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Tuesday 6 March 2012

एक मुसाफिर की डायरी से --------------



ज़िदंगी की दो तिहाई सड़क नाप आया। न जाने कितने जंगलात, खाई, खंदक और रेगिस्तान पार कर आया। लेकिन मंजिल के नाम पर महज कुछ सराय खाने या भटियार खाने मिले। जहां चंद लम्हात की सहूलियत और फिर रवानगी, न मिलने वाली मंजिल की। लिहाजा अब तो सारे अरमानों को कफ़न दे दिया है और सफ़र को ही मुक़ददर मान लिया है।
अपने मुकददर को ही लिये दिये उन दिनों भी चल रहा था, कि राह में एक सरायखाने से इत्तिफाक हुआ। जिसकी बातें आज एक अर्से के बाद भी यादों की पगड़डी में मील के पत्थर सा ठुंकी हुयी हैं।
बात उन दिनों की है जब यह षख्स जवान हुआ करता था। दिल में जोश  व बदन में ताकत हुआ करती थी। चटटान को तोड़ने व नदियों को पार करने का हौसला हुआ करता था। लेकिन जिसका दिल बच्चों सा मासूम था। अंदाज मस्ती भरा था। वह अपने कधों तक झूलते बालों व अलमस्त फक्कडी अंदाज को लिये दिये एक दिन अपनी मुकम्मल मंजिल की तलाष में निकल पड़ा। भटकता रहा शहर दर षहर जंगल दर जंगल। उस दौरान न जाने कितने दरख्तों को अपना साया बनाया न जाने कितने पड़ावों पे रात गुजारी न जाने कितने खेत खलिहानों को रौंदा मगर कहीं कोई मंजर उसे रास न आता, उसे लगता यह वह ठौर नही जहां के लिये वह निकला है। वह कुछ सोचता समझता, फिर आगे बढ जाता नई राहों के दरमियां।
ऐसे मे एक दिन जब फलक पे चांद भी न था सितारे भी न थे रौशनी के लिये। दूर दूर तक किसी बसेरे का नामो निशा तक न था। कोई शजर भी न था। पावों में थकन भी थी पोर पोर दुख रहा था। भूख से तन व मन अकुला रहे थे। चलना मजबूरी थी। ऐसे मे ही दूर एक रोषनी टिमटिमाती नजर आयी, मन मे कुछ हौसला आफजाई हुयी। कदमों को कुछ ओर तेज रफतार दी। मगर पांव थे कि तेजी इख्तियार ही न कर रहे थे। लिहाजा घिसटते कदमों से वह काफी रात गये दिये के जानिब पहुंच ही गया।
रोशनी एक सरायखाने की थी। सरायखाना दरो दीवार का न था। उसकी दीवारें काले घनेरे आबनूसी गेसुओं की थीं। रोशनी के नाम पे खूबसूरत ऑखें टिमटिमा रहीं थी। भूख के लिये दिल परोसा जाता और आराम के लिये मरमरी बाहें थी। जिनके आगोश  मे रात कब बीत जाती पता न लगता था।
गये रात पहुंच मुसाफिर ने एक रात रुकने की इल्तजा की । मालकिन ने अपने खूबसूरत अंदाज से रहने का खाने का बेहतरीन इंतजाम किया उसे लगा जैसे मालकिन ने अपना दिल ही परोस दिया हो। मुसाफिर उस रात चैन की नींद सोया सुबह उठ के अपने सफर के लिये रवानगी चाही। तो उस सराय की मालकिन ने अपनी बला की खूबसूरत ऑखों से सवाल किया।
‘मुसाफिर तुम्हे किस राह जाना है। इस मजिंल के सारे रास्तों को अच्छे से जानती हू।’
मुसाफिर अचकचाया। 
कुछ देर की खामूषी के बाद अपनी सूनी ऑखों को दूर गगन मे देखते हुये कहा।
‘मोहतरमा। मेरी कोई मंजिल होती तो बताता। कोइ्र मुकम्मल जहां होता तो बताता। मै तो भटका हुआ मुसाफिर हूं। चलते ही रहना जिसकी नियत है और वही मंजिल लिहाजा मै किस राह के बाबत तुमसे पूंछू।’
ऐसा जवाब और ऐसा मुसाफिर उसने आज तक न देखा था। लिहाजा उस सरायखाने की खूबसूरत मालकिन कुछ देर उसकी बडी बडी ऑखों व चौडे कंधों को देखती रही। फिर न जाने क्या सोच के बोली।
‘मुसाफिर, अगर तुम्हारी कोई निष्चित मंजिल नही है। किसी भी राह जाना है और कभी भी जाना है तो तुम कुछ दिन और इस सरायखाने में क्यूं नही ठहर जाते। हो सकता है तब तक तुम्हे अपनी मंजिल याद आ जाये, जिसे हो सकता है किसी हादसे में भूल चुके हो। या कोई फकीर या पहुंचा हुआ तुम्हारी मजिंल का पता ले कर आ जाये। तुम ओर ज्यादा भटकने से बच जाओ’
