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Thursday 28 September 2017

कविता कागज़ पे लिखोगे तो काली ही लिखोगे

कविता
कागज़ पे लिखोगे
तो काली ही लिखोगे
न खुशबू होगी
न रंग होगा
न स्वाद होगा

एक बार
माटी के कागज़
बीज की स्याही और
हल की कलम से लिख के देखो
तुम्हारी कविता
धानी,हरी, गुलाबी कई कई रंगो में
खिलेगी महकेगी भी
जो तुम्हारे ही नहीं बहुतों के रगों में
साँसों में रच बस जाएगी और फिर
तुम एक अनिवर्चनीय आनंद में डूब जाओगे

कवि!
एक बार लिख कर देखो तो
माटी के कागज़ पे बीज की स्याही और हल नोक से
एक कविता - दिल से

मुकेश इलाहाबादी ------------------------

Wednesday 27 September 2017

तुम्हारी यादें,

तुम्हारी
यादें, मेरी पसंदीदा कमीज है
जिसे हर रोज़ पहन चल देता हूँ
दिन भर की यात्रा पे

तुम्हारे
ख्वाब ठन्डे पानी की बोतल हैं
जो प्यास बुझाती रहती हैं
कड़ी धूप में,
जब, पसीने से तरबतर होता हूँ

जेब
में रखी तुम्हारी
तस्वीर तसल्ली देती है
कभी तो ख़त्म होगी ये तनहा सफर
और - तुम होगी मेरे साथ

भले ही वो ही ज़िंदगी की शाम हो

मुकेश इलाहाबादी ------------------

चाँद थोड़ा शरारती

चाँद
थोड़ा शरारती
थोड़ा संजीदा है
गुस्से में होता है
तो उसका चेहरा लाल होता है
मुस्कराहट में गुलाबी नज़र होता है
शरमाता  है तो बादलों का घूंघट ओढ़ लेता है
और फिर थोड़ी देर बाद शरारत से
घूंघट हटा मुस्कुराता है
चाँद थोड़ा नखरीला भी है,
फिलहाल जा रहा हूँ उसे मनाने।

 चाँद ! अपनी खिड़की का परदा हटाओ न,
 मुझे चांदनी में नहाना है

मुकेश इलाहाबादी ------------------------


Tuesday 26 September 2017

मुल्तवी कर दें ईश्क़

नदी
की धार में साथ साथ बहते हुए
हम - तुम
न जाने कब दो किनारे हो गए

सुबह की पहली लोकल पकड़ कर
महानगर के इस कोने से उस कोने का सफर
रात देर से वापसी
बढ़ी हुई नदी तैर के पार करने से कंही ज़्यदा थकाऊ
उबाऊ होता है
तुम तो जानती ही हो ये


रविवार का दिन भी कंहा फुरसत देता है
कमरे की सफाई, हफ्ते भर के मैले कपडे सफाई के लिए
मुँह ताकते रहते हैं, छोटी मोटी वस्तुओं की खरीददारी
कुछ जान पहचान के लोगों का आना
छह दिन की थकी देह भी तो मांगती है थोड़ा आराम

वैसे मन तो बहुत करता है तुमसे मिलने को
फिर प्रेम पे गणित हावी हो जाती है

तुमसे मिलने का मतलब,
बस, मेट्रो और रिक्शे का भाड़ा सौ रूपये
फिर मुरमुरे चाय आय कॉफी तो पिएंगे ही
और मुलकात भी किसी पार्क या सस्ते रेस्टोरेंट के कोने की मेज़ में
जंहा सिर्फ हल्की फुल्की बातों के बाद लौट आना
थके हुए अपने दबड़े में

यह सोचते हुए कि अभी माकन मालिक का किराया देना है
घर भी तो कुछ भेजना ही है , ये और बात घर से कोई डिमांड नहीं आयी
और फिर न जाने क्या क्या उमड़ घुमड़ करता रहता है

और इसी उमड़ घुमड़ के बीच बहने लगती है
अवसाद, आलस बेचैनी की नदी जिसमे हांफते हुए तैरने लगता हूँ
और तुम तक पहुंचने की नाकाम कोशिश में डूब जाता हूँ
नींद के भंवर में -
सुबह तक के लिए

लिहाज़ा रोज़ रोज़ डूबा जाए बेचैनियों की नदी में
इससे बेहतर है हम दो किनारे ही बने रहें
बहते रहें वक़्त की धार में

और मुल्तवी कर दें ईश्क़ को बेहतर वक़्त के इंतज़ार में

मुकेश इलाहाबादी ------------------------



Saturday 23 September 2017

पंच तत्व और उनका दर्द

पंच तत्व और उनका दर्द
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पांचो,
तत्व अंतरिक्ष में
मिल बैठे एक दिन
कुशल क्षेम के बाद
व्योम ने कहा ,

पृथ्वी ! अनंत काल से तुम्हे अपनी धुरी पे
घुमते हुए और सूर्य की परिक्रमा करते देखता आ रहा हूँ
तुम, सदैव नाचती आयी हो अपनी सतरंगी आभा से
देते हुए फल फूल, अनाज, सोने बैठने के लिए धरती
और घर बनाने को मिट्टी लोहा और सारे अयस्क अपने
पुत्रों पुत्रियों और सभी नभचर, जलचर व पृथ्वी पे
चलने वाले सभी प्राणियों को बिना भेद भाव, पर अब क्यूँ
इतना उदास हो ???

