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Tuesday 29 September 2015

दुनिया वाले आज भी इम्तहान लेते हैं

दुनिया वाले आज भी  इम्तहान लेते हैं
ये और बात मेरे पर  ऊँची उड़ान लेते हैं 
तुम हमें अपनी बातें बताओ न बताओ
तुझे देख, हम तेरा दुःख दर्द जान लेते हैं
कब धूप खिलेगी या कब तूफ़ाँ आयेगा
हवा के रुख से  मौसम  पहचान लेते हैं
मौत भी  मेरे  करीब  आने से डरती है,
तेरी अदाओं के तीरो कमान जान लेते हैं 
मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Monday 28 September 2015

ये और बात आग सा दहकता है

ये और बात आग सा दहकता है
दिल  मेरा  भी मगर धड़कता है
सूरज की गर्म रोशनी शोख कर
रात  चाँद  चांदी सा चमकता है
ये किसने बोसा लिया है तेरा ?
चेहरा शर्मो हया से दमकता है  
जाने किस चाँद की जुस्तजूं में
आफताब दिन रात भटकता है
दिन भर मेहनत के बाद, साँझ
दर्द  मेरी नश -२  से टपकता है
मुकेश इलाहाबादी ---------------

Sunday 27 September 2015

आँखे तेरे दीदार को तरसती रहीं

आँखे तेरे दीदार को तरसती रहीं 
औ रूह तेरे प्यार में सुलगती रही 
ग़म उदासी और तन्हाई की बर्फ  
अपनी ही आंच में पिघलती रही 
शायद रेत्  की दीवार थी दरम्याँ 
वज़ह शक ओ शुबह दरकती रही  
कई सावन बीते जब तुम आये थे   
मेरी रातें आज तक महकती रही 
सूनी मुंडेर पे एक बुलबुल बैठी के 
मुकेश के पे देर तक चहकती रही 

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Friday 25 September 2015

जिस्म से रूह सीने से दिल निकल जाता है

जिस्म से रूह सीने से दिल निकल जाता है
तुझे बेनक़ाब देखूं  तो  दिल मचल जाता है
संभल - संभल  के  पाँव तेरे दर पे रखता हूँ
फिर भी जाने क्या बात है फिसल जाता हूँ

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

चलो चराग़ जलाया जाए

चलो चराग़ जलाया जाए
अँधेरा  दूर  भगाया जाए

लोग बैठे हैं उदास घरों में
चलो  उन्हें  हंसाया  जाए

कुछ देर बाहर चलते  हैं
मेल जोल - बढ़ाया जाए

यहां बहुत दहशत गर्दी है
दूसरा शहर बसाया जाए

कब तक मुकेश को सुने
आज उसे सुनाया जाए

मुकेश इलाहाबादी --------------------



ख़ुदा ने फलक पे सितारे हज़ारों बनाये

ख़ुदा ने फलक पे सितारे हज़ारों बनाये
हम जैसे चाँद सूरज तो दो ही बनाये
मुकेश इलाहाबादी --------------------

Thursday 24 September 2015

जब जब खिलते हैं फूल तो हंसती हैं पत्तियां

सड़क छाप शे'र,,
जब जब खिलते हैं फूल तो हंसती हैं पत्तियां
भौंरे  की  शरारत  पे  मुस्कुराती  हैं कलियाँ
यूँ जब भी देखो हर वक्त बंद मिला करती हैं  
आशिकों के आते ही खुलजाती हैं खिड़कियाँ

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

सबसे प्यारा गुड्डा गुम हो जाए,

जैसे 
किसी गुड़िया का 
सबसे प्यारा गुड्डा 
गुम हो जाए,  
तमाम खिलौनों के बीच 
और,
बहुत ढूंढने पर न मिलने पर 
रो रो के सिर पे दुनिया उठा लिया हो 
बस,,,,, ऐसे ही किसी दिन 
तुम मुझे ढूंढो 
और, मै  
किसी छुपी हुई जगह से 
निकल के तुम्हे ' आईस - पाईस ' बोल कर 
तुम्हे चौंका दूँ  

