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Sunday 30 April 2017

जिस दिन से तुमसे दूरी हुई

जिस दिन से तुमसे दूरी हुई
हर शाम अपनी अंगूरी हुई

आंगन हो कमरा हो दिल हो
मिलेगी हर चीज़ बिखरी हुई

रूह हो, जिस्म हो, दिल हो
मेरी हर चीज़ अब तेरी हुई

चाँद ने घूंघट कर लिया,लो 
अपनी, तो रात अंधेरी हुई

तेरेही ख्यालों में उलझा था
इसी लिए आने में देरी हुई

मुकेश लड़ तो लूँ दुनिया से
ईश्क़ अपनी कमज़ोरी हुई

मुकेश इलाहाबादी ---------

Saturday 29 April 2017

तेरी आँखों में सपना देखूँ

तेरी आँखों में सपना देखूँ
ख्वाब इक सुनहरा देखूँ

लम्बी काली रातों के बाद
सूरज  एक चमकता देखूँ

एहसासों के दरिया में मै
सपना एक लरज़ता देखूँ

दिल मेरा बर्फ का दरिया
रातों दिन सुलगता देखूँ

है महुए जैसा तेरा यौवन
तुझमे मै मधुशाला देखूँ

मुकेश इलाहाबादी ------

Friday 28 April 2017

बेशक़ तुम चाँद हो

बेशक़
तुम चाँद हो
और मै - तुम्हे नहीं पा सकता

चाहे, कितनी भी
ऊँची सीढ़ी बना लूँ
कितनी भी
ऊँची छत पे चढ़ जाऊँ
या कि पहाड़ पे चला जाऊँ
या की उड़ के फलक तक हो आऊं
परिंदा बन के
या फिर - बादल ही क्यूँ न बन जाऊँ

मगर मै तुम्हे नहीं छू पाऊँगा -मेरी चाँद

इसी लिए  क्यूँ न मै झील बन जाऊँ
गहरे नीले -ठहरे पानी की झील
ताकि - जब कभी तुम आकाश में
भव्यता के साथ उगोगी तो
तुम अपने अक्स को ले
इस झील के पानी में उतर आओगी
और मै अपने सीने में तुम्हे पा के मुस्कुराऊँगा
और मेरे अंदर की मछली मचल के पानी में
फुदकेगी -
खुशी की लहरें दूर तक
वृत्ता कार हो के मुस्कराएँगी
क्यों - सुमी - ठीक रहेगा न ??

मुकेश इलाहाबादी -------------------

जब कभी सुबह का तारा शुक्र तारा देखता हूँ

जब
कभी  सुबह का तारा
शुक्र तारा देखता हूँ
तुम बहुत याद आती हो

जब कभी
दहकता डहलिया का
कोई फूल देखता हूँ
हया से लाल
तुम्हारा चेहरा याद आता है

जब कभी
रस से भरा महुआ टपकता है
तब तुम बहुत याद आती हो

सच ! सुमी, तुम बहुत याद आती हो

मुकेश इलाहाबादी ----------------







मुझे मालूम है

मुझे
मालूम है
कई
बार जब तुम
बेवज़ह की बात को ले
ठुनकने लगती हो
ज़िद पे उतर आती हो
रूठ जाती हो
तब तुम लाड में होती हो
मुझसे प्यार पाना चाहती हो

( सच ! तुम्हारा ये अंदाज़ भी
बहुत भला लगता है- मुझे )

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Tuesday 25 April 2017

आदम और हव्वा हर रोज़ चढ़ते हैं पर्वत हव्वा

आदम
और हव्वा हर रोज़
चढ़ते हैं पर्वत
हव्वा
हौले हौले  चढ़ रही होती है
शिखर - पूरा आनंद लेती हुई
प्रकृति का चढ़ाई का

