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Thursday 11 October 2012

अलाव बुझ चुका है अब शरारे नही हैं

अलाव बुझ चुका है अब शरारे नही हैं
फिजाओ मे भी अब वो नजारे नही हैं

क्यूं बेवजह राह तकते हो तुम उसकी
गैर हो चुके हैं वो अब तुम्हारे नही हैं



 स्याह नागिन सी रात फैली है चुपके.2
फलक पे चांद नही है सितारे नही हैं

तुम्हे क्या पता है मुफलिसी के मायने
तुमने कठिन दौर अभी गुजारे नही है

हर सिम्त नजर आता आब ही आब है
बीच समंदर मे हो तुम किनारे नही हैं

अलग से ---------------

उदासी की चादर ओढ के बैठे हैं सब !!!
महफिल मे अब पहले से ठहाके नही हैं

कभी फागुन कभी सावन कभी चैती गाते थे
मुददत हुयी अब कोई गीत गुनगुनाते नही हैं

मुकेश इलाहाबादी ---------------------

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