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Thursday 29 June 2017

आदम का बाग़

सुनो,
कल्पना करो

एक खूबसूरत और बहुत खूबसूरत बाग़ है
आदम का
जंहा फूल कभी मुरझाते नहीं - बिलकुल तुम्हारी ख़ूबसूरती की तरह
जंहा तुम्हारी साँसों की भीनी भीनी खुशबू चंहु और बिखरी रहती है
सोने और चांदी की रंगीन तितलियाँ उड़ती रहती हैं

उस आदम के खूबसूरत बाग़ में
इत्र के फुहारे और
इत्र की ही नदियां बहती हैं
उस बाग़ में बारहों माह और तीन सौ पैसठ दिन बसंत रहता है
न तो सूरज इतना गरम होता है कि तपन हो
न चाँद इतना सर्द होता है कि गलन हो

सब कुछ खुशबू - खुशबू सा
चन्दन -चन्दन सा
महका - महका सा

अदम के उस बाग़ की
सुबह- शाम और रात तीनो सुनहरी होती है
वातावरण में - कंही बांसुरी बजती रहती है
तो कंही अनहत नाद की गूँज होती है
कंही कोइ कोयल पंचम सुर में कूकती है
और फुर्र से आस्मां में उड़ जाती है
तो कंही मोर अपनी सतरंगी छटा के साथ थिरकता मिल जाता है

ऐसे खुशनुमा - खुशनुमा बाग़ में
ऐसे खुशनुमा- खुशनुमा मौसम में
तुम हो
मै हूँ
और ये खूबसूरत अदम का बाग़ हो
जिसकी गवाही पैरों के नीचे ज़मी दे रही है
सिर के ऊपर चाँद सितारे चमक - दमक रहे हैं

तुम और मै -  दोनों बगल - बगल चले जा रहे हैं
इत्र की नदी के किनारे - किनारे

तुम - ' देखो न ! चाँद कितना प्यारा लग रहा है ?'
मै - ' तुम्हे चाँद पसंद है ?'
तुम हंस देती हो

तुम कितना हंसती हो ?
तुम और हंसने लगती हो
- तो क्या मै  न हँसू ?
- अरे ! मैंने ऐसा कब कहा ?
   मै चाहता हों तुम क़यामत तक हंसती रहो इसी तरह
   और, मै तुम्हे देखता रहूँ इसी तरह
तुम और ज़ोर से हंस देती हो
- अच्छा ये बताओ तुम्हे ये चाँद कितना अच्छा लगता है ?
तुम - दोनों हाथ फैला के - इत्ता
- बस इतना ?
तुम नाराज़ हो  जाती हो
तुम्हे तो हर बात में मज़ाक सूझता है

अब मै हंस देता हूँ
मै कुछ और पूछना चाहता हूँ
तुम्हे अपनी ऒर खींचना चाहता हूँ

तुम - आओ चलो नौका विहार करते हैं

फूलों के नाव की रस्सी खींच देता हूँ
कश्ती के डाँड़ मेरे हाथ में हैं
तुम मेरा हाथ पकड़ के नाव पे चढ़ती हो
नाव हिलती है - तुम भी हिलती हो
तुम  डर के मुझपे गिरती हो
मै तुम्हे अपने ऊपर गिर जाने देना चाहता हूँ
तुम मेरा कन्धा पकड़ के संभल जाती हो
तुम लटों को सुलझाते हुए नाव पे बैठ जाती हो

नाव धीरे - धीरे चल रही है
नदी धीरे - धीरे बह  रही है
सांझ धीरे - धीरे ढल रही है
कोयल कुहू - कुहू कर रही है
दूर कंही कोइ योगी ध्यानस्थ है
पुरनम हवा अपनी मस्ती में है
तुम नदी के जल को अपनी अंजुरी में ले के
कभी आसमान में तो कभी मुझपे उछाल देती हो
फिर खिलखिला के हंस देती हो
तुम कोइ प्रेम गीत गुनगुना रही हो

एक मछली पानी के ऊपर आती है
तुम पहले तो डर जाती हो
मछली बुलुप से फिर पानी में चली जाती है
तुम चांदी सी मछली देख के बच्चों सा खुश हो जाती हो
तुम्हे छोटी छोटी मछलियां पसंद आईं

मै तुम्हारी खुशी आँखों में कैद कर लेता हूँ

तुम्हारी इक लट गालों से चिपक गयी है
मै उसे अपनी उंगली से हटाने के बहाने गालों को छू लेता हूँ
तुम बनावटी गुस्सा - मौके का फायदा ?
मै हंस देता हूँ
तुम शरमा जाती हो

रात - गहरा चुकी है
कोयल थक के अपनी चोंच डैनो पे रख सो चुकी है
चाँद आसमान की परिक्रमा कर कर के थक चूका है
योगी समाधि में लीन हो चूका है
रात अपना सांवला आँचल फैला के खुश है

तुम चुप हो
मै चुप हूँ
रात चुप है
तुम कुछ कहना नहीं चाहती
मै कुछ बोलना नहीं चाहता
हमारे बीच मौन बतिया रहा है
कश्ती के चप्पू हुंकारी भर रहे हैं
रात दोनों कान लगाए इस मौन को सुन रही है

मैंने - कश्ती को मोड़ दिया
कश्ती किनारे पहुंच चुकी है

तुम बेतरह थक चुकी हो
मेरे काँधे पे हाथ रख के चल रही हो
तुम्हारी आँखे नींद से बोझल हैं

अब - हम अदम के बाग में बने
रेस्ट रूम में हैं
रेस्ट रूम की दीवारें चंदन की हैं
छत चाँदनी की है
सेज़ कलियों की है

