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Wednesday 4 June 2014

ज़मी भी सिसकती है -----------------------

सुमी,

तुमने कभी ज़मी को सिसकते सुना है ? नही  न। 
हाँ , कैसे सुनोगी, क्योंकि ज़मीन की सिसकन में कोई आवाज़ नहीं होती।  वो बड़ी खामोशी से सिसकती है, औरत की तरह।  जैसे औरत अपने हर दुःख दर्द को अपने अंदर ही अंदर हरहारने देती है, छुपाये रखती है. हाँ ,, जब दर्द हद से गुज़रता है,  तो दिल ही दिल में सिसक लेती है, अपने आंसुओं को खुद ही पोछ लेती है।  अगर कभी सिसकी में कुछ आवाज़ भी हुई तो वह इतनी मद्धम होती है जो बिना गौर से सुने सुनाई ही नहीं देती है।  और फिर ज़माने के इतने शोर शराबे में तो बिलकुल दब ही जाती है, और फिर किसे फुर्सत है जो सुने ज़मी की सिसकी को।

हाँ, अगर कभी तुम ज़मी के दुःख दर्द को महसूसना चाहो, सुनना चाहो, उससे एकाकार होना चाहो तो तुम्हे, उस वक़्त का इंतज़ार करना होगा , जब  रात अपना आँचल फैला चुकी हो, पूरी दुनिया दिन भर की थकन के हल्ले- गुल्ले और थकन के बाद सो चुकी हो. सिर्फ और सिर्फ बच रहा हो, तारों भरा आकाश - निचाट काला - धूसर आकाश - जो कभी कुछ नहीं कहता  किसी  से कुछ नहीं बोलता, किसी बात पे कोई  प्रतिक्रिया नहीं करता - निर्विकार निःशब्द - निर्गुण निराकार  ईश्वर सा, हाँ उसी वक़्त जब - जंगल के सारे के सारा पशु - पक्षी भी अपने अपने नीड़ों में , घोसलों में, गुफाओं में झपकी ले रहे हों, इंसान ही नहीं जानवर सभी अपने अपने ख़्वाबों की दुनिया में विचरण कर रहे हों। किसी को किसी के वज़ूद का पता न हो।  सारा आलम चुप और खामोश हो। नदियां भी अपनी रवानी छोड़ गुमसुम हो गयी हो, यहां तक कि समंदर भी अपनी तमाम उत्ताल तरंगो को अपने सीने में छुपा के सो गया हो, बस तब तुम ऐसे में चुपके से अपने कानो को थोड़ा सजग कर लेना, अपनी समस्त संवेदी कोशिकाओं को खुला छोड़ देना तब तुम सुन पाओगी कि ज़मी भी सिसकती है।  ज़मी के भी अपने दुःख दर्द होते हैं।

दर- असल, ज़मी तो अपनी धूरी पे सदियों सदियों से घूम रही है नाच रही है और नाचती रहेगी और नाचती रहना चाहती है।  नाचना घूमना उसका मूल स्वभाव है।  यही नाच ही तो है जो उसके वज़ूद ज़िंदा रखे है। 

ज़मी जब सूरज की मुहब्बत में अपनी सतरंगी लिबास फहरा के नाचती है।  ये जब नाचती  है तो बहुत खूबसूरत लगती है। जिसकी ख़ूबसूरती तो चाँद से देखने लायक होती है।  विश्वास न हो तो उससे पूछना जो चाँद पे हो आये हैं या  की अंतरिक्ष में झाँक आये हैं।  वह बताएगा - गर तुम ऐसा नहीं कर सकते तो तुम कम से कम क्सिी पहाड़ की चोटी पे चली जाना और वहाँ से देखना।  या फिर किसी उड़न तस्तरी पे बैठ के बादलों की ओट से देखना तब यही हमारी प्यारी ज़मीन प्यारी धरित्री कितनी प्यारी लगती है।  सच ! इसके नाचने से घूमने से ही तो सुबह होती है।  इतनी खूबसूरत साँझ होती है।  मौसम बदलते हैं , कभी सर्दी , कभी गर्मी तो कभी बरसात होती है।  और तब ज़मी का परिधान धानी धानी हो जाता है। 
तो मै ये कह रहा हूँ सुमी, की ज़मी का मूल स्वभाव तो नाचना है खिलखिलाना ही है। पर जब यही ज़मी अपने बच्चों को ज़रा - ज़रा सी बात पे, कभी धन के लिए तो कभी सत्ता के लिए तो कभी मज़हब के नाम पे लड़ते झगड़ते देखती है तो उदास जो जाती है।

वैसे तो ज़मी ने अपने आँचल से अपने बच्चों के लिए क्या क्या नहीं उलीच के दिया एक से एक खूबसूरत तोहफ़े देती आई है और देती रहती है।  वो फल हो फूल हो खनिज हो, मगर वह दर्द से तब बिलख उठती है जब इंसान उसके सीने को तोप-गोलों और बारूदों से रौंदता है।  मज़हब और विकास के नाम पे इसे ज़मी को कभी परमाणु बम से तो कभी एटम बम का प्रयोग कर के इसके सतरंगी आँचल को तार तार कर देता है।  वैसे, वह अपने आँचल को तार-तार होते भी देख लेती सह लेती चुप रह जाती पर जब वह देखती है उसके नादान बच्चे एक न एक दिन इस खतरनाक खेल से खुद को लहूलुहान कर लेंगे और कुछ हद तक कर भी लिया है।  तब वह उदास हो जाती है।  और --- सिसकने लगती है।

वैसे इस ज़मी के और भी दर्द हैं जिसे कोेई औरत ही समझ सकती है, शायद इसी लिए मानव समाज की हर सभ्यता ने ज़मी को 'माँ 'का दर्ज़ा दिया है।  और हम ऐसे है की अपनी ही माँ को रौंदते हैं तोड़ते हैं रुलाते हैं।  और इसकी रुलाई कोई कोई तवज़्ज़ो नहीं देते हैं। 

सुमी , तुम  तो एक औरत हो न , तुम ही किसी दिल इसकी सिसकी सुनना और तुम ही इन नासमझ लोगों को समझाने का बीड़ा उठाना।

मेरी अच्छी सुमी तुम करोगी न ऐसा ???

मुकेश इलाहाबादी --------------------------






 

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