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Tuesday 30 July 2013

बैठी है उदासी देर से



बैठी है उदासी देर से

ओढ़े खामोषी देर से



रोषनी के इन्तजार मे

फैली है तीरगी देर से



बादलों के हिजाब मे

छुपी है चांदनी देर से



प्रिय के वियोग मे गोरी

बैठी है अनमनी देर से



उदास ऑखों मे मुकेष

ठहरी है नमी देर से



मुकेष इलाहाबादी ....

Sunday 28 July 2013

सजा जुर्म ए खुददारी सहे जाता हूं

सजा जुर्म ए खुददारी सहे जाता हूं
जमाने मे सबसे जुदा हुए जाता हूं

मुहब्बत इमानदारी मेहनत उसूल है
इन उसूलों को लिये जिये जाता हूं

रुह तडपती है मुहब्बत की खातिर
और आग का दरिया पिये जाता हूं

जिस्म मे जोष औ नरमी रवां थी
अब सारा लहू तेजाब हुऐ जाता है

गर इन्सानियत न सुधरी तो देखना
कयामत आयेगी जरुर कहे जाता हूं

मुकेष इलाहाबादी ...................

Saturday 27 July 2013

चांदनी सा उजाला ले के बैठे हैं

चांदनी सा उजाला ले के बैठे हैं
अपने महबूब के पहलू मे बैठे हैं

आज मैखाने हम न जायेंगे दोस्तों
कि हम जाम ए लब पी के बैठे हैं

फरिस्ते भी आयें तो कह दो कि,
अभी हम दिलेजॉ को लेके बैठे हैं

गुले गुलशन ले के क्या करेंगे ?
कि खजाना ऐ खुष्बू ले के बैठे हैं

चॉद निकले न निकले उसकी मर्जी
हम तो अपना चॉद ले के बैठे हैं

मुकेश  इलाहाबादी .................

जिंदगी गुजर रही है मैखानो मे

जिंदगी गुजर रही है मैखानो मे
हैं अश्क मेरे ढल रहे पैमानो मे

दवा ऐ इश्क ढूंढता फिर रहा हूं
इन चकमक दकमक दुकानो मे

इक जंगल छुपा है मेरी ऑखों मे
क्यूं दूर जा रहे हो वियाबानो मे

तुम बेकार ढूंढ रहे हो इन्सानो को
मुर्दे रहा करते हैं इन मकानो मे

जो खिलखिलाती रही धूप दिन भर
शाम से उदास बैठी है दालानों मे

मुकेश  इलाहाबादी .................

Friday 26 July 2013

पत्थर ही सही हमको छू के तो देखा होता

 
 
पत्थर ही सही हमको छू के तो देखा होता
मोम न बन गये होते हो कहा होता ????

मुकेष इलाहाबादी .......................

हुस्न खुदा की नेमत है इसपे इतना इतराना क्या ?

हुस्न खुदा की नेमत है इसपे इतना इतराना क्या ?
जरा जरा सी बात पे इस तरह रुठ जाना कया ?

दोस्ती की है तो थोडा दिल भी बडा रखिये जनाब
हर किसी की हर बात पे तंग नजर रखना क्या ?

कोई जरुरी तो नही कि हर इन्सान गलत ही हो,,
हर शख्श,हर रिष्ते को इक तराजू मे तौलना क्या ?

फिर मुकेश तो अलग किस्म का इन्सान था दोस्त
उसे भी तुम्हारा इस तरह बिन बात छोड जाना क्या?

मुकेश  इलाहाबादी ..................

Thursday 25 July 2013

एक दिन मै अपने दिले आइना से

एक दिन मै
अपने दिले आइना से
रुबरु हुआ मेरे एक नही
कई कई रुप हैं
महसूस हुआ

झूठा चोर आलसी
स्वार्थी के साथ साथ
बाहर से लेकर अंदर
तक गंदा भी हू मालूम हुआ
मैने घबरा कर
अपने मुह को पोछा
बालों को कंघी किया
और अपने को
कई कई एंगल से देखने लगा

दिले आइना हंसने लगा
जिस्म चमकाने से रुह नही चमकती
एंगल बदलने से सच नही बदलते
मै कुछ शरमा गया
कुछ और ज्यादा घबरा गया
दिले आइना पे परदा लगा दिया

अब मै अपने नही
दूसरों के आइने मे देखता हूं
और अपना काम चला लेता हूं

मुकेश इलाहाबादी ..................