पृथ्वी, यह सुन और उदास हो गयी, सारे तत्व अग्नि, वायु और
आकाश भी गंभीर हो गए

पृथ्वी ने कहा ,
हे ! पितृवत व्योम , आप से क्या कुछ छुपा है ? मेरा दुःख मेरा सुख
पर वर्तमान में मुझे दुःख सिर्फ मनुष्य से है जिसे मैंने
सभी जीवों से ज़्यादा मान दिया, स्नेह दिया परन्तु अफ़सोस ये देख  होता है
कि आज तक सभी जीव अपनी अपनी मर्यादा में है सिवाय मनुष्य के,
हिंसक से हिंसक जानवर भी पेट भर खाते हैं,  और पेट भरने के बाद
अहिंसक हो जाते हैं,
पंक्षी भी उतना बड़ा नीड बनाते है
जितनी उसकी ज़रुरत होती है
यंहा तक की कुछ असभ्य और आदवासी कहे जाने वाले मनुष्य भी
उतने हिंसक नहीं हुए जितना आज का पढ़ा लिखा और अपने को सभ्य
कहने वाला मनुष्य समुदाय है ,
उसने न केवल सभ्य होने के साथ साथ क़त्ले आम करने के नए नए तरीके ढूंढें ,
बल्कि अपनी आवश्यक्ता से अधिक बड़े-बड़े भवनों   के लिए बेवज़ह हमारे
जिस्म को खोदा, समंदर का सीना चीरा, जंगल और बृक्ष  जो मेरे वस्त्र ही नहीं
आबरू है उसे भी काटा जलाया और बर्बाद कर रहा है,
पितृ तुल्य व्योम हम सभी तत्व आप से ही उपजे हैं, आप ही बताइये ऐसे
कठिन वक़्त में मै कैसे मुस्कुरा सकती हूँ ???

पृथ्वी की ये बातें सुन - सभा में सन्नाटा छा जाता है,
व्योम कुछ कहता इसके पहले ही

जल ने कहा
हे व्योम देवता !
बहन पृथ्वी ही नहीं मै भी कम दुःखी नहीं हूँ, इस पृथ्वी लोक के मनुष्य जाति से'
सारे तत्वों की निगाह अब जल पे थी, जल ने अपनी बात जारी रखी
'आप तो जानते ही हैं , और मनुष्य ही नहीं पृथ्वी के सभी जीव जानते हैं, भले उसे
व्यक्त न कर पाएं कि , 'जल  ही जीवन है' पृथिवी लोक में जीवन ही मेरे कारण प्रारम्भ
हुआ है, और अगर मै न रहूँ तो सब कुछ जड़ हो जाएगा, मृत्यु को प्राप्त होगा, किन्तु
ये मनुष्य नाम का प्राणी निरंतर मेरा दोहन करता रहता है,बिना इस बात की परवाह
किये कि मुझे भी शुद्धता की दरकार  है, जीवन को बनाये रखने के लिए , मेरा भी संरक्षण
करना ज़रूरी है धन की तरह, किन्तु नासमझ मनुष्य मुझे लगातर नष्ट किये जा रहा है,
ज़्यदातर ताल पोखर सूख चुके हैं, नदियां सूख चुकी हैं या बेहद दूषित हो चुकी हैं,
जल स्तर ज़मीन के नीचे निचले से निचले स्तर तक जा चुका है,
लिहाज़ा हे मेरे पिता तुल्य व्योम, शायद अब मै मनुष्य जाति की रक्षा न कर सकूं तो
आप हमें क्षमा करेंगे, या फिर इन मनुष्यों को सद्बुद्धि प्रदान करें।

ऐसा ही वायु ने कहा ,
हे व्योम देवता !  बहन पृथ्वी और भाई जल की पीड़ा का साक्षी मै भी हूँ ,
हे पिता व्योम आप के आदेशानुसार मै भी सभी जीवों की साँसों में बस के उन्हें निरन्त
जीवन को बनाए रखने में मदद करता आया हूँ, किन्तु इस मुर्ख मनुष्य ने हमें भी नहीं
बख्शा हाला कि मनुष्य  जानता है मेरे बिन वो एक मिनट भी ज़िंदा न बचेगा किन्तु उसने
मेरी शुद्धता को बनाये रखने के सारे उपाय ख़त्म करता जा रहा है और हमी से शुद्ध हवा
की उम्मीद करता है, सारे वृक्ष और जंगल काट के, प्रदूषण बढ़ा के।  लिहाज़ा हे पिता मै
पृथिवी लोक छोड़ के जाऊं और आप के ये मनुष्य रूपी कृतघ्न बालक मृत्यु को प्राप्त हों,
इसके पहले आप इन्हे सद बुद्धि प्रदान करें ,

यह कह कर वायु चुप देवता चुप हुए तभी अग्नि देवता ने अपने मुख़ार  बिंदु से ये उद्गार
निकाले ' हे व्योम ! इन सभी की बातें अक्षरशः सत्य है, मै भी मनुष्य के विकास के
साथ - साथ इनके सुख - दुःख का साथी रहा हूँ , हाँ यह सच है मेरी उष्णता के चलते मुझे
मनुष्य दूषित तो नहीं कर सका कित्नु उसकी जठराग्नि, कामाग्नि और लालच की
प्रवृति इस कदर बढ़ गयी है कि मज़बूरन मुझे विकराल रूप ले कर आप के इन प्रिय
मनुष्य रूपी सन्तानो को ख़त्म करना पड़ेगा , अतः हम सभी तत्व अपने अपने
भयंकर रूप में आये इसके पहले इन्हे सद्बुद्धि प्रदान करें

चारों तत्वों की बात सुन व्योम देवता गंभीर आवाज़ में बोले, 'हे पुत्र जल, अग्नि  वायूं
एवं पुत्री पृथ्वी तुम लोग ही नहीं मै भी अब अपनी शांति खोता हुआ पा रहा हूँ,
कारण  ये नटखट और दुष्ट प्रकृति का मनुष्य अब अंतरिक्ष में भी अपने पैर फैला रहा है,
किन्तु मेरी विशालता के आगे अभी उसकी कम चलती है , किन्तु आप लोगों का
दर्द समझ सकता हूँ,
अभी तो यही कहूंगा आप लोग अपने अपने धर्म का पालन करें,
जो जैसा करेगा वो वैसा भरेगा - चाहे वो देवता हूँ मनुष्य हो या कोइ भी हो।
यह कह कर व्योम शांत हो गए ,
सभी तत्व एक दुसरे को प्रणाम कह के अपने अपने धर्मो में रत हो गए

