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Friday 6 June 2014

तुमने कभी जंगल देखा है ?

सुमी,

तुमने कभी जंगल देखा है ?

जंगल बीहड जंगल, जहां सब कुछ बेतरतीब होता है। जिसकी बेतरतीबी में ही तरतीब होती है, एक खूबसूरती होती है। एक भव्यता होती है। जो कभी लुभाता भी है तो डराता भी है।
वही जंगल बीहड जंगल जहां बडे बडे पेड होते हैं चीड के सागौन के महुआ के अषोक के देवदार के महोगनी के। जिनमे कुछ तो इतने कंटीले होते हैं कि जिनसे जिस्म छू भर भी जाये तो अंदर तक छिल जाये। जिस्म तार तार हो जाये। इनमे कुछ तो इतने घने होते हैं कि गर आसमान थोडा भी झुक जाये तो व उसे छू लें, कुछ पेड इतने गझिन होते हैं कि जिनकी छांव मे बैठते ही मुसाफिर की सारी थकन छू मंतर हो जाये। यही जंगल मे तुम्हें अन्जान मुसाफिरों के लिये कंदमूल भी मिल जायेगा जिसे खाकर भगवान राम ने वनवास के चौदह साल विताये थे। यहीं तुम्हे धतूरा भी मिलेगा जो षंकर भगवान का प्रिय फल है यहीं तम्हे आम और महुआ जैसे मीठे फल भी मिल जायेंगे। इन्ही जंगलों मे तुम्हे अमर बेल भी किसी पेड से लिपटी मिल जायेगी जिसके रस को पी कर कहा जाता है इन्सान अमर हो जाता है यहीं तुम्हे किसी  किशोरी सा शरमा जाने वाली लाजवंती भी मिल जायेगी। यहीं तुम्हे हरडा, बहेडा और आंवला भी मिलेंगे जिनसे त्रिफला चूर्ण जैसी अचूक आयुर्वदिक औषधियॉ बनायी जाती है। इसी जंगल में तुम्हे नीम इमली भी मिलेंगे। यहीं पे बटब्क्ष भी मिल जायेगा जिसके नीचे बैठ के इन्सान बुद्धत्त की उंचाइयों को भी छू सकता है। जंगल में तुम्हे ऐसे भी दरख्त मिलेंगे कि जिनमे एक भी पत्ता हरा नही होता बस ठूंठ सा खडे रहते हैं वर्ष भर निचाटं,पेडों के बीच मे अपनी उरियानियों के साथ मस्त और मगन, पूरी षान से।
सुमी, जंगल वो जगह होती है। जहां नदियॉ इस तरह अठखेलियां करती हैं जैसे किसी नवयौवना को सावन, सखियॉ और अमराई एक साथ मिल गये हों। वे वहा उछलती बिछलती बहती रहती हैं किलोल करती रहती हैं। ये कभी पत्थरों का सीना चीरकर खिलखिला कर आगे बढ जाती हैं तो कभी यूं ही मंद मंद बहती रहती हैं।
यंहा तुम देखोगी कि कहीं पर पत्थरों की षिराओं से जल धारा रिस रिस के कोटर सा बना रही हैं या फिर बेहद पतली धार मे बह रही है। मानो जंगल रो रहा हो कभी खुषी के ऑसू तो कभी दुख के ऑसू। इन्ही जंगलों मे तुम झील भी देखोगी जो इस जंगल की नीरवता में नीरव और षांत भाव से बहती रहती है। जिसका जल दिल में स्फटिक सा पारदर्षी और नीला होता है। जिसकी तलहटी में रात को चॉद भी उतर आता है और इसकी कुवारी और छोटी - छोटी लहरों के साथ छुपा छुपी खेल जाता है। इसी षांत झील में तुम कभी जंगल के राजा षेर को तो कभी सबसे चालाक जानवर सियार और लोमडी को भी अपनी प्यास बुझाते देख सकती हो। इसी जंगल में तुमको चिंघाडते हुये गजराज भी दिख जायेंगे जो अपनी मस्त चाल से जंगल को हिला देते हैं। वो गजराज जो एक ही बार में अपनी सूडं से पूरा का पूरा दरख्त उखाड लेते हैं। और झुंड के झुंड में चलते हैं जबकि षेर अकेला और तनहा ही रहता है और चलता है। जो कि जब तक भूखा न हो किसी से कुछ कहता नही बोलता नही भले ही मूसक राजा उसकी नींद में उसकी नाक पे चढ जाते हों।
