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Friday 31 January 2014

कोई ज़रूरी तो नहीं,

कोई ज़रूरी तो नहीं,
नाचघर जाया जाए
हो रहा शहर में तमाशा
चलो आओ देखा जाए

साधे पाँव संग भूखे पेट,
रस्सी पे नाचती लड़की
देख थरथराती छातियाँ
चंद सिक्के उछाला जाए

हूत तू तू सब बोल रहे
खेल कबड्डी खेल रहे
चुनाव अखाड़ा खुल गया
चल सत्ता दंगल देखा जाए

है सरे आम बाल बिखेरे
देखो महंगाई झूम रही
औ नेता बन के नाच रहे
भालू - बन्दर देखा जाए

मुकेश इलाहाबादी -----

प्यार मुहब्बत झूठी बातें

इक राजा इक रानी लिख
फिर से वही कहानी लिख

प्यार मुहब्बत झूठी बातें
रिश्ते हैं जिस्मानी लिख

बाँध ले गठरी सच्चाई की
धन दौलत बेमानी लिख

देश - प्रेम की खातिर तू
अपनी चढ़ी जवानी लिख

रोना - धोना छोड़ दे प्यारे
ग़ज़ल कोई तूफानी लिख

मुकेश इलाहाबादी ---------

Thursday 30 January 2014

आप भी अज़ब दिल्लगी करते हो जनाब

आप भी अज़ब दिल्लगी करते हो जनाब
पलकें बंद करके कहते हो आखों में बस जाऊं
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------

दिल में ताज़ी हवा रक्खो

दिल में ताज़ी हवा रक्खो
दिले दरीचा खुला रक्खो

इतनी मायूसी अच्छी नही
चरागे हौसला जला रक्खो

शख्शियत महक उट्ठेगी
गुले मुहब्बत खिला रक्खो

कोई भला करे या बुरा करे
अपने होठों पे दुआ रक्खो

ग़म अपना सूना सको तुम
ऐसा कोई इक ठिया रक्खो

मुकेश इलाहाबादी ----------

Wednesday 29 January 2014

गर अपने आंसुओं को

गर अपने आंसुओं को
तन्हाइयों की जगह
मेरी हथेली में
गिर जाने दिया होता
खुदा कसम
अब तक ये आंसू
फूल बन के
खिल गए होते

मुकेश इलाहाबादी ------

Tuesday 28 January 2014

किताबे ज़िंदगी का इक इक सफ़ा पलटता हूँ

किताबे ज़िंदगी का इक इक सफ़ा पलटता हूँ
माज़ी के हर लफ्ज़ में सिर्फ तुझे ही पढता हूँ

अंधेरी रात जब नींद किसी करवट आती नहीं
रह - रह के ख़्वाबों में तेरा ही अक्श देखता हूँ

जब कभी दास्ताने ज़िंदगी लिखता हूँ तब - तब
गीत ग़ज़ल और रुबाई में तेरा ही नाम लिखता हूँ

यूँ तो ज़माने में कई दोस्त हैं महफ़िल है रौनके हैं
फिर भी शामो सहर तन्हाइयों में रहना चाहता हूँ

अब तो तमाम उम्र गुज़र गयी सफ़र में ऐ मुकेश
तेरा दर और मेरी मंज़िल कब आयेगी सोचता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------------

