Pages

Tuesday 29 April 2014

ख़ुद को मिटा देने की चाह में है,

ख़ुद को मिटा देने की चाह में है,,
क़तरा समंदर बनने की राह में है

सारा चमन ही उजाड़ लगने लगा
इक तितली उसकी निगाह में है

बद्दुआ दे मुकेश, ये फितरत नहीं
वर्ना बहुत आग उसकी आह में है

मुकेश इलाहाबादी ----------------

सुबह से सूरज उबल रहा था

सुबह से सूरज उबल रहा था
अच्छा हुआ जो तुम आ गये
पल दो पल के लिए ही सही,,,
हम बादलों के साये में आ गये 

हो गए थे हम तो गुमसुम से,,
ग़म दिए इतने ज़माने वालों ने
चलो अच्छा हुआ तुम आ गए
हम फिरसे हंसने गुनगुनाने लगे

मुकेश इलाहाबादी --------------

Monday 28 April 2014

उम्रभर बेगानों की तरह साथ रहने से

उम्रभर बेगानों की तरह साथ रहने से
मुहब्बत भरी इक मुलाक़ात अच्छी है

झूठ के पुल से दरिया पार किया जाए
इससे तो दिलों के बीच दीवार अच्छी है

मुकेश ताउम्र झूठ का पैमाना पीता रहूँ
इससे बेहतर तो मेरी ये प्यास अच्छी है

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

अभी भी हरहरता है

अभी भी
हरहरता है
अंतश में
बेचैन सागर
वाष्प बनकर
उड़ जाने को
अनंत आकाश में
तमाम कोशिशों के
बावजूद
तप्त सूर्या रश्मियाँ
लौट जाती हैं
महज़ चमड़ी को
सुखाकर

मुकेश इलाहाबादी ------

तुम तो

तुम तो मुहब्बत में सब कुछ भूलने की बात करती हो,,
हम तो सिर्फ इक मुलाक़ात में ही भी खुद को भूल बैठे हैं

मुकेश इलाहाबादी ------------------------------------------

लिक्खाडों की जातियां व प्रजातियां




संसार  में जिस तरह जीव जंतुओं, पेड़ पौधों और इन्सानों की अनेक जातियां व प्रजातियां प्राप्त होती हैं। उसी तरह लिक्खाडों की भी कई प्रजातियां होती हैं। जिनका एक वर्गीकरण लेखन विषय को लेकर है जिससे तो लगभग सभी सुधीजन परिचित हैं जिन्हे हम कवि, कहानीकार, आलोचक , पत्रकार के रुप में जानते हैं। इसके अलावा मै आपसे एक और वगींकण के बारे में आपसे बात करना चाहूँगा, जो  इन लिक्खाडों की प्राबित्तिनुसार  किया गया है।

जन्हे आप निम्न वगींकरण मे बांट सकते हैं।

एक ..  पेशेवर  लिक्खाड
दो ..   घोर सहित्यिक लिक्खाड
तीन.. आदर्शवाशी लिक्खाड
चार ..  शौकिया लिक्खाड


पहला --- पेशेवर  लिक्खाड

लेखकों की यह वह प्रजाति है जो लगभग सभी पत्र पत्रिकाओं के आफिस में या गाहे बगाहे फ्री लांसर के रुप में भी पाई जाती है। यह लिक्खाडों की वह प्रजाति होती है। जिसके पास हर वक्त हर विषय पे लेखन सामग्री तैयार होती है। और अगर नहीं भी होती है तो आप अपना आर्डर दे कर अपनी पसंदानुसार लेख कहानी कविता निबंध आदि कुछ भी लिखवा सकते हैं। इनके पास हर जानकारी का खजाना तैयार रहता हैं। यह पाक शास्त्र  से लेकर काम शास्त्र तक किसी भी विषय पे साधिकार लिख सकते हैं। नैतिकता अनैतिकता सहित्यकता असाहित्यकता और सुचिता आदि का बहुत ज्यादा स्थान नहीं होता है। इन्हे र्सिफ अपनी मेहनत व लेखन के बदले मिलने वाले पुरुष्कार से मतलब व गरज रहता है।

