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Sunday 25 May 2014

एक दिन मै छत पे,तनहा था

एक दिन
मै छत पे,तनहा था
और तनहा चाँद को देख रहा था
चाँद रूई के फाहे सा शुभ्र और कोमल था
चाँद की मुस्कराहट में हल्की सी उदासी थी
वो उदासी सब को नहीं दिखती थी
सिर्फ तनहा लोगों को दिखती थी
मै रोज़ रोज़ उसे देखता
सिर्फ, चुप-चाप उसे देखता
बोलता कुछ भी न था मै
एक दिन चाँद ने खुद ब खुद पूछा
'तुम मुझे इतने गौर से क्यों देखते हो'
मैंने कहा ' तुम्हे तो मै  ही नहीं पूरी दुनिया देखती है '
चाँद ने कहा ' तुम्हारे देखने में और दुनिया दे देखने में
अंतर नज़र आता है इस लिए पुछा
वैसे मुझे भी मालूम है मै सुन्दर हूँ
मैंने जवाब दिया ' हाँ ये सही है - मै भी
तुम्हारी सुंदरता के कारण अाकर्षित  हूँ
पर  मै तुम्हरी इस खूबसूरत मुखड़े के पीछे
एक उदासी भी देखता हूँ '
चाँद मुस्कुरा दिया
'तुम्हे इससे क्या -
तुम्हे तो मेरी सुंदरता से मतलब है
तुम्हे मेरी चांदनी से ग़रज़ है'
मैंने भी ज़िद ठान ली
'अगर तुम अपना दुःख नहीं बताओगी मुझसे
तो मै यही बैठा रहूँगा तनहा खाली छत पे
अनंत अनंत काल तक के लिए
यंहा तक की बैठे बैठे फना हो जाऊंगा
तब से चाँद से मेरी दोस्ती हो गयी है
और अब हम दोनों खूब बातें करते हैं
अब तुम चाँद का नाम मत पूछना
फिलहाल मै मुझे चाँद से मिलने जा  रहा हूँ
क्यूँ की छत पर वो भी तनहा होगा मेरी तरह

मुकेश इलाहाबादी ---------------------------------

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