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Tuesday 30 June 2015

तेरी मासूमियत हमें कुछ कहने नहीं देती

तेरी मासूमियत हमें कुछ कहने नहीं देती
वरना, सोच के तो आये थे बातें बहुत हम
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

सुख , दुःख के हरहराते समंदर के बीच

सुख ,
दुःख के हरहराते
समंदर के बीच
तुम्हारी यादों का टापू

मुकेश इलाहाबादी --

जब, तुम होती हो साथ

एक
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जब,
तुम होती हो साथ
बरसता रहता है
मौन संगीत
अहर्निश

(अब एक लम्बी खामोशी है )
दो
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देखना
एक दिन छंट
जाएंगे हिज़्र के बादल
तब
मुसुकुरायेगा चाँद
हँसेगी रात

मुकेश इलाहाबादी ---------

Monday 29 June 2015

चलो,मुस्कुरा कर देखते हैं

चलो,मुस्कुरा कर देखते हैं 
ग़मो को छुपा कर देखते हैं 

वह भी तो बहुत उदास है  
उसको हंसा कर देखते हैं 

चाँद निकल आया होगा ?
छत पर जा कर देखते हैं 

जानता हूँ, वह न  मानेगी 
फिर भी मना कर देखते हैं  

महताब बदली में छुपा है 
ज़ुल्फ़ हटा कर देखते  हैं 
  


मुकेश इलाहाबादी ------

खिलखिला के हंसती है

खिलखिला के हंसती है,मुस्कुराना नहीं आता
मासूम इतनी कि सजना संवरना नहीं आता
ईश्क  की  बातें वह समझती नहीं और इधर
हाले दिल हमको भी तो समझाना नहीं आता
हमारी तमाम कमियां एक -२ कर गिना गया
मगर हमको अपनी खूबियां बताना नही आया
 मुकेश इलाहाबादी ---------------------------

Thursday 25 June 2015

कुछ तो खुरदुरापन रख ,ऐ दोस्त

कुछ तो खुरदुरापन रख ,ऐ दोस्त
नज़रें टिकती ही नहीं तेरे शीशा ऐ जिस्म पे
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

गर ऐतबार नहीं तुझको

गर ऐतबार नहीं तुझको, मेरी बात पर
क्या रख दूं तेरे सामने मैं दिल निकाल कर
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

आवारगी छाई रही उम्र भर


आवारगी छाई रही उम्र भर 
परिंदगी रास आयी उम्र भर 

भले ही तू छोड़ गयी मुझको 
रूह याद करती रही उम्र भर 

ये और बात हँसता रहा हूँ मै 
चेहरे पे मुर्दनी  रही उम्र भर 

इक  ठिकाने  की तलाश में 
ज़ीस्त भटकती रही उम्रभर 

मुझसे  बिछड़  कर वह  भी  
खुश  न  रह  सकी उम्र  भर 


मुकेश इलाहाबादी -----------

Wednesday 24 June 2015

ज़िंदगी जैसे ठहर गयी हो

ज़िंदगी जैसे ठहर गयी हो
बहती नदी रुक गयी हो 

खिलखिला  के  हसीं थी 
चांदनी  सी बिछ गयी हो

दो बोल मीठे  से उसके
मिश्री  सी  घुल गयी हो

सन्नाटा सुनता हूं, शायद 
उससे कुछ  कह गयी हो

मुकेश तुम चुप हो,  ऐसे
जैसे ज़िदगी लुट गयी हो

मुकेश इलाहाबादी -----

Saturday 20 June 2015

महर्षि पतंजलि योग दर्शन - मेरे व्यक्तिगत नोट्स -

ओम श्री  गणेशाय नमः
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महर्षि पतंजलि योग दर्शन - मेरे व्यक्तिगत नोट्स - योग दिवस पर आप सब से साझा करना चाहता हूँ - और आपके सुझाव व विचार आमंत्रित हैं
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योग। योग ही तो हैं हम। योग के सिवा कुछ हो भी कैसे सकते हैं। क्योंकि हम सिर्फ एक योग हैं महा योग। योग षरीर और मन का। योग मन और चित्त का। योग चित्त और आत्मा का। योग आत्मा और परमात्मा का।

हम कहीं से भी तो खण्ड नही हैं। खण्ड होते तो हम अखण्ड से न जुड पाते। कोई संभावना ही न होती। खण्ड होते तो किसी से प्रेम न कर पाते। खण्ड होते तो हम संवेदनषील न होते, किसी और के प्रति।

खण्ड खण्ड होते तो र्धम की कोई अवधारणा न होती। खण्ड खण्ड होते तो समाज की कोई मुकम्मल तस्वीर न होती। खण्ड खण्ड होते तो परमात्मा को पाने का उस परमप्रसाद को पाने का  कोई उपाय ही न होता।

हम खण्ड खण्ड नही हैं। हम एक जोड हैं, योग हैं। जिसका गवाह यह सारा पसारा संसार है। चिडिया चिरौंधो की गुनगुन उस महा योग का ही तो संगीत है। फूलों की महमह खुशबू  उसी महायोग से तो निंस्रत होती है। सागर की हरहराती लहरें हों कि पहाडों की उंमुक्त चोटियां, या कि नीला आसमानी अनंत आकाष। या कि शावक की मासूम कुलांचे। बच्चों की मासूमियत। सभी कुछ तो गवाही दे रहे हैं। उस परमात्मा की। उस अनंत योग की । उस महायोग की। 

