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Friday 12 October 2012

तुमने कभी सांवली सलोनी सजीली रात को देखा है ?

 सुमी -- तुमने कभी  सांवली सलोनी सजीली रात को देखा है  ?
जब आसमा में न तारे होते है न चन्दा होता है - सब के सब
जुदा हो गए होते हैं ये रूठ चुके होते है - तब भी ये सांवरी
कजरारी रात अपने में खोई खोई - सिमटी सकुचाई सी अपना
आँचल पसारे सारी कायनात को अपने में समेटे रहती है -
 और --- ---- उसे ये एहसास रहता है की कभी तो सहर होगी और वो दिन के
मजबूत बाजुओं में अपना सर रख के सो जायेगी - शाम होने तक के लिए
और फिर   -------
रात इसी इंतज़ार में गलने लगती है धीरे धीरे हौले हौले - कभी कभी वो भी
संवराई रात उदास होने लगती है की शय सहर न भी हो और वो यूँ ही दम तोड़
दे इन स्याह ऋतुओं में पर ऐसा होता नहीं ऐसा होता नहीं  --
सहर होती है - रात मुस्कुराती है  -
और फिर फिर दिन के बाजुओं में आ के मुस्कुरा देती है  -
तब ये फूल ये पत्ते ये भंवरे - या हवाएं सब मस्त मगन नाचते हैं - गुनगुनाते है -
और इसी तरह मेरे सुमी एक दिन तुम भी सुबह की तरह खिलोगी हंसोगी मुस्कुराओगी
और उस दिन तुम हमें भूल जाओगी - भूल जाओगी  - भूल जाओगी

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------------------

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