बंद सीलिंग फैन

बंद सीलिंग फैन 
की पंखुडी पे बैठी
चिडिया को देखती है 
टुकुर टुकुर,,

चिडिया कुछ देर
यूं ही झूलेगी, फिर 
कमरे का चक्कर लगा के 
उड जायेगी वातायनो से 
अनन्त आकाश मे और, 
वह फिर रह जायेगी
सुनती हुयी कमरे की खामोशी 
सनन सनन 

मुकेश इलाहाबादी .....

अपनी हाथ की लकीरों मे हमे ढूंढते हैं





!!अपनी हाथ की लकीरों मे हमे ढूंढते हैं,,!!
!!उन्हे क्या पता हम उनकी रुह मे बसे हैं!!
मुकेश  इलाहाबादी..........................

दिन दोपहरी या रात नही देखती


दिन दोपहरी या रात नही देखती
अब ऑखें मेरी ख्वाब नही देखती

देह थक के चूर होती है तो नींद
जमीन या टूटी खाट नही देखती

मौत आती है तो आ ही जाती है
मौत धूप या बरसात नही देखती

प्रक्रित जब इंषा से खफा होती है
महल हो या टूटा छप्पर नही देखती

इंषान मेहनत करने पर आये तो
किस्मत हाथ की लकीर नही देखती

मुकेष इलाहाबादी ..............

Wednesday 24 July 2013

हम मीर के घर गये मीर न मिला

हम मीर के घर गये मीर न मिला
ग़ालिब भी अपने घर से थे लापता
गजल की जगह लिख रहे हैं हजल
मुकेष तुम्हे मुकम्मल उस्ताद न मिला

मुकेष इलाहाबादी .................

वो तो मेरी सूरत देख कर मुड़ गया पत्थर

वो तो मेरी सूरत देख कर मुड़ गया पत्थर
उसने तो निशाना साध कर मारा था पत्थर

धूप पानी और हजारों चोट सह गया पत्थर
आ करके तेरे पहलू मे मोम हो गया पत्थर

जर्रा जर्रा टूट कर है सहरा हो गया पत्थर
देख इन्सानियत शर्मिन्दा हो गया पत्थर

आदम को पहला घर गुफा था दे गया पत्थर
खुदा जब सामने आया बुत बन गया पत्त्थर

भटकने से बचाता यही बनके मील का पत्थर
अपना सीना चीर के दरिया बहा गया पत्थर

अब कॉच के घर बना इंसा भूल गया पत्थर
अब आदम कांच के घर पे फेंकता है पत्थर

मुकेश इलाहाबादी ........................

Tuesday 23 July 2013

बिन चॉद सितारों का





बिन चॉद सितारों का
आसमॉ देखते हैं
ख्वाब मे भी खुद को
 

तन्हा देखते हैंछोड़ के गये हो
जब से तुम ये घर
कभी सूना ऑगन
कभी सूनी दालान दालान देखते हैं

कभी अरगनी पे उदास चुनरी
तो कभी खाली आईना देखते हैं

रसोंई मे पडे चुपचाप
बर्तनो को देख्ता हैं
तो कभी बिस्तर पे बिन
सलवटों की चादर देखते हैं

जरा सी आहट हो तो
लगे कि तुम आयी हो
फिर छत पे जा के
सूनी छत से
सड़क पे दूर तक, हम
यहां से वहां तक देखते हैं

जब से छोड के गये हो तुम
हम तुम्हे न जाने कहां कहां
देखते हैं

कभी सूना घर तो कभी सूना
ऑगन देखते है

ख्वाब मे भी आजकल
खुद को तनहा देखते हैं

मुकेश इलाहाबादी ....

बादल भी तेरे शहर मे थम थम के बरसते हैं,,
























बादल भी तेरे शहर मे थम थम के बरसते हैं,,
जो तुम अपने गीले गेसू रह रह के झटकती हो
मुकेश  इलाहाबादी ......................

रह रह के सीने मे टीस ये उभर आती है





















रह रह के सीने मे टीस ये उभर आती है
वो हमारे फन के तो कायल हैं,हमारे नही

मुकेष इलाहाबादी ....................


