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Saturday 26 April 2014

जी चाहता है,

जी चाहता है,
सभ्यता के
पाँच हज़ार साल
और इससे भी ज़्यादा
लड़ाइयों से अटे -पटे
स्वर्णिम इतिहास पे
उड़ेल दूँ स्याही
फिर
चमकते सूरज को
पैरों तले
रौंद कर
मगरमच्छों व
दरियाईघोड़ों से अटे - पटे
गहरे, नीले समुद्र में
नमक का पुतला बन घुल जाऊं
और फिर
हरहराऊँ - सुनामी की तरह
देर तक
दूर तक

मुकेश इलाहाबादी ----

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