मुसाफिर को यह बात पसंद आयी। उसने अपने असबाब फिर से उतारे। हालाकि असबाब के नाम पे था ही क्या। दो चार किताबें दो चार कपडे लत्ते और हुक्का जिसे वह तसल्ली से पीता। सुबह और षाम।
मुसाफिर ने फिर दिन वहीं काटा षाम काटी अब रात थी।
वह रेगिस्तानी रात कुछ देर बाद सर्द होने लगी। इतनी सर्द कि बदन की चादर भी ठण्ड न रोक पा रही थी। लिहाजा दोनो ने उपले की आग जलायी और आमने सामने बैठ बतियाने लगे।
दोनों बतियाते भी जाते और दूर तक फैले हुये सर्द रेतीले मंजर केा देखते भी रहतेे। अचानक
औरत ने मुसाफिर की ऑखों की गहराई को देखते हुए सवाल किया
‘मुसाफिर, तुम मुहब्बत को क्या समझते हो।’
आदमी ने अपनी चादर से खुद को और लपेटा। अलाव की राख को कुरेदा। बुदबुदाया।
‘वैसे तो मुझे मुहब्बत के मुताल्लिक कुछ अता पता नही है। पर जहां तक जाना है और अफसानों में पढा है। मुहब्बत अलाव की आग है जो पहले तेज जलती है फिर धीरे धीरे जलती है बहुत देर तक। यह आग राख के अंदर भी धीरे धीरे सुलगती रहती है। जो कभी भी जरा सा कुरेदने से फिर भडक उठती है। और मुहब्बत ही वह आग है जो जलने के बाद इंसान को सुहानी तपिष भी देती है और जिंदा रहने की ताकत भी बनती है।’
औरत ने भी आग के उपर अपने नर्म हाथ सेंकते हुये मुसाफिर की ऑखों में आखें डाली क्या तुमने कभी इस तपिष का लुत्फ लिया है।’
मुसाफिर ने हालाकि दुनियादारी बहुत देखी थी। जिस्मों का खेल भी देखा था और खेला था मगर न जाने कयूं इस दौर से न गुजरा था। उसकी ऑखें भभक उठीं। मुस्कुराया। और हौले से न में षिर हिला दिया।
औरत भी मुस्कुराई ‘बडी अजीब बात है तुम्हारे जैसा नौजवान यह कह रहा है। क्या कभी किसी औरत ने तुम्हे लुभाया नही।
‘नही’ मुसाफिर ने धीरे से कहा।
दोनो खामोष हो गये। फिर मुसाफिर ने कहा ‘अच्छा यह बताओ इस बाबत तुम क्या सोचती हेा’
औरत ने अपने दोनो हाथ अलाव के उपर ले जाकर कहा ‘हां, तुम्हारी बात ठीक है पर इस आग से सिर्फ ठंठ से बचने के लिये हाथ तापा जाये तो ठीक वर्ना बेठीक, अक्सर लोग इस आग से  अपने वजूद को ही जला लेते हैं। जिससे मै इत्तिफाक नही करती।’
मुसाफिर ने कुछ नही कहा। बस उसने अलाव की बुझती हुयी आग को कुरेदा और फूंक देकर  आंच को फिर से बढानी चाही। मगर तब तक औरत जम्हाई लेकर उठ चुकी थी।
‘चलो सोया जाये रात काफी हो चुकी है। ’ औरत ने कहा।
दोनो अपने अपने बिस्तरे पर जा चुके थे। पर अब तक अलाव की आग उनके अंदर जल चुकी थी। जो दोनो के तन व मन को तपा रही थी।
कुछ देर बाद अंधेरे में मुसाफिर और भटियारिन एक दूसरे के अलाव को कुरेद रहे थे।
मुसाफिर खुष था  उसे लगा उसे उसकी मंजिंल मिल चुकी है जिसकी उसे तलाष थी। लेकिन यही उसकी भूल थी।
सराय मालकिन होषियार और दुनियादार औरत थी। वह मुसाफिर को रहना खाना और सब कुछ देती यहां तक की मुहब्बत भी मगर हर चीज का पूरा दाम वसूल लेती जिसके लिये कोई मुरउव्वत न थी।
दिन धीरे धीरे बीत रहे थे। मुसाफिर अपनी तरह खुष था और औरत अपनी तरह।
मगर जैसे जैसे मुसाफिर की असर्फियां खत्म होने लगी वेैसे वैसे ही। सराय मालकिन के अलाव की आग भी मद्धम होती जा रही थी।
एक दिन ऐसा भी आया जब उसके पास मुसाफिर के लिये तनिक भी तपिष न थी।
एक रात जब उस मासूम मुसाफिर ने औरत को एक दूसरे रईस मुसाफिर के साथ अलाव तापते देखा तो काफी मायूस हुआ।
मुसाफिर ने उसी वक्त अपना सारा असबाब एक बार फिर अपने कांधे पर लादा। वही असबाब दो चार कपडे लत्ते कुछ किताबें और अपना हुक्का जिसे वह सिर्फ सुबह षाम तसल्ली से पीता था।
तब से आजतक एक बार फिर वह मासूम मुसाफिर सफर में है। एक अंतहीन सफर में।
जानते हो वह मुसाफिर कोई नही यह कलमकार ही है।

