुकेश इलाहाबादी -----------------------

ज़मी भी सिसकती है -----------------------

सुमी,

तुमने कभी ज़मी को सिसकते सुना है ? नही  न। 
हाँ , कैसे सुनोगी, क्योंकि ज़मीन की सिसकन में कोई आवाज़ नहीं होती।  वो बड़ी खामोशी से सिसकती है, औरत की तरह।  जैसे औरत अपने हर दुःख दर्द को अपने अंदर ही अंदर हरहारने देती है, छुपाये रखती है. हाँ ,, जब दर्द हद से गुज़रता है,  तो दिल ही दिल में सिसक लेती है, अपने आंसुओं को खुद ही पोछ लेती है।  अगर कभी सिसकी में कुछ आवाज़ भी हुई तो वह इतनी मद्धम होती है जो बिना गौर से सुने सुनाई ही नहीं देती है।  और फिर ज़माने के इतने शोर शराबे में तो बिलकुल दब ही जाती है, और फिर किसे फुर्सत है जो सुने ज़मी की सिसकी को।

हाँ, अगर कभी तुम ज़मी के दुःख दर्द को महसूसना चाहो, सुनना चाहो, उससे एकाकार होना चाहो तो तुम्हे, उस वक़्त का इंतज़ार करना होगा , जब  रात अपना आँचल फैला चुकी हो, पूरी दुनिया दिन भर की थकन के हल्ले- गुल्ले और थकन के बाद सो चुकी हो. सिर्फ और सिर्फ बच रहा हो, तारों भरा आकाश - निचाट काला - धूसर आकाश - जो कभी कुछ नहीं कहता  किसी  से कुछ नहीं बोलता, किसी बात पे कोई  प्रतिक्रिया नहीं करता - निर्विकार निःशब्द - निर्गुण निराकार  ईश्वर सा, हाँ उसी वक़्त जब - जंगल के सारे के सारा पशु - पक्षी भी अपने अपने नीड़ों में , घोसलों में, गुफाओं में झपकी ले रहे हों, इंसान ही नहीं जानवर सभी अपने अपने ख़्वाबों की दुनिया में विचरण कर रहे हों। किसी को किसी के वज़ूद का पता न हो।  सारा आलम चुप और खामोश हो। नदियां भी अपनी रवानी छोड़ गुमसुम हो गयी हो, यहां तक कि समंदर भी अपनी तमाम उत्ताल तरंगो को अपने सीने में छुपा के सो गया हो, बस तब तुम ऐसे में चुपके से अपने कानो को थोड़ा सजग कर लेना, अपनी समस्त संवेदी कोशिकाओं को खुला छोड़ देना तब तुम सुन पाओगी कि ज़मी भी सिसकती है।  ज़मी के भी अपने दुःख दर्द होते हैं।

दर- असल, ज़मी तो अपनी धूरी पे सदियों सदियों से घूम रही है नाच रही है और नाचती रहेगी और नाचती रहना चाहती है।  नाचना घूमना उसका मूल स्वभाव है।  यही नाच ही तो है जो उसके वज़ूद ज़िंदा रखे है। 

ज़मी जब सूरज की मुहब्बत में अपनी सतरंगी लिबास फहरा के नाचती है।  ये जब नाचती  है तो बहुत खूबसूरत लगती है। जिसकी ख़ूबसूरती तो चाँद से देखने लायक होती है।  विश्वास न हो तो उससे पूछना जो चाँद पे हो आये हैं या  की अंतरिक्ष में झाँक आये हैं।  वह बताएगा - गर तुम ऐसा नहीं कर सकते तो तुम कम से कम क्सिी पहाड़ की चोटी पे चली जाना और वहाँ से देखना।  या फिर किसी उड़न तस्तरी पे बैठ के बादलों की ओट से देखना तब यही हमारी प्यारी ज़मीन प्यारी धरित्री कितनी प्यारी लगती है।  सच ! इसके नाचने से घूमने से ही तो सुबह होती है।  इतनी खूबसूरत साँझ होती है।  मौसम बदलते हैं , कभी सर्दी , कभी गर्मी तो कभी बरसात होती है।  और तब ज़मी का परिधान धानी धानी हो जाता है। 
तो मै ये कह रहा हूँ सुमी, की ज़मी का मूल स्वभाव तो नाचना है खिलखिलाना ही है। पर जब यही ज़मी अपने बच्चों को ज़रा - ज़रा सी बात पे, कभी धन के लिए तो कभी सत्ता के लिए तो कभी मज़हब के नाम पे लड़ते झगड़ते देखती है तो उदास जो जाती है।