उस योग की  जिसे हम भूल बैठे हैं। या कि हठ कर बैठे हैं, न याद करने की । या कि उस अनादि अनुभव को जो हजारो लाखों जन्मो के बाद महज एक पुरानी याद बन के रह गयी है। और अनुभूति कहीं खो गयी हो। विस्म्रत हो गयी हो। वह रुहानी खुशबू जो किसी लहर की तरह अनंत सागर मे खेा गयी है।

यदि हम एक बार फिर किसी तरह उस अनादि अनुभव  को जी सकें  दोहरा सकें। कि हम योग ही हैं। योग, शरीर और मन का। योग, मन व चित्त का। योग, चित्त और आत्मा का। योग आत्मा व परमात्मा का। तो फिर सचमुच हमे कोई जरुरत ही न रह जायेगी किसी पतंजली की, किसी लाहिडी महाशय  की किसी येागानंद की या कि किसी बाबा रामदेव की।

इनकी जरुरत तो महज इस लिये आन पडी हेै कि हमने अपने आप को खण्ड खण्ड मान लिया है। बिखरा हुआ मान लिया है। और यही अवधारणा तो हमे दूख के महासागर मे डुबाती आयी है। यही अवधारणा ही तो हमारा अज्ञान है अविदया है।  यदि हम एक बार भी, फिर अपने मूल स्वरुप को याद कर सकें,महर्षि पतंजलि के क्रिया योग के अदभुत सूत्रों दवारा। उस अष्टांग योग के दवारा जिसे महर्षि पतंजलि ने मनुष्यता के उपर दया करके आज से लगभग दो हजार साल पहले  प्रतिपादित किया है। तो हम अपने सारे कष्टों व अज्ञान से निजात पा सकेंगे।

चार अध्यायों व एक सोै पंचानबे सूत्रों मे पिरोया अष्टांग योग र्दषन महज एक र्दंषन नही है। एक विचारधारा नही है। एक जीवंत अनुभव है।
पतंजलि के ये सूत्र,  सूत्र नही क्रांति सूत्र हैं। ये सूत्र सूत्र नही अंगारे हैं। जो तपाते नही हैं। बल्कि भस्म करदेते हैं। देते हैं एक रुहानी ठंडक । ये सूत्र बुझा देते हैं अंहकार की धधकती आग को। ज्ञान की धधकती ज्वाला को।
भारत की छह महान विचारधाराओ। षड र्दषन न्याय, वैशेषिक ,सांख्य,योग,मिमांसा,वेदांत मे, पंतजलि योग दंर्षन का महत्व सबसे अलग है। मेरे देखे तो विष्व के तमाम र्दषन एक तरफ रख दिये जायें और अष्टांग योग दंर्षन एक तरफ तो अष्टांग येाग ही भारी पडेगा। क्येाकि यह महज शब्दों का मकड जाल नही है। मात्र विचारो का खण्डन मण्डन नही है। बल्कि, यह ज्ञान और क्रिया का योग है, जो योग कराती है परम सत्ता से। संसार का अस्तित्व भी तो महज क्रिया ही तो है। क्रिया बंद संसार खत्म। संसार का अस्तित्व ही तब तक है जब तक क्रिया है। इसी लिये पतंजलि कह सके कि क्रिया को क्रिया से ही जानो तभी अक्रिया मे उतर सकोगे। सत्य को जान सकोगे। और वे मानवता को दे सके एक अनमोल भेंट। क्रिया योग विज्ञान। पतंजजलि योग विज्ञान।  

पतंजलि ने अपना सारा ज्ञान सारा विज्ञान सूत्र मे कहा है। इशारे मे कहा है। व्याख्या दूसरो के उपर छोड दी है। क्योंकि यहां पतंजलि जिस स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं। जिस अनुभव की बात कर रहे हैं। वहां ज्यादा से ज्यादा इशारा किया जा सकता है। क्योंकि वह सत्य कहा ही नही जा सकता बताया ही नही जा सकता सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। कहते ही वह बात झूठ हो जाती है, इसलिसे पतंजलि ने सिर्फ इषारा किया है। वह जानते थे कि जितना ज्यादा शब्दों का इस्तेमाल किया जायेगा बात उतनी ही झूठी होती जायेगी। और फिर झूठ से झूठ ही जाना जा सकता है।

इसलिये पतंजलि ने व्याख्या साधक के उपर छोड दी है। क्योंकि जो व्याख्या अनुभव से निकलेगी वही सच होगी। बाकी सब कुछ झूठ होगा। और इसीलिये समय समय पे इतनी व्याख्यायें होती आयीे हैं। और होती रहेंगी।   

योग सिखाता है आप अपने अंदर के रस से कैसे रसमय हों। योग सिखाता है आप अपने अंदर के आनंद से कैसे आनंदित हों। क्योंकि भगवत्ता तो रसमय है।
रसो वैषः -- जब तक हम अपने अंदर के रस से परिचित नही हैं। अपने आप मे आनंदित नही होतेे तब तक ही हम खण्ड खण्ड हैं। वर्ना हम हैं ही अखण्ड। हम हैं ही योगी, महायोगी।
 
