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Wednesday 21 March 2012

चॉद और डैम


चॉद और डैम
डैम का गहरा नीला पानी पूरी तरह शांत था। बिलकुल खामोश  रोज की तरह। कंही कोई हलचल नही आवाज नही। चारो तरफ खडे पहाड भी किसी योगी की तरह खडे थे समाधिस्थ।चारो तरफ हर वक्त एक सन्नाटा पसरा रहता। जो कभी कभी मोटरसायकिल की फटफट या किसी बैलगाडी की चरर मरर और गाड़ीवान के हर्र.हर्र से थोडी देर के लिये भंग होती फिर वही सन्नाटा पसर जाता है। मानो रह रह के जल मे कोई छोटा सा कंकड डाल दिया जाता हो और लहरे थोड़ी  दूर जाके फिर शांत  हो जाती हों।


आसपास  बसे लगभग आधा दर्जन गांवो का जीवन भी तो बांध के पानी की तरह  है। उपर से कितना शांत हलचल रहित पर अंदर से कहीं गहरा तो कहीं उथला कहीं जंगली झाडियां तो कहीं पेडो के ठूंठ खडे हैं। लेकिन ये सारी चीजे उनके जीवन के अन्दर  उतर के ही जानी जा सकती हैं। किनारे  पे बैठ के नही। पर कभी कभी उपरी सतह पर भी कुछ हलचल होती रहती है जो  मेरे जैसे व्यक्ति को किनारे पे बैठ के भी दिखायी पड जाती है। जो कुछ देर के लिये विचलित करती है फिर शांत  हो जाता हूं इसी डेैम के पानी की तरह। भाव शून्य,संवेदना शून्य।

रधिया को देख कर कुछ ऐसे ही खयाल मन मे आने लगे थे। अन्दर  ही अन्दर खलबली सी मच गयी थी । पर रधिया के  भोले व शांत चेहरे को देख कर ये अनुमान भी नही लगाया जा सकता कि उसके जीवन मे अभी अभी कितना बडा तूफान आके गुजर चुका है। वह अपनी ही धुन मे गोबर का टोकरा रखे गोशाला की दीवार मे पथे हुए उपले बीनने जा रही थी।

गंदुमी रंग भरे बदन साधारण नाक नक्ष की कुछ कुछ आर्कषक सी यह गवई गोरी अचानक उस दिन मेरे लिये पक प्रेम कहानी का पात्र्र बन गयी। एक लहर बन गयी बंधे हुए पानी की लहर जिसे थोडी देर बाद जाके गुम हो जाना है अथाह जल मे ।

रधिया की पीठ मेरी तरफ थी। छी्रट दार ढीला ढाला सलवार शूट  व दुपटा उसके शरीर  के उभार छिपा नही पा रहे थे। भरे हुए गोल गोल मान्शल  नितंब हौले हौले हिलते तो लगता मानो  बांध के पानी मे कोई नाव धीरे धीरे बह रही हो।उसके शरीर के कटाव भराव व गोलाइयां मन मे एक अजीब सी खुमारी पैदा कर रहे थे। आंखे लगातार रधिया के उपर टिकी थीं। उधर रधिया अपनी अलमस्त अदा से व बेफिक्री से उपले बीनती जा रही थी। उपले निकालते समय उसके हांथ व नितंब भी एक लय के साथ हिलते जिन्हे देख कर अजीब सी हलचल मचने लगती।

जिससे बचने के लिये आंखे दोबारा डैम के ठहरे हुए पानी मे टिका दी मन कुछ अलग विषय पे सोचने की कोशिश मे था कि एक मछली उछल के पानी के बाहर आयी और फिर पानी मे डूब गयी। आस पास का पानी हिलने लगा उसमे कुछ परछाईंया   नजर आने लगीं। परछाइया गहरी होने लगी। परछाइयो मे कुछ अक्श उभरने लगे किसी फिल्म की तरह। और वे चेहरे आपस मे  गडड मडड होने लगे।