अंतरिक्ष में एक बार फिर से नीरव शांति व्याप्त हो गयी ,

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

Friday 22 September 2017

नहीं खौलता है खून किसी भी बात पे

चूल्हे
पे चढ़ी हांडी भी
आँच पा के खौलने लगती है
और छलक पड़ती है
अगर जल्दी ही न उतारी गयी आग से

हिमालय की बर्फ भी
पिघल जाती है सूरज के ताप से
और फिर नदी से भाप बन उड़ जाती है
और बादल बन बरसती है उमस और गर्मी के खिलाफ

शायद हम हिमालय के ग्लेशियर से भी ज़्यादा
ठन्डे हो चुके हैं ,
नहीं खौलता है खून किसी भी बात पे

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

'कुर्सी

गुफा
से निकले हुए लोगों ने
'कुर्सी' बनाई,
अपने राजा के लिए
ज़मीन पे बैठे - बैठे

राजा
आज भी कुर्सी पे बैठा है शान से
कुर्शी बनाने वाले ज़मीन पे

सबसे
पहली कुर्शी 'पत्थर' की थी
फिर इंसान ने लकड़ी की कुर्शी बनाई
बाद में सोने चाँदी हीरे जवाहरात की भी
कुर्सियां बनाई जाने लगीं
इतिहास में तो कई बार नरमुंडों की भी कुर्सियां बनाई गयी
और फिर उसपे बैठ के 'राजा' बहुत खुश हुआ

कुर्शी
बनाई गयी थी
ताकि इस्पे बैठा हुआ
राजा - राज्य में
सुख शांति समृद्धि लाएगा

कई बार ऐसा भी हुआ
कुर्शी की वजह  से ही
सुख शांति और समृद्धि राज्य से विदा हो गईं

सबसे पहली कुर्शी पत्थर की थी
पर अब तो राजा भी कई बार पत्थर का हो जाता है
भले ही कुर्शी किसी भी धातु की हो

मुकेश इलाहाबादी -------------------------


खरीदोगे एक दिन

जैसे
तुम खरीदते हो
बोतलों में बंद पानी
अपनी प्यास के लिए

ऑक्सीजन युक्त मॉस्क
अपने लिये थोड़ी सी
स्वच्छ हवा के लिए

बस
ऐसे ही खरीदोगे एक दिन
अपनी आँखों के लिए दृष्टि
धनकुबेरों से
थोडा सा आस्मान
अपनी थकी और जुड़े हुए
हाथों को फ़ैलाने के लिए

थोड़ी सी आवाज़ अपना मुँह खोलने के लिए
खरीदोगे एक दिन तुम

खरीदोगे
अपने लिए सब कुछ मुट्ठी भर लोगों से

अगर न तानी अपनी मुट्ठियां इन मुट्ठीभर लोगों के ख़िलाफ़

मुकेश इलाहाबादी -----------------------

Thursday 21 September 2017

मुट्ठी

अक्सर
जब
दुनिया की सारी ताकत
मुट्ठी भर लोगों की मुठ्ठी में क़ैद हो चुकी होती है
तब, तमाम फ़ैली हुई हथेलियाँ
तनी ही मुट्ठियों में तब्दील हो कर खड़ी हो जाती हैं
मुट्ठी भर लोगों के ख़िलाफ़

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------

उलझा हुआ हूँ मै

उलझा हुआ हूँ मै
बिखरा हुआ हूँ मै

आँखों में अब्र सा
ठहरा  हुआ हूँ मै

जाम ऐ ईश्क़ पी
बहका हुआ हूँ मै

तेरे  इंतज़ार  में
ठहरा हुआ हूँ मै

मुकेश इलाहाबादी --

सच है मैं 'सच ' के साथ नहीं हूँ

यह
सच है मैं 'सच ' के साथ नहीं हूँ
पर इसका ये अर्थ कतई नहीं
कि मै झूठ के साथ खड़ा हूँ
हाँ ! ये ज़रूर है
'मै ' सही वक़्त के इंतज़ार में हूँ
'सच' के साथ खड़ा होने के लिए

लिहाज़ा ! मेरी उदासीनता को
कायरता कतई न समझा जाये

मुकेश इलाहाबादी -------------

Wednesday 20 September 2017

झूला

रस्सी
का एक छोर तुम्हारे शहर से होते हुए
तुम्हारी छत के कुंडे से लगा हो
और दूसरा छोर मेरे घर की कुंडी से
बीच में मुहब्बत की पाटी लगी हो
और झूल रहे हों हम दोनों
झूला ईश्क़ का

मुकेश इलाहाबादी --------------------

सारी इन्द्रियों ने बग़ावत कर दिया है

मेरी
सारी इन्द्रियों ने
बग़ावत कर दिया है
तुमसे मिलने के बाद

आँखें
सिर्फ तुम्हे देखना चाहती हैं
कान
सिर्फ तुम्हे सुन्ना चाहते हैं
आँख और कान ही क्यूँ

नासापुट भी
तुम्हारी ही खुशबू से,
तरबतर हो जाना चाहते हैं

जिस्म तुम्हे छूना चाहता है
मन बुद्धि सिर्फ और सिर्फ
तुम्हे सोचना व जानना चाहते हैं