मै तुम्हे सेज़ पे लिटा देता हूँ
तुम जूती पहने पहने ही सो जाती हो
मै तुम्हारी जूती उतार के रख देता हूँ

तुम्हे हौले से रातरानी के फूलों की तकिया लगा देता हूँ
तुम जग जाती हो -  मुस्कुरा देती हो

मै तुम्हारी पलकों को चूम के हौले से दरवाज़ा बंद कर के चला जाता हूँ
तुम्हारी पलकों पे - आंसू हैं

बीते दर्द के हैं
या किसी खुशी के ये तो पता नहीं

पर मै तम्हारी पलकों पे मुस्कुराहट देख के बहतु खुश हूँ

क्यूँ सुन रही हो न ?
मेरा सपना - मेरी सुमी
बोलो न ??
कुछ तो बोलो न //
वरना मै मौन हो जाऊँगा हमेशा - हमेशा के लिए

तुम्हारा

मुकेश इलाहाबादी ---------------------






यक्ष प्रश्न

तुम
मुझे क्यूँ अच्छी लगती हो ?
ये एक यक्ष प्रश्न है
जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है

अगर
रूप मानू तो
तुमसे बेहतर भी होंगे ज़माने में
(ये - मैंने नहीं तुमने ही कहा था )

साहचर्य
मानू तो
तुम मेरे साथ इतना भी नहीं रही कि
तुम्हे देख समझ पाता

तुम्हारे व्यवहार , गुण या किसी और
विशेषता के बारे में भी कुछ ऐसा ही
कहा जा सकता है -

इन सब को छोड़ भी दूँ तो
तुम्हारी घोर उपेक्षा और
घनघोर चुप्पी के बावजूद
मै तुम्हे क्यूँ चाहता हूँ
ये एक यक्ष प्रश्न है ,

मुकेश इलाहाबादी -------------

तुमसे ही रूठेंगे


तुमसे  ही रूठेंगे
तुमसे ही हँसेंगे

तू  सुन  न  सुन
तुझसे ही बोलेंगे 

तू मिल न मिल
तुझको ही ढूंढेगे

आ जा बारिस में  
हम- तुम भीगेंगे

आ  एक बार फिर
छुपा  छुपी खेलेंगे

तुम हंस के भागो
हम तुमको छू लेंगे

मुकेश इलाहाबादी --

Wednesday 28 June 2017

तुम्हारी आँखों का पानी शर्बती -शर्बती है

तुम्हारी आँखों का पानी शर्बती -शर्बती है
क्या तुम्हारी पलकों में कोई मीठी नदी है

जो भी तुझसे मिलता है तेरा हो जाता है,,
क्या तुम्हारे पास कोई जादू की छड़ी है ?

सच सच बता तू हाड मास की बनी है या
फ़लक़ से उतरी कोई अप्सरा या परी है ?

रिमझिम रिमझिम बारिस सा लगता है
क्या तेरे गेसुओं में कोई घटा या बदली है

तुम मुझसे कुछ बोलती नहीं कहती नहीं
तू सच मुच् रूठी है या ये गुस्सा नकली है


मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Monday 26 June 2017

मृगतृष्णा

तुम्हारी,
दोस्ती ऐसी मृगतृष्णा है, जहाँ लगता  तो है  मीठे पानी का समंदर है
पर, जितनी दूर तक देखो रेत  ही रेत नज़र आती है -
फिर भी, न जाने क्यूँ, इस रेगिस्तान में प्यास और पसीने  से तर बतर चलते
और चलते रहना चाहता हूँ -  भले ही थकन से पोर - पोर टूट जाए
और एक दिन खुद भी इसी रेगिस्तान में रेत बन बिखर जाऊं
मीठे पानी की चाहत में - तुम्हारी आँखों के रेगिस्तान में -
ओ ! मेरी मृगतृष्णा -

ओ !  मेरी मैना - तुम्हरी  मीठी - मीठी बोली ही तो मेरे जीवन का उत्सर्ग  है
मेरे जीवन की प्यास है -

क्यूँ सुन रही हो न मेरी मृगनयनी ?
सच ! तुम्हारी इन कजरारी - कजरारी बड़ेरी अँखियों में डूब जाना चाहता हूँ -
हमेशा - हमेशा के लिए - भले ही तुम्हारी इन आँखों
में रेत का - तन्हाई का - अजीब सी मस्ती का माया जाल हो -
सच , तुम्हारे इसी माया जाल में फंसा रहना चाहता हूँ जन्मो जन्मो तक - युगों युगों तक
जब तक कि क़यामत न आ जाये
ये दुनिया दुनिया फ़ना न हो जाए।

मुकेश इलाहाबादी -------------------

तुम्हारी हंसी

तुम्हारी
हंसी की श्वेताभ किरणे
मेरे उदास चेहरे को भी
जगमग कर जाती हैं
और मै बच जाता हूँ
अंधेरे कुंए में डूबने से ...