मेरे देखे तो योग को योग न कह के वियोग कहना ज्यादा ठीक होगा क्योंकि इसमे कुछ जोडा नही जाता बल्कि छोडा जाता है। घटाया जाता है। घटाया जाता है अपनी व्रत्तियों को चित्त से ताकि चित्त षुद्ध चैतन्य स्वरुप हो सके। आनंद स्वरुप हो जाये।

पर हम कहते हैं इसे योग क्योंकि व्रत्तियों से निव्रत्त हो कर अपने को जोड लेते हैं उस चिदानंद से। परम आनंद से जो हमारा मूल स्वरुप है। जो वास्तव मे हम है ही।
योग अनुभव है। योग यात्रा है। जन्मो जन्मो की।
अष्टांग योग की जितनी भी सिद्धियां हैं, उन सबका सम्बंध मनोमय शरीर से समझना चाहिये ।योग तंत्र की जितनी भी साधनाएं हैं। उन सब मे कुण्डली साधना सबसे सवो्रपरि है। मनोमय शरीर रहकर जीवन यापन करने वाला व्यक्ति कुण्डली को जाग्रत कर सकता है। और असकी षक्ति की सहायता से अपनी आध्यत्मिक उन्नति भी कर सकता है।
योग क्या हैै। ‘योगश्चित्तवृति  निरोधः ’ अर्थात चित्त की बाहय व्रत्तियो का सर्वथा रुक जाना। योग का क्या फल है।‘ तद स्वरूपावस्थानम्’ अर्थात द्रष्टा ‘आत्मा’ की अपने स्वरुपमे स्थिति, क्योंकि द्रस्वप्टव्य भी आत्मा का स्वरुप नही है। अपने स्वरुप मे द्रष्टा और दर्शन कुछ रहता ही नही है। अब यहां यह प्रष्न उठता है कि जब द्रष्टा आत्मा ही है तो वह क्या सदा सर्वदा अपने स्वरुप मे अवस्थित रहेगी। तो इस प्रश्न  के उत्तर मे पतंजलि कहते हैं। ‘वृतिस्वरूपया मित्ररतर’ यद्यपि द्रष्टा पुरुष स्वभाव से असंग और निर्लिप्त है परंतु चित्तरुपी जल की व्रत्ति तरंगो से तरंगायित सा भासता है। इसलिये व्रत्तिरुपी तरंगो के रहने पर द्रष्टा मेे सारुप्य होता है। और अपने मे भेाक्त्रत्व,द्रष्टव्य और भाग्यत्व,द्रष्टव्य षक्ति और चित्त मे द्रष्टतव और भोगत्व षक्ति का अनुभव सा करता रहता है। चित्त व्रत्तियों के निरुद्ध होने पर वह स्वरुप में अवस्थित हो जाता है।जो योग साधना का फल है। इस चतुष्टयी की व्याख्या ही योगर्दषन मे पतंजजि ने की है।

पतंजलि योग षास्त्र हमे ले जाता है परम स्वास्थ की ओर।
स्वास्थ का अर्थ ही है। जो अपने स्व अर्थात स्वभाव मे स्थि अर्थात स्थित है।
जो अपने स्वभाव मे स्थित हो जाता है। वही परस स्वास्थ को उपलब्ध हो जाता है। वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से भी देखें तो हम जब अपने षरीर के स्वभाव के विपरीत जाते हेै। तभी अपने लिये उपद्रव ‘रोग’ पैदा करलेते हैं।
पतंजलि योग महज शारीरिक संपन्नता ही नही  दिलाता बल्कि हमे आध्यात्मिक आकाष चरम स्वास्थ की स्थित मे किसी ध्रुव तारे की तरह प्रतिष्ठित करता है।

सामान्यतह मनुष्य जिसे योग समझता है। वह महज शारीरिक उछलकूद है। चाहे वह योग के नाम पे किया जाने वाले आसन हों या प्राणायाम हों। इन सब क्रियाओं का व्यायाम से ज्यादा महत्व नही है। हां यह जरुर है यह व्यायाम हमे स्वास्थ की ओर ले जाते है। जो आगे की यात्रा का कारण बनते है। पर यह तो योग के दो एक ही अंग है।

अष्टांग योग को पतंजलि ने चार चरर्णो मे व्याख्यायित किया हैं। समाधि पाद। साधना पाद। विभूति पाद। कैवल्य पाद।

इस अष्टांग योग के आठ निम्न अंग हैं इन्ही पे चारों अध्याय में भगवन पतंजलि ने चर्चा की है --