तुम मेरे लिए किसी बग़ावत
से कम नहीं हो।

मुकेश इलाहाबादी ---------

Tuesday 19 September 2017

जब तुम कुछ नहीं बोल रही होती हो

सुनता
हूँ तुम्हे प्रण -प्राण से
जब तुम कुछ नहीं बोल रही होती हो

जैसे कोई सुनता है
बहुत ऊपर से बहते हुए जल प्रपात की लहरों को
बस ऐसे ही सुनता हूँ
तुम्हारी चूड़ियों की खनक

जैसे कोई सुनता है
गर्मी की एकांत,चुप दोपहरिया में
चिडया की चुक - चुक ,
बस ऐसे ही सुनता हूँ
तुम्हरी खटर -पटर घर के काम निपटाते हुए

सुनता हूँ तुम्हारे आँचल की सरसराहट
जैसे कोइ  भक्त सुनता है -
कबीर का शब्द या कोई भजन

बस ऐसे ही सुनता हूँ तुम्हे
अपनी धड़कनो में
तुम्हे बजते हुए
जैसे कंही दूर सीलोन रेडियो से आ रही कोई गीत की आवाज़

बस ऐसे ही सुनता हूँ
तुम्हारे की पैड की आवाज़ (दूर से ही )
उस मेसेज की जो तुम मुझे लिख रही होती हो
चुप रह कर

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------------

Monday 18 September 2017

मौन के कोटर में

वह,
रह -रह कर
चली जाती है
मौन के कोटर में
बुदबुदाती रहती है
देर तक कागज़ पे
फिर अचानक आक्रामक हो कर
कागज़ को अपने ही हथेलियों के बीच
तुड़ी-मुड़ी कर के फेंक देती है
वहीं कोने में
फिर देर तक उन टुडे मुड़े कागज़ के
अल्फ़ाज़ों से रिस्ता रहता है लहू
और वह सुबकती रहती है
देर तक
अपने ही बनाये मौन के कोटर में

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

Saturday 16 September 2017

साँझ की दहलीज़ पे


नेट खोलते ही तुम्हारा मैसेज मिला, दिल थोड़ा खुश हुआ पर न जाने क्यूँ,
आज फिर ज़िंदगी साँझ की दहलीज़ पे इंतज़ार के तेल में डूबा उदासी का दिया जला गयी,
ऐसे में तुम बहुत याद आईं हालांकि तुम्हे भूला ही कब हूँ ?
अभी भोजन करूंगा। कुछ देर नेट पे बैठूंगा, फिर सो जाऊँगा, एक और उदास सुबह के लिए
एक और उदास साँझ के लिए , एक और अंतहीन मृगतृष्णा में भटकते रहने के लिए,

बोल ! उछालूं सिक्का ??

मै हथेली पे सूरज उगाऊँगा
तुम धरती बन के घूमना उसके चारों ओर

मेरे पास इक इश्क़ का सिक्का है
चित गिरा तो 'तू मेरी'
पट गिरा तो ' मै तेरा'
बोल ! उछालूं सिक्का ??

(राज़ की बात तो ये है, सिक्के के दोनों तरफ सिर्फ तेरा नाम
खुदवा के लाया हूँ, हा - हा - हा )


मुकेश इलाहाबादी ----------------------- 

मान लो घुप्प अँधेरा कमरा है,

मान लो,
घुप्प अँधेरा कमरा है, दोनों की आँखों में पट्टी बंधी है।
और, एक दूजे को ढूंढना भी है, कल्पना करो कैसे ढूंढेंगे एक दूजे को ?
हूँ ! सही कहा तुमने, आवाज़ ही सहारा बनेगी, आवाज़ ही रास्ता देगी
इक दूजे तक पहुंचने का।
मान लिया तुम्हारी बात,
हम दोनों इक दूजे को ढूंढ लेते हैं , आवाज़ के सहारे, पर अब हम लोग
इक दूजे के कित्ते पास हैं  ये कैसे जानेंगे ? एक दूजे को कैसे मह्सूसेंगे,?
जानां ! बोलो, बोलो,,,,,
नहीं पता ?? हूँ, जानता हूँ , तुम्हे नहीं पता होगा।
तो सुनो ! हम दोनों इक दूजे को छू के जानेंगे इक दूजे को , इक दूजे को
पहचानेंगे इक दूजे के स्पर्श से।
इक दूजे के गालों को अपनी हथेलियों पे ले सहलाएँगे, रोयेंगे खुशी के आंसू
हथेलियां पूरे चहेरे को टटोलेगी, सिर माथा, बाल  चेहरा, कंधे और बाजुओं को
पकड़ के लिपट जायेंगे और फिर घुप्प अँधेरे में आँखों की बंद पट्टियों के
अंदर से रोशनी निकलेगी और हम एक ऐसी रोशनी में नहा जाएंगे जिसमे
अजब रूहानी खुशबू होगी , जो हमारी साँसों में घुल मिल के हमें भी महकउआ
बना देगी और फिर हम लिपटे रहेंगे बहुत बहुत देर तक महसूसते रहेंगे,
'ईश्क़ की रोशनी' को ,
क्यूँ है न ?? जानम ,,

इस लिए अँधेरे से मत डरो , एन्जॉय इट। एन्जॉय इट !

मुकेश इलाहाबादी -----------

सुबह की धूप

देखना !
किसी दिन
जब सुबह, तुम
सो के उठोगी और जैसे ही
परदे खोलोगी
मै तुम्हारे उजले - उजले
रूई के फाहे से नर्म गालों पे
जाड़े की नर्म धूप सा पसर जाऊंगा
और तुम अपनी आँखों को मिचमिचाते हुए
अपनी हथेली से गालों को सहला के रात की खुमारी पोछोगी
और मै तुम्हारे गालों से खिलखिलाए हुए
बेतरतीब बिस्तर की सलवटों में पसर जाऊँगा
सुबह की ताज़ी धूप हूँ न मै ???