मुकेश इलाहाबादी ---
 

Sunday 25 June 2017

विशुद्ध प्रेम

सुमी ,

जानती हो ?
जब कभी ख़ुद को भावों के गहन गह्वर तल में पाता हूँ , या प्रेम की विशेष भावदशा में उतरता हूँ तो लगता है 'मै ' सिर्फ 'मै ' नहीं, और 'तुम ' सिर्फ 'तुम ' नहीं।
उस वक़्त 'तुम' और 'मै ' का 'द्विजत्व' समाप्त हो जाता है। सिर्फ और सिर्फ 'एकत्व ' शेष रहता है।  जंहा अद्भुत आनन्द बरसता है।  अहर्निश 'अनहलक ' 'अहम् 'ब्रम्हाशमी' की गूँज होती रहती है।  जिसमे डूबे रहने का जी चाहता है, बने रहने का मन करता है ,
किन्तु ,
 इस भावदशा के उत्थान होते ही, आँख खुलते ही यही 'एकत्व' फिर और फिर द्विजत्व में  तब्दील हो जाता है, और फिर 'तुम ' तुम हो जाती है, मै  फिर से 'मै ' हो
जाता हूँ ,  यही द्विजत्व द्वन्द में तब्दील हो जाता है।  तुम मेरी परछाई बन जाती हो, और मै एक बार फिर एकत्व के लिए उसी आनन्द के लिए उसी भावदशा में
डूबने के लिए , अपनी 'परछाई' यानी 'तुम्हे' पकड़ने के लिए भागने लगता हूँ।  मै  जितनी जोर से भागता हूँ  तुम्हारी परछाई उतनी ही तेज भागने लगती है।  मै
और तेज़ भागने लगता हूँ।  तुम और तेज़ दौड़ने लगती हो।  मै धीमे हो जाता हूँ तुम भी धीमे हो जाती हो , 'मै ' हाँफने लगता हूँ ''तुम' भी हाँफती हुई रुक जाती हो। 'मै' झपट कर 'तुम्हे' पकड़ना चाहता हूँ, हर बार हथेलियाँ रीती रह जाती हैं। तुम मुझसे अलग खड़ी मुस्कुराती रहती हो।
मै फिर भागने लगता हूँ , तुम फिर भागने लगती हो।  भागते भागते दिन का सूरज डूब जाता है , सांझ उतर आती है , परछाई और बड़ी होने लगती है, मेरी
हताशा और बढ़ जाती है।
धीरे -धीरे यही सांवली परछाई गहन रात में तब्दील हो चुकी होती है। काली गहरी परछाई वाली रात , और मै डूब जाता हूँ, थक कर गहरी नींद में सो जाता हूँ , जो
एक गहरी भावदशा होती है , जंहा फिर से विशुद्ध प्रेम



Friday 23 June 2017

तुम्हे शिकायत हम शिद्दत से सुनते नहीं

तुम्हे शिकायत हम शिद्दत से सुनते नहीं
तुम भी तो हमसे खुलके कुछ कहते नहीं

चलो लौट चलते हैं फिर वही अपने रस्ते
तुम्हारे और हमारे रस्ते कंही मिलते नहीं

तू गुल है आज खिलेगी कल भी खिलेगी 
हम तो पत्थर हैं हम पे बहारें आती नहीं

मुकेश मै नदी का इक किनारा तुम दूसरा
दो किनारे कभी इक दूजे में सिमटते नहीं

मुकेश इलाहाबादी --------------------

दिन को उजाला रातों को अँधेरा नहीं मिलता

दिन को उजाला रातों को अँधेरा नहीं मिलता
अजीब शहर है यंहा कोई हँसता नहीं मिलता

दुःख दर्द अपना हर कोई बाँटना चाहता तो है
हमदर्द नहीं मिलता कोई अपना नहीं मिलता

जिधर देखो उधर ही, दर्दों ग़म के अफ़साने हैं
अफसाना ऐ मुहब्बत कोई गाता नहीं मिलता

खिलाड़ी, व्यापारी, नेता,पंडित,पुरहित मिलेंगे
रैदास सा मोची कबीर सा जुलाहा नहीं मिलता


मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------


Thursday 22 June 2017

रोशनी के लिए चाँद है सितारे हैं

रोशनी के लिए चाँद है सितारे हैं
फूलों की छत खुशबू की दीवारे हैं

सोने चांदी का इक बाग़ सुनहरा
बाहों की सेज़  वफ़ा की मीनारे हैं

तुमको खुशनुमा मौसम मिलेगा
मेरा घर ईश्क़ की नदी,किनारे है

अब तू ही मेरा दरिया तू ही नाव
मेरा जीवन अब तेरे ही सहारे है

मुकेश इलाहाबादी --------------

Wednesday 21 June 2017

ख़ुद के साथ बड़ी नाइंसाफी की है

ख़ुद के साथ बड़ी नाइंसाफी की है
सुबह पी है, शाम पी है, रात पी है

दुनिया समझती है, मै मौज में हूँ
सिर्फ मुझे पता है फांका मस्ती है

मेरी आँखों में है,  इक नीली झील
झील में तुम्हारे नाम की कश्ती है

शराब बिछाती है सपनो की चादर
फिर ख्वाब में इक परी उतरती है  

ज़िंदगी की अंधेरी रातों में मुकेश
तुम्हारी आँखे दिप दिप जलती हैं

मुकेश इलाहाबादी ---------

Tuesday 20 June 2017

दुश्वारियों से मेरी यारी है

दुश्वारियों से मेरी यारी है
ज़िंदगी से जंग जारी है !

रात मैंने पिया  तो नहीं,,
आँखों  में  क्यूँ  ख़ुमारी है !

ये दुनिया भर की दौलतें
न तुम्हारी है न हमारी है

है, ईश्क़ ख़ुदा की नेमत ,,
दुनिया कहती बीमारी है

दुनिया सट्टे का बाजार
हम - तुम -सब जुँवारी हैं

मुकेश इलाहाबादी ----------

Monday 19 June 2017

यादों की धूप में


तुम्हारी
यादों की धूप में
बिटामिन 'डी' है
जो मेरी सेहत के
लिए बहुत ज़रूरी है

तुम्हारी
हंसी चयनप्राश है
जो स्वस्थ रखती है
मुझे उम्र के इस पड़ाव में भी

तुम्हारा
मौन कड़ी धूप में
अमराई की छाँव है
जीवन की आपा धापी में
कुछ पल शुकूँ मिल जाता है

तुम्हारी
अधकचरी - छोटे - छोटी बातें
बादलों से गिरती ठंडी ठंडी बूंदो की फुहार है
जो तन मन दोनों हरषा जाती है

सच तुम
मुझ जैसे बीमारे -इश्क़ के लिए
हक़ीम हो - औषधि हो

धूप हो - हवा हो - पानी हो
तुम मेरे लिए सब कुछ हो

हो न ?
सुमी तुम मेरी सब कुछ हो न???
बोलो न ??