क्रमशः -------------

मुकेश इलाहाबादी ------------

समाधि पाद
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पतंजलि बात शुरू करते है समाधि से। योग के स्वरुप का विवेचन करते हुए। वैसे तोेे इस पाद की रचना समाहित चित्त वाले योगियों के लिये की है। साधारण कोटि  के जीवो के लिये भी ईष्वर प्राणिधान का स्वरुप बता दिया है, परंतु इसमे चित्त की शुद्धि के जो उपाय बताये गये हैं वे कष्ट साध्य हैं। इसलिये महर्षि ने साधन पाद मे कुछ सरल उपायों का विवेचन किया है। 
मनुष्य शरीर मे रह कर परम सत्य के अनुभव की अंतिम अवस्था समाधि ही है। और यह बडी विचित्र बात है कि पतंजलि अपनी बात इस अंतिम परिणति से ही शुरू करते हैं। बात विचित्र जरुर है पर है वैज्ञानिक। क्योंकि समाधि का अनुभव ही हमारा वास्तविक स्वरुप है। इसलिये वे अपनी बात समधि से ही शुरू कर सके क्योंकि जेा अंतिम है वही कहीं हमारा प्रारंभ भी है।

हमारी सबसे बडी दिक्कत है कि हम बेहोषी मे सारा जीवन जीते हैं। होष मे ही खाते है,पीते हैं,सोते हैं, जागते हैं। और बेहोषी मे ही पैदा होते हैं। अरे भाई जो बेहोष मरेगा वह बेहाष ही तो पैदा होगा। और बेहोषी ही हमारा दुख है। समाधि हमे होश की तरफ ले जाती है। होष के सूत्र देती है। लिहाजा जो होश  पूर्वक जी सकेगा वोही संसार के बंधन से मुक्त होने की  कला जान सकेगा। क्योंकि र्मुछा ही बांधती है।
जिस दिन बेहोषी टूटी, र्मुछा टूटी उसी दिन संसार की यात्रा खत्म।
समाधि द्वार बनती है अनंत यात्रा का। समाधि होश ही बन जाने का कारण बनती है। समाधि प्रथम बिंदु बनता है अनंत यात्रा का इसीलिये पतंजलि का सीधे समाधि से यात्रा करना समाधि की बात करना तर्कयुक्त व वैज्ञानिक है।

समाधि द्वार बनती है उस अनंत अनुभव का, उस असीम आनंद का जो हमारा आरंभ हेै यात्रा है परिणति भी, और लक्ष्य भी। किंतु हमे इस लक्ष्य और परिणति का बोध समाधि मे ही अनुभव होता है। क्योंकि कोई भी यात्रा द्वार से ही निकल के प्रारंभ की जा सकती है। उसके पहले तो हम कोठरी मे बंद होते है। काल कोठरी । कोठरी अज्ञान की । कोठरी अंहकार की, आलस्य संचित कर्मो की।
जब हम समाधि मे उतरते है। तो एक नया द्वार खुलता है। अनंत को नये नये अनुभवों का ज्ञान का। इसी लिये समाधि से बात करना ही वैज्ञानिक है।
जब तक हम समाधि मे नही उतरते तब तक हम कितनी भी बातें करलें कितना भी विवाद करलें। कितना भी उछलकूद करलें। अनुलोम विलोम करलें। उन सब को कोई मतलब नही। कोई फायदा नही। वह सब महज एक व्रत्त मे घूमना है गोल गोल गोल। कोल्हू के बैल सा।
समाधि का जितना प्रयोग तिब्बती सभ्यता ने किया है उतना दुनिया की किसी सभ्यता ने नही किया है। उनका पूरा विज्ञान ही समाधि आधारित है।एक तिब्ब्बती समाधिस्थ व्यक्ति से ही मंत्र पूंछेगा,जडी बूटी पूंछेगा, ज्ञान पूछेगा। उनके लिये समाधिस्थ व्यक्ति ही सारी समस्याओं का हल करने वाला होता है।
प्रक्रति की तरह समाधि भी त्रिगुणात्मक है। सात्विक,राजसिक व तामसिक।
समाधि के संर्दभ मे आगे चिचार किया जायेगा।
इसके अलावा, योग का उपक्रम,योग का लक्षण, योग के व्रत्ति लक्षण, योग के उपाय, योग के विभेद ये पांच विषय प्रथप पाद यानी समाधि पाद मे निरुपित किये गये हैं।
योग आत्मा का विज्ञान है। ब्रम्ह विज्ञान है।

पहला सूत्र ...... अथ योगानुषासनम

अथ योग अनुषिष्ट हो रहा है।
अथ अर्थात अब। अर्थात ‘योग की अंतिम उपलब्धि’। अर्थात अभी से। अर्थात उस वक्त से जिस वक्त से हम योग की तरफ उन्मुख होते हैं।
यहां पतंजलि यह मान कर चल रहे हैं। कि योग की पारंभिक उपलब्धि हम प्राप्त कर चुके हैं। बात सच भी है और काफी महत्व वा वैज्ञानिकता लिये हुए है। क्योंकि जैसे ही हम योग की तरफ उन्मुख होत हैं। तो कही न कहीं हम यह मान लेते हैं कि हमारी सत्ता परम सत्ता से अलग नही है। और जब हमने यह मान लिया है तो कल जान भी लेंगे। और मान भी इस लिये रहे है कि कहीं न कहीें हमारी जडें उस परम आनंद व परम सत्ता से जुडी हैं। जहां असीम स्वतंत्रता है। असीम आनंद है। जो हमारी अंतिम परिणति है। और  आज नही तो कल हमे जो हो ही जाना है।

