Wednesday 31 October 2012
Tuesday 30 October 2012
अंदाज़ ऐ फकीरी में रहा उम्रभर,,,,,,,,
अंदाज़ ऐ फकीरी में रहा उम्रभर,,,,,,,,
कि जाम ऐ मुफलिसी पिए जा रहा हूँ
एहसास ऐ मुहब्बत कह न सका,,,,,,,,
कि तनहा ही ज़िन्दगी जीए जा रहा हूँ
लुटा के सारे जज्बातों की दौलत,,,,,,,,,,
फकत संग अपने रुसुवाई लिए जा रहा हूँ
बाद मरने के भी मुझे याद करती रहो ,,,,
सो अपनी यादों के लतीफे दिए जा रहा हूँ
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------
Monday 29 October 2012
Sunday 28 October 2012
Sunday 21 October 2012
नका़ब के भीतर चेहरा देखा
नका़ब के भीतर चेहरा देखा
चेहरे के उपर चेहरा देखा
मासूम बच्चों की मुस्कानो मे
कितना उजला चेहरा देखा,
मुददतों बाद आइना देखा,
शिकन से भरा चेहरा देखा
मुखौटा उतार के हमने देखा
सबका भददा चेहरा देखा
दिन मे जिसको हंसता देखा
उसका रात मे रोता चेहरा देखा
अपने अंदरा जा के देखा
स्वार्थ से लिपटा चेहरा देखा
मुकेश इलाहाबादी ----------
चेहरे के उपर चेहरा देखा
मासूम बच्चों की मुस्कानो मे
कितना उजला चेहरा देखा,
मुददतों बाद आइना देखा,
शिकन से भरा चेहरा देखा
मुखौटा उतार के हमने देखा
सबका भददा चेहरा देखा
दिन मे जिसको हंसता देखा
उसका रात मे रोता चेहरा देखा
अपने अंदरा जा के देखा
स्वार्थ से लिपटा चेहरा देखा
मुकेश इलाहाबादी ----------
वो बुलबुल सा चहकना
वो बुलबुल सा चहकना
और फुदकना भा गया
हमारा भी उस मासूम पे
जाने कब दिल आ गया
कच्ची अमिया खाना और
वो खिलखिलाना भा गया
चाय थमा कर हाथो मे,
फिर भाग जाना भा गया
अपनी मॉ के पीछे पीछे ,
उसका मंदिर जाना भा गया
सखियों संग धौल - धप्पा
घर मे चुप रहना भा गया
दो चुटिया और लाल चुन्नी पे
छीटदार कुर्ता पहनना भा गया
तुम कैसी हो पूछा तो सिर्फ
उसका सर हिलाना भा गया
यूँ दरवाजे के पीछे से उसका,
मुझको बेवजह तकना भा गया
मुकेश इलाहाबादी --------------
और फुदकना भा गया
हमारा भी उस मासूम पे
जाने कब दिल आ गया
कच्ची अमिया खाना और
वो खिलखिलाना भा गया
चाय थमा कर हाथो मे,
फिर भाग जाना भा गया
अपनी मॉ के पीछे पीछे ,
उसका मंदिर जाना भा गया
सखियों संग धौल - धप्पा
घर मे चुप रहना भा गया
दो चुटिया और लाल चुन्नी पे
छीटदार कुर्ता पहनना भा गया
तुम कैसी हो पूछा तो सिर्फ
उसका सर हिलाना भा गया
यूँ दरवाजे के पीछे से उसका,
मुझको बेवजह तकना भा गया
मुकेश इलाहाबादी --------------
Saturday 20 October 2012
Friday 19 October 2012
Thursday 18 October 2012
Wednesday 17 October 2012
Tuesday 16 October 2012
Monday 15 October 2012
कभी तनहा भी रहा कीजिये
कभी तनहा भी रहा कीजिये
ज़िन्दगी को यूँ भी जिया कीजिये
ज़रूरी तो नहीं रात भर सोया करें
कुछ देर तारों को भी गिना कीजिये
दोस्तों से तो रोज़ मिला करते हो
कभी हम जैसों से भी मिला कीजिये
बहुत उदास है बुलबुल कफस मे,
चहक सुनने के लिए उसे रिहा कीजिये
ज़िन्दगी कोई गणित का सवाल नहीं
कभी ग़ज़ल की तरह लिखा कीजिये
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
ज़िन्दगी को यूँ भी जिया कीजिये
ज़रूरी तो नहीं रात भर सोया करें
कुछ देर तारों को भी गिना कीजिये
दोस्तों से तो रोज़ मिला करते हो
कभी हम जैसों से भी मिला कीजिये
बहुत उदास है बुलबुल कफस मे,
चहक सुनने के लिए उसे रिहा कीजिये
ज़िन्दगी कोई गणित का सवाल नहीं
कभी ग़ज़ल की तरह लिखा कीजिये
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
क्या तुम्हे वो शाम याद है ?