हमारे ही सितारे गर्दिश मे थे, वर्ना

 
 
हमारे ही सितारे गर्दिश मे थे, वर्ना
लोग हम पे यूं ही उंगलियां न उठाते

मुकेश इलाहाबादी ..............

Monday 22 July 2013

जज्बा औ हौसला बनाये रखिये

जज्बा औ हौसला बनाये रखिये
दरिया ऐ मुहब्बत बहाये रखिये

जमाना आज नही तो कल बदलेगा
मशाल ऐ इन्कलाब जलाए रखिये

मानता हूं दौर बहुत कठिन है पर
थोडी तो इन्सानियत बचाऐ रखिए

जब तक सच्चा हमदर्द न मिले तो
ग़म अपना सबसे छुपाये रखिये

पेड़ औ पौधे जमीन के जेवर हैं 
इस मॉ के गहने बचाए रखिये

मुकेश  इलाहाबादी ................

लब पे कुरान लिये फिरते हैं

लब पे कुरान लिये फिरते हैं
दिल मे दुकान लिये फिरते हैं

रोज कसम खाते हैं गीता की
हाथों मे ईमान लिये फिरते हैं

सत्य अहिंसा प्रेम की बाते हैं
तीर औ कमान लिये फिरते हैं

षिर छुपाने के इक छत चाहिये
तमन्ना ऐ मकान लिये फिरते हैं

गरीबी न सही गरीब मिटा दो
हुक्मरान फरमान लिये फिरते हैं

मुकेष इलाहाबादी ..............

Sunday 21 July 2013

गोरी पनघट पर आओ तुम

गोरी पनघट पर आओ तुम
दरिया हूं भर ले जाओ तुम

चॉद सितारा बन चमका हूं
आंगन मे आ के नाचो तुम

बनके फूल मोगरा महका हूं
गूंथ के गजरा सजा लो तुम

प्रिय सावन का मै झूला हूं
अब प्रेम पींग बढा लो तुम 










प्रेम नगीना बन के आया हूं
कंठ हार मे जडवा लो तुम

मुकेष इलाहाबादी ...........

तुम भी अजब यार लगते हो

तुम भी अजब यार लगते हो
मुहब्बत के बीमार लगते हो

किसी के ग़म मे हो शायद ?
उजडे से बरखुरदार लगते हो

बडे अपनेपन से बात करते हो
तुम इंसान तमीजदार लगते हो

रिश्तों मे फासला भी रखते हो
मियॉ बडें दुनियादार लगते हो

मुकेश जमाना तुमसे भीहै खफा
तुम सच के तरफदार लगते हो

मुकेश  इलाहाबादी .............

यादों को बिखेर के बैठा हूं

यादों को बिखेर के बैठा हूं
अपने को समेट के बैठा हूं

चॉद हमसे बेवजह खफा है
अब अंधेरा लपेट के बैठा हूं

पैरों की जमीन न खिसके
दरो दीवार टेक के बैठा हूं

न जाने कौन डंक मार दे
जगह खूब देख के बैठा हूं

लोग सूरज लिये फिरते हैं
अपनी छांह छेक के बैठा हूं

मुकेष इलाहाबादी ........

Saturday 20 July 2013

धूप मे तपन है

धूप मे तपन है
चुप सा चमन है

खुदगर्ज जहां है
अपने मे मगन है

धुऑ ही धुऑ है
तभी तो घुटन है

सभी परॆशान  हैं
ये कैसा चमन है

तुम्हारे शहर मे
झूठ का चलन है

मुकेश इलाहाबादी ..

रोशनी कम होती जा रही है


रोशनी कम होती जा रही है
परछाइयां बढती जा रही हैं

विष्वास और प्रेम की नदी
हर रोज सूखती जा रही है

यादों ने जोड़ रखा था तुमसे
वह कडी भी टूटती जा रही है

विरह यामिनी सौत बन गयी
प्रेम की लडी टूटती जा रही है

तुम्हारे वियोग मे सखी देह
रात दिन गलती जा रही है

मुकेश इलाहाबादी ............

Friday 19 July 2013

हो सके तो सच की निगाहों से देखना
























हो सके तो सच की निगाहों से देखना
झूठे इल्जामात से परदा हटा के देखना

तुम्ही मुंसिफ तुम्ही मुददा तुम्ही मुददई
मेरे सबूतों को मददेनजर रखके देखना

सिर्फ इतनी इल्तजा है आप मुहब्ब्त को
गुनाहों की फेहरिस्त से हटा के दखना

मुकेष इलाहाबादी .....................