यही प्रजाति ऐसी है जो समाज में सबसे ज्यादा लेखन सामग्री परोसती है। अगर यह प्रजाति न होती तो शायद हमारी साहित्य व लेखकीय विरादरी काफी गरीब होती। इसके अलावा यही वह प्रजाति है जो साहित्यिक और मानसिक भूख को पूरा करने के लिये सबसे ज्यादा उत्पानद करती है।

दूसरा ---  घोर साहित्यिक लिक्खाड

लिक्खाडों की यह वो प्रजाति है जो अपने को सबसे सुपर मानती है। इस प्रजाति की मानसिकता होती है कि अगर ये न होते तो समाज की छाती से साहित्य उठ गया होता। ये ही हैं जो अपनी लेखनी की झाडू से साहित्य संस्क्रति के आकाष को थामे हैं वर्ना वह कब को फलक से गिर के धरातल मे समा गया होता।
यह एक गवींली प्रजाति होती है। इस प्रजाति के लोग जहां भी जाते हैं वहां ये अपने लिये मान सम्मान और मंच की आकांक्षा रखते हैं। और ऐसा न होने पर अपने को अपमानित महसूस करते हैं।
इस जाति के लोग अक्सर अपनी एक दो रचना की क्रेडिबिलटी पे सारी उम्र जुगाली करते और खाते रहते है और सतत अपने लिये किसी न किसी सम्मान व पुरुष्कार की जुगत भी लगाते पाये जाते हैं। अमूमन ये कुछ कुछ गवींली होती है जो नये लिक्खाडों को बहुत तवज्जों नही देती और देती भी है तो एहसान की तरह या गुरुडम के भाव से देती है।
इस प्रजाति के लोग अक्सर वाद और गुटों मे भी बटे पाये जाते हैं जो अपने ही गुट में खुष नजर आती हैं। इनकी नजर मे दूसरा गुट वाला समाज की नब्ज को ठीक से न पहचानने वाला होता है।
तमाम गुणो व अवगुणों के बावजूद इस प्रजाति का साहित्य मे अपना एक योगदान रहता है जिसे नकारा नहीं जा सकता

तीसरा  --- आदर्षवादी लिक्खाड

लिक्खाडों की यह तीसरी और अलग थलग रहने वाली प्रजाति कम पर लगभग सभी जगह पायी जाती है। इस जाति के लोग यह मान के चलते हैं कि साहित्य व लेखन व समाज से  आर्दष की भावना कम होती जा रही है जो मानव सथ्यता व संस्क्रिति के लिये बडा खतरा है और इस खतरे के खिलाफ ये सतत अपनी आदर्षवादी कलम रुपी तलवार से लडते रहते हैं। नीति व सदविचार समाज में परोसते रहते हैं। इस प्रजाति में धार्मिक प्रब्रत्ति के लोग ज़्यादातर  पाये जाते हैं। यह अलग बात इनमे ये बहुतायत खुद अपनी जिंदगी में आदर्षवादिता से कोषों दूर होते हैं।
खैर फिर भी इनकी भावना और क्रत्य को देखते हुए इस प्रजाति के कायों की समाज में अपनी उपादेयता है।

चौथा ... शौकिया लिक्खाड

यह प्रजाति भी समाज के सभी तबकों में पायी जाती है। इस प्रजाति के लोग अपनी अपनी रुचि और प्रब्रत्ति के अनुसार लिखते पाये जाते हैं। आज कल सोशल नेटवर्क साइटस और फेसबुक की वजह से इनकी संख्या में बहुत तेजी से इजाफा होता जा रहा है। अक्सर इस जाति के लोगों की आदत सिर्फ लिखना और फिर घूम घूम के अपने लिखे को सुनाना पढवाना और छपवा कर खुष हो लेता ही उददेष्य होता है। यह प्रजाति पढने पे कम और लिखने पे ज्यदा विस्वास करती है। इस प्रजाति के लोग कुछ भी और कैसा भी लिख के प्रसन्न हो लेते हैं। इनमे कवि कहानीकार और राजनीतिक समीक्षक ज्यादा पाये जाते हैं।

