तुम्हे क्या मालूम नदी मे भी आग होती है
बुझाकर प्यास औरों की खुद सुलगती है
साँझ होते - होते किनारे सो जाते हैँ
साहिल क्या जानें नदी दिन - रात बहती है
कभी सहरा कभी जंगळ कभी बस्ती
नदी जाने किस- किस राह गुज़रती है
सैकड़ों नदियां हैं समंदर क़ी बाहों मे
फिर भी नदी उसी की आस मे बहती है
है मुकेश मीलों तक फैला रेत का मंजर
जाने क्यूँ हर नदी मुझसे दूर बहती है
मुकेश इलाहाबादी ------------------------
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