मुकेश इलाहाबादी ------------------

Friday 15 September 2017

अगर मौसम भी पेड़ों में ऊगा करते तो,

अगर मौसम भी पेड़ों में ऊगा करते तो, दिल्ली की झाड़ से  थोड़ा सा गुलाबी जाड़ा तोड़ के
उसके गुलाबी गाल पे मल आता, क्यूँ कि सुना है उसके राजस्थान में बहुत गर्मी पड़ती है,
उसे गर्मी से थोड़ा राहत मिल जाती।
साला ! दिल भी अजब पागल है न जाने कब और कहा और किसपे आ जाए।  अब देखो
आज कल एक राजस्थानी बाला के ऊपर आ गया है ,
उसकी लाल दहकती आँखों में दूर तक रेगिस्तान ही रेगिस्तान नज़र आता है, जिसकी
खनखनाती हंसी के ऊँट पे चढ़ कर देखो तो ये डरावना अंतहीन रेगिस्तान भी सुहाना
नज़र आने लगता है - पर आग से दिन और बर्फ से ठंडी रातों वाली रेगिस्तानी बाला
की आँखों की वीरानी अजब सी दीवानगी पैदा करती है ,

जब वो खामोश हो जाती है तो ऐसा लगता है, रेगिस्तानी सफ़ेद समंदर -के अंदर ही अंदर
दर्द की ढेरों लहरें चल रही हैं - हरड़ हरड़ - जो अगर सतह पे आ गयी तो क़यामत ला देंगी।
इसी लिए जब वो खामोश होती है तो मै पगला जाता हूँ।  और मै किसी भी तरह उसे हँसाना
चाहता हूँ , बुलवाना चाहता हूँ , हाला कि मान जाती है।  पर थोड़ा मुश्किल से ,
एक बात और बताऊँ उस - राजस्थानी बाला के बारे में ,
वो बहुत बहुत कुछ जानती है , दुनिया के बारे में,साहित्य और संस्कृति के बारे में जब
बोलती है तो ,लगता है वो बोलती जाये और आप सुनते जाओ, मत्रमुग्ध कर देती है.
कविता लिखती है तो उसके शब्दों से भाव नियाग्रा फॉल सा झरते हैं ,
सच अजब जादू है।  लोग बेवज़ह बंगाल के जादू की बात करते हैं , मै तो कहता हूँ देखना
है तो इस राजस्थानी जादू को देखो , जो सिर चढ़ के बोलता है।
जब वो इमोशनल होती है तो बहुत बातें करती है।
एक दिन बातों बातों में मैंने पूछा ' तुम मुहब्बत के बारे में क्या सोचती हो?'
एक लम्बी खामोशी
'फिरकभी इसका जवाब दूंगी '
बात आयी गयी खत्म भी हो गयी , मुझे लगा वो मेरी बात का जवाब नहीं देना चाहती होगी,
दिन बीतते रहे ,बातें होती रही.
एक दिन उसने मुझे अपनी बातों की ऊँट गाड़ी में बैठा दूर बहुत दूर ले गयी,
दोपहर का सूरज टह  - टह  चमक रहा था, उसने दूर तक फैले रेगिस्तान को दिखते हुए कहा
' वो देखो ---- दूर बहुत दूर तुम्हे कुछ नज़र आ रहा है ?'
मेरी नज़रें चांदी सी चमकती रेत् पे टिक गयी , प्यास से गला सूख रहा था। पानी दूर दूर
तक न था सिवाय ऊँट की थैली के, जिसे मै पी नहीं सकता था। खैर मैंने दूर नज़र दौड़ाई
बहुत दूर पे चांदी सी चकमती नज़र आयी, हम दोनों चलने लगे - इस बार पैदल पैदल
बहुत दूर जाने पर रेत् ही रेत् - न पानी था - न नदी थी - कुछ दूर और चले फिर वही
मैंने कहा यहाँ तो नदी नहीं है ?
राजस्थानी बाला जोर जोर हंसने लगी -
'दोस्त इसी ही इश्क़ कहते हैं,  मृगतृष्णा ' जंहा लगता तो है शुकून है , आराम है, आनंद है।
पर पास जाओ तो सिर्फ और सिर्फ धोखे, अतृप्त चाहतों की रेत और झूठे व अधूरे वायदों की रेत्
के सिवा कुछ नहीं होता, 'इश्क़' सिर्फ और सिर्फ एक एक झूठा ख्वाब होती है, और मै ऐसे
ख्वाब देखने की चाहत नहीं रखती,
हम दोनों वापसी की राह में थे अब ,
एक लम्बी खामोशी हमारे दरम्यान थी ,
जिसमे मेरे प्रश्न का अजीब सा उत्तर शामिल था ऊँट की जुगाली और उड़ती रेत् के दरम्यान



लहू में लोहा होता है

सुना है ! लहू में लोहा होता है।  मेरी रगों में दौड़ते लहू में भी कुछ तो लोहा होगा ही।
शायद यही लोहा तो है जो तुम्हारी आँखों के चुंबक से खिंचा आता है, और तुमसे
लिपट जाना चाहता है,एक हो जाना चाहता ही,,
शायद हम दोनों एक दुसरे के विपरीत ध्रुव हैं,
और,
शायद यही वज़ह तो नहीं मै और तुम इत्ता इत्ता सारा आकर्षण महसूस करते हैं ,
क्य
( मै गलत भी हो सकता हूँ ") अगर हूँ तो बता दो, 

तुम मेरी वो रिश्तेदार हो जिस रिश्ते के लिए कोइ नाम नहीं है

तुम मेरी वो रिश्तेदार हो जिस रिश्ते के लिए  कोइ नाम नहीं है
मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------