Monday 27 January 2014

SWATANTRATA DIWAS PER MERE BHEE DO SHABD


श्रद्धेय अतिथगण एवं बाल मित्रों,
आप सभी को स्वाधीनता दिवस की 65वीं वर्षगाठं की बहुत बहुत शुभकामनाएं। मित्रों मुझे यह बडी अजीब बात लगती है कि हम लोग बिना स्वाधीनता का अर्थ जाने ही स्वाधीनता दिवस मनाते रहते हैं और बिना स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ समझे स्वतंत्रता दिवस मनाते रहते हैं। मेरे देखे स्वाधीनता का अर्थ है जो ‘स्व’ के आधीन हो और स्वतंत्रा को अर्थ होता है जो स्व के तंत्र मे स्थित हो। और विडंबना ये भी है कि हम लोग न तो स्व को जानते हैं न अपने तंत्र को जानते हैं और नही ही अधीनता वह परतंत्रता के वास्तबिक अर्थो मे समझते हैं।
मेरे देखे स्वतंत्रता और परतंत्रता एक ही सिक्के के दो पहलू है। बिना परतंत्रता के स्वतंत्रता अराजक हो जाती है तो निखालिष परतंत्रा सारे विकास को अवरुद्ध कर देती है। शायद इसी कारण भारतीय मनीषा से इन दोनो बातों को जानकर ही इन दोनेा अदभुत शब्दों का श्रजन किया है। और मेरा भी मानना है कि इनसान को स्वतंत्रा होनी चाहिये विचार की भाव की रहने की खाने की कमाने की । मगर साथ ही धर्म की संस्कार की समाज के नियमों के प्रति आधीनता भी होनी चाहिये। तभी एक सभ्य सुसंस्क्रत और खूबसूरत समाज की कल्पना सार्थक हो सकती है। एक बात और कहना चाहूंगा कि हम स्वतंत्रता और स्वाधीनता के वास्तविक अथो्र को हम तभी समझेंगे जब हम स्व को समझेंगे।
मित्रों एक बात और हम लोग स्वाधीनता और स्वतंत्रता दिवस मनाते हुए हर बार यह कहना नही भूलते कि यह स्वतंत्रता और स्वाधीनता हमने अंग्रेजो की सेकडों साल की गुलामी के खिलाफ लड के पायी है। मित्रों हमने गोरे अंग्रेजों से तो लड लिया वो दूसरे थे पर अब इन काले अंगेंजों से कैसे लडेंगे ? ये तो अपने ही हैं। दूसरों से लडना आसान होता है और अपनों से लडना मुस्किल होता है। और अक्सर हम दूसरों से तो जीत जाते हैं पर अपनो से हार जाते हैं। तो दोस्तों अब हमे वास्तविक स्वतंत्रता और स्वाधीनता पाने के लिये एक और लडाई लडनी पडेगी वह लउाई अंगोजों के खिलफ नही अंग्रंजियत के खिलाफ हो। मै टाई और कोट वाली अंगेजियत की बात नही कह रहा। अंगंजी बोलने और डाइनिंग टेबल मे खाने वाली अंगेजियत की बात नही कर रहा। मे बात कर रहा हूं अंगेजी विचारधारा की अंगेजी मानसिकता की उस अंगेजी विकास की अवधारणा की जो हम विकास की जगह विनास की ओर ले जा रही है। और हम बिना सोचे समझे ही उस विनाश  की तरफ बढे जा रहे हैं।
मित्रों मेरे कहने का तातर्पय है कि जब हम स्व को समझेंगे तभी हम अपनी संस्क्रति को समझेंगे अपनी विचारधारा को समझेंगे तभी हम सर्वे  भवंतु सुखीन, सर्वे भवंतु निरामया  की महान र्दाषनिकता को समझेंगे। स्वतंत्रता और स्वाधीनता के वास्तविक अथों को समझेंगे।
मित्रों मै बार बार कहता हूं कि मै अंगेजों के खिलाफ नही हूं अंग्रेजियत के खिलाफ हूं। क्यांकि अंगेज जब सारी मानवता की बात करता है तो वह ‘ग्लोबलाइजेषन’ की बात करता है। जिसमे वह चाहता है कि एषिया से लेकर अमेरिका तक और अफ्रीका से लेकर आस्टेंलिया तक हमारा ही मजंन बिके हमारा ही इंजन बिके। वह व्यापार की बात करता है बाजार की बात करता है नफा नुकसान की बात करता है। नतीजा बाप बेटे से पूछता है मैने तुम्हे इतना पढाने लिखाने का क्य फायदा? पत्नी पति से कहती है तुम्हारे साथ ष्षादी करने से हमे क्य मिला ? और लडकी ष्षादी के पहले सोचती है लडके का सैलरी पैकेज क्या है ? और उधर जब हमारी भारतीय चेतना मानवता की बात करती है तो कहती है ‘वसुघैव कुटुम्बकम’ की बात करता है। पूरी प्रथ्वी को एक घर और  परिवार जैसा बनाने की बात करता है। जिसमे व्यापार की बात नही घरबार की बात होती है। त्याग की बात होती है बलिदान की बात होती है।