अथ अर्थात अब। इसे हम इन अर्थ्रेा मे भी तो समझ सकते हैं। जब जागे तभी सबेरा। अर्थात हमने अपनी आंखे खोल ली है।उस असीम के दर्षन के लिये। उस सूरज के लिये पलक पांवडे बिछा दी है। अब हमने अपनी मंजिल जान ली है। अब  तो बस दूरी तय करने की बात रह गयी हैै। तो दूरी आज नही तो कल तय हो जायेगी। होही जानी है।
इसी लिये पतंजलि कह सके ‘अथ’ अर्थात योग का अंतिम अध्याय यहां से षुरु होता है।
अथ षब्द यह भी बताता है कि पतंजलि से पहले भी योग की परंपरायें थी। जिन्हे महर्षि पतंजलि ने व्यवस्थित रुप दिया। और कह सके अब योग का अंतिम व व्यवथित रुप प्रस्तुत है। जिसके आगे कुछ और नया जोडने को नही रह जाता। और पतंजजि का दावा मात्रा दावा ही नही रहा। दो हजार सालो मे इससे ज्यादा वैज्ञानिक विधि आज तक नही ढूंढी जा सकी।

इसके अलावां जो दूसरी महत्व पूर्ण बात पतंजलि कह रहे है। वह अंतिम अध्याय। अंतिम भी इसी लिये कह सके कि जब मंजिल तय हो ही चुकी है। तो अब कोई कारण नही बनता वहां न पहुचने का।

अथ के अर्थ के सम्बंध मे ओषो कहते हैं। यदि तुम्हारा मेाहभंग हुआ है,यदि तुम आशारहित हुए हो, यदि तुमसब इच्छाओं की र्व्यथता को पूरी तरह जान लिया है, यदि तुमने देखा है कि तुम्हारा जीवन अर्थहीन है, और जो कुछ भी अब तक तुम कर रहे थे वह सब बिलकुल निर्जीव होकर गिर गया है, यदि भविष्य मे कुछ भी नही बचा है, यदि तुम समग्र रुप से निराषा मे डूब गये हो, जिसे कीर्कगार्द ने तीव्र व्यथा मे हो , पीडित। नही जानते कि क्या करना है, कहां जाना हेै, किसकी सहायता खेाजनी है, बस पागलपन या आत्महत्या या म्रत्युकी कगार पर खडे हो, यदि तुम्हारे पूरे जीवन का ढांचा अजानक र्व्यथ हो गया है। ओैर यदि एैसा क्षण आ गया है तो पतंजलि कहते हेैं। अब येाग का अनुषासन।
और एैसा क्षण नही आया है तो योग के अघ्यन का कोई मतलब न होगा। वह हमारे प्राणेां को स्पंदित न करेगा। वह हमारी आत्मा को न छू सकेगा।

अथ का अर्थ यहां मंगल व अधिकार के रुप मे भी लिया गया है।

सूत्र का दूसरा शब्द है योग। मनुष्य षुरुआत से ही अपने अस्तित्व व संसार के  अस्तित्व को लेकर  कुछ मूलभूत प्रश्नो से जूझती आयी है। जिनका उत्तर हर सभ्यता व समाज अपने अपने ढंग से खोजती आयी है। और आगे भी खोज जारी रहेगी। उन तमाम रास्तो मे भारत दवारा खोजे गये कुछ रास्ते मील का पत्थर साबित हुए हैं। जिनसे हजारो लोगो ने लाभ उठाया है। उन रास्तो को या उन तरकीबो को ही भारत ने योग कहा। राजयेाग,भक्ति योग,ज्ञान येाग,कर्म योग,हठ योग, तंत्र योग,सहज योग आदि कई योग इन्ही रास्तो के नाम हैं। जिनसे मानवता अपने तमाम शंका समाधान से निजात पाती रही है।
योग का आदि वक्ता हिरण्यगर्भ को माना जाता है।‘हिरणयगर्भे योगस्य वक्ता नान्यो पुरातना’ हिरण्यगर्भ का उल्लेख श्र्रगवेद और यजुर्वेद मे मिलता ही है। वास्तव मे हिरण्यगर्भ नाम ही ऐसा है जो योग की प्रक्रिया की ओर संकेत करता है। हिरण्य अर्थात माया। माया के गर्भ मे रहने के कारण ही तो पुरुष अपने स्वरुप को भूला हुआ है। और उसकी चित्तव्रत्तियां बाहय जगत मे दौड रही हैं। यदि उनका निरोध हो जाय तो निष्चित ही वह अपने स्वरुप मे अवस्थित हो जाय। इसी का नाम योग मे कैवल्य है। यह किस प्रकार हो सकता है। इसका उपाय योग दर्षन का प्रतिपादय विषय है। एक प्रकार से हम कह सकते हैं कि योग सूत्रांे का महत्व कम नही, क्यांकि उसमे जीव ‘द्रष्टा’, चित्त ‘मन’ चित्त की व्रत्तियां ईष्वर तथा भौतिक जगत आदि पर भी विचार हुआ है।


