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Friday 15 September 2017

अगर मौसम भी पेड़ों में ऊगा करते तो,

अगर मौसम भी पेड़ों में ऊगा करते तो, दिल्ली की झाड़ से  थोड़ा सा गुलाबी जाड़ा तोड़ के
उसके गुलाबी गाल पे मल आता, क्यूँ कि सुना है उसके राजस्थान में बहुत गर्मी पड़ती है,
उसे गर्मी से थोड़ा राहत मिल जाती।
साला ! दिल भी अजब पागल है न जाने कब और कहा और किसपे आ जाए।  अब देखो
आज कल एक राजस्थानी बाला के ऊपर आ गया है ,
उसकी लाल दहकती आँखों में दूर तक रेगिस्तान ही रेगिस्तान नज़र आता है, जिसकी
खनखनाती हंसी के ऊँट पे चढ़ कर देखो तो ये डरावना अंतहीन रेगिस्तान भी सुहाना
नज़र आने लगता है - पर आग से दिन और बर्फ से ठंडी रातों वाली रेगिस्तानी बाला
की आँखों की वीरानी अजब सी दीवानगी पैदा करती है ,

जब वो खामोश हो जाती है तो ऐसा लगता है, रेगिस्तानी सफ़ेद समंदर -के अंदर ही अंदर
दर्द की ढेरों लहरें चल रही हैं - हरड़ हरड़ - जो अगर सतह पे आ गयी तो क़यामत ला देंगी।
इसी लिए जब वो खामोश होती है तो मै पगला जाता हूँ।  और मै किसी भी तरह उसे हँसाना
चाहता हूँ , बुलवाना चाहता हूँ , हाला कि मान जाती है।  पर थोड़ा मुश्किल से ,
एक बात और बताऊँ उस - राजस्थानी बाला के बारे में ,
वो बहुत बहुत कुछ जानती है , दुनिया के बारे में,साहित्य और संस्कृति के बारे में जब
बोलती है तो ,लगता है वो बोलती जाये और आप सुनते जाओ, मत्रमुग्ध कर देती है.
कविता लिखती है तो उसके शब्दों से भाव नियाग्रा फॉल सा झरते हैं ,
सच अजब जादू है।  लोग बेवज़ह बंगाल के जादू की बात करते हैं , मै तो कहता हूँ देखना
है तो इस राजस्थानी जादू को देखो , जो सिर चढ़ के बोलता है।
जब वो इमोशनल होती है तो बहुत बातें करती है।
एक दिन बातों बातों में मैंने पूछा ' तुम मुहब्बत के बारे में क्या सोचती हो?'
एक लम्बी खामोशी
'फिरकभी इसका जवाब दूंगी '
बात आयी गयी खत्म भी हो गयी , मुझे लगा वो मेरी बात का जवाब नहीं देना चाहती होगी,
दिन बीतते रहे ,बातें होती रही.
एक दिन उसने मुझे अपनी बातों की ऊँट गाड़ी में बैठा दूर बहुत दूर ले गयी,
दोपहर का सूरज टह  - टह  चमक रहा था, उसने दूर तक फैले रेगिस्तान को दिखते हुए कहा
' वो देखो ---- दूर बहुत दूर तुम्हे कुछ नज़र आ रहा है ?'
मेरी नज़रें चांदी सी चमकती रेत् पे टिक गयी , प्यास से गला सूख रहा था। पानी दूर दूर
तक न था सिवाय ऊँट की थैली के, जिसे मै पी नहीं सकता था। खैर मैंने दूर नज़र दौड़ाई
बहुत दूर पे चांदी सी चकमती नज़र आयी, हम दोनों चलने लगे - इस बार पैदल पैदल
बहुत दूर जाने पर रेत् ही रेत् - न पानी था - न नदी थी - कुछ दूर और चले फिर वही
मैंने कहा यहाँ तो नदी नहीं है ?
राजस्थानी बाला जोर जोर हंसने लगी -
'दोस्त इसी ही इश्क़ कहते हैं,  मृगतृष्णा ' जंहा लगता तो है शुकून है , आराम है, आनंद है।
पर पास जाओ तो सिर्फ और सिर्फ धोखे, अतृप्त चाहतों की रेत और झूठे व अधूरे वायदों की रेत्
के सिवा कुछ नहीं होता, 'इश्क़' सिर्फ और सिर्फ एक एक झूठा ख्वाब होती है, और मै ऐसे
ख्वाब देखने की चाहत नहीं रखती,
हम दोनों वापसी की राह में थे अब ,
एक लम्बी खामोशी हमारे दरम्यान थी ,
जिसमे मेरे प्रश्न का अजीब सा उत्तर शामिल था ऊँट की जुगाली और उड़ती रेत् के दरम्यान



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