रधिया का चेहरा - रामजस का चेहरा- उसके नौकर बल्लू का चेहरा
तीनो चेहरे अलग अलग हो कर अपनी अलग पहचान बना पाते या उनमे एक सूत्रबद्धता ढूंढ पाता तभी सूरज पष्चिमी छितिज पे डूबने लगा षाम गहराने लगी सन्नाटा कुछ ज्यादा ही सांय-सांय करने लगा । बिलकुल उस रात की तरह।

रात के ग्यारह बज रहे थे। दिन भर की भागदौड के बाद बिस्तर पे लेटा ही था कि कपूर साहब का हरकारा आया। सूचना दी। साहब तुरंत बुला रहे हैं। आगे कुछ पूछता कि फोन की द्यंटी बजने लगी उधर से कपूर साहब ही थे बोले ‘यार जल्दी आजाओ एक समस्या आगयी है’ मैने ‘यस सर कहा’ जल्दी जल्दी कपडे पहने मोटर साइकिल उठाई और कपूर साहब के गेस्ट हाउस की तरफ चल दिया। 

मौसम एक हद तक ठंडा था फिर भी कपूर साहब सिर्फ कुर्ता पजामा व हवाई चप्पल पहने कमरे के बाहर टहल रहे थे। काफी बेचैन से नजर आ रहे थे। देखते ही लपक के आये जीप की चाबी देते हुए बोले ‘जल्दी नयी साइट की तरफ चलो’ और आगे की सीट पे बैठ गये। मैने गाडी पे एक गार्ड को बैठाया और पहाडी इलाके  के लगभग दो हजार एकड मे बसी कम्पनी कैम्पस के उबड खाबड रास्तो मे जीप को दौडा दी।
अमावष की रात जंगल मे सांय-सांय कर रही थी। काफी डरावना व भुताहा सा माहौल। कहीं कोई आवाज नही कोई हलचल नही, कभी कभी झींगुरो की भुनभुनाहट जरुर सुनाई पड जाती।
कारण जानने के लिहाज से पूछां ‘सर , कोई ख़ास बात’
‘हां सिक्योरिटी वालो ने सूचना दी है कि नई साइट के पास जो पहाडी नाला है वहां कुछ गांव वाले कोई लाश जला रहे है।’
‘वहां तो कोई शमशान नही है और फिर वह तो अब कम्पनी की जमीन है’
‘इसीलिये तो आप को बुलाया है कि चल कर देखे क्या बात है’
 कपूर साहब ने जवाब दिया
‘पर कम्पनी परिषर मे वे आये कैसे’
‘आप तो जानते ही है कि लगभग सारे सेक्यारिटी गार्ड गांव के ही है। उन्हे डरा धमका के आगये होंगे’
हम लोग यही बात कर ही रहे थे कि गाडी उस पहाडी नाले के पास आ गयी।
सडक के किनारे ही गाडी खडी कर के नाले की तरफ थोड़ी  दूर ही गये होंगे कि अंधेरे मे पंदरह बीस परछाईयाँ हिलती डुलती नजर आरही थी। हम लोग सिक्योरिटी की सूचना पर पूरा पूरा विष्वास कर पाते और टार्च की रोषनी के सहारे सहारे उनतक पहुचते, तब तक आग की लपटों  के बीच कोई लाश  जलती साफ- साफ नजर आने लगी। उन लपटो की रोषनी मे रामजस व षरपंच का चेहरा साफ-साफ नजर आ रहा था। अचानक हम लोगो को देख कर वे लोग कुछ अचकचा गये। सवालिया निगाहो से हमारी तरफ देखने लगे। इस पहाडी इलाके के इतिहाष और भुगोल से ज्यादा परिचित न होने की वजह से और मौके की नजाकत को ध्यान मे रखते हुए मैने ही बात की शुरुआत की
‘सरपंच हम लोगो को सूचना मिली कि यंहा कोई लाश  जलाई जा रही है इसलिये तहकीकात करने आगये हैं। मरने वाला आपका कोई खाश  आदमी था।’ सरपंच ने जवाब दिया
‘नही साहब ये जो अपना रामजस है उसी के यहां एक नौकर था बुल्लू वही आज दोपहर मे डैम  मे नहाते वक्त डूब गया। अभी अभी तो हम लोग पंचनामा व पास्टर्माटम करा के लाये हैं।’
‘वह सब तो ठीक है पर आप लोग हमारे कम्पनी परिषर मे यह सब क्यो कर रहे हैं’ कपूर साहब ने गंम्भीर आवज मे पूछा।
यह सुनते ही रामजस का काला चेचक के दागो वाला चेहरा सुर्ख होने लगा। सरपंच ने बात को सम्हालते हुए कहा ‘कपूर साहब- आपको गलत सूचना दी गयी है। यह षमषान कम्पनी के परिषर मे नही है। आपकी जमीन नाले के उस पार तक ही है । जबकी नाले के इस पार आदिवासियो का षमषान है। यहां आप देख सकते है कई कब्रे भी बनी है।’
हम लोगो ने देखा और जायजा लिया। षरपंच की बात सही थी।
थोडी ही देर मे हम लोग दोबारा अपने क्वार्टर की तरफ चल पडे थे। कपूर साहब ष्षांत और आष्वस्त थे कि लाष उनकी जमीन मे नही जलायी जा रही है। पर मेरे जेहन मे कई सवाल उमड द्युमड रहे थे। उन सवालो के बीच मे रामजस के नौकर बल्लू का चेहरा बार बार उभर आता।
सधारधतःमै आस पास के गांव वालो से ज्यादा मेल मिलाप नही रखता था पर रामजस का मकान कम्पनी के पास ही होने की वजह से अक्षर उसी के द्यर के सामने से गुजरना हो जाता तो उसका नौकर बल्लू जो द्यर के किसी न किसी काम मे व्यस्त रहता था मुझे देखते ही ‘साहब नमस्ते’ कह कर अभिवादन जरुर करता था।
अचानक बल्ल्ूा के मरने की खबर पे विष्वास नही हो रहा था। पर रात के सन्नाटे मे उसकी जलती लाष देख कर विष्वास न करने का कोई कारण नही रह जाता।मन बार बार किसी आषंका से भर उठता और दिल यह मानने को तैयार न होता कि महज यह एक दुर्द्यटना है। यही सब सोचते सोचते न जाने कब मैने कपूर साहब को उनके कमरे छोडा और जाकर बिष्तर पर करवटे बदलते बदलते सो गया।