मुकेश इलाहाबादी ------




हैरान परेशान रहा करता है



हैरान  परेशान  रहा  करता है 
तेरे लिए जी हलकान रहता है 

तू रहती है तो आबाद रहता है 
वर्ना ये मकान वीरान रहता है 


मुकेश इलाहाबादी --------------

Saturday 17 June 2017

तुम्हारी बातों में वो गर्मी नहीं दिखाई देती,

सुमी,
 तुम्हारी बातों में वो गर्मी नहीं दिखाई देती, वो नरमी नहीं दिखाई देती , वक़्त की सर्द रातों ने सारी की सारी आग राख में तब्दील कर दी?
 चलो कोइ बात नहीं।गर फिर कभी तुम्हे दोस्ती की आँच की ज़रा भी दरकार होगी, तो बस इस भूले हुए रिश्ते को थोड़ा कुरेद भर देना, मै
 तुम्हे मौजूद मिलूँगा राख में क़ैद चिंगारी सा, तुम्हारे आँचल की हवा से फिर सुलगने को बेताब मिलूंगा।

 देखो तो ! या हवा भी कितनी पागल है -  कभी चलती है तो इतनी तेज़ इतनी तेज़ की सब कुछ उड़ा ले जाने को बेताब रहती है - चाहे वो
घर हो झोपड़ा हो महल हो किसी की यादें हो असबाब हों , और कभी तो इतनी मद्धम मद्धम चलती हैं जसकी खुशबू से इंसान मदहोश हो जाता है
किसी की बाँहों में खो जाने को जी चाहता है - यही हवा जब बरसात की बूंदो के साथ घुल मिल के जिस्म से टकराती है तो अजब से रूहानी
ठंडक से जी महक महक जाता है - मगर आज गर्मी के इस मैसम में हवा जाने कहाँ गायब हो गयी है ? शायद अपने माशूक  तूफ़ान से मिलने
गयी हो - या हो सकता है अपने पीहर गयी हो - या हो सकता है कंही तफरीह में निकली हो - कुछ देर बाद आये।  हूँ अच्छा याद आया तुम कब
आओगे दोस्त ??

तुम तो कुछ बोलती ही नहीं हो - इत्ती चुप्पी अच्छी नहीं लगती, चुप्पी की तासीर बर्फ सी ठंडी होती है, (गर मुहब्बत की रूहानियत नहीं है ये चुप्पी तो ? सुलगते हुए शोलों को राख कर देती हैं - लिहाज़ा रिश्तो की आंच बचाए रखने के लिए बोलते बतियाते रहना बहुत ज़रूरी होता है।  वैसे मै तुम्हरी चुप्पी से भी बतिया
लेता हूँ चुपके चुपके - क्यूँ की
सुन्ना चाहो तो बहुत राज़ खोलती हैं
चुप्पियाँ अक्सर बहुत कुछ बोलती हैं -

देखा !!! तुम मेरी बातों से मुस्कुरा दी ना, देखो हवा भी चलने लगी - ठुनक - ठुनक - अब इस मै सो जाऊँगा- क्यूँ कि तुम्हारी यादों की हवा मुझे लोरी
जो सूना रही है।

बाय - गुड़ बाय


मुकेश इलाहाबादी ----------------
सुमी,
 तुम्हारी बातों में वो गर्मी नहीं दिखाई देती, वो नरमी नहीं दिखाई देती , वक़्त की सर्द रातों ने सारी की सारी आग राख में तब्दील कर दी?
 चलो कोइ बात नहीं। गिर फिर कभी तुम्हे दोस्ती की आँच की ज़रा भी दरकार होगी, तो बस इस भूले हुए रिश्ते को थोड़ा कुरेद भर देना, मै
 तुम्हे मौजूद मिलूँगा राख में क़ैद चिंगारी का, तुम्हारे आँचल की हवा से फिर सुलगने को बेताब मिलेंगे।
 देखो तो ! या हवा भी कितनी पागल है -  कभी चलती है तो इतनी तेज़ इतनी तेज़ की सब कुछ उड़ा ले जाने को बेताब रहती है - चाहे वो
घर हो झोपड़ा हो महल हो किसी की यादें हो असबाब हों , और कभी तो इतनी मद्धम मद्धम चलती हैं जसकी खुशबू से इंसान मदहोश हो जाता है
किसी की बाँहों में खो जाने को जी चाहता है - यही हवा जब बरसात की बूंदो के साथ घुल मिल के जिस्म से टकराती है तो अजब से रूहानी
ठंडक से जी महक महक जाता है - मगर आज गर्मी के इस मैसम में हवा जाने कहाँ गायब हो गयी है ? शायद अपने माशूक  तूफ़ान से मिलने
गयी हो - या हो सकता है अपने पीहर गयी हो - या हो सकता है कंही तफरीह में निकली हो - कुछ देर बाद आये।  हूँ अच्छा याद आया तुम कब
आओगे दोस्त ??