अँगरेज़ प्रतियोगिता की बात करता है,आगे बढ़ो आगे बढ़ो चाहे किसी की जान लो चाहे किसी की टांग खींचो चाहे बड़ी रेखा को मिटा के अपनी रेखा बड़ी करो पर हमेशा आगे रहो।  जबकि भारतीय चेतना प्रतियोगिता की बात ही नहीं करता वह जानती है कि प्रत्येक आगे का बिंदु अपने आगे वाले बिंदु से पीछे है और उसके आगे वाला बिंदु अपने आगे के बिंदु से पीछे है।  इस लिए भारतीय चेतना प्रतियोगिता की बात ही नहीं करता वह बात करती है खिलने की जैसे एक फूल दुसरे फूल से ज़यादा सुन्दर होने की होड़ नहीं रखता वह तो बस खिलता है मुसकराता है खुशबू बिखेरता है और पूरी त्वरा से खिल कर खुश हो जाता है।  मित्रों इसी लिए भारतीय चेतना  कमल सा फूल सा खिलने की बात करता है।
लिहाजा मित्रों मै इसी अंगेजियत से लडने की बात करता हूं।
न कि टाई और कोट वाले अंग्रेज की बात करता हूं।
यही नही मित्रों जब अंग्रेज बात करता है तो वह विज्ञान की बात करता है और भारतीय चेतना जब बात करती है तो वह ज्ञान की बात करती है। मै चिज्ञान के विरोध मे नही हूं मगर उस उस विज्ञान के विरोध मे हूं जो हम विकास नही विनास की ओर ले जा रहा है जो विज्ञान हमे पहले तो सूख सा लगता है बाद मे अनंत दुख मे तब्दील हो जाता है। जबकि ज्ञान भले ही पहले दूख सा लगे पर बाद मे अनंत सुख मे तब्दील हो जाता है। इस बात को आप एसे समझें।
ज्ञान और विज्ञान दो तरीके हैं किसी बात को जानने और समझने के।
विज्ञान चीजों को समझता है तोड तोड के ओर ज्ञान समझता है जोड जोड के।
एक फूल को समझना हो तो विज्ञान उसे तोडेगा तो। उसकी एक एक पंखुडी तोड के उसे टुकडे टुकडे करेगा। छोटे छोटे टुकडे करेगा। बहुत छोटे छोटे टुकडे यहां तक कि ऑखों से न दिखने वाले टकडों मे तब्दील करेगा। इलेक्ट्रान प्रोटान पाजिट्रन बानयेगा तोड तोड के क्वार्क बनायेगा और फिश्र तोडे के ‘गाड पार्टिकल’ पायेगा। और पार्टिकल पाके एक बडे टुकडे का बहुत छोटा टुकडा पा के खुष हो जोयेगा। पर गाड नही पा पायेगा। और उसे गाड पाटिंकल कह के खुष होलेगा। एक फूल को तोडे के प्रसन्न हो लेगा कि हमने बहुत कुछ जान लिया।
जबकि भारतीय चेतना यह जानती है कि तोडने से नही जोडने से मिलेगा। जोड जोड के वह महाजोड बनायगा माहायोग बनायेगा जिससे कर्मयोग बनायेगा भक्ति योग बनायेगा सांख्य योग बनायेगा। और फिर गाड को जानेगा ही नही स्वयं गाड बनजायेगा और कह उठेगा ‘अंह ब्रम्हास्मि’ 
मित्रों इसलिये मै विज्ञान की नही ज्ञान की बात कहता हूं। तोडने की नही जोडने की बात कहता हूं। ग्लोबलाइजेषन नही वसुधैव कुटुम्बकम की बात कहता हूं।
तो मित्रों हम पुरी वसुधा को मंडी नही कुटुम्ब बनाना है। विज्ञान की नही ज्ञान की बात कहना है जो हमे तोडती नही जोडती है और यह सब तभी सम्भव है जब हम योग की बात करें भारतीयता की बात करं स्व की बात करें जो। स्व से उठकर हम हो जाता है। अहम ब्रम्हास्मि हो जाता है।
यह सब तभी सम्भव है जब हम स्व को उसके वास्तविक अथों मे समझें वर्ना हम 65 नही 65000 सालों तक यूं ही स्वाधीनता दिवस और स्वतंत्रता दिवस मनाते रहेंगे। झंडे फहराते रहेंगे राष्टीय गान और गीत गा के लडडू खा के एक बार फिर अपने अपने घरों को चले जाते रहेंगे फिर फिर स्वतंत्रता दिवस स्वाधीनता दिवस मनाने के लिये और कभी राजनैतिक कभी आर्धिक कभी मानसिक गुलामी मे जकडते जाते रहेंगे। 
और अंत में यही कहना चाहूंगा कि जिस दिन हम जिस दिन अपने स्व को कमल सा खिल लेंगे तभी सच्चा स्वाधीना मना पाएंगे पाएंगे और शायद तभी हम  आज़ादी की लड़ाई में मरने वाले वीरों को सच्ची सृद्धांजली दे पाएंगे।