सुबह रात की द्यटना केा एक सपने की तरह भूल कर रोज की तरह अपने काम मे लग गया । आफिस पहुंचते ही कपूर साहब ने जमीन र्सवेयर को साथ करते हुए बोले आप इसके साथ जा कर कल रात वाले जगह को देखिये की लाष हमारी जमीन पे तो नही जलायी गयी है।

पहाडी नाले के पास पहुचते ही सर्वेेयर नक्षे के हिसाब से जमीन की नाम जोख मे लग गया। मै समय काटने के लिये इधर उधर देखने लगा। पर नजर हर बार बल्ल्ूा की चिता की तरफ ही चली जाती। चिता पूरी तरह जल चुकी थी पर कुछ हडिडयां बिनजली पडी थी। जिसमे से सिसकारी सी सुनायी पडरही थी। मै उन सिसकारियो से अपने आप को बचाने के लिये र्सवेयर के काम को देखने लगा। और उससे जल्दी जल्दी काम खत्म करने को कहा।

र्सवेयर ने तो अपना काम जल्दी ही खत्म कर दिया पर बल्ल्ूा की कहानी खत्म नही हुयी भी वह कई हफतो तक खुषुरपुषुर के रुप मे टुकडो टुकडों मे सुनायी पडती रही जिन्हे मैने इस असंवेदनषील समाज की एक साधरण द्यटना समझ भूल सा गया था।

