Pages

Thursday 29 May 2014

सुबह और सांझ का आलम इतना खूबसूरत और हंसी क्यूं होता ह

सुमी,
क्या तुम जानती हो, सुबह और सांझ का आलम इतना खूबसूरत और हंसी क्यूं होता ह ? ग़र नही तो सुनो ...

यामिनी, जब अपना सांवला ऑचल फैलाये फैलाये क़ायनात के आँगन  मे चॉद तारों के संग खेल खेल के थक चुकी होती है तब उसे अपने प्रेमी ‘उजाला’ यानी कि दिवस की याद आती है और वह अपना आंचल समेट चल देती है, दिवस से मिलने, उधर दिवस भी अपनी प्रेमिका यामिनी के लिये पलकें पांवडें बिछाये इंतजार कर रहा होता है। और वह अपनी सूरज की किरणों रुपी बाहें फैला देता है स्वागत में।
यामिनी धीरे धीेरे दिवस की बाहों मे सिमटने लगती है, गलने लगती है, पिघलने लगती है खोने लगती है।  और ....
उधर ....
यामिनी और दिवस के इस महामिलन को देख क़ायनात का ज़र्रा ज़र्रा नाच उठता है। फूल खिलने लगते है, कलियॉ मुस्कुराने लगती है, चिडियॉ चहचहाने लगती हैं भंवरे बाग मे गुनगुनाने लगते हैं। मंदिर में घंटे और मस्जिद में अजान के स्वर सुनाई देने लगते हैं। नदियॉ अंगडाई ले के बहने लगती हैं हवांएं ठण्डी हो कर बहने लगती हैं बृक्ष झूमने लगते है।
तुम कह सकती हो पूरी की पूरी क़ायनात खिलखिलाने लगती है।

सारा इस महामिलन का साक्षी हो उठता है।
तभी तो इस खूबसूरत वक्त को भी खुदा ने अपने लिये चुना है। कहा है कि गर तुम इस वक्त मे उसे पुकारोगे तो वह तुम्हारे अंतस की यामिनी से दिवस का उजाला बन मिलने जरुर आयेगा।
और सुमी यामिनी व दिवस के इस महामिलन केा हर एक संजीदा दिल ने हर एक कवि ने कलाकार ने संगीतकार ने बयॉ किया है उकेरा है कभी गीतों मे तो कभी रागों मे कभी षब्दों मे कभी कागज पे कभी पत्थरों पे तो कभी छंदों मे । जिनकी बानगी तुम देख सकती हो वेद की ऋचाओं मे कुरान की पॉक आयतों में, नानक के षबद में कबीर के दोहों में और मीरा के भजनों मे।
और ----  इसी तरह जब ‘दिवस’ दिन भर की भाग दौड से थक चुका होता है। तन और मन दोनो व्याकुल हो रहे होते हैं। जिस्म का पोर पोर थकन से चूर चूर हो रहा होता है तब उसे अपनी यामिनी की बेतरह याद सताने लगती है, वह अपनी मुहब्ब्त से मिलने सब कुछ छोड़ छाड़ चल देता है। उधर यामिनी भी इस मिलन के लिये अपना सांवला आंचल और काले गेसू फैलाकर स्वागत के लिये आकुल व्याकुल दिखती है। और धीरे धीरे दिवस रात के ऑचल मे गिरने लगता है, पिघलने लगता है, सिमटने लगता है। यहां तक कि अपने वजूद को ही खोकर खुद को मिटाने लगता है।
दूसरी तरफ  ...

सारे जहांन का जर्रा जर्रा दिन और रात के इस मिलन को खामोषी से देखने लगता है। तब शेष रह जाती है। नदियों की शांत होती लहरें, मंदिर की घंटियां  आरती की आवाजें, मस्जिद से आती मग़रिब के नमाज की आवाज। जो इस महामिलन मे अपना सुर संगीत छेडे रहती है। और का़यनात एक बार फिर उत्सब में डूबी होती है।

तों सुमी, अब तो तुम समझ गयी होगी कि जिन लम्हों में सब कुछ सब कुछ खिल खुल और मुस्कुरा रहा होता है। वह पल इतना मोहक खूबसूरत और हंसी क्यूं होता हैं।

तो आओ क्यूं न हम और तुम भी यामिनी और दिवस की तरह इस महामिलन के साझी बन जायें।

वैसे जानकार इस यामिनी को अज्ञान और दिवस को ज्ञान कहते हैं। कुछ लोग इस मिलन संध्या को आत्मा व परमात्मा का मिलन भी कहते हैं।

बहरहाल आओ हम लोग भी क्यूं न उस यामिनी और दिवस बन जायें इसे आलम के साक्षीदार हो जायें, साझीदार हो जायें

खुदा के करीब हो जायें ।

तुम्हारा,

मुकेश ----

No comments:

Post a Comment