तीसरा षब्द अनुषासन काफी महत्व का है। यह शब्द अनुबंध चतुष्टय का सूचक है।
इस अनुबंध चतुष्टय से आशय .. विषय, प्रयोजन, अधिकारी, और संबंध से है। ग्रंथ का विषय यहां योग है। जिसकी सूचना पहले ही सूत्र से मिल जाती है।
अनुषासन का अर्थ है अपने भीतर एक व्यवस्था निर्मित करना।
ओषेा कहते हैं योग अनुषासन है का मतलब कि अपने अंदर एक एकजुट केंद्र का निर्माण करना। अनुषासन का अर्थ है डिसीप्लिन। अनुषासन का अर्थ है सीखने की क्षमता। जानने की क्षमता।
इस सूत्र की व्याख्या करते हुऐ व्याख्याकारों ने चित्त की पांच अवस्थाओं बतायी हैं। जिन्हे हम योग की भाषा मे चित्त की भूमि कहेगें।
क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध।
क्षिप्त भूमि।


दूसरा सूत्र ..... योगष्चित्तव्रत्तिनिरोध

चित्त व्रत्ति के निरोध का नाम योग है।
योग की परिभाषा के साथ शुरू होता है यह सूत्र। दूख के मूल कारण को बताते हुए षूरु होता है यह सूत्र। दुख से दूर होने का सूत्र देता है यह सूत्र।अदभुत सूत्र है यह।
‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ’। चित्त की व्रत्तियों का निरोध ही योग है।
आइये उतरते हैं सूत्र मे।

‘चित संज्ञाने’ धातु से ‘चित्त’ षब्द बनता है। अर्थ है ‘ज्ञान प्राप्ति का साधन’। यह ज्ञानस्वरुप ‘जीवात्मा’ के संयोग से अथवा प्रतिबिंब के पडने से बिम्ब.बिम्बी भाव को प्राप्त हो एवं चेतनवत बनकर ‘जीवात्मा’ के लिये ज्ञान तथा कर्म दवारा समस्त भोगो्र का सम्पादन करता है। जीवात्मा सहित सब संस्कारों वा वासनाओं तथा स्म्रति को ‘बीज रुप’ से  अव्यक्तभाव से अवधारण करने वाला, आत्म संयोग से सदा विषेष प्रख्यातषील वा सुदीप्त एवं गतिषील बना हुआ सदा सूक्ष्मप्रण रुपी क्रिया वा जीवनी षक्ति का उत्पादक ‘जीवात्माा’ के स्वरुप का प्रकाषक वा दयोतक, आत्मा सयोग से सदा सचेतन सा भासने वाला, और संकोच विकासषील होने से ‘मध्यमपरिणामी’ है।
चित्त की पांच भूमि मानी गयी है। क्षिप्त,मूढ, विक्षप्त, एकाग्र और निरुद्ध।

मन मे अचानक स्फुरण होता है। एक भाव उठता है। उस भाव को हम पुष्ट करते हैं तो विचार बनता है। उस विचार को जब हम दोहराते है। या उस विचार के अनुसार गति करते है। तो विचार संकल्प बन जाता है। और वह संकल्प पुष्ट होकर व्रत्ति बनता है। वही व्रत्ति हमारे सुख दुख का कारण है।
जिसे हम साइकिक इंप्रेषन भी कह सकते हेै।

और सूत्रों पे आगे चर्चा जारी रहेगी .

साधना पाद
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जब हम किसी यात्रा को उत्सुक होते हैं तो हमारे सामने निष्चित ही कोई एक लक्ष्य होता है, उददेष्य होता हेै। जिसे साध लेना होता है। और उस साधन के लिये कुछ क्रिया आवष्यक होती है उसी यात्रा को उसी क्रिया को पतंजली ने एक क्रम दिया है। जिसे हम पतंजलि योग दर्षन के साधना पाद के नाम से जानते हैं। 
वैसे तो परमलक्ष्य को जानने का कोई एक मुकम्मल रास्ता नही है। हर एक बुद्ध को अपना रास्ता रहा है। तभी तो क्रष्ण मूर्ति कहे जाते हैं। सत्य को जानने का कोई रास्ता नही है। कोई तरकीब नही है।
उसे हम इस तरह से भी कह सकते है। सत्य को ढूंढना अंधेरे कमरे मे उस बिल्ली को ढूंढना है जो वहां होती ही नही है।
हां, उसके कुछ इषारे जरुर किये गयें है। सूत्र दिये गये हैं। और बात इन इषारों और सूत्रों के आगे बढ भी नही सकती क्येां कि हम बात या व्याख्या जितनी ज्यादा करते है। हम उतने ही उलझते जाते हैं। और फिर वाद, एक और वाद और फिर उनके प्रतिवाद बनते चले जाते हैं। जिनसे हमारी षब्द सम्पदा तो बढ जाती है। पर यात्रा वहीं रुकी रह जाती है। और एक दिन हम पाते हैं कि हम चले तो बहुत पर महुंचे कहीं नही। और तब हम महज वही ठिठके और ठगे रह जाते है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। और चिडिया खेत चुग चुकी होती है।
इसी लिये पतंजली ने महज सूत्र दिये हैं। ताकि उलझाव कम से कम हो।
पूरी यात्रा को पतंजलि आठ पडावों मे बांटते हैं। इस अघ्याय मे उन्ही पडावों की बात करते हैं। कहते हैं।
‘यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधि अष्टवंगानि’
इन पडावों को हमे एक एक कर पार करना होगा तभी हम उस अनुभव को पा सकेंगे। अगर हम कूद कूद कर चलेंगे तो महज गिरेंगे और अपनी टांग तोडेंगे। या फिर महज एक व्रत्त मे घूमते रहेंगे गोल गोल, गोल गोल कोल्हू के बैल की तरह। आइये हम साधनपाद के सूत्रों मे प्रवेष करें ।