Thursday 18 July 2013

रिश्तों की गुत्थी सुलझाउं कैसे ?

 

रिश्तों की गुत्थी सुलझाउं कैसे ?
रुठ गया है मेरा यार मनाऊँ कैसे ?

अब के बरस बनवाना था झुमका,,
इस महंगाई मे वादा निभाऊं कैसे

दर्द ही दर्द बह रहा है जिगर मे,,
दर्दे दरिया के पार जाऊं कैसे ?

दश्त है तीरगी है औ राह मे काटे
अब तू ही बता तेरे दर आऊँ कैसे


फैसला दे रहे हो बिना कुछ पूछे,,
अपनी बेगुनाही बताउं मै कैसे ?

मुकेश  इलाहाबादी .................

Wednesday 17 July 2013

इन दरो दीवारों को तुम घर कहते हो

इन दरो दीवारों को तुम घर कहते हो
हाथ की लकीरों को मुकददर कहते हो

कयूं उदास ऑखों का पानी नही दिखता
तुम न जाने किसको समन्दर कहते हो ?

अजनबी की तरह रहता रहा उम्र भर
तुम तो उसको भी हमसफर कहते हो

कल भी सरे आम कली मसली गयी
तुम इस हादसे को भी खबर कहते हो

पिला रहा हूं तुम्हे जाम ऐ मुहब्बत इस
आब ए हयात को तुम जहर कहते हो

मुकेष इलाहाबादी ....................

अपना किरदार बदल दूं क्या ?

अपना किरदार बदल दूं क्या ?
इश्क ऐ व्यापार बदल दूं क्या ?

तू इजहारे मुहब्ब्त करती नही
अपना घर बार बदल दूं क्या ?

अपनी बाहों की माला बना के
ये नौलखा हार बदल दूं क्या ?

तुझे खुश  करने रखने की खातिर
बात और व्यवहार बदल दूं  क्या ?

लोग होली दिवाली भी खुश नही
मुकेश सारे त्यौहार बदल दूं क्या ?

तुझे खुष करने रखने की खातिर
बात और व्यवहार बदल दूं क्या ?

मुकेश  इलाहाबादी ...............

Tuesday 16 July 2013

रात पूनम की इल्तजा मे अमावश ले के बैठे हैं




















रात पूनम की इल्तजा मे अमावश ले के बैठे हैं
भूल बैठा चॉद कि हम इक आस ले के बैठे हैं

कभी तो चस्मा ऐ मुहब्बत उनके दिल मे फूटेगा
सदियों से इसी सहरा मे हम प्यास लेके बैठे हैं

मुकेश  इलाहाबादी ...............................






गर उनकी यादें भी खत की मानिंद होतीं तो लौटा दिये होते



 गर उनकी यादें भी खत  की मानिंद होतीं तो लौटा दिये होते
कि मुकेश अब उनकी ये अमानत हमासे सम्हाली नही जाती

मुकेश  इलाहाबादी.........................................


रह रह के धूप छांह आती रही

रह रह के धूप छांह आती रही
चिलमन से वह झांक जाती रही

दरिया के साहिल पे बैठा हूं चुप
लहरें आती रहीं और जाती रही

जब जब वक्त ने स्याही फैलायी
हंसी उसकी चॉदनी फैलाती रही

यौवन को चुनर मे छुपाती रही
औ कांटो से दामन बचाती रही

आदत से भलेही शरमीली है वो
गजल पे मेरी  मुस्कुराती  रही

मुकेश  इलाहाबादी ............

Monday 15 July 2013

रह रह के धूप छांह आती रही


 


रह रह के धूप छांह आती रही
चिलमन से वह झांक जाती रही

दरिया के साहिल पे बैठा हूं चुप
लहरें आती रहीं और जाती रही

जब जब वक्त ने स्याही फैलायी
हंसी उसकी चॉदनी फैलाती रही

मुकेष इलाहाबादी ............

जला के खाक कर दिया जमाने को तेरे जलवों ने

जला के खाक कर दिया जमाने को तेरे जलवों ने
अब कहते हो ‘कि हम इसपे चल के देखेंगे’
मुकेष इलाहाबादी ..............................