मुकेश इलाहाबादी -----------------

बरसों पुरानी कहानी बार - बार सुनाते हैं


बरसों पुरानी कहानी बार - बार सुनाते हैं
मेरे होंठ आज भी तेरा नाम गुनगुनाते हैं
यादों के पंछी अपना ठिया  पहचानते  हैं
सांझ होते ही अपने अड्डे पे लौट आते हैं
कित्ता तो चाहा गुज़रे लम्हे न याद आएं
सूदखोर की  तरह तकादे पे चले  आते  हैं
मुकेश इलाहाबादी ----------------------

हर - रोज़ गिरता हूँ हर - रोज़ उठता हूँ

हर - रोज़ गिरता हूँ हर - रोज़ उठता हूँ
खुद ही संवरता हूँ , ख़ुद ही बिखरता हूँ
गेंदा नहीं, गुलाब नहीं ,गुलमोहर नहीं
बेशरम का पौधा हूँ बिन माली उगता हूँ
मै पत्थर नहीं हूँ इक जगह टिक जाऊं
दरिया हूँ कभी यहाँ कभी वहाँ बहता हूँ
अपना वज़ूद गरीब की झोपड़ी निकला
बरसात में टपकता तूफ़ान में उजड़ता हूँ
मतलब से ही लोगों से मिलूं आदत नहीं
बेवज़ह भी, अक्सर अपनों से ,मिलता हूँ
मुकेश इलाहाबादी --------------------

रोज़ रोज़ की आपा धापी थका देती है

रोज़ रोज़ की आपा धापी थका देती है
कई बार अपनों को  भी  भुला देती है

हंसना  खेलना तो  चाहते  हैं सब,पर  
कि ज़िंदगी है अक्सरहाँ रुला  देती है

तुम भले उकेर आओ पत्थर पे  नाम
वक़्त की आँधी सब कुछ मिटा देती है

फूलों  की सेज़  पे सोने  वालों को  भी
मौत ख़ाक के बिस्तर पे सुला देती है

शब भर तो तेरे ख्वाब सोने नहीं देते
शुबो होते ही अलार्म घड़ी जगा देती है

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Friday 16 June 2017

तेरे उदास चेहरे पे रौनक छा जाएगी

तेरे उदास चेहरे पे रौनक छा जाएगी
मुझसे मिलोगी तो खुशी आ जाएगी

ईश्क़ की किताब रेत पे मत लिखना
लहर आएंगी,झटके से मिटा जाएगी

देखो  तो फूलों ने सेज़ बिछा रक्खी है
चाँदनी आएगी चादर  बिछा जाएगी

मेरे पास मुहब्बत की जादुई सुराही है
तुम्हारी बरसों की प्यास बुझा जाएगी

नींद आयी तो  मेरी बाहों में सो जाना
नहीं आई तो ख्वाब लोरी सूना जाएगी

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Thursday 15 June 2017

ज़मी पे पारे सा बिखर गया हूँ

ज़मी पे पारे सा बिखर गया हूँ
किसी के हाथों से गिर गया हूँ

शाख से टूटा हुआ पत्ता हूँ मै
जिधर हवा चली उधर गया हूँ

वो तो तेरी सोहबत ही है जो मै
थोड़ा बहुत सही सुधर गया हूँ

कल रात फिर मैंने आवारगी की
शुबो हुई मुकेश तो घर गया हूँ

ऊंचाई मुझे मगरूर न कर दे
थोड़ी सी सीढ़ियाँ उतर गया हूँ

मुकेश इलाहाबादी -----------

ज़मी पे पारे सा बिखर गया हूँ

ज़मी पे पारे सा बिखर गया हूँ
किसी के हाथों से गिर गया हूँ

शाख से टूटा हुआ पत्ता हूँ मै
जिधर हवा चली उधर गया हूँ

वो तो तेरी सोहबत ही है जो मै
थोड़ा बहुत  सही सुधर गया हूँ

कल रात फिर मैंने आवारगी की
शुबो हुई मुकेश तो घर गया हूँ


मुकेश इलाहाबादी -----------

पत्थर हो तो क्या पिघल जाओगे

पत्थर हो तो क्या पिघल जाओगे
मुझसे मिलोगे तो बदल जाओगे

तू मान ले बात, थाम ले मेरा हाथ
फिसल रहे होंगे तो संभल जाओगे

ज़ख्मो को  देखने की ज़िद न करो
मेरे ज़ख्म देखोगे तो दहल जाओगे

जानता हूँ तुझे दिल्लगी पसंद नहीं
देखोगे मेरा दिल तो मचल जाओगे

मुकेश इलाहाबादी -----------------

आईना कुछ चटका हुआ तो है

आईना कुछ चटका हुआ तो है
दिल में कुछ टूटा हुआ तो है ?

उसकी बातों से महसूस हुआ
वो,हमसे कुछ रूठा हुआ तो है

आ चल उठ के बाहर देखते हैं
दरवाज़े पे खटका हुआ तो है

हो सकता है कोई बात न हो
मगर कोई हादसा हुआ तो है

हो सकता है बारिश न हुई हो
बदन उसका भीगा हुआ तो है

मुकेश इलाहाबादी -----------

Wednesday 14 June 2017

पुल हूँ मै

टूटा
ज़र्ज़र पुराना
पुल हूँ मै

जिसके
नीचे कोई नदी
नहीं बहती

हाँ ! सूखी हुई नदी
के निशाँ ज़रूर हैं
दूर तक

आब की नदी तो नहीं
हाँ ! पत्थरों की नदी ज़रूर बहती है
दूर - दूर तक
जिससे
तुम्हारी प्यास न बुझेगी
कतई

