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Saturday 17 August 2019

रोज़ की तरह आज भी


एक --

रोज़
की तरह आज भी
वो आदमी ऑफिस से निकल
उसी ठिये पे गया
उसी गुमटी से सिगरेट लिया
गुमटी की ओट में जा के सिगरेट सुलगाया 
मुँह को गोल गोल के धुँए के छल्ले -छल्ले बनाया 
और उन्हें ऊपर की तरफ छोड़ा 
और धुएँ के छल्ले के साथ साथ उड़ता हुआ
और देखा 
दूर जाते हुए 
मैनेजर की डाँट से उपजी खीज को
दुसरे दिन निपटाई जाने वाली फाइलों की समस्याओं को
दिन भर की थकन को
सिगरेट पीने के ये ढाई से तीन मिनट के बीच वो देखेगा रोज़ सा 
शून्य को
निर्विकार भाव से आती जाती भीड़ को
और फिर शांत भाव से चल देगा घर की ओर - ख़रामा - ख़रामा

दो --

रोज़
की तरह आज भी वो
सात तिरपन की बस पे लपक के चढ़ जाएगा
और इंतज़ार करेगा
नेक्स्ट स्टॉप पे चढ़ने वाली औरत का 
साधारण चेहरे मोहरे  वाली
उस उस औरत का जिसके चेहरे पे एक उदासी और
शून्यता चस्पा रहेगी 
जो अक्सर दो तीन स्टॉपेज बाद बगल की सीट
खाली होने पे उसके बगल में बैठ जाएगी
और जिसकी बदन से उठती हुई मादक महक से
उसका रास्ता महक जाएगा 

तीन ---

आज
फिर वो रोज़ सा सात तिरपन की बस पे लपक के चढ़ा
लेकिन आज रोज़ सा 
सपाट चेहरे पर गदराये बदन वाली  अकेले न थी
उसके साथ एक और आदमी चढ़ा
बस में जिससे वो हंस हंस के बतिया रही थी
आज उसने उसकी तरफ वजह बेवज़ह देख के एक परिचित मुस्कान भी न दी
लिहाज़ा वो उतर के
अपने ठिये  पे रोज़ सा गया
सिगरेट ली
मुँह गोल गोल किया
धुंए के छल्ले बनाए
फिर एक साथ ढेर सारा धुआँ उगला
सिगरेट की आख़िरी कश ले के पैर से मसला
आज रोज़ सा सिगरेट को तर्जनी और अंगूठे के सहारे दूर नहीं फेंका
फिर पिच्च से थूँकते हुए स्वागत बड़बड़ाया " सब साली फँसी हैं किसी न किसी से "
और ये कह के सिर झुका के चल दिया घर की तरफ - ख़रामा - ख़रामा

मुकेश इलाहाबादी --------------------------------

Friday 16 August 2019

सबीर हका को पढ़ते हुए

एक ---

सबीर हका 
को पढ़ते हुए लगा 
जब 
एक मज़दूर कवि  बनता है तो वह 
शब्दों की ईंट 
भावों की सीमेंट को 
अपने पसीने  और आंसुओं के गारे से सान के 
कविताओं की जो ईमारत बुलंद करता है 
वो सदियों सदियों तक शान से 
सभ्यता के सीने पे खड़ी रहती हैं 
और उन्हें कोइ भी युद्ध महायुद्ध 
बम या परमाणु बम ध्वस्त नहीं कर सकता 
न ही  भूकम्प उस ईमारत को गिरा पाती है 
भले ही पूरी धरती हिल जाए 
या सूरज खुद ज़मी पे आ जाए 
पर वो भी मज़दूर की कविता के महल को नहीं गिरा पायेगा 
ऐसा मुझे लगा 
ईरान के मज़दूर कवि सबीर हका को पढ़ कर 

दो --

दुष्यंत की ग़ज़लों को 
गुनगुनाते हुए महसूस हुआ 
शब्दों में भी आग लगाई जा सकती है 
बहुत दूर तक और देर तक जलती रह सकती है 
वक़्त अगर उस आग को बुझा भी दे तो 
राख के अंदर ही अंदर अलाव की तरह जलती रहती है 
जो आप के और हमारे ख़ून को भले खौला न सके तो 
गुनगुनाहट तो पैदा कर ही देती है 
अगर मौका पड़े तो वही आग 
दावानल बन के बहुत कुछ राख भी कर सकती है 
और सोने को तपा के शुद्ध भी कर सकती है 
ऐसा ही कुछ मुझे लगा 
दुष्यंत की ग़ज़लों को पढ़ते हुए हुए 