एक बार पुनः इस पावन पर्व की ढेरों शुभ कामनाएं दे कर अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा।

मुकेश इलाहाबादी --------------------------




Sunday 26 January 2014

उनकी ऑखों में दर्द के गुहर नज़र आये है

उनकी ऑखों में दर्द के गुहर नज़र आये है
गुलशन के फूल बेरंग बेनूर नज़र आये है
इक मुद्दत के बाद हाल पुछा है जनाब ने
कि लम्बी रात के बाद सहर नज़र आये है
दूर - दूर तक रेत है तपन है और तन्हाई है
ज़िंदगी हमें मुस्किल सफ़र नज़र आये है

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

ऐसा भी नहीं कि हम मुहब्बत की ज़ुबाँ नहीं रखते







ऐसा भी नहीं कि हम मुहब्बत की ज़ुबाँ नहीं रखते
ये अलग बात देख कर तुम्हारे तेवर हम चुप रह गए
मुकेश इलाहाबादी --------------------------------------

बचपन से ही दुनियादार हो गए

बचपन से ही दुनियादार हो गए
ग़रीबी में बच्चे समझदार हो गए

खेलने खाने और पढ़ने की उम्र में
छोटे छोटे बच्चे बारोजगार हो गए

मासूमियत को भूल कर ये बच्चे
तमाम बातों के जानकार हो गए

कम्पुटर और मोबाईल के युग मे
खो खो व गुल्ली डंडा बेकार हो गए

इक्कीसवीं सदी में राम की बातें ?
सच कह के हम गुनहगार हो गए

मुकेश इलाहाबादी --------------------

Saturday 25 January 2014

जीभ से होठो को तर कर लेता है

जीभ से होठो को तर कर लेता है
प्यास को वो झूठी तसल्ली देता है

जब भी तिश्नगी हद से गुज़रती है
क़तरा भी समन्दर दिखाई देता है

कि कुछ लोग दरिया छुपाये बैठे हैं
और ज़माना प्यासा दिखाई देता है

सोख रहा है सुबह के गाल से ओस
आफताब भी प्यासा दिखाई देता है

जब धरती प्यास से कुनमुनाती है
तब बादल बरसता दिखाई देता है

इन झील सी आखों में डूब जाने दो
कि मुकेश भी प्यासा दिखाई देता हैं

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Friday 24 January 2014

दिल में अरमान आखों मे दरिया है

दिल में अरमान आखों मे दरिया है
सीने में वो तूफ़ान छुपा के जिया है

ये सच है, अन्धेरा घना है फिर भी
कोशिशों का चराग़ रौशन किया है

वो उठती हुई लहरें रूठा हुआ माझी
मुस्किल से कश्ती किनारे किया है

महफ़िल मे जलजला आयेगा आज
उसने चेहरे से नक़ाब हटा लिया है

घुप्प करियाई अंधेरी रातों में मुकेश
चमकते जुगनुओं के सहारे जिया है

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