वैसे तो ज़मी ने अपने आँचल से अपने बच्चों के लिए क्या क्या नहीं उलीच के दिया एक से एक खूबसूरत तोहफ़े देती आई है और देती रहती है।  वो फल हो फूल हो खनिज हो, मगर वह दर्द से तब बिलख उठती है जब इंसान उसके सीने को तोप-गोलों और बारूदों से रौंदता है।  मज़हब और विकास के नाम पे इसे ज़मी को कभी परमाणु बम से तो कभी एटम बम का प्रयोग कर के इसके सतरंगी आँचल को तार तार कर देता है।  वैसे, वह अपने आँचल को तार-तार होते भी देख लेती सह लेती चुप रह जाती पर जब वह देखती है उसके नादान बच्चे एक न एक दिन इस खतरनाक खेल से खुद को लहूलुहान कर लेंगे और कुछ हद तक कर भी लिया है।  तब वह उदास हो जाती है।  और --- सिसकने लगती है।

वैसे इस ज़मी के और भी दर्द हैं जिसे कोेई औरत ही समझ सकती है, शायद इसी लिए मानव समाज की हर सभ्यता ने ज़मी को 'माँ 'का दर्ज़ा दिया है।  और हम ऐसे है की अपनी ही माँ को रौंदते हैं तोड़ते हैं रुलाते हैं।  और इसकी रुलाई कोई कोई तवज़्ज़ो नहीं देते हैं। 

सुमी , तुम  तो एक औरत हो न , तुम ही किसी दिल इसकी सिसकी सुनना और तुम ही इन नासमझ लोगों को समझाने का बीड़ा उठाना।

मेरी अच्छी सुमी तुम करोगी न ऐसा ???

मुकेश इलाहाबादी --------------------------






 

ऐ मुकेश, किसी रुबाई किसी ग़ज़ल किसी छंद में नहीं आती

ऐ मुकेश, किसी रुबाई किसी ग़ज़ल किसी छंद में नहीं आती
उसकी खूबसूरती उसकी पाकीज़गी किसी तौर बयाँ नहीं होती
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------------------

मुझी को मेरा पैगाम लौटा के

मुझी को मेरा पैगाम लौटा के मुकेश कहने लगी निगोड़ी हवा
महबूब के घर देख कर बजती शहनाइयाँ बैरंग लौट आयी यहाँ 
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------------------

पंछियों का चहकना कब रास आया है बहेलियों को

पंछियों का चहकना कब रास आया है बहेलियों को
मुकेश बस, उठाया गुलेल और लगा दिया निशाना
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

मुकेश का सुन के दिल खुश हुआ,

मुकेश का सुन के दिल खुश हुआ,
आपके लब पे हमारा नाम आया
वर्ना हम तो समझे थे गुज़र जाएगी
ज़िंदगी इस ख्वाब को लिए दिए ही
मुकेश इलाहाबादी --------------------

Tuesday 3 June 2014

मुकेश भेजा था पैगामे मुहब्बत हवाओं के मार्फ़त

मुकेश भेजा था पैगामे मुहब्बत हवाओं के मार्फ़त
ले के मेरा पैगाम निगोड़ी हवाएं कंही और चल दीं 

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------

मन बहकने लगा है

मन बहकने लगा है
तन दहकने लगा है

तेरा नाम सुन कर,
दिल धड़कने लगा है

बेखुदी ऐसी मोगरा
हमें महकने लगा है

तेरी मासूम हंसी से
चाँद जलने लगा है

उदास था दिल मेरा
फिर उमगने लगा है

मुकेश इलाहाबादी ---

तसल्ली मुहब्बत में बारहाँ होती नहीं

तसल्ली मुहब्बत में बारहाँ होती नहीं, जब तक बयाँ न हो
मुकेश ये अलग बात कि वो आखों से बयाँ हो कि ज़ुबाँ से
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------------

Monday 2 June 2014

जितनी शिद्दत से,

जितनी शिद्दत से,
मै मुहब्बत करता हूँ
उतनी शिद्दत से तो
वो नफरत भी नहीं करता
जितनी शिद्दत से मै
उसे याद करता हूँ
उतनी शिद्दत से तो
उसने मुझे भुलाया भी न होगा

मुकेश इलाहाबादी ---------

ख़ुदा तुझसे लड़ के मांग लूँगा अपनी मुहब्बत

ख़ुदा तुझसे लड़ के मांग लूँगा अपनी मुहब्बत
वरना मेरी हथेलियों पे नाम लिख दे उसका
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