Sunday 14 July 2013

धूल मिटटी फांका मस्ती मेरे हिस्से मे

बटवारा ..............................

धूल मिटटी फांका मस्ती मेरे हिस्से मे
ऐषो आराम मौज मस्ती तेरे हिस्से मे

बाढ सूखा बैंक का कर्जा मेरे हिस्से मे
है पैसा कुर्शी बंगला गाडी तेरे हिस्से मे

केवल लाठी और लंगोटी मेरे हिस्से मे
क्यूं खादी औ गांधी टोपी तेरे हिस्से मे

मुकेश  इलाहाबादी .................

शबनमी अश्क ले कर रात रोती रही

 

शबनमी  अश्क ले कर रात रोती रही
साथ मेरे घरकी दरो दीवार रोती रही
 

शानो शौकत,ऐषो आराम सब कुछ था
जिंदगी किसी की याद लेकर रोती रही

हवाओं मे नमी इस बात की गवाह है
चांदनी शब भर सिसक कर रोती रही

दहषत गर्द चैन ओ अमन लॅट ले गये
खौफजदा बस्ती शामो सहर रोती रही

तुम्हारे सामने चुप चुप रहा करती थी
बाद मे तुम्हारा नाम लेकर रोती रही

मुकेश  इलाहाबादी ....................

तेरी ऑखों, ने तेरी बातों ने, तेरे गोरे गालों ने और तेरी इन अदाओं ने,,

 

तेरी ऑखों, ने तेरी बातों ने, तेरे गोरे गालों ने और तेरी इन अदाओं ने,,
है किया मजबूर कि न चाह के भी खो जाऊं तेरी इन महकती सांसो मे

तेरी यादों ने तेरी हंसी ने तेरी खुशबू ने तेरे संग संग बिताये लमहों ने
है किया मजबूर कि न चाह के भी मै खो जाऊं इन तनहा बियाबानो मे

मुकेश  इलाहाबादी ---------------------------------------------------------------

हो गया है दिल जिददी, मानता ही नही

















हो गया है दिल जिददी, मानता ही नही
सिर्फ वही चॉद चाहिये या कुछ भी नही
मुकेष इलाहाबादी .....................




जिंदगी तुझे अब ढूंढने कंहा जायें

जिंदगी तुझे अब ढूंढने कंहा जायें
अजनबी शहर है घूमने कहां जायें

समन्दर,झील,दरिया सब उथले हैं
ऑख बिन पानी डूबने कहां जायें

तुम भी रहते हो खफा, मनाते नही
छोड़ कर तुम्हे हम रुठने कहां जायें

सारे सावन विदा हो गये, तुमने भी
बाहें सिकोड ली है झूलने कहां जायें

वो अलग दौर था पी के बहकने का
अब पी भी लें तो झूमने कहां जायें

मुकेश  इलाहाबादी .................

Saturday 13 July 2013

मुददतों बाद होश मे घर गया

मुददतों बाद होश मे घर गया 
देख तन्हा घर दिल भर गया 

फूल ने प्यार से क्या छू लिया?
दिल मेरा पत्थर था संवर गया

निस्तरंग स्वच्छ जल देख कर
चॉद झील की गोद मे उतर गया 

देख कर छत पे तुझे मुसाफिर
भूल के मंजिल वहीं ठहर गया

था हमारा प्यार रेत का घरौंदा
पा हवा का झोंका बिखर गया

मुकेश  इलाहाबादी ..............

कुछ नये दरख्त लगाओ गुलशन मे

 

कुछ नये दरख्त लगाओ गुलशन मे
कि  पुराने  पेड  अब फल देते नही,,
वादों की खेती उगाना बंद कीजिये
सिर्फ नारों से अब पेट भरते नही 

MUKESH ALLAHABAADEE

Friday 12 July 2013

मिस कॉल करके छोड़ दिया करती है लैला

 
मिस कॉल करके छोड़ दिया करती है लैला
कॉल बैक न मिले तो गुंस्सा होती है लैला

सिर्फ चैट और फोन पे बात करती है लैला
मिलने की बात करो तो मुकर जाती है लैला

नक़ाब को सजा के रख के अलमारी मे अब
जींस टॉप और कॅप्री पहन घूम रही है लैला

मीरा और राधा बनने का वो वक्त अब गया
हरएक लड़की आजकल की बन रही है लैला

लड़के भी आजकल के उस तरह के मजनू नही
साथ मे उनके एक नही दर्जनो घूम रही हैं लैला

मुकेष इलाहाबादी .....................