Thursday 23 January 2014

जिसकी खुमारी मे हम जी रहे हैं

जिसकी खुमारी मे हम जी रहे हैं
वो किसी और के जाम पी रहे हैं

अपने ही हाथो से कुरेद कुरेद कर
खुद ही अपने ज़ख्मों को सी रहे हैं

गो कि तमाम शहर जानता है हमें
नज़रों में हम उनके अजनबी रहे हैं

जिस्म के तमाम खरीदारों के बीच
हम जैसे मुहब्बत के सौदाई रहे हैं

लाखों और करोणों के मालिक तुम
मुकेश हम तो महज़ इकाई रहे हैं

मुकेश इलाहाबादी -------------------

गर हवा के रुख पे बहे होते ?

गर हवा के रुख पे बहे होते ?
हम भी किनारे लग गए होते

गर दिल को फलक बनाया होता ?
तेरे आँचल में भी सितारे जड़े होते

गर एक भी बीज बोया होता ?
चमन में फूल ही फूल खिले होते

गर इतना मगरूर न हुए होते ?
तेरे दर पे भी आशिक़ खड़े होते

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Tuesday 14 January 2014

हथौड़े की चोट सह गया पत्थर


हथौड़े की चोट सह गया पत्थर
बुत बन कर मुस्कुराया पत्थर

पत्थर दिल इन्सां क्या समझेगा
कित्तने तूफ़ान सहता है पत्थर ?

कितनी नदियों समेटे है पत्थर ?
यही परवत बन के खड़ा है पत्थर

कितनी दूर और किधर है मंज़िल
राह दिखाता बन मील का पत्थर

मुकेश इलाहाबादी -----------------

ये कैसा ग़म था हमें रोना न आया

ये कैसा ग़म था हमें रोना न आया
तुम बदल गए हमें जताना न आया

मुद्दत से जो इक दर्द है दिल में निहां
उस दर्द की कहानी सुनाना न आया

धूप ही धुप मिली हमको सफ़र में
छाँव हो ऐसा कोई ठिकाना न आया


कभी आंधी तो कभी तूफान आया
मुकेश मंज़र कोई सुहाना न आया

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Monday 13 January 2014

मोटी दीवार दरवाज़ा ऊंचा पाओगे

मोटी दीवार दरवाज़ा ऊंचा पाओगे
किले में तुम न खिड़कियाँ पाओगे

दरबान मिलेगा पै राजा न पाओगे
फ़रियाद ले कर  जब वहाँ जाओगे

इत्र से महमाते मखमली लिबास,
तमाम चेहरों पे सिसकियाँ पाओगे

हर शख्श तुमको मशरूफ मिलेगा
दर्दे फ़साना सुनाने कहाँ जाओगे ?

है रात अंधेरी और चिराग भी गुल
तुम उजाला ढूंढने कंहाँ जाओगे ?

राजा भी रूठा औ ख़ुदा भी रूठा है
बोलो मुकेश अब कहाँ जाओगे ?

मुकेश इलाहाबादी -----------------

Sunday 12 January 2014

न कोई शोर न कोई शराबा हुआ

न कोई शोर न कोई शराबा हुआ
रात क़त्ल मेरे एहसासों का हुआ

हम तो मिले भूल के गिले शिकवे
फिर क्यूँ पीठ पे वार दुबारा हुआ?