हमने तो फ़क़त चंद लम्हे मांगे थे ज़िंदगी के

हमने तो फ़क़त चंद लम्हे मांगे थे ज़िंदगी के
ज़ालिम ने कातिलाना हंसी उछाल दी मेरी तरफ

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------

ज़रूरी तो नहीं हर किसी से मुहब्बत की जाए

ज़रूरी तो नहीं हर किसी से मुहब्बत की जाए
किसी को बस यूँ ही चाहते रहना गुनाह तो नहीं
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

मुसाफिर को इस तरह भी राह दिखाया करो

मुसाफिर को इस तरह भी राह दिखाया करो
मुकेश रात दहलीज़ पे इक दिया जलाया करो 
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

उदासियों से पहचान लेना

उदासियों से पहचान लेना
वही मेरा घर है जान लेना

ग़र कभी शक ओ शुबह हो
बेशक़ मेरा इम्तहान लेना

है रात बिस्तर बिछा गयी
चादर ग़म की तान लेना

जिस दिन भरोसा हो जाए
मुझको अपना मान लेना

मुकेश इलाहाबादी -------------

ज़मी के पार जाया जाये

ज़मी के पार जाया जाये
समंदर पे पुल बनाया जाये

दुनिया जला कर रख दिया
सूरज का बदल ढूँढा जाये

दुनिया इतनी खुदगर्ज़ क्यूँ
एकबार ख़ुदा से पूछा जाये

सुना है वह फूल था कभी
चलो खुशबू में ढूँढा जाये

किसी की आहात है शायद
मुकेश दरवाज़ा खोला जाये

मुकेश इलाहाबादी ----------

जिसके नाम की चिट्ठी बाँचू

जिसके नाम की चिट्ठी बाँचू
उसके नाम पे चुप रह जाऊं

मै लाश शरम की ऐसी मारी
अपनी बातें उससे कह न पाऊँ

रह रह करे इशारा छत पे आऊँ
पर दिल मोरा धड़के मै न जाऊं

बाँध कंकरियां संग फेंकी पाती
घबराऊँ,पर बिन पढ़े रह न पाऊँ

सखी, जिस दिन से है प्रीत लगी
बात बात में मै हँसू और मुस्काऊँ 

मै पगली रह रह के शीशे में देखूं
अपनी सूरत में खुद से शरमाऊँ

मुकेश इलाहाबादी --------------------

सिर्फ घर और ऑफिस के बीच की दूरी रह गयी होती

सिर्फ घर और ऑफिस के बीच की दूरी रह गयी होती
ख्वाब न होते तो ये ज़िंदगी कितनी सिमट गयी होती
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------------

मै लिखता हूँ प्यार

मै लिखता हूँ प्यार
वो लिखता व्यापार 

नदी किनारे वो बैठा
मै बैठा हूँ  इस पार

छोड़ मुझे गैरों से वो
है करता आँखें चार

मै उसका कुछ नहीं
पर वह मेरा संसार

थोड़ा नखरीला सही
पर है तो मेरा प्यार

मुकेश इलाहाबादी --

Sunday 1 June 2014

इंकार में ग़म से मर जाना है

इंकार में ग़म से मर जाना है , और इक़रार में खुशी से
मुकेश न थाम इश्क़ का खंज़र इसके दोनों तरफ धार है
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------------

वह अपना दर्दे ज़ीस्त बयाँ करता रहा

वह अपना दर्दे ज़ीस्त बयाँ करता रहा
लोग समझे कि मुकेश शायर हो गया
मुकेश इलाहाबादी -----------------------

आसमाँ पे पहरे हैं, उड़ के क्या करूँ ?

आसमाँ पे पहरे हैं, उड़ के क्या करूँ ?
आओ चलो रख लूँ अपने पर उतार के
मुकेश इलाहाबादी ---------------------

जिसके नाम की चिट्ठी बाँचू

जिसके नाम की चिट्ठी बाँचू
उसके नाम पे चुप रह जाऊँ

मै लाज शरम की ऐसी मारी
अपनी बातें उससे कह न पाऊँ

मुझसे करे इशारा छत पे आऊँ
कि दिल मोरा धड़के मै,न जाऊं

मार कंकरिया संग फेंका चिट्ठी
घबराऊँ,एक सांस में पढ़ जाऊं 

मुकेश इलाहाबादी --------------

वो मील का पत्थर आज भी तनहा खड़ा है

वो मील का पत्थर आज भी तनहा खड़ा है
जिस मोड़ पे उस पत्थर पे छोड़ गए थे जंहा

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------