जब कि
आदम न जाने किस हड़बड़ी में
और जल्दी में
ऊपर तक जाता है
और शिखर छू कर वापस भी आ जाता है
जब की हव्वा अभी शुरुआत ही कर रही होती है
शिखर छूने का
पर वो आदम को वापस आते देख खुद भी
मुड़ जाती है वापस
उदास,अन्यमनस्क शिखर छूने की चाह लिए दिए
पर आदम तो आनन्दिन हो रहा होता है
शिखर छू लेने की खुशी में बिना हव्वा की परवाह किये 

मुकेश इलाहाबादी ------------------




Sunday 23 April 2017

अहर्निश अपना सतरंगी आँचल ओढ़े

अहर्निश
अपना सतरंगी आँचल ओढ़े
घूमती है
पृथ्वी
अपनी धूरी पे
सूरज के आकर्षण में बिंधी-बिंधी 
इस उम्मीद पे
शायद किसी दिन सूरज
उसकी आगोश में आ गिरे
या फिर वो अपने सूरज
की बाँहों में जा पंहुचे
मगर,
पगला सूरज है
बदहवास फिरता है
न जाने और किस पृथ्वी की खोज में

मुकेश इलाहाबादी ----------------

तुम्हारी , खुशबू से तर यादों की रुमाल

तुम्हारी ,
खुशबू से तर यादों की रुमाल
को, मोड़ के रख लेता हूँ जेब में
एहतियात से
ज़रूरत पड़ने पे
पोंछ लेता हूँ
ज़माने के ग़मो से
नम हो आयी अपनी आँखों को

मुकेश इलाहाबादी ------------

Thursday 20 April 2017

तुम मुझे मिली थी कुछ इसी तरह

प्यास से,
मुँह ही नहीं
हलक़ तक सूख चूका हो 
रोयाँ - रोयाँ चीख़ रहा हो 
इक  इक बूँद जल के लिए 
ऐसे में तुम मिली
शीतल, मीठे सरोवर की तरह

कंही कोइ रास्ता न हो
कहीं कोइ रोशनी न हो
कहीं कोइ उम्मीद न हो
ऐसे में तुम मिली

अंधेरी रात में चांदनी की तरह

सुमी,! तुम मुझे मिली थी कुछ इसी तरह

मुकेश इलाहाबादी -------------------

Wednesday 19 April 2017

कई बार ऐसा लगता है

कई बार ऐसा लगता है

मेरे अंदर एक सुप्त ज्वालामुखी है
जो फट पड़ना चाहता है
जोर से गर्जन - तर्ज़न करता हुआ
सब कुछ बहाता हुआ ले जाये
अपने तप्त और खौलते लावे के साथ
शेष कुछ भी न बचे
कुछ भी नहीं
सिवाय
दूर तक बहते हुए लाल तप्त लावा के

कई बार ऐसा भी लगता है
मेरे अंदर इक समंदर है
ठहरा हुआ (ऊपर - ऊपर )
अंदर तमाम लहरें हैं
वे लहरें जो चाँद के उगने पे ठांठे मारती हैं
हरहराती हैं,
चाँद को छूना चाहती हैं,
मगर  हर बार नाकामयाब हो कर
शांत हो कर फिर बहने लगती हैं

कई बार ऐसा भी लगता है
मेरे अंदर भी
इक हिमालय उग आया है
बर्फ सा ठंडा
रूई सा सफ़ेद
तमाम खाईयों, नदियों, झरनो और जंगलों के साथ
जो शांत देख रहा है
देख रहा है
सूरज को जलते हुए
चाँद को चलते हुए
धरती को घुमते हुए
अपने अंदर,
यहाँ तक कि,
पूरी क़ायनात को देखता हूँ अपने अंदर

कई बार मुझे ऐसा भी लगता है

मुकेश इलाहाबादी --------------------- 




मुकेश इलाहाबादी ----------------------

Saturday 15 April 2017

उधर, इक तबस्सुम खिलता है, तेरे चेहरे पे

उधर, इक तबस्सुम खिलता है, तेरे चेहरे पे
 इधर महक जाता हूँ मै बहुत देर तक के लिए
 मुकेश इलाहाबादी ----------------------------
 