Thursday 11 July 2013

रोज तेरा इन्तजार होता है

रोज तेरा इन्तजार होता है
रोज दिल उदास होता है

समन्दर के बीच टापू मै
इक पन्छी तन्हा रोता है

दिल बहलता ही नही जब
कोई अपना दूर होता है

रात की स्याही मे लिपट
चॉद कितना उजला होता है

धूप मे तब कर देखो तो
पसीना भी मोती होता है

मुकेष इलाहाबादी ........

उम्र लगा दी ख्वाब सजाने मे


 

उम्र लगा दी ख्वाब सजाने मे
इक लम्हा लगा बिखर जाने मे

कासिद अब तक संदेशा  न लाया
शायद कुछ वक्त लगा हो मनाने मे
 

अब जो चंद उखडी साँसे बची है
तुमने बहुत देर लगा दी आने मे

ग़म मे तो सभी संजीदा होते हैं
बहुत मुस्किल  है मुस्कुराने मे

जिक्रे यार हमसे अब न कीजिये
बहुत वक्त लगा है उसे भुलाने मे

मुकेश  इलाहाबादी ..............

Wednesday 10 July 2013

शाख से टूट कर पहले तो खुश हुआ पत्ता

शाख से टूट कर पहले तो खुश हुआ पत्ता
कुछ दूर उडता रहा फिर सूख गया पत्ता

शाख से कलियों टूटीं तो सब को बुरा लगा
सब चुप रहे जब ड़ाल से तोडा गया पत्ता

तपते सूरज ने जला कर खाक किया चमन
दिखता नही अब यहां एक भी हरा पत्ता

मुकेश  इलाहाबादी ........................

Tuesday 9 July 2013

कलंदरी पेशा, मुहब्बत मजहब,फकीरी हमारी जात

 

कलंदरी पेशा, मुहब्बत मजहब,फकीरी हमारी जात
हमारे पास दुआओं के सिवा कुछ न पाओगे, दोस्त
मुकेश  इलाहाबादी ...............................

हुस्न हया और मुहब्ब्त छुपा लेते हैं,


 

हुस्न हया और मुहब्ब्त छुपा लेते हैं,
लेने वाले भी नकाब से क्या क्या काम लेते हैं?

मुकेष इलाहाबादी ......................

वस्ले यार की बेचैनियॉ तो हम भी समझते हैं?


 

वस्ले यार की बेचैनियॉ तो हम भी समझते हैं?
ये अलग बात हमसे कोई मिलने नही आता !

मुकेष इलाहाबादी .........................

वस्ले यार की बातें न करो, ऐ दोस्त


 

वस्ले यार की बातें न करो, ऐ दोस्त
महबूब को देखे हुए हमको जमाना हुआ

मुकेष इलाहाबादी .........................


Monday 8 July 2013

हमसे तो नही किसी और से कह रहे थे

 

हमसे तो नही किसी और से कह रहे थे
‘महफिल मे सिर्फ मुकेश ने हमे गौर से नही देखा’

मुकेश  इलाहाबादी .............................

ज़िदगी से शिकायत भी नही

 

ज़िदगी से शिकायत भी नही
चेहरे पे मुसकुराहट भी नही

हमारे घर अंधेरा न पाओगे
लेकिन जगमगाहट  भी नही


ऐसा भी नही हम बेखाफ हैं
पै चेहरे पे घबराहट भी नही

चौराहे पे लाश  पडी है कबसे
बस्ती मे सुगबुगाहट भी नही

सूरज कब का विदा हो गया
चॉद उगने की आहट भी नही

मुकेश  इलाहाबादी ...........