इन चार के अलावा भी हो सकता है समाज मे और जाति प्रजाति के लिक्खाड मौजूद होंगे जो कि शोध का बिषय बन सकता है।

मुकेश इलाहाबादी -------------------------------


Sunday 27 April 2014

सभी तो बेलिबास दिख रहे जँहा जाऊं

सभी तो बेलिबास दिख रहे जँहा जाऊं
फिर मै ही क्यूँ अपनी उरनियाँ छुपाऊँ

मरहम ले के आये हो तो बताओ वरना
बेवज़ह ज़ख्म अपना तुम्हे क्यूं दिखाऊँ

हर शख्स तो बौना दिखाई देता है यंहा
फिर भला किस दरपे सर अपना झुकाऊँ

अपना जिस्म खुद से सम्हाला जाता नहीं
अब  ग़म तेरे जाने का किस तरह उठाऊं

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

लड़की,

लड़की,
रेशमी धरातल पे
उगा रही है फूल

बेखबर, इस बात से
कि, फ़िज़ाएं अपने आगोश में
पाल रही हैं, तूफ़ान
लरज़ जाने को
बरस जाने को
बाद जिसके
रह जाएगी शेष
जगह जगह से दरकी
पानी से लबालब धरती
और , खो जाएगी लड़की
न जाने कँहा

मुकेश इलाहाबादी ------

Saturday 26 April 2014

जी चाहता है,

जी चाहता है,
सभ्यता के
पाँच हज़ार साल
और इससे भी ज़्यादा
लड़ाइयों से अटे -पटे
स्वर्णिम इतिहास पे
उड़ेल दूँ स्याही
फिर
चमकते सूरज को
पैरों तले
रौंद कर
मगरमच्छों व
दरियाईघोड़ों से अटे - पटे
गहरे, नीले समुद्र में
नमक का पुतला बन घुल जाऊं
और फिर
हरहराऊँ - सुनामी की तरह
देर तक
दूर तक

मुकेश इलाहाबादी ----

कुछ बेहतर करने से

कुछ
बेहतर करने से
नहीं घबड़ाता
अकेला पड़ने
और विरोध सहने से
बस , दुःख होता है
लोगों की मक्कारी
और दोमुहेपन से

वक़्त के श्यामपट्ट पे
सिर्फ मै ही
बेहतर लिख सकता हूँ
ऐसा मेरा दावा नहीं
हाँ, इतना ज़रूर है
मै , 'सच' को 'सच'
और 'झूठ' को 'झूठ'
लिख सकता हूँ

मुकेश इलाहाबादी ------

साँझ होते ही सो जाता हूँ

साँझ होते ही 
सो जाता हूँ
अतीत की चादर
ओढ़ कर,
बेसुध
न जाने कब
चादर विरल होने लगती है
इतनी विरल कि
चादर तब्दील हो जाती है
एक खूबसूरत बाग़ में
जिसमे तुम मुस्कुराती हो
फूल बन कर
और मै मंडराता हूँ
भँवरे सा
तुम इठलाती,
इतराती रात भर,
तो कभी ऐसा भी हुआ
जब मै बृक्ष बन उग आता हूँ
और तुम, बेल बन लिपट जाती हो
मै हँसता हूँ तुम मुस्कुराती हो

फिर तुम चाँद बन जाती हो
और मै - चकोर
और मै लगाने लगता हूँ  टेर
पिऊ , पिऊ की
और तभी, सारा जादुई आलम
फिर से सघन होकर
तब्दील हो जाता है चादर  में
जिसे फिर से सहेज
रख देता हूँ सिरहाने
रात फिर ओढ़ सो जाने को 

मुकेश इलाहाबादी --------