या कि ,
अचानक किसी दिन 
तुम मुझे न दिखो तो 
मै तुम्हे ढूंढता फिरूँ 
जैसे 
कोई बच्चा ढूंढता फिरे 
अपनी खोई हुई गेंद 
पार्क की झाड़ियों में 
पेड़ों के झुरमुट में 
या पार्क में बैठे लोगों के इर्द गिर्द 


या फिर 
तुम मुझे ऐसे ढूंढो 
जैसे 
माँ खोजती है अक्सर 
बाज़ार जाते वक़्त अपनी चप्पलें 
पलंग के नीचे 
अलमारी के पीछे या फिर 
इधर उधर 

या जैसे 
पापा ढूंढते हैं - हड़बड़ी में 
ऑफिस जाते वक़्त 
अपना चश्मा और रुमाल 

या की दादी बिस्तर से उतरने 
के पहले ढूंढती हैं अपने छड़ी 

बस ऐसे ही हम तुम ढूंढें और खोजें 
एक दूजे को एक दूजे के दिल में 

मुकेश इलाहाबादी ---------- 

सूरज के साथ खड़ा हूँ

सूरज के साथ खड़ा हूँ 
खाक  होने पे तुला हूँ 

उजाला गवाही दे देगा 
संग चराग के जला हूँ   

मील के पत्थर सा मै 
आज भी वहीं गड़ा हूँ  

तेरे दिल ऐ कंगन में 
मै  नगीने सा जड़ा हूँ 

खुश्बूओं से पूछ लो 
फूल  सा  मै खिला हूँ 

मुकेश इलाहाबादी ---

Wednesday 23 September 2015

हज़ारों ख़्वाब देखती हुई आँखें

हज़ारों  ख़्वाब देखती हुई आँखें 
जाने  क्या -२ सोचती हुई आँखें 

ज़िदंगी के तमाम रंग समेटे हुए 
सितारों के पार देखती हुई आँखें 

जाने क्या जादू है इन आँखों में 
सब को मोहित करती हुई आँखें 

मुकेश इलाहाबादी -------------- 

Friday 18 September 2015

जब मौत के करीब पहुंची

जब मौत  के करीब पहुंची 
ज़ीस्त मुकाम पे तब पहुंची 

धूप  ने  सोख लिया दरिया 
साँझ  के   बाद  शब  पहुंची 

रात तारे  गिन गिन कटी  
नींद पलकों पे अब पंहुची

ज़रा याद कर के बता, तू  
मिलने वक़्त पे कब पंहुची

मुकेश इलाहाबादी ---------

Tuesday 15 September 2015

जंगल बदल चुके हैं

चूँकि,  
जंगल बदल चुके हैं 
बस्तियों में या फिर 
फॉर्म हाउसेस में 
लिहाज़ा अब 
जंगल में  
हरे भरे फलों से लदे 
पेड़ नहीं मिलते 
दवाइयों वाली 
घनी झाड़ियाँ और 
और वनस्पतियां भी नहीं मिलती 

यहां तक कि 
जानवरों का राजा शेर 
भी इधर उधर घूमता 
नहीं मिलता 
वह अब सर्कस या 
चिड़ियाघर के पिंजड़े 
में मिलता है 
आज कल 
जंगल का राजा 
कुत्ता है 
उसके भी गले में चेन रहती है 
जो 
गरीबों व मज़बूरों पे खूब भोकता है 
और 
चोरों को देख कर पूछ हिलाता है 