विभूति पाद
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विभूति पाद मे महर्षि सिद्धियों की चर्चा करते हैं। सिद्धियां जो प्रतिफलन हैं योग यात्रा की। सिद्धियां जो बाधक हैं परम प्राप्ति की।
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       
योग योग योग । आजकल जिसे देखिये योग सीखने चला जा रहा है। योग के पीछे दीवाना हुआ जा रहा है। जगह जगह योग सिखाने की दुकाने खुल गयी हैं। हर टी वी चैनल हर रोज सुबह षाम योग के कार्यक्रम दिखाने मे लगे हैं। यह अच्छा है। षुभ है। चलो मानव ने कुुछ तो सही दिषा मे बढना षुरु किया, भले ही वह सेाच भौतिक तल पर ही है। पर कुछ तो सकारात्मक दिशा मे यात्रा शुरू की है।

निसंदेह  इस सब का काफी हद तक श्रेय योग मनीषी बाबा रामदेव व आयंगर जी जेैसे लोगो को जाता है। जिनके भागीरथी प्रयासों का यह शुभ परिणाम है।

और जिस रफतार से लोगों की रुझान योग ध्यान व आध्यात्म की तरफ बढ रहा है उसको देख कर यह कहा जा सकता है कि जल्दी की भारत एक बार फिर अपने पुराने गौरव को प्राप्त करेगा।

पतंजलि ने योग शब्द काफी सोच विचार के इस्तेमाल किया है। कारण मानव अगर भौतिक तल पे जीता है तो अपने आप को केवल शरीर मान लेता है। और अगर आध्यात्मिक तल पे जीता है तो अपने आप को आत्मा या जीव जैसी कोई सत्ता समझ लेता है। और अगर नास्तिक हुआ तो अपने आप को शून्य या उर्जा समझजने लगता है। 
मै यह नही कहता वे गलत हैं किन्ही संदर्भो मे वे सही हो सकते है। अपने अनुभव के तल पे उनकी बाते ठीक हो सकती है।
पर एक संदर्भ मे देखा जाय तेा ये सारी बाते ठीक नही हैं।
ठीक तो यह है कि हम एक जोड है। षरीर मन और आत्मा जैसे तत्वों का। हम न केवल षरीर हैं और न केवल आत्मा या न केवल उर्जा।
और यही बात महर्षि पतंजलि के योग दंर्षन से परिलक्षित होती है।

योग पर चर्चा करने के पहले जरुरी है कि हम कुछ मूलभूत शुरुआती बातो को समझ लें क्योंकि बिना उनके जाने योग पर चर्चा करना ज्यादा फायदे मंद न होगा।

पतंजलि ने कहीं कहा है पूरा जीवन योग और योग ही जीवन है।

मुकेश श्रीवास्तव


Friday 19 June 2015

हिज़्र, जीने नही देता

हिज़्र, जीने नही देता
ईश्क मरने नहीं देता

शर्म ओ हया हमको
कुछ कहने नही देता 

ज़ोर ऐ तूफ़ान है,कि 
हमे  बहने नहीं  देता

पर लेकर बैठा हूँ पर
सूरज उड़ने नही देता

शोरो - गुल इस क़दर 
कुछ सुनने नहीं देता

मुकेश इलाहाबादी ---

Thursday 18 June 2015

तुझे फिर याद करना चाहता है

तुझे फिर याद करना चाहता है
दिल मेरा उदास होना चाहता है

देख लेने भर से जी नहीं भरता
जी तुझे जीभर देखना चाहता है

या तो तेरा साथ हो सुबहो शाम
वर्ना दिल तन्हा रहना चाहता है

सिर्फ एक बार मेरी बात सुन लो
दिल बहुत कुछ कहना चाहता है

मेरे पास लतीफों का खज़ाना है  
आ,मुकेश तुझे हँसाना चाहता है

मुकेश इलाहाबादी ---------------

Monday 15 June 2015

लाल हरी व नारंगी देखा

लाल हरी व नारंगी देखा
दुनिया रंग रंगीली देखा
सत्ता औ पैसा वालों को
अक्सर बडा घमंडी देखा
फूल सी कोमल नारी को
भी हमने बनते चंडी देखा

देखा हमने बडे - बडों को
सबकी चाल दुरंगी देखा

सात सुरों से सजा धजा
जिस्म बना सारंगी देखा

मुकेश इलाहाबादी -----

वो और होंगे जो पैसे से मोल भाव किया करते हैं

वो और होंगे जो पैसे से मोल भाव किया करते हैं
हम तो बाजारे मुहब्बत में बेमोल बिका करते हों
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------