गुनगुनी धूप बिखर जाती है

गुनगुनी धूप बिखर जाती है
तेरे मुस्कुराने से
(सर्द मौसम में तुम बहुत याद आते हो दोस्त )
मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

Thursday 6 April 2017

अपने, अंदर इतनी आग बचाये रखना चाहता हूँ

अपने,
अंदर इतनी आग
बचाये रखना चाहता हूँ
ताकि,
पकते रहें रिश्ते
सिझती रहे रोटी

मै,
अपने अंदर बस इतना
जल चाहता हूँ,
ताकि,
पनपते रहें रिश्ते
बनी रहे सम्बन्धो में स्निग्धता 

इतना ही आकाश चाहता हूँ
ताकि, मेरे अंदर अपनों के साथ - साथ मेरे
आलोचक भी रह सके साथ - साथ

माटी भी, अपने अंदर इतनी ही चाहता हूँ
ताकि, खिल सके 'प्यार के फूल'
और महक सकूं मै

बस !
इतनी ही आग,पानी,हवा,माटी और आकाश चाहिए, मुझे 
   
मुकेश इलाहाबादी -------------


जैसे ही चैत में

जैसे
ही चैत में
आम्रकुंजों में आता है बौर
बौरा जाता है मन
हुलस - हुलस जाता है दिल 
बस !
ऐसा ही होता है
जब तुम्हारे आने की आहट आती है
सच सुमी ! ऐसा ही लगता है,
चैत, आते ही.....
मुकेश इलाहाबादी -------------

Wednesday 5 April 2017

स्याह रातों में उजाला हो जाता है

स्याह रातों में उजाला हो जाता है
तनहाई में जब कोई याद आता है

मैं चुप, बुलबुल चुप, हवा भी चुप
फिर कानो में कौन गुनगुनाता है

ये कौन? लहरों समंदर से बेखबर
रेत् पे नज़्म लिखता है मिटाता है

जाने किसको याद कर के रोता है
बच्चों सा सुबकते हुए सो जाता है

फक्त अल्फ़ाज़ों के मोती हैं, जिन्हें
मुकेश,अपनी ग़ज़लों में लुटाता है 

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Monday 3 April 2017

नेल पॉलिश लगा कर

 जैसे,
 अपनी
 नाज़ुक और खूबसूरत
 उँगलियों पे  नेल पॉलिश लगा कर
 बड़े गौर से और प्रेम से
 सम्मोहित सा देखती हो
 बस !  ऐसे ही किसी दिन
 मुझे भी अपनी पोरों से
 छू कर देखो न !!

 मुकेश इलाहाबादी ---

बहुत अधीर था मन

बहुत अधीर था मन
तुमसे मिल के शांत हुआ मन

मुकेश इलाहाबादी ----------



दिल में तिश्नगी सी थी,

दिल में तिश्नगी सी थी,
शायद तेरी ही कमी थी

वहां प्यास कैसे बुझती
वहां तो रेत् की नदी थी

रात अंधेरी घना जंगल
दूर मद्धम सी रोशनी थी

मैंने तो शिद्दत से चाहा
तुमने दिल्लगी की थी

न तो सिर पे अस्मा था
न ही पैरों तले ज़मी थी

मुकेश इलाहाबादी -----

सुबह की शुर्मयी धूप

जैसे
कोई मुट्ठी में
रख लेना चाहे है
सुबह की शुर्मयी धूप

बस ऐसे ही
तुम्हारी दूधिया हँसी को
पा लेना चाहता हूँ
हमेशा - हमेशा के लिए

मुकेश इलाहाबादी --------

सुबह होते ही सीने में खिल उठता है गुलमोहर की तरह

सुबह होते ही सीने में खिल उठता है गुलमोहर की तरह
फिर दिन भर वही शख्स महकता है गुलमोहर की तरह
उसकी बातें उसकी हंसी उसकी शोखी उसकी मस्त अदा
झूमता है कोई शामो सहर मेरे आंगन गुलमोहर की तरह
मुकेश इलाहाबादी -------------------------------------