मेरे
सीने पे
फ़क़त
तन्हाईयाँ डोलती हैं
इस छोर से उस छोर तक

इस टूटे ज़र्ज़र पुल से
तुम पार भी नहीं उतर सकते

तुम !  लौट जाओ पथिक

मुकेश इलाहाबादी --------

तेरी यादों से छुट्टी कर लिया है

तेरी यादों से छुट्टी कर लिया है
तुमसे  मैंने  कट्टी कर लिया है

सम्बन्धो  थोड़ा चटखारा हो
बातें खट - मिट्टी कर लिया है

मुकेश इलाहाबादी -------------

अंधेरी रातों में जागता कौन है


अंधेरी रातों  में जागता कौन है
मेरे  अंदर  जगमगाता कौन है

जब भी चाहा ज़ोर- ज़ोर हंसना
हर बार मुझको रुलाता कौन है

तेरे ख़त तेरे तोहफे बहा आया
फिर तेरी याद दिलाता कौन है

कोइ साज़ नहीं साज़िंदे नहीं
कानो  में  गुनगुनाता कौन है

मुकेश तू ज़माने से ग़मज़दा है
तेरे  होंठो पे मुस्कुराता कौन है

मुकेश इलाहाबादी ------------

खिल गया - सूरजमुखी

एक
शहर जो ढंका रहता था
घने कोहरे से
तुम्हारे आने से
छितरा गयी है
सुनहरी धूप
और
खिल गया - सूरजमुखी

मुकेश इलाहाबादी -------

मौन समर्पण के कागज़ पे लिखूँगा


मौन समर्पण के कागज़ पे लिखूँगा
इक ख़त  तुम्हारे नाम  से लिखूंगा
सुना! नदी सा कल -कल बहती हो 
तुम्हारे जिस्म पे लहरों से लिखूंगा
मुकेश इलाहाबादी ----------------

Tuesday 13 June 2017

छतरी

धूप
और बारिश में
न जाने क्या होता ?

तुम्हारी यादों की
सतरंगी छतरी न होती तो ?

मुकेश इलाहाबादी -----------

दर्दो ग़म छुपाने में बीत गयी

दर्दो  ग़म  छुपाने में बीत गयी
ज़िंदगी मुस्कुराने में बीत गयी

इक लम्हा भी शुकूं से नहीं बैठे
उमर,सारी कमाने में बीत गयी

इक दिन को आया था मेरा यार
रात सुनने सुनाने में बीत गयी

तुम्हारे घर की दूरी ही इतनी थी
छुट्टियाँ आने-जाने में बीत गयी

मिलने, दो रिन्द बैठे जाम ले कर,
मुलाकत पीने पिलाने में बीत गयी

मुकेश इलाहाबादी --------------

हमारे शहर में पत्थर बोलते हैं

हमारे शहर में पत्थर बोलते हैं
खामोश चेहरों पे ग़म बोलते हैं

हों जिस घुन घुने में दाने कम
वे अक्सर  घन - घन बोलते हैं

खुशी और ग़म में साथ साथ हो
दोस्त उसी को हमदम बोलते हैं

मुकेश से बात कर लेता हूँ, पर
महफ़िलों में हम कम बोलते हैं

मुकेश इलाहाबादी ------------- 

इस नीले आकाश में

मेरे ,
अनवरत प्रेम निवेदन
और तुम्हारी अभेद्य चुप्पी से
ये तो तय है
तुम आज भी 'हाँ ' और 'न' के झूले में
झूल रही हो
तो ,लो ! मै तुम्हे आज़ाद करता हूँ
अपनी सभी स्मृतियों से
अपने सारे भावों - विभावों से
उन सारी कसमो - वायदों से
जो हमने कभी किये ही नहीं या फिर 
भर था - करने और न करने के लिए

जाओ
जाओ मेरी मैना
उड़ जाओ अनंत आकाश में

तुम कहती थी न,
'मुझे क़ैद पसंद नहीं'
'मै उड़ना चाहती हूँ
परिंदे सा अनंत आकाश में '
तो जाओ उड़ो - उड़ो और उड़ो
इस अनत आकाश में

पर याद रखना,
गर मेरी चाहत सच्ची होगी तो
देख लेना 
मै गल -गल कर आब हो जाऊँगा
आब से बादल
बादल से हवा,पानी और आग बनूँगा
और एक दिन इस महा विराट में विलीन हो के
शून्य हो जाऊँगा
और,,,  नीला आसमान बन टाँग जाऊँगा
इस धरती के ऊपर
और फिर,,, तुम उड़ोगी
मेरी ही बाँहों में
इस नीले आकाश में
ओ ! मेरी मैना
ओ ! मेरी सुमी
सुन रही हो न ????

मुकेश इलाहाबादी -----------
 

Monday 12 June 2017

बेवज़ह के दुःखों का कचरा

बेवज़ह
के दुःखों का कचरा
मुरझाई यादों के
सूखे पत्तों का ढेर
ढेर सरे बेकार अनुभवों
की धूल
सब कुछ बह गया


बहुत दिन बाद आँखे बरसीं
और, सब धूल ढक्क्ड़ बह गया
सब कुछ सब कुछ धुल गया

अब दिलों दिमाग की सड़क
निखर आयी है - फिर से
साफ़ सुथरी और चिकनी

मुकेश इलाहाबादी ------------










नम दीवारों और,जंग लगा बक्से में

शीली
और नम दीवारों
जंग लगे बक्से में रखे
तुम्हारे,
अन्तर्देशी पोस्ट कार्ड में
भेजे गए पीले पड़ते पुराने
दीमक खाये
सीलन  से इक दूजे से चिपके ख़त
लुगदी बन जाने के लिए अभिशप्त हैं जिन्हे
सहेज न पाने की वज़ह से
नदी में प्रवाहित करने के
सिवा कोई रास्ता न होगा

उम्मीद है तुम मुझे माफ़ करोगी

मेरी सुमी ,

(हाला कि, इन खतों के एक एक हरुफ
मेरे दिलो दिमाग़ की डायरी में आज भी
महफूज़ हैं,  और रहेंगे  -
शायद अनंत काल तक
या फिर मेरे फ़ना होने तक )

