Pages

Tuesday 24 July 2018

रात एक बदहवास नदी है

रात एक बदहवास नदी है
------------------------------


सांझ ,
गहराते ही
रात की काली नदी में तब्दील हो जाती है
और मै उसमे रोज़ सा, उतर के
हिलग के तैरने लगता हूँ
तभी न जाने कँहा से
तुम्हारी चाँदी सी चमकती बाँहों की
मछली मेरे साथ - साथ तैरने लगती है
जैसे मेरा सिर पानी के ऊपर रहता है - तैरते वक़्त
ठीक वैसे ही तुम भी अपना मुँह नदी की सतह के ऊपर - ऊपर कर के
तैरने लगती है - वो तुम्हारी चाँदी सी चमकती बाँहों की मछली
हम दोनों खुश हैं -
तुम भी तैर रही हो - हौले - हौले
मै भी तैर रहा हूँ - हौले - हौले 
अचानक, न जाने कँहा से एक बड़ी सी मछली
नहीं - नहीं एक बड़ा सा मगरमच्छ नदी की सतह में उभरता है
और वो हम दोनों की तरफ अपने जबड़े फैलाये - फैलाये  बढ़ने लगता है
तुम डर के नदी में डुबकी लगा के
अपने डैनो को फड़फड़ाते हुए न जाने कँहा विलीन हो जाती हो
रात की उस साँवली नदी में
और मै तेज़ तेज़ हाथ पैर मारता हुआ
दूर तक निकल जाना चाहता हूँ
उस बड़ी मछली से - नहीं नहीं उस मगरमच्छ से बहुत दूर
तेज़ - तेज़ और तेज़ तैरते तैरते मै हाँफने लगता हूँ
बदहवास हो जाता हूँ
पसीने पसीने हो जाता हूँ
और -- तभी मेरी नींद खुल जाती है
और - मै घबराया हुआ अपने आप को अपने बिस्तर पे पाता हूँ
और - फिर एक लोटा पानी पी कर फिर से
देर तक घूरता रहता हूँ
सपाट दीवारों को
पर हिम्मत नहीं होती दोबारा रात की उस सांवली नदी में उतरूं

अक्सर ऐसा क्यूँ होता है मेरे साथ ??
क्या तुम्हे पता है ???
सुमी ! अगर तुम्हे पता हो तो बताना ज़रूर

मुकेश इलाहाबादी -----------------------------

No comments:

Post a Comment