प्रिये,
क्या तुम्हे वो शाम याद है ?
जब
तुम मेरे साथ थी।
सुहानी शाम थी।
पुरनम हवा, फूलों की बातें
तितली की उडाने और भौंरों की गुन्जन थी।
सूरज दिन की तपन लपेट के पश्चिमांचल हो रहा था।
चांद अपनी मुस्कुराहट के साथ दूसरी दिशा से खिल रहा था।
और हम तुम ...
गांव और शहर के सीवान से लगी वीरान पुलिया पे बैठे थे
तुम कभी अपनी लटों को हल्के से संवारती थी तो कभी बिखर जाने के लिये
यूं ही छोड दिया करती थीं।
उस वक्त मै तुम्हे देखता रहता था
और तुम --
दूर कहीं बहुत दूर प्रथ्वी और आकाश को एककार होते हुये देख रही थीं।
मुस्कुरा रही थी।
सांझ धीरे धीरे संवला रही थी।
तुम्हारी उंगलियां मेरी मुठिठयों मे भिंचती जा रही थी।
एक गहरा मीठा मीठा सोंधा सोंधा एहसास पसरा था चहुंओर
तभी आकाश मे दूर बहुत दूर
कोई सितारा टूटता है,
तुम घबरा कर मुझसे लिपट जाती हो
जैसे दूर धरती आकाश से लिपट रही होती है
सिमट रही होती है
और, तब मै ----
तुम्हारी घबराई हुयी बंद पलकों पे
अपने होंठ रख दिये थे हौले से
न जुदा होने के लिये
न जुदा होने के लिये
मुकेश इलाहाबादी --------------------
क्या तुम्हे वो शाम याद है ?
जब
तुम मेरे साथ थी।
सुहानी शाम थी।
पुरनम हवा, फूलों की बातें
तितली की उडाने और भौंरों की गुन्जन थी।
सूरज दिन की तपन लपेट के पश्चिमांचल हो रहा था।
चांद अपनी मुस्कुराहट के साथ दूसरी दिशा से खिल रहा था।
और हम तुम ...
गांव और शहर के सीवान से लगी वीरान पुलिया पे बैठे थे
तुम कभी अपनी लटों को हल्के से संवारती थी तो कभी बिखर जाने के लिये
यूं ही छोड दिया करती थीं।
उस वक्त मै तुम्हे देखता रहता था
और तुम --
दूर कहीं बहुत दूर प्रथ्वी और आकाश को एककार होते हुये देख रही थीं।
मुस्कुरा रही थी।
सांझ धीरे धीरे संवला रही थी।
तुम्हारी उंगलियां मेरी मुठिठयों मे भिंचती जा रही थी।
एक गहरा मीठा मीठा सोंधा सोंधा एहसास पसरा था चहुंओर
तभी आकाश मे दूर बहुत दूर
कोई सितारा टूटता है,
तुम घबरा कर मुझसे लिपट जाती हो
जैसे दूर धरती आकाश से लिपट रही होती है
सिमट रही होती है
और, तब मै ----
तुम्हारी घबराई हुयी बंद पलकों पे
अपने होंठ रख दिये थे हौले से
न जुदा होने के लिये
न जुदा होने के लिये
मुकेश इलाहाबादी --------------------
Friday 12 October 2012
तुमने कभी सांवली सलोनी सजीली रात को देखा है ?
सुमी -- तुमने कभी सांवली सलोनी सजीली रात को देखा है ?