Thursday 14 September 2017

कई बार तुम प्रेम में बच्चा बन जाती हो - एक ज़िद्दी बच्चा

 कई बार तुम प्रेम में बच्चा बन जाती हो - एक ज़िद्दी बच्चा
 तब तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो
मुकेश इलाहाबादी ----------------------------

स्नैप शॉट -२

तुम
अपनी सबसे खूबसूरत ड्रेस पहन के आई हो, मै किसी काम में
कुछ तो उलझा हूँ कुछ तो नाटक कर रहा हूँ बिजी होने का।
जानबूझ के तुम्हे इग्नोर कर रहा हूँ , तुम कुछ देर रुकती हो
इस उम्मीद पे , कि मै तुम्हारी ड्रेस की और तुम्हारी तारीफ
करूंगा पर मै एक उचटती सी नज़र तुम पे डाल के फिर काम
में मशगूल हो जाता हूँ।
तुम छनछनाती हुई वहां से चली जाती हो।

( मै मुस्कुरा के ये दृश्य क़ैद कर लेता हूँ। दिल की डायरी में
हमेशा हमेशा के लिए )

(हाला कि बाद में बहुत मिन्नतें कर के तुम्हे मनाया था )

मुकेश इलाहाबादी ---------------

स्नैप शॉट

स्नैप शॉट
--------

मै तुम्हारे लिए तुम्हारी फेवरेट चॉकलेट लाया हूँ , तुम खुश,
मेरे देने के पहले ही मेरे हाथ से छीन लेती हो, तुम्हारा खुश-
खुश चेहरा देखता हूँ, तुम्हारे नेल पॉलिश लगे हाथों से
चॉकलेट के रैपर को खोलना और नेचुरल कलर की लिपस्टिक
वाले मूँगिया होठों के बीच कॉफी कलर की चॉकलेट बहुत
सेक्सी लग रही है, इस दृश्य को कैच कर लेता हूँ मोबाइल में,

(उम्र भर के लिए एक छोटी सी खुशी कैद कर ली हमने - इस तरह )


पार्क - बोगन बेलिया की झाड़ियों के पास कोने की बेंच पे बैठे हैं,
हम - तुम, मै तुम्हे बहाने से छूना चाहता हूँ पर तुम हंसती हुई
हमारे हाथों को बहाने से हटा देती हो , तभी पार्क के बहार चुरमुरा
वाला दीखता है, तुम खाने के लिए कहती हो,
मेरे दोनों हाथों में चुरुमरे के ठोंगे हैं, जिसे मै संभाले संभाले खुश
खुश लिए जा रहा हूँ तुम्हारे लिए  पार्क के कोने वाली बेंच पे
जो वैगन बेलिया की झाड़ियों से छुप सी जाती है।
थोड़ा सा चुरमुरा तुम्हारे होठों पे चिपक गया है , जिसे मै अपनी
उँगलियों से छुड़ाने के बहाने से छू लेता हूँ तुम्हे और तुम्हारे
घिसी हुई बर्फ से ठन्डे और मुलायम गोले जैसे गाल को , और तुम
' बदमाशी ,,," कह के मेरा हाथ हटा देती हो।
एक सेकंड का ये सुख मेरे दिल में क़ैद हो चुका है , तुम्हारे गाल के
ठंडेपन के साथ हमेशा - हमेशा के लिए
 

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------------- 

सारी ख्वाहिशें इंतज़ार की दहलीज़ पे रख आया हूँ,

अपनी सारी ख्वाहिशें इंतज़ार की दहलीज़ पे रख आया हूँ,
इन उम्मीद पे न जाने के कब इधर से गुज़रो और तुम्हारे
पाँव मेरी ख्वाहिशों पे पाँव रखते हुए आगे बढ़ जाएँ किसी
और मंज़िल की ओर, जो मेरे घर की ओर तो क़तई नहीं
जाती होगी।  मुझे इत्ता तो पता है।

मै तुम्हारे लिए तुम्हारी फेवरेट चॉकलेट लाया हूँ , तुम खुश
मेरे देने के पहले ही मेरे हाथ से छीन लेती हो, तुम्हारा खुश
खुश चेहरा देखता हूँ, तुम्हारे नेल पॉलिश लगे हाथों से
चॉकलेट के रैपर को खोलना और नेचुरल कलर की लिपस्टिक
वाले मूँगिया होठों के बीच कॉफी कलर की चॉकलेट बहुत
सेक्सी लग रही है, इस दृश्य को कैच कर लेता हूँ मोबाइल में,

(उम्र भर के लिए एक छोटी सी खुशी कैद कर ली हमने - इस तरह )


पार्क - बोगन बेलिया की झाड़ियों के पास कोने की बेंच पे बैठे हैं,
हम - तुम, मै तुम्हे बहाने से छूना चाहता हूँ पर तुम हंसती हुई
हमारे हाथों को बहाने से हटा देती हो , तभी पार्क के बहार चुरमुरा
वाला दीखता है, तुम खाने के लिए कहती हो,
मेरे दोनों हाथों में चुरुमरे के ठोंगे हैं, जिसे मै संभाले संभाले खुश
खुश लिए जा रहा हूँ तुम्हारे लिए  पार्क के कोने वाली बेंच पे
जो वैगन बेलिया की झाड़ियों से छुप सी जाती है।
थोड़ा सा चुरमुरा तुम्हारे होठों पे चिपक गया है , जिसे मै अपनी
उँगलियों से छुड़ाने के बहाने से छू लेता हूँ तुम्हे और तुम्हारे
घिसी हुई बर्फ से ठन्डे और मुलायम गोले जैसे गाल को , और तुम
' बदमाशी ,,," कह के मेरा हाथ हटा देती हो।
एक सेकंड का ये सुख मेरे दिल में क़ैद हो चुका है , तुम्हारे गाल के
ठंडेपन के साथ हमेशा - हमेशा के लिए
 