Friday 12 June 2015

दिल के मोम थे, पथरीले हो गये

दिल के  मोम थे, पथरीले हो गये 
हम इतना टूटे कि, रेतीले हो गये  

बातों मे मधुरता न मिलेगी,अब  
ज़ुबान  के  भी  ज़हरीले  हो गये  

आसानी से कुछ भी नहीं मिलता  
हर बात के  लिए, हठीले  हो गये 

बदन पे हमने कांटे  उगा  लिए हैं 
छू के देखो कितने नुकीले हो गये  

मुकेश तेरी आखों की मय पी कर 
हम भी तेरी तरह नशीले हो  गये 

मुकेश इलाहाबादी ---------------

Thursday 11 June 2015

अपने जिस्म के ताबूत मे जिंदा हूं

अपने जिस्म के ताबूत मे जिंदा हूं
देख  तो तू  मै हरहाल मे जिंदा हूं

यादों  का  एक  जंगल छोड गये थे
आज तक उसी बियाबान मे जिंदा हूं

जमाने ने कोई कसर न छोडी पर
मै अपनी खददो-  खाल मे जिंदा हूं 

टूट गया कांच सा वजूद, फिर भी
मुकेश, मै अपनी शान मे जिंदा हूं 

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Tuesday 9 June 2015

छाँव ही छाँव ढूंढते रहे

छाँव ही छाँव ढूंढते रहे
धूप को ही उलीचते रहे

आब -ऐ -ईश्क़ न मिला
तिश्नगी अपनी पीते रहे

शब्, ग़मे अब्र खूब बरसे
जिस्मो जाँ से भीगते रहे


मुकेश दीवारे हया न टूटी
जबकि रोज़ ही मिलते रहे

मुकेश इलाहाबादी -----

Sunday 7 June 2015

बुझा के चराग़ सोचता है


बुझा के चराग़ सोचता है जालिम, की अब उजाला न होगा 
उसको क्या मालूम दिल मेरा किसी आफताब से कम नही 
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------------------

Saturday 6 June 2015

रोशनी कुछ इस तरह किया जाये

रोशनी कुछ इस तरह किया जाये
बुझा के चराग़ चाँद उगा दिया जाए

मुहब्बत की आग और भड़काता है
कि चेहरे से नक़ाब हटा दिया जाये

मेरे हाथों से सारी लकीरे मिटा कर
सिर्फ महबूब का नाम  लिखा जाए

उसने मेरी मुहब्बत क़ुबूल कर ली
उसके  साथ  मेरा नाम लिया जाए

किताबे ज़ीस्त में उसका ही नाम हो
मुकेश, बाकी  हर्फ़ मिटा दिया जाये 

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Thursday 4 June 2015

ओस हूं मै,धूप होते ही बिखर जाता हूँ

ओस हूं मै,धूप होते ही  बिखर जाता हूँ 
फूल  सा जिस्म छू दे तो संवर जाता हूं 

मै वो दरिया नही कि जो समंदर  ढूंढूं 
जहां - जहां सहरा है मै उधर जाता हूं 

तू मेरे पीछे पीछे आ,और आ कर देख
शाम के बाद मै किधर किधर जाता हूँ  

चाँद हूं, फ़लक मेरा आसियाना, रात  
तेरी झील सी आखों मे उतर आता हूं

मुकेश, मै बंजारा, चलना मेरी आदत
ये अलग बात तेरे दर पे ठहर जाता हूं


मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Wednesday 3 June 2015

ऑखें दो से चार होना चाहती हैं

ऑखें दो से चार होना चाहती हैं
बातें कुछ खाश करना चाहती हैं

बदलियां नीर से भर चुकीं, अब
कहीं न कहीं बरसना चाहती हैं

देखो हो गया है मौसम सुहाना
दिले कलियॉ खिलना चाहती हैं


मेरे प्यार व जज्बातों की बुलबुल
तुम्हारे संग चहकना चाहती है


छोडो, गिले शिकवे चले आओ
बहारें तुमसे मिलना चाहती हैं


मुकेश इलाहाबादी -------------

Tuesday 2 June 2015

नशे मे नही दर्द से बोझिल है ऑखें

नशे   मे नही दर्द से बोझिल है ऑखें
जाने कितने ग़मो से गाफिल हैं ऑखें

यूं देखों तो बडी मासूम सी लगती हैं
ईश्क की साजिश मे शामिल हैं ऑखें

बेवजह दिल को लोग देते हें इल्जाम
हमसे पूछों, कितनी क़ातिल हैं ऑखें

तमाम जज्बातों का दरिया समेटे हुये
आशिक  के लिये तो साहिल हैं ऑखें

मुकेश, जहां चुप हों जायें हैं अल्फाज 
हर वो बात कहने मे काबिल हैं ऑखें


मुकेश इलाहाबादी -------------------

Monday 1 June 2015

रोशनी लापता थी

रोशनी  लापता थी
शाम  ग़मजदा थी

चॉद तो उगा था पर  
चॉदनी  बदगुमा थी

बादलों मे आग औ
तेजाब सी हवा थी

मीलों लम्बा रास्ता 
सर्द -सर्द  फिजा थी

और मै क्या कहूं ?
ज़िदगी   ख़फा  थी

मुकेश इलाहाबादी --