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Monday 12 August 2019

सपने मे मै तुम्हें, चूम रहा हूँ

सपने
मे मै तुम्हें,
चूम रहा हूँ
एक ऊँची पहाड़ी की चोटी पे
अचानक तुम मुझे धक्का दे देती हो
अब मै गिर रहा हूँ
एक गहरी
बहुत गहरी खाई में
लेकिन यह क्या?
मै टूटा फूटा नही
मरा नहीं
ज़िंदा हूँ
साबुत हूँ,
पहले की तरह
नज़रें उठा कर
मै पहाड़ की चोटी पर तुम्हें ढूंढता हूं
तुम वहां नज़र नहीं आती हो
मै ऊपर देखता हूँ असमान की तरफ
तुम अपने पंख पसार
उड़ी जा रही हो
मुझसे दूर बहुत दूर
अब हमारे तुम्हारे दरम्यान
सिर्फ एक खाई ही नही
खाली असमान भी है
मै दुख से कातर हो, तुम्हें
तुम्हारा नाम ले के पुकारता हूँ
तुम तो मेरी पुकार नही सुनती हो
पर वो गहरी घाटी
जिसमे तुमने
मुझे धक्का दिया है
भर जाती है
तुम्हारे नाम की प्रतिध्वनि से
और मै डूब जाता हूँ
अवसाद की गहरी नदी मे
मुकेश इलाहाबादी,,,,,,

हवा मे गुम हो गये

हवा
मे गुम हो गये
वे शब्द जो तुमने कहे
वे भी जो मैंने कहे
अब
पसरी है चटाई,
मौन की
हमारे तुम्हारे दरम्यान
इस खामोश चटाई को
लपेट कर चल दूँगा मै
और खो जाऊँगा हवा में
एक दिन
और तुम भी खो जाओगी
चुप की हवा में एक दिन
मुकेश इलाहाबादी

किसी दिन

हो
सकता है
किसी दिन
तुम्हे तुम्हारे पुराने दिन
याद आएं 
और
तुम लौट के आओ
पार्क के उसी कोने में
उन्ही खूबूसूरत लम्हों को
फिर से जीने के लिए
वहां तुम्हे मिले
एक वीरान कोना
कुछ सूखी झाड़ियाँ
एक
ज़र्ज़र कुर्शी
जिसपे बैठ हमने बिताए थे
कई अनमोल लम्हे,
जिसके हत्ते पे
तुमने खरोच - खरोच के
लिख दिया था अपना नाम
मेरा नाम
और एक गुलमोहर का तन्हा पेड़
जो तुम्हारे जाने के बाद ऊगा था
और जो अनवरत गिराता है
हर रोज़ कुछ फूल और
कुछ पत्तियां
उस ज़र्ज़र कुर्शी के हत्ते पे
ठीक उसी जगह
जहाँ तुमने कुरेद कुरेद के
लिक्खा था किसी दिन
अपना नाम मेरा नाम
(क्युं सुन रही हो न सुमी?)
मुकेश इलाहाबादी ------

खिड़की से

एक
ही खिड़की से
हमने देखा कई बार
चाँद को बादल के
अगोश में
खिलखिलाते हुए
कई बार हमने देखा
एक ही खिड़की से
साथ - साथ
दूर क्षितिज़ पे
प्रेम का तारा
'शुक्र तारा' को उगते हुए
और अब तुम देखना
अपनी खिड़की से
तन्हा
दूर गगन मे एक
सितारे को टूटते हुए
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

हम संवेदनशील लोगों के पास

अफ़सोस
और संवेदना व्यक्त करने
के सिवाय कुछ नहीं है
हम संवेदनशील लोगों  के पास

हम कभी बकरीद और शादी ब्याह जैसे उत्सवों पे
होने वाले बेजुबान जानवरों को काटे जाने पे अफ़सोस करते हैं

तो कभी किसी मासूम बच्ची , महिला या लड़की के साथ
हुए बलात्कार के लिए अफ़सोस करते हैं
मोमबत्ती जला कर मात्र संवेदना प्रकट करते हैं

कभी  किसी भाई के द्वारा ज़ायज़ाद  के लिए अपने ही भाई को
मार दिए जाने पे करते हैं अफसोस
तो कभी आतंकवादियों द्वारा मार दिए गए लोगों के लिए अफ़्सोस
और संवेदनाएं व्यक्त करते हैं

काश ! हम भी औरों की तरह असंवेदनशील होते
बेज़ुबान जानवरों को मार के अपनी ज़ुबान का स्वाद बढाते
अपने ही भाई बहनो को मार के अपना स्वार्थ साधते
और खुश  हो के अटटहास लगते लगाते
हमें अपने कुकृत्यों पे कोई अफ़सोस न होता

और अगर किसी दिन किसी दिन
किसी अपने द्वारा मार भी दिए जाएंगे तो
भी कोई अफ़सोस न होगा

क्यूंकी -- मुर्दों को कोई अफ़सोस नहीं होता

मुकेश इलाहाबादी ---------------------