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Monday 26 May 2014

रह रह के चिलमन से झांक जाते हैं


रह रह के चिलमन से झांक जाते हैं
हर बार हमको वंही पर खड़ा पाते हैं

झट से परदा सरका के लौट जाते हैं
कुछ सोचते हैं मुस्काते हैं झुंझलाते हैं

टी वी ऑन करके चैनल कई बदलते हैं
कभी पुरानी किताब के पन्ने पलटाते हैं

कभी बेवज़ह पंखा तो कभी घड़ी देखते हैं
दो चार फालतू फालतू फ़ोन घनघनाते हैं

फिर अचानक चिलमन पे लौट आते हैं
हमको वंही पा के फिर झुंझला जाते हैं

देख देख कर उनकी ये बेचैनी बेकरारी
हम  सोचते हैं वे हमारे लिए ही आते हैं

मुकेश इलाहाबादी -------------------------

 

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