कौवे जंगल के पेड़ों पे नहीं 
संसद और विधान सभा के 
गुम्बदों पे काँव - काँव करते पाये जाते हैं 
गौरैया 
तो होती ही शिकार करने की खातिर 
अब तो उसकी प्रजाति ही लुप्त होने का 
खतरा मंडरा रहा है 
बुलबुल - भी कम चहकती है 
डर के मारे 
लिहाज़ा - गौरैया और बुलबुल को तो 
भूल ही जाओ 
हाँ , गैंडे जरूर 
उसी शान से 
जंगल की जगह 
राज पथ पे अरर्राते 
देखे जा सकते हैं 
उहें क्या फर्क पड़ता है 
कि 
वे जंगल में हैं 
या राजपथ पे 
लोमड़ियों ने कुत्तों के साथ दोस्ती कर ली है 
लिहाज़ा वह भी खुश है 
सियार रंग बदल बदल के इन लोगों 
की हाँ में हाँ मिलाता है 
गिरगिट रंग बदल बदल के 
फार्म हाउसेस की 
लताओं पे 
चढ़ता उतरता रहता है 
लिहाज़ा दोस्त 
जंगल की अपनी 
पुरानी अवधारणा को बदल डालो 
जंगल में 
पेड़ पौधे 
और जानवर मत ढूंढो 
क्यूँ की ये खतरनाक जानवर 
इंसान की खतरनाक फितरत के 
आगे दम तोड़ चुके हैं 

मुकेश इलाहाबादी --------------

Thursday 10 September 2015

आंसुओं, से ज़ख्म धोया किये


आंसुओं, से ज़ख्म धोया किये 
तुम बिन बहुत हम रोया किये 

कहने को तो खाली हाथ थे हम 
ग़म ज़माने भर के ढोया किये

जिनके  लिए गुल खिलाते रहे
वे हमारे लिए कांटे बोया किये    

नींद मे  दर्द पता नहीं लगता  
शब्भर नींद गहरी सोया किये 

जब भी ज़िंदगी फुर्सत देती है 
मुकेश तेरे बारे में सोचा किये 


मुकेश इलाहाबादी ------------

Sunday 6 September 2015

ज़माना ख़िलाफ़ था

ज़माना ख़िलाफ़ था 
ख़ुदा  मेरे  साथ था 

न  नीचे ज़मी थी  न 
ऊपर  आसमान था 

तेरी  यादों बातों  का 
मेरे संग असबाब था  

रात जब नींद आई 
तेरा  ही  ख्वाब था 

मुझे नई ज़िंदगी दी 
वो तेरा ही प्यार था 

मुकेश इलाहाबादी - 

Thursday 3 September 2015

अपने दर्दों ग़म ले कर कहाँ जाऊँ

अपने दर्दों ग़म ले कर कहाँ जाऊँ 
जहां भी जाऊँ तेरे ही निशाँ पाऊँ 

है मेरे जिस्मो जाँ में तेरी खुशबू 
बता तेरी ये खुशबू कहाँ  छुपाऊँ 

ख़्वाब  ने  तेरी तस्वीर बनाई है 
अब सोचता हूँ इसे कहाँ सजाऊँ

अपने उजड़े उजड़े दिले मकाँ में 
तुझ नाज़नीं को, किधर बिठाऊँ 

आ तू कुछ देर मेरे पहलू में बैठ 
तुझे तुझपे लिखी ग़ज़ल सुनाऊँ 

मुकेश इलाहाबादी -------

Tuesday 1 September 2015

तेरा ज़िक्र आते ही मुस्कुरा देता हूँ

तेरा ज़िक्र आते  ही  मुस्कुरा देता हूँ 
दुनिया वाले समझते हैं मै अच्छा हूँ 

यूँ तो सिफत मेरी बर्फ की है, मगर 
तेरे पास आते ही मै पिघल जाता हूँ 

मेरे वज़ूद में पानी  की  रवानी भी है 
पर तेरा संग साथ पा सुलग जाता हूँ 

अक्सर मै चुप चुप ही रहा करता हूँ 
गुफ्तगू तो मै सिर्फ  तुमसे करता हूँ  

मै  सिर्फ तेरी बातें कहता सुनता हूँ 
लोग समझते हैं, मै ग़ज़लें कहता हूँ 


मुकेश इलाहाबादी ---------------------