शहर में ऐसा कोई घर नहीं
जंहाँ ग़म का बिस्तर नहीं
इन आखों में जो दरिया है
उससे बड़ा तो समंदर नहीं
जो कुछ भी हूँ मेहनत से हूँ
मुक़द्दर का मै सिकंदर नहीं
गरीब सही, मन का राजा हूँ
किसी का मै का नौकर नहीं
टुकड़े - टुकड़े बिखर जाऊँगा
मुकेश मै कांच हूँ पत्थर नहीं
मुकेश इलाहाबादी -----------
जंहाँ ग़म का बिस्तर नहीं
इन आखों में जो दरिया है
उससे बड़ा तो समंदर नहीं
जो कुछ भी हूँ मेहनत से हूँ
मुक़द्दर का मै सिकंदर नहीं
गरीब सही, मन का राजा हूँ
किसी का मै का नौकर नहीं
टुकड़े - टुकड़े बिखर जाऊँगा
मुकेश मै कांच हूँ पत्थर नहीं
मुकेश इलाहाबादी -----------
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