यह कह के मुसाफिर ने अपनी कलम बंद कर दी।
मगर ...
कुछ लोगों का कहना है वह मासूम मुसाफिर अभी भी भटक रहा है उस रेगिस्तान में अपनी मुकम्मल मंजिल की तलाष में। जिसमें अभी भी कुछ चिंगारियां सुलग रही है वक्त और माकूल हवा के इंतजार में। मगर वह अभी भी नही चाहता कि यह आग जब सुलगे तो कोई हाथ सिर्फ तापने भर को आये।
कुछ जानने वालों का कहना है कि .....
वह मासूम मुसाफिर किन्ही बियाबानों में भटकते भटकते फना हो गया। जिसे किसी भले इन्सान ने वही रेत में दफन कर दिया उसकी किताबो और हुक्के के साथ। हालाकि हुक्के में कुछ राख और आग अभी भी बची थी।
दफनाने वाले ने उसकी कब्र पे उसी की चादर ओढा दी थी।
और उसी की किताब का यह असरार भी टांक दिया।

मुहब्बत को हमने अलविदा कह दिया है।
खु़द अपने अरमानों को कफ़न दे दिया है


मुकेश श्रीवास्तव


2 comments:

  1. "मुहब्बत अलाव की आग है जो पहले तेज जलती है फिर धीरे धीरे जलती है बहुत देर तक। यह आग राख के अंदर भी धीरे धीरे सुलगती रहती है। जो कभी भी जरा सा कुरेदने से फिर भडक उठती है। और मुहब्बत ही वह आग है जो जलने के बाद इंसान को सुहानी तपिश भी देती है और जिंदा रहने की ताकत भी बनती है। "
    बहुत ही मन भावन कहानी हैं ..इंसान की फितरत होती हैं जब तक उसका काम नहीं निकलता वो सेवा में हाजिर रहता हैं जहाँ काम निकला की आँखें फेर ली यही दुनियां हैं और ऐसे ही यहाँ के वाशिंदे हैं ...

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  2. मुहब्बत अलाव की आग है जो पहले तेज जलती है फिर धीरे धीरे जलती है बहुत देर तक। यह आग राख के अंदर भी धीरे धीरे सुलगती रहती है। जो कभी भी जरा सा कुरेदने से फिर भडक उठती है। और मुहब्बत ही वह आग है जो जलने के बाद इंसान को सुहानी तपिष भी देती है और जिंदा रहने की ताकत भी बनती है।’........................................................................‘हां, तुम्हारी बात ठीक है पर इस आग से सिर्फ ठंठ से बचने के लिये हाथ तापा जाये तो ठीक वर्ना बेठीक, अक्सर लोग इस आग से अपने वजूद को ही जला लेते हैं। जिससे मै इत्तिफाक नही करती।’..............................

    bahut achhi lagi is musafir ki kahani.................... aur ye bhi sach hi hai,............. duniya hai iske saath chalna hota hai,,,, jo na chal saka ,,, wo sari umar bhatakta rehta hai......... darasal sachhai bhi yahi hai ki hum sab musafir hi hai.... hum kabhi kabhi apne padav ko hi apni manzil samajh lete hai,,,, jo ki dharm ,,granth ,,sabme kaha gaya hai,,,ki pehle khud ko talash karo,,, aur ye ek nirantar chalne wala safar hai,,, mushkil raah hai ,,, aur is raah ko kabhi kabhi manzil bhi nahi mil paati.... isiliye apne padav ko hi apni manzil samajh baith te hai,,,,

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