मुकेश इलाहाबादी -----------------

तुम गाओ हम बाँसुरी हो जायेंगे

तुम गाओ हम बाँसुरी हो जायेंगे
तुम्हारे गीत हम रागनी हो जायेंगे
रात का सांवला आँचल फैला दो
छत पे चाँदनी चाँदनी हो जायेंगे

मुकेश इलाहाबादी --------------

Saturday 10 June 2017

बेशरम का पौधा हूँ

कोई
रोपता नहीं है
कोई बोता नहीं है
कोई निराई - गुड़ाई भी
करने वाला कोइ नहीं होता
थोड़ी सी  नमी
थोड़ी सी ज़मीन
थोड़ी सी धूप में भी
उग आता हूँ
और हर मौसम में लहलहाता हूँ

हाँ ! हाँ मै बेशरम का पौधा हूँ
हर जगह हर मौसम में उग आता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Thursday 8 June 2017

चाँद झील में उतरा

रात
चाँद झील में उतरा
झील थोड़ा
कुनमुनाई
करवट ली
फिर हौले से
चाँद को अपनी बाँहों में
ले सो गयी सुबह तक के  लिए

सूरज उगते ही
चाँद फिर आसमान में जा टंगा
झील उसे देख
मुसकराती हुई बहने लगी हौले हौले

मुकेश इलाहाबादी -----------

Wednesday 7 June 2017

भूरी बिल्ली सा

मै
तुम्हारे प्रेम में
बन जाना चाहता हूँ
दूध का कटोरा
ताकि
तुम सियानी भूरी बिल्ली सा
चुपके से आओ
और मुझे चट कर जाओ

मुकेश इलाहाबादी -----

तुम बोलती हो तो

तुम
बोलती हो तो
कुहुकती है
हारिल चिड़िया
जाती है कोयल

तुम चुप होती हो
तो, चुप हो जाती है क़ायनात
तन जाता है सिर पे नीला आसमान
निःशब्द
अहर्निश मौन

तुम्हारा बोले रहना बहुत ज़रूरी है

मुकेश इलाहाबादी ------------------


तुम, आती हो मेरे सपनो में

तुम,
आती हो मेरे सपनो में
बेधड़क 
घूमती हो निर्द्वन्द 
मै खुश होता हूँ 
तुम्हे अपने सपने में पा के पर , 
शायद तुमने अपने ख्वाबों के इर्द गिर्द
बना रक्खी है - चाहर दीवार ताकि 
कोई न आ सके उसके अंदर 
बिना तुम्हारी इज़ाज़त के 

मुकेश इलाहाबादी -------------

ज़िगर में इक और खंज़र उतर जाने दे

ज़िगर में इक और खंज़र उतर जाने दे
तेरे हिज़्र से तो बेहतर मुझे मर जाने दे

पतवार छोड़ दी नाव के पाल खोल दिए 
अब जिधर लहरें ले जाएं, उधर जाने दे

ईश्क़ मेरा मज़हब इश्क़ ही मेरा ईमान 
मत रोक मुझे मुहब्बत के नगर जाने दे

फूल सा खिला ज़माने भर को खुशबू दी
अब मुरझा गया हूँ, मुझे बिखर जाने दे

मेरे चाहने वाले किसी तौर मरने न देंगे
मै मर जाऊँ तब उन तक खबर जाने दे 

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Tuesday 6 June 2017

सौदेबाज़

उसने
मन ही मन
हिसाब लगाया

कुछ महंगे गिफ़्ट
कुछ शॉपिंग
थोड़ी बहुत आउटिंग और
रेस्टुरेंट के खर्चे के एवज़ में

महीनो मीठी - मीठी फ़ोन कॉल्स
साथ साथ घूमना
कभी थोड़ा तो कभी ज़्यदा स्पर्श सुख
कुछ यादगार चुंबन और
एक दो रातों के सुख के एवज़ में
ये सौदा बुरा नहीं था

सौदेबाज़
मन ही मन मुस्कुराया खुश हुआ
फैसला लिया, और अब -,,,,

मोबाइल से  'प्यार ' डिलीट' हो चूका था
यहाँ तक की फेस बुक, ट्विटर से भी
अनफ्रेंड व अनफॉलो हो चूका था वो 'प्यार'
क्यों की उसकी धरती पे प्रेम का
नया अंकुर उग रहा था
इस लिए ज़रूरी था
पुराने सूखते पौधे को उखाड़ फेंकना

मुकेश इलाहाबादी -------------------

न आफताब की दरकार,न अँधेरे से तकरार

न आफताब की दरकार,न अँधेरे से तकरार
हमने अपनी ख़ुदी से किया रौशन घर -बार

तुम तीर की तरह चले, धनुष  की  तरह तने
ये और बात हम बचते रहे तेरे वार से हर बार

हम तो खुले आस्मा के हिमायती रहे हरदम
मुकेश तुम्ही ने ही तो, उठाई है दिलों में दरार

मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

Monday 5 June 2017

हथेली और गुलाब

उस
दिन
खिल उठा था
गुलाब और महमहा उठी थी
मेरी हथेलियाँ
जब तुमने मेरी
हथेलियों की अंजुरी बना के
रख दिए थे अपने दो गुलाबी होंठ

तब मुझे लगा था शायद,
ये फूल ये खुशबू मेरी हथेलियों में क़ैद हो गयी है
हमेशा - हमेशा के लिए और मैंने अपनी अंजुरी को
बंद कर के मुट्ठी बना ली थी

पर शायद मै ये भूल गया था
फूल वक़्त के साथ मुरझा जाते हैं
और खुशबू को कब कौन क़ैद कर सका है

फिर भी वो खुशबू
वो फूल मेरी हथेलियों में तो नहीं पर
ज़ेहन में क़ैद हैं - हमेशा हमेशा की लिए