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------------- 

कभी तुम्हारे बारे में सोचता हूँ

जब
कभी तुम्हारे बारे में सोचता हूँ
तो लगता है
तुम सिर्फ और सिर्फ मुहब्बत करने के लिए
बनी हो
मासूम सुआ पंखी सी आँखे
मूँगिया होंठ
अजीब कशिश भरा नमकीन चहेरा
जिससे सिर्फ
और सिर्फ मुह्हबत किया जा सकता है
बिना थके
बिना रुके
बिना ऊबे
अनंत काल तक
तब तक जब तक कि
दो जिस्म एक जान नहीं हो जाते
व्यष्टि समष्टि में समाहित नहीं हो जाते

सच ! सुमी तुम ऐसी ही हो
बिलकुल ऐसी ही

सच्ची - मुच्ची - तेरी कसम

मुकेश इलाहाबादी -----------

Wednesday 13 September 2017

तुम मुझे कैसे अपने पास आने सो रोक पाती हो ?


देखता हूँ
तुम मुझे कैसे अपने पास आने सो रोक पाती हो ?
क्यूँ कि
किसी दिन भी

'मै ' चाँद का उजियारा बन जाऊँगा
और फिर
हरे रंग की खिड़की से
रात तुम्हारे कमरे में आ पसर जाऊंगा
तुम्हारे बिस्तरे में

या
किसी दिन
खुद को विरल कर लूँगा
इतना इतना इतना
जितना की एक 'खूबसूरत ख्वाब'
और फिर चुपके से
तुम्हारी बंद पलकों पे समा जाऊँगा

और कुछ नहीं तो,
इक प्यारा सा मैसेज बन के
तुम्हारे चैट बॉक्स में आ कर तुमसे मिल जाऊँगा

और अगर ये सब कुछ भी न हो पाया तो
ख़ुदा से इबादत करूंगा कि
तुम्हारे गालों पे मुझे डिम्पल बना के ऊगा दे

मुकेश इलाहाबादी --------------------


ज़िंदगी अगर हिना की पत्तियां होती

ज़िंदगी
अगर हिना की पत्तियां होती
तो कसम से
उन्हें तोड़ के, पीस के
तेरे हाथों पे ढेर सारे
बेल बूटे बना देता
फिर रच जाने के बाद
तुम्हारी खूबसूरत महकती हथेलियों पे
अपने होठं रख के भूल जाता
क़यामत आने तक
और महसूस करता रहता
तुम्हारे चेहरे पे एक प्यारी मुस्कान देर तक
शायद क़यामत आने तक

मुकेश इलाहाबादी --------------


Monday 11 September 2017

ख्वाबों के शिकारे में बैठ


ख्वाबों
के शिकारे में बैठ
तुम्हारी
आँखों की झील में
तुम्हारी
खिलखिलाहट के चप्पू  चलाते हुए
बहुत दूर निकल जाना चाहता हूँ
चाँदनी रातों में

क्यूँ ! सुन रही हो न,
मेरी डल झील सी आँखों वाली दोस्त ?

मुकेश इलाहाबादी -----------------

सुबह तुम जब सो के उठोगी

सुबह
तुम जब सो के उठोगी
तो मै मिलूंगा
एक मीठे मेसेज के साथ
तुम्हारे मोबाइल में
एक छोटी सी
प्यारी से कविता और
एक शुभ सन्देश
क्यूट से ई मो जी के साथ

(और फिर तुम्हे मुस्कुराता हुआ
महसूस करूंगा अपने मोबाइल में )

ठीक सुबह जब तुम सो कर उठोगी

मुकेश इलाहाबादी ------------- 

फूल मै इक खिला देखूं

फूल मै इक खिला देखूं
तुझे मै मुस्कुराता देखूं

तनहा - तनहा रातों में
छत पे चाँद खिला देखूं

मै पर्वत तू बादल, बन  
तुझको मै बरसता देखूं

तू कुछ माँगे ! मै न दूँ,
बच्चों सा मचलता देखूं


मुकेश इलाहाबादी ---

Sunday 10 September 2017

जलेंगे तपेंगे चलेंगे और सांझ होते ही डूब जायेंगे


जलेंगे तपेंगे चलेंगे और सांझ होते ही डूब जायेंगे
हम सूरज हैं सुबह ताज़ादम होके फिर उग आएंगे

हवा पानी खाद सब कुछ किसी भी जगह  ले लेंगे
हमारी जात इश्क़ है,किसी भी ज़मी पे उग जायेंगे

 दुनिया का कोई भी ग़म हमारे आगे न टिकेगा,,
 कभी चैती कभी फगुआ कभी मेघ मल्हार गायेंगे

तुम अपने यंहा जेहादी आतंकवादी पैदा करते रहो
हम अपनी ज़मीन पे आम महुआ तिलहन उगाएंगे

सिखाते रहिये आप वतन वालों को मज़हबी पाठ
हम भारत वासी सिर्फ योग और प्रेम ही सिखाएंगे


मुकेश इलाहाबादी ----------------------------
--

जलेंगे तपेंगे चलेंगे और सांझ होते ही डूब जायेंगे


जलेंगे तपेंगे चलेंगे और सांझ होते ही डूब जायेंगे
हम सूरज हैं सुबह ताज़ादम होके फिर उग आएंगे

हवा पानी खाद सब कुछ किसी भी जगह  ले लेंगे
हमारी जात इश्क़ है,किसी भी ज़मी पे उग जायेंगे

 दुनिया का कोई भी ग़म हमारे आगे न टिकेगा,,
 कभी चैती कभी फगुआ कभी मेघ मल्हार गायेंगे

तुम अपने यंहा जेहादी आतंकवादी पैदा करते रहो
हम अपनी ज़मीन पे आम महुआ तिलहन उगाएंगे

