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Friday, 16 August 2019

सबीर हका को पढ़ते हुए

एक ---

सबीर हका 
को पढ़ते हुए लगा 
जब 
एक मज़दूर कवि  बनता है तो वह 
शब्दों की ईंट 
भावों की सीमेंट को 
अपने पसीने  और आंसुओं के गारे से सान के 
कविताओं की जो ईमारत बुलंद करता है 
वो सदियों सदियों तक शान से 
सभ्यता के सीने पे खड़ी रहती हैं 
और उन्हें कोइ भी युद्ध महायुद्ध 
बम या परमाणु बम ध्वस्त नहीं कर सकता 
न ही  भूकम्प उस ईमारत को गिरा पाती है 
भले ही पूरी धरती हिल जाए 
या सूरज खुद ज़मी पे आ जाए 
पर वो भी मज़दूर की कविता के महल को नहीं गिरा पायेगा 
ऐसा मुझे लगा 
ईरान के मज़दूर कवि सबीर हका को पढ़ कर 

दो --

दुष्यंत की ग़ज़लों को 
गुनगुनाते हुए महसूस हुआ 
शब्दों में भी आग लगाई जा सकती है 
बहुत दूर तक और देर तक जलती रह सकती है 
वक़्त अगर उस आग को बुझा भी दे तो 
राख के अंदर ही अंदर अलाव की तरह जलती रहती है 
जो आप के और हमारे ख़ून को भले खौला न सके तो 
गुनगुनाहट तो पैदा कर ही देती है 
अगर मौका पड़े तो वही आग 
दावानल बन के बहुत कुछ राख भी कर सकती है 
और सोने को तपा के शुद्ध भी कर सकती है 
ऐसा ही कुछ मुझे लगा 
दुष्यंत की ग़ज़लों को पढ़ते हुए हुए 

मुकेश इलाहाबादी -------------------

1 comment:


  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-08-2019) को "देशप्रेम का दीप जलेगा, एक समान विधान से" (चर्चा अंक- 3431) पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

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