लगने ही वाली थी साहिल पे कश्ती
ऐसा तूफाँ बरसा दूर किनारा हुआ

भले ही धड़कता दिखे मेरे सीने मे
अब हरहाल में दिल तुम्हारा हुआ 

अब सूरज भी सियासतदां हो गया
कि दूर गरीबों के दर से उजाला हुआ

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Saturday 11 January 2014

ग़रीबी ओढ़ता मज़बूरी बिछाता हूँ

ग़रीबी ओढ़ता मज़बूरी बिछाता हूँ
सुबह से शाम तक रिक्शा चलाता हूँ

याद करता हूँ माँ बाप बीबी बच्चे
फिर कुछ सोचकर लौट आता हूँ

शहर में दंगा और जुलूस  के बीच
मुश्किल से दो चार पैसे कमाता हूँ

राशन किराया औ बच्चों की फीस
आंधी - तूफ़ान में भी मुस्कुराता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ------------------

तुम भी तो बदल गये

वक्त का तकाज़ा था
हमको चुप रहना था

तुम भी तो बदल गये
तुमको तो बोलना था

कब तक चराग लड्ता
ज़ोरे तूफान ज़्यादा था

वज़ह दशहत गरदी थी
सड्कों पे सन्नाटा था

रात की तीरगी मे भी
उम्मीद का उज़ाला था

आफताब के चेहरे पे
गाढा काला धब्बा था

मुहब्बत की ज़ुस्त्ज़ूं मे
अपना भी कारवां था

रात आस्मां से जो टूटा
वो मासूम सितारा था

खुद् ग़रज़ों के शहर मे
मुकेश एक मशीहा था

मुकेश इलाहाबादी ---

इन्सानियत के लिबास मे रह्ता था

इन्सानियत के लिबास मे रह्ता था
अमीरो गरीब सबसे मिला करता था

चुभे थे बेसुमार खन्ज़र दिल मे मगर
लबों पे मुस्कुराहट सजाये रखता था

मुहब्बत से बडा कोई भी मज़हब नही
यही बात वह बार बार कहा  करता था

बद्शाहियत तो उसकी फितरत मे थी
भले ही  दौलत से फकीर दिखता था

अज़ब तबियत का शख़्श था मुकेश
मोम के पैरों से आग पे चल्ता था

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Friday 10 January 2014

सूनसान जंगल में गुपचुप बहती रही


सूनसान जंगल में गुपचुप बहती रही
वह नदी थी रास्ता खुद चुनती रही

जिसे ज़माना पत्थर दिल कहता रहा
वही संगतराशों की चोट सहती रही

पहले दमियां काँटों के खिली फिर
फूल बन के हर सिम्त महकती रही

परिंदा खुले आसमान में उड़ता रहा
खुद रातो दिन कफस में रहती रही

ज़माने की तीरगी मिटाने की खातिर
जला के जिस्म मोम सा पिघलती रही

मुकेश इलाहाबादी ------------------

ज़रा से हादसे में ही बदल जाता है


ज़रा से हादसे में ही बदल जाता है
खूबसूरत चेहरा देख मचल जाता है

पा के तेरी बाहों का सहारा ये दिल
हर बार गिरने से संभल जाता है

मेरा दिल हो या गोया कोई बच्चा
ज़रा सी मुहब्बत में बहल जाता है

ये तेरी जादुई छुअन का ही है जादू
सुर्ख अंगारा फूल में बदल जाता है

मुकेश इलाहाबादी ------------------

बेहद घने सन्नाटे मे

बेहद घने
सन्नाटे मे
मीलों फैले
वीराने में भी
अक्सर,
चौंक उठता है
मेरा मन
तब
उझक कर
देखती हैं
मेरी निगाहें
अपने आस पास
फिर,
किसी को न पा कर
उदास हो जाती हैं
और मन
एक बार फिर
सिमट जाता है
अपने एकाकीपन मे
मीलों फैले बियाबान में

मुकेश इलाहाबादी -------



 

सन्नाटा पसरा है चौपाल मे

सन्नाटा पसरा है चौपाल मे
घर फसल बह गई है बाढ़ मे

लूट घसोट हो राज्नीत रही
बाढ और राहत के काम मे

बूढे बच्चे इन्सान औ मवेशी
रह रहे सभी खुले आसमां मे

आज बाढ़ तो कल सूखा है
किसान मर रहा हर हाल में

नेता और अफ्सरों को छोड
कौन खुश है इस माहौल में

मुकेश इलाहाबादी -------