पर आज रधिया को देख कर टुकडे टुकडो मे सुनी सारी बाते एक एक कर जुडने लगी। डैेम की परछाइ्रयां आपस मेे मिल कर गडड-मडड हो कर सिसकने लगी।

सिसकियां आज से लगभग पंद्रह सोलह षाल पहले की बाते कर रही थी। तब।
डेैम का काम काफी जोरो पे था। सैकडो मजदूर रोज काम पक लगे रहते थे।  दिन भर डैेम के लिये ख्ुादाई करते,ईट गारा ढोते।षाम आस पासे ही अपने अपने चूल्हे जला खाना बनाते पकाते। उन्ही मजदूरो मे एक जोडा इन पहाडियो मे से सबसे उंची पहाडी पर बसी आदिवासी जाति का भी था। मरद का नाम फन्न्ूा और औरत का नाम बुलिया था। पहाड की एक एकड बंजर जमीन उनके पेट की आग षांत करने की जगह उन्हे ही जलाने लगी तो ये लोग उसे छोड डैेम मे मजूरी करने लगे। उनके एक बेटा था। जिसका नाम मरद ने बडे प्रेम से अपनी औरत से मिलता जुलता रखा बुल्ल्ूा।तीनेा काफी खुष थे।

ष्षरकंडे जैसे हाथ पैर से  बल्ल्ूा दिन भर मॉ के अंचरे को पकडे पकडे पीछे पीछे द्यूमता रहता। और उसकी माई गारा मिटटी ढोती रहती। कुछ महीना बाद जब डैेम का काम खत्म हुआ तब तक कम्पनी का काम चालू हो गया। बल्ल्ूा के मॉ बाप अब कम्पनी के लिये ईटा मिटटी ढोने लगे। गाडी अपनी पटरी से उतरते उतरते फिर दौडने लगी।

बल्लू के मा-बाप का झोपडा रामजस के द्यर के पास ही बना था। लिहाजा बल्ल्ूा का बाप व मा रामजस के द्यर का भी छोटा मौटा काम करदेते। बदले मे राम जस भी उनका खयाल रखता।

बरषात के दिन थे। डेैम पूरी तरह लबालब भरा था। बल्लू की माई पीने का पानी लेने के लिये डेैम गयी थी । वही उसका पैर पानी मे फिसल गया और वह दोबारा वापस नही आयी। बल्ल्ूा कई दिनो तक रोता रहा। माई माई चिल्लता रहा। उसका बाप मन ही मन रोता रहा।
फन्न्ूा अब अक्षर षाम को कच्ची दारु पी के डैम के पास बैठ पानी को ध्यान से देखने लगता और बडबडाता कि ‘देख देख बल्ल्ूा की मॉई हमका बुलाय रही है कह रही है हमका पानी से निकाल लेव’। उसके साभी इसे महज उसके नषे की बकझक व दुख समझते पर एक षाम फन्न्ूा जब हमेषा की तरह कच्ची दारु चढाकर डेेैम के पास बैठे पानी को बडै गौर से देख रहा था तो वह अचानक अपने आपमे ही   बुदबुदाने लगा ‘बुल्लू की माई द्यबरा जिन हमहू तोहरे पास आई थी’ और पानी की तरफ दौडने लगा। साथियो ने नषे मे होने के बावजूद उसे पकडने की काफी कोषिषे की पर उसे तेा बुल्लू की माई के पास जाना था। और बल्ल्ूा का बाप फन्न्ूा डैेम मे कूद कर बुल्ल्ूा की माई के पास चला गया। हमेषा के लिये।

इस बार फिर बल्लू कई दिनो तक बापू बापू कह के रोता रहा । जिसे रामजस बासी राटी व सब्जी दे देकर चुप कराता रहता। धीरे धीरे बल्ल्ूा रामजस के खेत व खलिहान दोनेा का काम अपने छोटे छोटे हाथेा से करने लगा।
इससे गांव वाले खुष कि चलो इय अनाथ को एक सहारा मिला। और रामजस खुष कि एक मुफत का नौकर मिला।