सिखाते रहिये आप वतन वालों को मज़हबी पाठ
हम भारत वासी सिर्फ योग और प्रेम ही सिखाएंगे


मुकेश इलाहाबादी ----------------------------
--

जलेंगे तपेंगे चलेंगे और सांझ होते ही डूब जायेंगे


जलेंगे तपेंगे चलेंगे और सांझ होते ही डूब जायेंगे
हम सूरज हैं सुबह ताज़ादम होके फिर उग आएंगे

हवा पानी खाद सब कुछ किसी भी जगह  ले लेंगे
हमारी जात इश्क़ है,किसी भी ज़मी पे उग जायेंगे

 दुनिया का कोई भी ग़म हमारे आगे न टिकेगा,,
 कभी चैती कभी फगुआ कभी मेघ मल्हार गायेंगे

तुम अपने यंहा जेहादी आतंकवादी पैदा करते रहो
हम अपनी ज़मीन पे आम महुआ तिलहन उगाएंगे

सिखाते रहिये आप वतन वालों को मज़हबी पाठ
हम भारत वासी सिर्फ योग और प्रेम ही सिखाएंगे


मुकेश इलाहाबादी ----------------------------
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Friday 8 September 2017

शबोरोज़ मेरे वज़ूद में बहती है

शबोरोज़ मेरे वज़ूद में बहती है
तेरी यादें एक खूबसूरत नदी है

तेरे हिज़्र में वक़्त नहीं कटता,,
तुझ बिन हर लम्हा एक सदी है

मेरे सीने पे अपना सिर रख दे,
फिर सुन,धड़कने क्या कहती हैं

मुकेश तू मेरा हाथ छू कर देख
मेरे बदन में हरारत सी रहती है

मुकेश इलाहाबादी -------------

तमाम बहाने हैं मुस्कुराने को

तमाम बहाने हैं मुस्कुराने को
वर्ना तो ढेरों ग़म हैं बताने को
तुझसे नही तेरे ख्वाब से कहूँगा
आज की रात नींद में आने को
तुझ बिन नींद तो आने से रही
दर्द से बोलूंगा लोरी सुनाने को
सावन की रिमझिम बारिस से
कहूँगा तुमको झूला झूलाने को
मेरा दम निकले इसके पहले,
तुझसे कहूँगा इक बार आने को
मुकेश इलाहाबादी --------

Thursday 7 September 2017

मन फूल जिस्म चिरइया


औरत
का मन फूल
जिस्म चिरइया
और
दुःख पहाड़ से होते हैं

मुकेश इलाहाबादी ------

Tuesday 5 September 2017

अँधेरा बहुत है, सन्नाटा बहुत है

अँधेरा बहुत है, सन्नाटा बहुत है
शह्र  की आँख में वीराना बहुत है

छाँव भी यही है इतिहास भी यही
गाँव का ये बरगद पुराना बहुत है

हैं जगमग मॉल,जगमग इमारतें  
फिर भी बस्ती में, अँधेरा बहुत है

बहू -बेटा है पोता है फिर क्या ग़म
क्यूँ बूढा रात भर कराहता बहुत है

मुकेश इक बात समझ नहीं आती
क्यूँ उदास ग़ज़लें लिखता बहुत है

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Monday 4 September 2017

चाक पर चढ़ोगे

चाक पर चढ़ोगे
अपने को गढोगे

है दिल में मैल ?
नज़र से उतरोगे

झूठ के पांव ले,
कब तक चलोगे

मोम न बनो तुम
रोज़ - रोज़ गलोगे

मेरे दोस्त बनोगे,
हरदम खुश रहोगे


मुकेश इलाहाबादी -

तुम हंसती हो तो महुआ झरता है


तुम हंसती हो तो महुआ झरता है
तुम्हारी बातों में नशा सा रहता है

तुम कोइ काला जादू जानती हो ?
हर कोई सिर्फ तेरी बातें करता है

काली या लाल साड़ी पहना करो,
वैसे तो तुम पर हर रंग फबता है

मुकेश इलाहाबादी ----------------

Saturday 2 September 2017

दिल मेरा अलग तबियत का है

दिल मेरा अलग तबियत का है
तेरे सिवा किसी पे फ़िदा न हुआ

मुकेश इलाहाबादी ---------------

इक सांस भी ऐसी नहीं जाती,

इक सांस भी ऐसी नहीं जाती,
जब  याद तुम्हारी नहीं आती

बसंत गया,सावन चला गया
मुंडेर पे कोयल भी नहीं आती

मुकेश इलाहाबादी -----------

Friday 1 September 2017

लट्टू की तरह घूमता रहता है मन

लट्टू की तरह घूमता रहता है मन
तुम आस- पास रहो चाहता है मन
बस तुझे देखूं तुझे चाहूँ तुझे सराहूं
मुआ जाने क्या - २ चाहता है मन
हैं तुम्हारी आँखे शराब के दो प्याले
बिन पिए ही झूमता रहता है मन
तेरा मेरा जन्मो जन्मो का नाता है
तू मेरी है मै तेरा यही कहता है मन
कई बार चाहा तुझे भूल जाऊं मगर
मुकेश मेरा कहा कँहा मानता है मन
मुकेश इलाहाबादी --------------------

जिस दिन से तुझसे मिला हूँ


जिस दिन से तुझसे मिला हूँ
पत्थर से नगीना हो गया हूँ

तुम्हारी बातों में कोई जादू है
पागल दीवाना सा हो गया हूँ

मुकेश इलाहाबादी -------------

गर तुम मुहब्बत भर होती तो तेरा हिज़्र सह लेता,

गर तुम मुहब्बत भर होती तो तेरा हिज़्र सह लेता,
मुकेश तुम्ही बताओ बगैर साँसों के कौन जिया है ?
मुकेश इलाहबादी ------------------------------------