सुमी, जानती हो ? एक दिन


 

सुमी,
जानती हो ?
एक दिन
किसी प्रेमी ने
शायद, मेरी तरह किसी पागल प्रेमी ने
अपनी हथेलियों की अंजुरी बना के
अपनी मासूका का चेहरा ढंप लिया था
और फिर देर तक
बहुत देर तक
उस खूबसूरत प्रेमिका की ऑखों मे
निहारता रहा
और उसकी
जगमग जगमग करती ऑखों से
झर झर झरते मोतियों को
अपनी हथेली मे समेट
खुशी से उछाल दिया था
इस नीरव और वीरान आकाष मे
शायद तभी से फलक मे इतने सारे
खूबसूरत तारे जगमगाते हैं
आकाश भी उस दिन बहुत खुष हुआ था
अपने वीराने को आबाद पा के
और, आकाश इन चमकते तारों से
मुहब्ब्त कर बैठा ...
बेपनाह मुहब्रब्त
लेकिन तारे बेवफा निकले
वे सभी बहुरुपिया चॉद से दिल लगा बैठे
मगर चॉद ?
चॉद बेवफा ही निकला, फितरतन
वह कभी तारो के संग किलोल करता
मुस्कराता, आकाष के ही सीने मे तारों संग
अठखेलियॉ करता और फिर छुप जाता
विदा हो जाता जाने कहां ?
शायद फिर कुछ और सितारों से
मुहब्बत करने के लिये
मगर आकाश फिर भी
तारों को अपने रकीब चॉद के साथ
अपने सीने मे ही उगे रहने देता
अपनी विषालता के साथ
विराटता, भव्यता और एकाकीपन के साथ
सुमी, तुम मुझे भी ऐसा ही एक
निचाट और खाली आकाश समझो
लेकिन मुझे मालूम है
सुमी तुम चॉद भी नही हो
सितारा भी नही हो
अगर सितारा हो तो
ध्रुव तारा हो
सब से जुदा तारा हो
जो सिर्फ और सिर्फ
आकाश मे टंगा रहता है
आकाश के साथ
निष्तरंग
निष्कपट और
अटल

मुकेश इलाहाबादी .............

Sunday 7 July 2013

सूख गये सब जेठ मॉह मे,तरु पल्लव अरु संसार

सूख गये सब जेठ मॉह मे,तरु पल्लव अरु संसार
हर्षित धरती भये मगन ब्रक्ष, मेघा बरसे धारमधार 
मुकेष इलाहाबादी ........................

रातों की वीरानी ले ले

 

रातों की वीरानी ले ले
मेरी पीर पुरानी ले  ले

इक लम्हा प्यार का देके
मेरी वो जिंदगानी ले ले



अपना सारा दुख देकर
मेरी शम सुहानी ले ले

कांटों का गुलदष्ता देके
मुझसे रातकीरानी ले ले

नज्म और गजल के संग
मेरी सारी कहानी ले  ले

मुकेश  इलाहाबादी ......

उदासी का शबब

उदासी का शबब
अब हमसे न पूछिये
बहुत चोट खाये हुए हैं
जमाने से हम
अब जा के
एक फूल मयस्सर हुआ, हमे
तुम्हारी दोस्ती का,
तब जा के हम मुसकुराए हैं

मुकेश इलाहाबादी .............

उमड़ घुमड़ दरिया बहे, झर झर बहे प्रपात,

 

उमड़ घुमड़ दरिया बहे, झर झर बहे प्रपात,
बादल बन पिया बरसा रात भीगा मेरा गात

देख खुमारी अंखियन की सखियां करें ठिठोली
रात पिया संग तू ने कितनी की है जोराजारी

मुकेष इलाहाबादी ....................

Saturday 6 July 2013

जिन्दगी के सफे तुम सबके आगे यू खोला न करो

 

जिन्दगी के सफे तुम सबके आगे यू खोला न करो
किताबे मुहब्बत पढने का सलीका हर किसी का आता नही

मुकेष इलाहाबादी ..............................

न ढूंढो तुम मुस्कान चेहरे पे

 

न ढूंढो तुम मुस्कान चेहरे पे
छपी है दर्दे दास्तान चेहरे पे

नुकीले नुकूश  पे तिरछी नजर
है कितने तीरो.कमान चेहरे पे

चोट पे चोट खायी है हमने
गिन लीजिए निशन चेहरे पे

मासूम चेहरे पे उनके छुपा है
हल्का सा हुस्ने गुमान चहरे पे

सफर बहुत तवील था मुकेश
पढ़ लो मेरी थकान चेहरे पे

मुकेश  इलाहाबादी ...............

हरा दुषाला ओढ कर है बैठी बाहं पसार

 
हरा दुषाला ओढ कर है बैठी बाहं पसार
आया बादल चूम गया धरती हुयी निहाल

फूलों के संग जब जब भौंरा करे किलोल
कलियों के भी मन मे रह रह उठे हिलोर

मुकेश  इलाहाबादी .........................