समय के साथ साथ रामजस बडा आदमी होता गया।उसकी लडकी रधिया भी बडी होती गयी। उनके साथ साथ बल्ल्ूा भी बडा होता गया। बडता जा रहा था रधिया और बल्ल्ूा के बीच स्नेह संबंध। पर था यह संबंध नौकर और मालकिन का ही।

बचपने मे दोनेा खेलते तो रधिया सिपही बनती बल्ल्ूा चोर। डाक्टर-डाक्टर खेलते तो रधिया डाक्टर बनती और बल्ल्ूा मरीज। रधिया झूला झूलती तेा बल्ल्ूा झूला झुलाता। अगर किसी खेल मे रधिया हारने लगती तो वह खेल छोड बल्ल्ूा से लडने लगती पर बल्ल्ूा बिना कुछ कहे रधिया की बाते सुनता रहता विरोध मे कभी कुछ न कहता। बल्कि रधिया का हर काम दौड-दौड के करता रहता।

पकौडे जैसी नाक, उभरी ऑख, तांबई बाल व काले रंग का बल्ल्ूा आम अदिवायिों से कतई अलग नही लगता था।हां खानपान अच्छा होने व हाडतोड मेहनत करने से उसका षरीर अच्छा हो गया था। ज्यादातर वह चुप ही रहता। बोलता भी तो किससे बोलता और कब बोलता। रामजस व उसकी द्यरवाली हर समय उसे किसी न किसी काम मे लगाये रहते।

सुबह उठ के सारे द्यर का झाडू पांेछा करना। जानवरो को चारा पानी देना। द्यर भर के कपडे साफ करना। खेत का सारा काम देखना। इन सब से उसे फुरसत ही न मिलती। कभी दो चार द्यडी सुस्ताने केा मिलते भी तो रधिया के दस काम आन पडते। पर कभी भी बल्ल्ूा के चेहरे पे सिकन न रहती । षायद उसे वक्त और जमाने ने सिखा दिया था कि वह इसी सब के लिये बना है। जमाने ने उसे यह भी बता दिया था कि उसकी माई बाप ने अपने षिर पे बोझा ढो ढो के डैेम बनाने मे काफी मेहनत की थी। और फिर एक दिन उसकी माई इसी डैम मे डूब गयी थी जिसकी याद मे बापू भी इसी डेैम मे डूब मरा।
बुल्ल्ूा  भी बाप की तरह  जब कभी खाली समय पाता डेैम के पास बैठ चुपचाप न जाने क्या देखता रहता। अक्षर नींद मे बडबडाता ‘अम्मा बापू हमहू तुम लेागन के पास आवेै चाहित ही।’ यह बात रामजस व उसके द्यरवालो सभी को मालुम थी।
रामजस व उसकी द्यरवाली को यह भी मालूम हो गया था कि इधर रधिया और रामजस कुछ ज्यादा ही एक दूसरे का खयाल रखने लगे हैं। अगर रधिया कोई काम कहदे तो रामजस द्यर के दूसरे सभी कामो को छोड कर उसका काम करता है। और रधिया भी इस बात का खयाल रखती की बल्ल्ूा को खाने मे ताजी रोटी व सब्जी दी जाय और बासी खाना जानवरो केा दिया जाय।