तुम्हे इस जंगल में ही अपनी चोंच से मजबूत से मजबूत पेड़ के तने को तोडता हुआ कठफोडवा दिख जायेगा। गाती हुयी बुलबुल मिलेगी। कोयल मिलेगी। हरियल तोता भी किसी डाल में किसी फल को कुतरते मिल जायेगा। इन पडों की डालों पे उछलते कूदते खिखियाते मसखरे बंदर भी दिखेंगें। सचमुच तुमको जंगल मे बहुत कुछ मिलेगा। यहां एक के पीछे एक कतार मे चलती हुयी चीटियों की क़तारें भी मिल जायेंगी। किसी झाडी के पीछे से अपने खूबसूरत कानों को खडा किये चमकीली ऑखों से झाकता खरगोष भी दिख जायेगा जो जरा सा भी आहट पाते ही कुलॉचे मार भागा जाता है। यहां तुम्हे सांप और अजगर भी रेंगते हुये मिलेंगे अपनी मस्ती में दिखेंगे। एक से एक जहरीले साप जिनके काटे का कोई इलाज नही होता। कोई मंतर नही होता । हां इन सबमे कोई इतना जहरीला सांप न मिलेगा जितना कि इंसान होता है।
सुमी जंगल मे एक अलग दुनिया ही बसी होती है। गर किसी इंसान ने अपनी जिंदगी मे जंगल नही देखा तो कुछ भी नही देखा। सच जंगल की खूबसूरती के आगे पेरिस, न्यंयार्क और रोम की खूबसूरती भी फीकी पड जाये।
सुमी, सच जंगल एक ऐसा जादू होता है जिसके जादू मे एक बार आ जाने के बाद शहर का जादू काम नही करता। तभी तो जितने भी
ज्ञान पिपासू रहे हैं। या साैंदर्य प्रेमी होते आये हैं उन सभी ने कभी न कभी जंगल का रुख किया ही किया है।
सच सुमी जंगल ही तो है जहां हरियाली बच रही है वर्ना अब तो ज़मी से हरियाली गायब ही हो गयी है। गांव मे तो खेती के मौसम में थोडी बहुत हरयिाली दिख भी जाती है पर षहरों मे तो बस गमलों मे ही बच रही है।
खैर, तो सुमी, जंगल ही हैं जो हमे जीवन देते हैं अगर ये जंगल न होंते तो हम कब के मर खप गये होते। इन्ही जंगलों की वजह से तो बारिस होती है। बरसात में उफनती नदी के वेग को भी तो यही जंगल रोकते हैं।
यही जंगल ही तो हैं जो हमे लकडी देते हैं, फल देते हैं फूल देते हैं। तरह तरह की औषधि वाली जडी बूटियॉ देता है। और धरती की हारमनी को बनाये रखता हैं।
मगर आज का इंसान है इन्ही जंगलों को काट रहा हैं। खतम कर रहा है। बिना ये सोचे कि जिस दिन ये जंगल न रहेंगे तो हम भी न रहें गे।
खैर ... सुमी तुम मुझे भी ऐसा ही एक जंगल जानों जिसके सीने में न जाने कितने बबूल और नागफनी डेरा डाले हुये हैं। भावों और विचारों की न जाने कितनी नदियॉ हर वक्त उफनाती रहती हैं। जिनमे गर एक बार डूब जाओ तो उबरना मुस्किल हो जाये। सच तुम इस वजूद के अंदर इन पेड पौधों और झाड़ियों  के अलावा न जाने कितने खतरनाक जानवर भी पाओगी जो कभी कदात ही पहचान मे ंआते हैं वर्ना आमतौर से तो इंसान की खाल में छिपे रहते है। तुम इस वजूद के अंदर शेर जैसी बहादुरी भी पाओगी तो लोमडी जैसी चालाकी भी पाओगी हाथी जैसी बुद्धिमता भी मिलेगी तो चूहे जैसी कुतर्की बुद्धी भी मिलेगी।
तो सुमी गर तुम जंगल में न भी जाना चाहे तो एक बार मेरे संग साथ रह लेना तुम्हे एक साथ पेड, पहाड, नदिया, झील, पशु - पक्षी और जानवर मिल जायेंगे।

बाकी तुम्हारी मर्जी।

मुकेश   इलाहाबादी



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