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Sunday 22 September 2019

कभी चंदन बन तो कभी, महकते बागों मे रहूँ

कभी
चंदन बन तो
कभी,
महकते बागों मे रहूँ
जी तो चाहता है
उम्र भर
तेरी मस्त
निगाहों मे रहूँ
दिन भले ही
गुज़रे आफताब सा
जलते हुए
रात, तुम्हारी
मरमरी बाहों में रहूँ
तू ही
मेरी आरज़ू
तू ही मेरी ज़िंदगी
कशमकश में हूं
ये ज़रा सी बात
तुझसे कैसे कहूँ
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

ये, जो तुम, काजल लगा के अपनी सुआ पंखी सी पलकों को

ये,
जो तुम,
काजल लगा के
अपनी सुआ पंखी सी
पलकों को
झपकाती हुई
मुझे देख खिलखिला के हँसती हो न,
सच्ची किसी रोज़
ठीक उसी वक़्त
तुम्हारे नज़दीक आ के
अपनी तर्जनी और अंगूठे से तुम्हारे गुलू - गुलू गालों पर एक जोर की चिकोटी काट के
हँसता हुआ भाग जाऊंगा
और फिर
दूर से तुम्हारे चेहरे पे
गुस्सा, खीझ और प्यार
एक साथ देखूँगा
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

जैसे पकते हैं, फल अपने मौसम में

जैसे
पकते हैं, फल 
अपने मौसम में
पेड़ों पे, धीरे - धीरे
वैसे ही तेरा ईश्क़
बढ़ा रहा मेरे दिल में -
धीरे - धीरे

जैसे - आँवा में
सीझता है
कच्चा घड़ा, धीरे - धीरे
वैसे ही मै सिझ रहा हूँ
तुम्हारे प्यार में - धीरे -धीरे

बहता है झरना
चट्टानों के भीतर - भीतर
वैसे ही
तुम बहती होतुम`
मेरे भीतर - भीतर

जैसे योगी सुनता है
सोऽहं अपने भीतर - धीरे - धीरे
बस ऐसे ही मै भी सुनता हूँ
तुमको अपने दिल के भीतर - भीतर


मुकेश इलाहाबादी ------------

मुकेश इलाहाबादी -------

Saturday 21 September 2019

कभी चंदन बन तो कभी, महकते बागों मे रहूँ

कभी
चंदन बन तो
कभी,
महकते बागों मे रहूँ
जी तो चाहता है
उम्र भर
तेरी मस्त
निगाहों मे रहूँ
दिन भले ही
गुज़रे आफताब सा
जलते हुए
रात, तुम्हारी
मरमरी बाहों में रहूँ
तू ही
मेरी आरज़ू
तू ही मेरी ज़िंदगी
कशमकश में हूं
ये ज़रा सी बात
तुझसे कैसे कहूँ
मुकेश इलाहाबादी,,,,,

ये, जो तुम, काजल लगा के

ये,
जो तुम,
काजल लगा के
अपनी सुआ पंखी सी
पलकों को
झपकाती हुई
मुझे देख खिलखिला के हँसती हो न,
सच्ची किसी रोज़
ठीक उसी वक़्त
तुम्हारे नज़दीक आ के
अपनी तर्जनी और अंगूठे से तुम्हारे गुलू - गुलू गालों पर एक जोर की चिकोटी काट के
हँसता हुआ भाग जाऊंगा
और फिर
दूर से तुम्हारे चेहरे पे
गुस्सा, खीझ और प्यार
एक साथ देखूँगा
मुकेश इलाहाबादी,,,,,