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Monday 8 July 2013

सुमी, जानती हो ? एक दिन


 

सुमी,
जानती हो ?
एक दिन
किसी प्रेमी ने
शायद, मेरी तरह किसी पागल प्रेमी ने
अपनी हथेलियों की अंजुरी बना के
अपनी मासूका का चेहरा ढंप लिया था
और फिर देर तक
बहुत देर तक
उस खूबसूरत प्रेमिका की ऑखों मे
निहारता रहा
और उसकी
जगमग जगमग करती ऑखों से
झर झर झरते मोतियों को
अपनी हथेली मे समेट
खुशी से उछाल दिया था
इस नीरव और वीरान आकाष मे
शायद तभी से फलक मे इतने सारे
खूबसूरत तारे जगमगाते हैं
आकाश भी उस दिन बहुत खुष हुआ था
अपने वीराने को आबाद पा के
और, आकाश इन चमकते तारों से
मुहब्ब्त कर बैठा ...
बेपनाह मुहब्रब्त
लेकिन तारे बेवफा निकले
वे सभी बहुरुपिया चॉद से दिल लगा बैठे
मगर चॉद ?
चॉद बेवफा ही निकला, फितरतन
वह कभी तारो के संग किलोल करता
मुस्कराता, आकाष के ही सीने मे तारों संग
अठखेलियॉ करता और फिर छुप जाता
विदा हो जाता जाने कहां ?
शायद फिर कुछ और सितारों से
मुहब्बत करने के लिये
मगर आकाश फिर भी
तारों को अपने रकीब चॉद के साथ
अपने सीने मे ही उगे रहने देता
अपनी विषालता के साथ
विराटता, भव्यता और एकाकीपन के साथ
सुमी, तुम मुझे भी ऐसा ही एक
निचाट और खाली आकाश समझो
लेकिन मुझे मालूम है
सुमी तुम चॉद भी नही हो
सितारा भी नही हो
अगर सितारा हो तो
ध्रुव तारा हो
सब से जुदा तारा हो
जो सिर्फ और सिर्फ
आकाश मे टंगा रहता है
आकाश के साथ
निष्तरंग
निष्कपट और
अटल

मुकेश इलाहाबादी .............

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