ओ !मेरी फूल
मेरी खुशबू
मेरी सुमी

मुकेश इलाहाबादी ---

बिल्ली

बेहद
चालक और हर वक़्त
चौकन्नी रहती है
बहुत सधे कदमो से चलती है
गुस्से में गुर्राती है
मौका मिलते ही
दूध मलाई चट कर जाती है
फिर चुपके से गायब भी हो जाती है
परच जाने पर
लाड दिखा कर
तो कभी चुपके से
तो कभी अधिकार से
प्यार दिखाने वाले के हिस्से का भी
दूध और रोटी गटक देती है
और फिर दुसरे के घर भी
इसी फ़िराक में चल देती है
बेहद सधे, और धीमे धीमे बेबाज़ कदमो से
किसी दुसरे के घर डाका डालने
इससे जानवर से शेर भी ख़ौफ़ खाते हैं

सही पहचाना आपने
ये चालक और खतरनाक जानवर
और कोइ नहीं शेर की मौसी बिल्ली ही है

जो मेरे मन के अंदर रहती है
जो मौका देख के ही गुर्राती है
वरना चुप चाप आंख बंद कर के दूध
पीती रहती है - अपने हिस्से का भी
और दूसरों के हिस्से का भी

मुकेश इलाहाबादी -------

Saturday 3 June 2017

मद्धम - मद्धम सी आँच रहती है

मद्धम - मद्धम सी आँच रहती है
मेरे सीने में जैसे आग जलती है

अपने काम से काम रखता हूँ तो
दुनिया मुझको मगरूर कहती है

कजरारी आँखे, गालों पे डिम्पल
मुझे तू आसमानी हूर लगती है

अगर तू मेरी मुहब्बत नहीं है तो
तू ही बता तू मेरी क्या लगती है

मुकेश इलाहाबादी -------------




Friday 2 June 2017

अपना शहर

भीड़ ,
बदहवास सी अपना शहर ढूंढ़ रही थी
शहर,
जो धीरे - धीरे, गायब हो चूका था दुनिया के नक़्शे से
भीड़ , धुँए के सैलाब में ढूंढ रही थी अपना शहर
उन्हें लग रहा था,
खेत खलिहानो , पगडंडियों , तालाब , पोखरों
कच्चे - पक्के मकानों , पशु पक्षियों
व बागानों से लदा -फंदा उनका शहर
इसी धुँए के सैलाब ने निगल लिया है
भीड़ जितना धुँए के सैलाब में घुसती
अँधेरा उन्हें उतना ही लीलता जा रहा था
अब , उनकी आँखे धुँए की किरच से
जलने लगी थी.
भीड़ चीख रही थी - चिल्ला रही थी
मगर, अपना शहर ढूंढने की ज़ुस्तज़ू में आगे
बढ़ती जा रही थी
लो, तेज़ाब की बारिश होने लगी
लोगों के जिस्म गलने लगे - बेतरह जलने लगे
भीड़ जोर - जोर से रोने चिल्लाने लगी - भागने लगी
अंधेरा - धुंआ - तेज़ाबी  बारिश
अजीब खौफनाक मंज़र तामील हो चूका था
लोग 'त्राहिमाम - त्राहिमाम ' चीख चिल्ला रहे थे
तभी,
ऊपर से एक रोशनी का गोला धीरे धीरे नमूदार हुआ
रोशनी तेज़ तेज़ और इतनी तेज़ होती जा रही थी, कि लोगों की
आँखे चुंधियाने लगी
उस रोशनी में एक
शीशे की चारदीवारी में क़ैद - खूबसूरत शहर रौशन हुआ
भीड़ औचक देखने लगी शीशे की चाहर दीवारी में क़ैद
बेहद चमकते धमकते -
बेहद साफ़ सुथरे शहर को
भीड़ अभी कुछ समझ पाती एक आकाशवाणी हुई
आप घबराएं नहीं ये
ये सपनो क शहर आप का ही है
आप का अपना शहर - सपनो का शहर
जिसके लिए आप दर -बदर हुए हैं वही, सपनो का शहर
आप अपने इस शहर में रह सकते हैं

महज़ शर्त इतनी सी है
इस शहर में अब हमारा ही राज्य चलेगा
आप को इस शहर में रहने के लिए
बेहद साफ़ सुथरा रहना होगा और नत जानू रहना होगा
हमें हमारा कर देना होगा
हमारी शर्तों के अनुसार रहना होगा

भीड़ अचकचा गयी
कुछ समझ नहीं पा रही थी
तभी उनमे से कुछ लोग नत जानू हो गए
उस अदृश्य शक्ति के सामने और
झुके झुके उस खूबसूरत शहर में प्रवेश कर गए
अपनी रीढ़ झुकाये झुकाये

कुछ लोग अभी भी पेशोपश में
एक दुसरे को देख रहे थी
खुद को ठगा सा महसूस कर रहे थे

और -
कुछ लोग इस हादसे को सह नहीं पाए
'मेरा शहर मुझे दे दो - मुझे मेरा शहर दे दो ' कहते हुए
दूसरी दिशा में बदहवास से दौड़ गए
शायद वे इस हादसे से पागल हो गए थे

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Thursday 1 June 2017

हमको ये तेरे झूठे वादे अच्छे नहीं लगते


हमको ये तेरे झूठे वादे अच्छे नहीं लगते
सच्चे फूल गुलदान में अच्छे नहीं लगते
जिस रोज़ से तेरा चेहरा तेरे गेसू देखे हैं
ये रात ये चाँद सितारे अच्छे नहीं लगते
ये शाम ये बादल ये मस्ती ये पुरनम हवा
तुम्हारे बिन हमको ये अच्छे नहीं लगते
मुकेश इलाहाबादी -----------------------