Friday 5 July 2013

कुछ ख़त ओर यादें बच रही थी

 
आज फिर हम उनको मनाने चले
फिर हम पत्थर मे जॉ फुकने चले
 

 कुछ ख़त ओर यादें बच रही थी
उन्हे भी हम गंगा मे बहाने चले

इस मतलबी खुदगर्ज दुनिया मे
कयूं तुम अच्छे इंसा ढूंढने चले

तुम तो बहुत अच्छे थे मुकेश,,
मियां आज तुम भी मैखाने चले

मुकेश इलाहाबादी ................

जिनकी वजह से हम खाकसार हैं

 
जिनकी वजह से हम खाकसार हैं
आज भी हम उनके तलबगार हैं

लुट के भी हम उनकी नजरों पे
इजहार ऐ मुहब्ब्त के गुनहगार हैं

सौ क्त्ल कर के भी मुस्कुराते हैं
हम मुहब्बत करके शरमशार हैं

जुल्म पे जुल्म किये जाते हैं हमपे
फिर भी सभी उनके तरफदार हैं

मुकेश  इलाहाबादी ...................

फूलों की माफिक था अपना दिल

 
फूलों की माफिक था अपना दिल
ज़माने ने उसे भी धारदार बना दिया
मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Thursday 4 July 2013

अब तो शाख पे हिलते हुए पत्ते भी रकीब लगते हैं

 
अब तो शाख पे हिलते हुए पत्ते भी रकीब लगते हैं
जो हवाओं से मिल के जो तेरी जुल्फ चूम जाते हैं
मुकेश इलाहाबादी .................................

वो कोई और खुशनसीब होंगे

 

वो कोई और खुशनसीब होंगे जो,मुहब्बत की पाती लिखा करते हैं
हम तो यंहा  उनकी बेरुखी ओर तनहाइयों का दीवान लिये बैठे है
मुकेश  इलाहाबादी ................................................

मन का मनका बना, तेरे नाम की माला जपा किये

 
मन का मनका बना, तेरे नाम की माला जपा किये
तुम ही पत्थर के बुत निकले जो न मेरी कदर किये

मुकेश  इलाहाबादी ................................

फक़त ये खतो किताबत का काम नही

 

फक़त ये खतो किताबत का काम नही
मुहब्बत है जॉ पे खेल जाने का नाम
मुकेश इलाहाबादी ......................

Wednesday 3 July 2013

उनकी हया का आलम तो देखिये,,

उनकी हया का आलम तो देखिये,,
ख्वाब मे भी चिलमन से झांकते हैं
मुकेश इलाहाबादी ---------------------

जब हमसे रू - ब -रू होने का फैसला लिया होगा !!

 
जब हमसे रू - ब -रू होने का फैसला लिया होगा !!
तभी ख्वाब मे आने का फैसला मुल्तवी किया होगा
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------
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Tuesday 2 July 2013

किसी का र्दद दिल मे लिये फिरते हैं


 

किसी का र्दद
दिल मे लिये फिरते हैं
कितनी बेशकीमती
जागीर लिये फिरते हैं

उसे फुरसत ही नही
मेरे दिल मे देखे
उसके लिये
क्या क्या तोहफे लिये फिरते हैं

पलट के देखता भी नही जालिम
कि हम उसे मुड़ मुड़ के देखते हैं

मुकेश  इलाहाबादी .....................

ओढ कर हमने मासूसी का कफ़न,

ओढ कर हमने मासूसी का कफ़न,
कर लिये अपने सारे अरमॉ दफ़न

फक्त इक बार और देख लूं तुझे
फिर छोड दूं हमेश को तेरा वतन

मै तो मौसम बहार हूं चला जाउंगा
फिर देखना तुम अपना उजडा चमन

भले ही दर्दो ग़म से लबरेज है मुकेश
फिर भी गाउंगा औ मुस्कुराउंगा मगन
मुकेश  इलाहाबादी ....................

Monday 1 July 2013

मेरे सर्द जिस्म की हरारत बताती है

मेरे सर्द जिस्म की हरारत बताती है
तेरी रूह की सेंक इधर तक आती है
मुकेश इलाहाबादी ----------------------