जब आसमा में न तारे होते है न चन्दा होता है - सब के सब
जुदा हो गए होते हैं ये रूठ चुके होते है - तब भी ये सांवरी
कजरारी रात अपने में खोई खोई - सिमटी सकुचाई सी अपना
आँचल पसारे सारी कायनात को अपने में समेटे रहती है -
और --- ---- उसे ये एहसास रहता है की कभी तो सहर होगी और वो दिन के
मजबूत बाजुओं में अपना सर रख के सो जायेगी - शाम होने तक के लिए
और फिर -------
रात इसी इंतज़ार में गलने लगती है धीरे धीरे हौले हौले - कभी कभी वो भी
संवराई रात उदास होने लगती है की शय सहर न भी हो और वो यूँ ही दम तोड़
दे इन स्याह ऋतुओं में पर ऐसा होता नहीं ऐसा होता नहीं --
सहर होती है - रात मुस्कुराती है -
और फिर फिर दिन के बाजुओं में आ के मुस्कुरा देती है -
तब ये फूल ये पत्ते ये भंवरे - या हवाएं सब मस्त मगन नाचते हैं - गुनगुनाते है -
और इसी तरह मेरे सुमी एक दिन तुम भी सुबह की तरह खिलोगी हंसोगी मुस्कुराओगी
और उस दिन तुम हमें भूल जाओगी - भूल जाओगी - भूल जाओगी
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------------
जब आसमा में न तारे होते है न चन्दा होता है - सब के सब
जुदा हो गए होते हैं ये रूठ चुके होते है - तब भी ये सांवरी
कजरारी रात अपने में खोई खोई - सिमटी सकुचाई सी अपना
आँचल पसारे सारी कायनात को अपने में समेटे रहती है -
और --- ---- उसे ये एहसास रहता है की कभी तो सहर होगी और वो दिन के
मजबूत बाजुओं में अपना सर रख के सो जायेगी - शाम होने तक के लिए
और फिर -------
रात इसी इंतज़ार में गलने लगती है धीरे धीरे हौले हौले - कभी कभी वो भी
संवराई रात उदास होने लगती है की शय सहर न भी हो और वो यूँ ही दम तोड़
दे इन स्याह ऋतुओं में पर ऐसा होता नहीं ऐसा होता नहीं --
सहर होती है - रात मुस्कुराती है -
और फिर फिर दिन के बाजुओं में आ के मुस्कुरा देती है -
तब ये फूल ये पत्ते ये भंवरे - या हवाएं सब मस्त मगन नाचते हैं - गुनगुनाते है -
और इसी तरह मेरे सुमी एक दिन तुम भी सुबह की तरह खिलोगी हंसोगी मुस्कुराओगी
और उस दिन तुम हमें भूल जाओगी - भूल जाओगी - भूल जाओगी
मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------------
Thursday 11 October 2012
जो यादों के समंदर मे हर वक्त मचलती है
जो यादों के समंदर मे हर वक्त मचलती है
हो के तसव्वुर से जुदा मछली सी तडपती है
सांझ होते ही फलक पे चांद सा खिल कर
रात भर ख्वाब मे चांदनी सा बिछलती है
तुम कहते हो देखूं न छुऊँ न सूघूं न उसे
कैसे हो सकता है वो सांसों मे महकती है
सरगम हो जाए है हमारी हर सुबह तब,
जब आंगन मे वह बुलबुल सा चहकती है
कभी बाहों मे झुलाऊँ कभी उर मे बसाऊँ
गुलशन सी लगे जब वो सजती संवरती है
बादल सा मुखड़ा और समंदर सी आखें
परी सी लगे है जब वो बाहों में उतरती है
मुकेश इलाहाबादी -----------------------
अलाव बुझ चुका है अब शरारे नही हैं
अलाव बुझ चुका है अब शरारे नही हैं
फिजाओ मे भी अब वो नजारे नही हैं
क्यूं बेवजह राह तकते हो तुम उसकी
गैर हो चुके हैं वो अब तुम्हारे नही हैं
स्याह नागिन सी रात फैली है चुपके.2
फलक पे चांद नही है सितारे नही हैं
तुम्हे क्या पता है मुफलिसी के मायने
तुमने कठिन दौर अभी गुजारे नही है
हर सिम्त नजर आता आब ही आब है
बीच समंदर मे हो तुम किनारे नही हैं
अलग से ---------------
उदासी की चादर ओढ के बैठे हैं सब !!!
महफिल मे अब पहले से ठहाके नही हैं
कभी फागुन कभी सावन कभी चैती गाते थे
मुददत हुयी अब कोई गीत गुनगुनाते नही हैं
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
फिजाओ मे भी अब वो नजारे नही हैं
क्यूं बेवजह राह तकते हो तुम उसकी
गैर हो चुके हैं वो अब तुम्हारे नही हैं
स्याह नागिन सी रात फैली है चुपके.2
फलक पे चांद नही है सितारे नही हैं
तुम्हे क्या पता है मुफलिसी के मायने
तुमने कठिन दौर अभी गुजारे नही है
हर सिम्त नजर आता आब ही आब है
बीच समंदर मे हो तुम किनारे नही हैं
अलग से ---------------
उदासी की चादर ओढ के बैठे हैं सब !!!
महफिल मे अब पहले से ठहाके नही हैं
कभी फागुन कभी सावन कभी चैती गाते थे
मुददत हुयी अब कोई गीत गुनगुनाते नही हैं
मुकेश इलाहाबादी ---------------------
Wednesday 10 October 2012
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