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Wednesday 25 June 2014

न वो जज़्बात बाकी हैं

न वो जज़्बात बाकी हैं
न वो एहसास बाकी हैं
न जाने क्यूँ,,
फिर भी,

न वो जज़्बात बाकी हैं लहरें साहिल के सीने पे
अपना सिर फिर- फिर
पटकती हैं।
उधर,
अँधेरा पूंछता है
हमसे ये आ,आ कर
उजाला क्यूँ मिला तुमसे
इस उम्र में आ कर
जबकि,
न वो जज़्बात बाकी हैं
न वो एहसास बाकी हैं
हमने ,
इक उम्र गुज़ारी है
अंधरे के आँचल में
अब इस उम्र में आकर
कैसे छोड़ दूँ उसको
उजाले की ज़द में आकर ?
जबकि,
न वो एहसास बाकी हैं
न वो जज़्बात बाकी हैं
छोड़ आया हूँ इन बातों को
वक़्त के उन पड़ावों पे
जिनकी न तो
याद बाकी है
न निशान बाकी हैं
अब तो,
ढूंढता हूँ खुद को
अंधेरों की इन रिदाओं में
जहां न कोई आस बाकी है
न कोई पहचान बाकी है

मुकेश इलाहाबादी -------

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