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Sunday 21 July 2013

यादों को बिखेर के बैठा हूं

यादों को बिखेर के बैठा हूं
अपने को समेट के बैठा हूं

चॉद हमसे बेवजह खफा है
अब अंधेरा लपेट के बैठा हूं

पैरों की जमीन न खिसके
दरो दीवार टेक के बैठा हूं

न जाने कौन डंक मार दे
जगह खूब देख के बैठा हूं

लोग सूरज लिये फिरते हैं
अपनी छांह छेक के बैठा हूं

मुकेष इलाहाबादी ........

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