उस दिन रधिया आंगन मे बैठी फागुनी षाम की हवा का आनंद ले रही थी। माई छुट पुट कामो मे लगी थी। बल्लू अकेले ही अपनी पीठ पर बोरे लाद कर र्टैक्टर से उतारता और लेजाकर अनाजद्यर मे रखता जाता। अभी उसने पूरे साठ बोरे रख कर कमर सीधी भी नही की थी कि रधिया की मॉइ ने कहा बल्ल्ूा गौषाला का छप्प्पर टूट रहा है। जरा उसकी मरम्म्त करदो। यह सुनते ही रधिया से न रहा गया। बोली ‘माई तुम्हे अपने जानवरो की इतनी चिन्ता है। पर जानवरो की तरह काम करते हुए आइमी की बिलकुल चिन्ता नही है। अरे जरा उसे पीठ तो सीधी करलेने देती। उसके बाद कोई काम कहती।’ यह सुनकर बल्ल्ुा तो चुप ही रहा। पर रधिया की दुनियादार माई ने बात बनाते हुए कहा ‘ हां हां बल्ल्ूा पहले तू थांेडा आराम करले फिर सह सब करना।’ पर इस द्यटना के दूसरे ही दिन से बल्ल्ूा की खाट द्यर से हटा कर आम के बगीचे मे कर दी गयी थी। बहाना यह था कि पिछले साल गांव वालो ने काफी आम चुरा लिये थे। इसलिये वहां रात को किसी न किसी को रहना बहुत जरुरी है। इसके अलावा अब बल्ल्ूा को द्यर के काम के लिये कम से कम कहा जाने लगा। उसे ज्यादातर खेत खलिहान के काम से बाहर ही रखा जाता।

पहले तो यह परिर्वतन बल्ल्ूा की समझ मे नही आया पर धीरे धीरे वह सब कुछ समझने लगा। अब उसका काला गम्भीर  चेहरा और गम्भीर दिखने लगा। कई कई दिन हो जाते लोगो को उसकी आवाज सुने। अब वह सिर्फ खेत खलिहान का काम करता। और खाली समय मे डेैम  के षांत जल केा देखता रहता।

और एक दिन गांव वालो को पता लगा कि बल्लू डैम मे डूब के मर गया।

यहीं से कहानी कई सूत्रों मे बट जाती है।
कुछ लोगो के अनुषार बुल्ल्ूा रधिया से एक तरफा प्रेम करता था। अैार रधिया की सगाई किसी दूसरे के संग हो यह नही सह पाया। और डेैम मे डूब के अपनी जान देदी।

कुछ लोगो के अनुषार बल्लू को जब से पता लगा कि उसके माई बाप भी डेेैम मे ही डूब के मरे थे। उस दिन से अपने बाप की तरह कुछ कुछ पगला गया था। कहता था कि उसके माई बापू उसे बुला रहे हैं। और उस दिन दोपहर को ही ताडी लगा कर पगलाने लगा। उसी बकझक मे डेैम मे डूब कर आत्म हत्या कर ली।

कुछ लोगो के अनुषार रामजस ने ही बुल्ल्ूा को डैम मे डुबो के मार डाला है क्योकि उसके संबंध रधिया से होगये थे। और दोनेा लाख मारने पीटने के बाद भी एक दूसरे के साथ जीने मरने की कसम खारहे थें।
    
खैर वास्तविकता चाहे जो भी हो। पर कहानी के सूत्रो को जोडते जोडते रधिया न जाने कब उपले लेकर द्यर जा चुकी थी। षाम गहरा कर डैेम के गहरे नीले पानी से एकाकर हो गयी थी। परछाइयो की सिसकियां भी अस्पस्ट हो गयी थी। उन परछाइयो मे मुझे अब रामजस व रधिया की जगह बुल्लू के माई बाप नजर आरहे थे परछाइयो मे बुल्ल्ूा तो पहले से ही मौजूद था।  और पता नही तीना माइ बाप व बेटे इस षांत गहरे जल मे डूबे हुए एक दूसरे का दुख बाट रहे थे।


हां अलबत्ता चंाद जरुर आसमान मे काफी उपर निकल आया था। जिसकी परछाई डेैम के पानी मे साफ नजर आ रही थी। जो हिलती डुलती हुयी बल्ल्ूा की परछाई के साथ अठखेलियां कर रही थी।

डैेम का गहरा नीला पानी पहले की तरह षांत था।







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