किसी उदास दिन की डायरी से ----
ज़िन्दगी कागज़ पे लिखी इबारत होती तो कब का गंगा में बहा आया होता। रेत पे लिखी नज़्म होती तो लहरों ने खु़द ब ख़ुद मिटा दिया होता। हवा में बने हस्ताक्षर होते तो खुशबू में ढ़ल गये होते या फिर हवा की तमाम खुश्बुओं में खो गये होते।
लेकिन माज़ी तो पत्थर पे लिखी इबारत है जो एक बार खुदने के बाद सदियों सदियों का दस्तावेज बन जाती हैं, जो इंसान के हाथो में लकीरों सा उभर आती हैं। जिनके अर्थों को समझना हमारे जैसों की बात नही। ये लकीरें उन के लच्छे भी नही जिन्हे सहूलियत से सुलझा लिया जाये। आडी तिरछी, जन्मो जन्मों की दस्तावेजी उलझी लकीरें इन्सान को ताज़िंदगी उलझाए रखती हैं।
और इंसान सुख दुख के सागर में गोते लगाता रहता है। यह अलग बात है कोई इस सागर में कुछ दूर तन्हा छटपटाता है तो कोई किसी के साथ हिलोरे खाता है। पर इस भवसागर में डूबते उतराते सभी हैं।
आज फिर मै अपने हाथों की आडी तिरछी लकीरों में अपने माज़ी को देखते की कोशिश करता हूं तो खुद उलझ जाता हूं। बेतरह।
फिलहाल मै इन उलझी लकीरों के कारण उलझा हुआ हूं या फिर उलझा हुआ हूं इसलिये लकीरें उलझी हैं मै नही जानता मगर यह तय है कि अब एक उलझी ज़िंदगी के साथ जी रहा हूं। खैर .....
कई दिनो से मौसम बेतरह गीला और चिपचिपा है। न तो बरसात पूरी तरह से खिलखिला रही है और नही चुप हो रही है। रात होते ही इस बियाबान के घुप्प अंधेरे में बिना दिया बाती के खामोषी के साथ
बैठा हूं, रोशनी के नाम पे कुछ पतिंगे अपनी पूंछ मे थोडी सी आग लिये फिरते हैं उन्ही से अपने आपको रोशन पाता हूं।
उसी रोषनी में दो चार लाइने लिखी हैं जो आप सभी से बाटना चाहता हूँ । हो सकता है आपको पसंद आये और न पसंद आने की स्थिति में कूड़ेदान में फेंकने के लिये आप स्वतंत्र हैं।
था हौसलों से लबरेज़ दिल मेरा
सितारों को छू लेता शगल मेरा।
अनहलक़ का न था दावा मेरा।
फिरभी सलीब पे टंगा बदन मेरा।
कितनी बेरहमी से हुआ क़त्ल मेरा।
जान जाआगे उठा कर क़फ़न मेरा।
कोई गै़र नही वह अजीज़ था मेरा
लूट कर ले गया जो चमन मेरा।
मुकेष श्रीवास्तव
22.06.2011
ज़िन्दगी कागज़ पे लिखी इबारत होती तो कब का गंगा में बहा आया होता। रेत पे लिखी नज़्म होती तो लहरों ने खु़द ब ख़ुद मिटा दिया होता। हवा में बने हस्ताक्षर होते तो खुशबू में ढ़ल गये होते या फिर हवा की तमाम खुश्बुओं में खो गये होते।
लेकिन माज़ी तो पत्थर पे लिखी इबारत है जो एक बार खुदने के बाद सदियों सदियों का दस्तावेज बन जाती हैं, जो इंसान के हाथो में लकीरों सा उभर आती हैं। जिनके अर्थों को समझना हमारे जैसों की बात नही। ये लकीरें उन के लच्छे भी नही जिन्हे सहूलियत से सुलझा लिया जाये। आडी तिरछी, जन्मो जन्मों की दस्तावेजी उलझी लकीरें इन्सान को ताज़िंदगी उलझाए रखती हैं।
और इंसान सुख दुख के सागर में गोते लगाता रहता है। यह अलग बात है कोई इस सागर में कुछ दूर तन्हा छटपटाता है तो कोई किसी के साथ हिलोरे खाता है। पर इस भवसागर में डूबते उतराते सभी हैं।
आज फिर मै अपने हाथों की आडी तिरछी लकीरों में अपने माज़ी को देखते की कोशिश करता हूं तो खुद उलझ जाता हूं। बेतरह।
फिलहाल मै इन उलझी लकीरों के कारण उलझा हुआ हूं या फिर उलझा हुआ हूं इसलिये लकीरें उलझी हैं मै नही जानता मगर यह तय है कि अब एक उलझी ज़िंदगी के साथ जी रहा हूं। खैर .....
कई दिनो से मौसम बेतरह गीला और चिपचिपा है। न तो बरसात पूरी तरह से खिलखिला रही है और नही चुप हो रही है। रात होते ही इस बियाबान के घुप्प अंधेरे में बिना दिया बाती के खामोषी के साथ
बैठा हूं, रोशनी के नाम पे कुछ पतिंगे अपनी पूंछ मे थोडी सी आग लिये फिरते हैं उन्ही से अपने आपको रोशन पाता हूं।
उसी रोषनी में दो चार लाइने लिखी हैं जो आप सभी से बाटना चाहता हूँ । हो सकता है आपको पसंद आये और न पसंद आने की स्थिति में कूड़ेदान में फेंकने के लिये आप स्वतंत्र हैं।
था हौसलों से लबरेज़ दिल मेरा
सितारों को छू लेता शगल मेरा।
अनहलक़ का न था दावा मेरा।
फिरभी सलीब पे टंगा बदन मेरा।
कितनी बेरहमी से हुआ क़त्ल मेरा।
जान जाआगे उठा कर क़फ़न मेरा।
कोई गै़र नही वह अजीज़ था मेरा
लूट कर ले गया जो चमन मेरा।
मुकेष श्रीवास्तव
22.06.2011
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