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Tuesday 6 March 2012

एक लडकी सलोनी सी -------


दिनांक 20-12-2001
कोल्हू के बैल की मानिन्द जीवन चक्र में गोल-गोल घूमते हुए अड़तीस वर्ड्ढ हो गये। परिणामतः बैल की तरह वहीं का वहीं हूं। बिना किसी मन्जिल पर पहुचे  हुए। जिस तरह कोल्हू का बैल घूम-द्यूम कर ढेर सारा तेल और कचरा निकालता है उसी तरह हमारे पास भी बेचैनी, हताषा और बेकार के अनुभवों का कचरा जमा  हुआ है। जिसकी सडांध से खुद जार-जार होता जा रहा हूं। बेचैनी तब और ज्यादा बढ़ जाती है जब सोंचता हूं अभी न जाने कितने चक्कर और लगाने है? न जाने कितना कचरा और इक्कठा करना है।
कई बार सोंचा और कोशिश  भी की कि इस कचरे को एक एक कर बीनू। शायद  कुछ काम की चीजें हो पर, सब की सब अधूरी कोषिषें ही साबित हुयी।
आज फिर एक नए संकल्प के साथ उस कचरे को एक-एक कर बीनने की शुरुआत की है, देखे क्या होता है?

21-12-2001
कल शाम  बेवजह तालाब के किनारे टहलते समय कुछ वजह और कुछ बेवजह के ख्यालो में डूबा हुआ था और ख्याल थे कि लाख कोशिशों  के बाद भी सिलसिलेवार न हो पा रहे थे। थक कर तालाब के किनारे बैठ शांत  और ठहरे हुए पानी को बहुत देर तक देखता रहा और देखता रहा। न जाने कब छोटा सा कंकड हाथ से छूट कर पानी में जा गिरा। बुलुप की आवाज के साथ पानी में एक बिन्दु सा बना और उसके बाहर बड़ा सा वृत्त बना। यूं कहो बिन्दु के बाहर एक चक्कर सा बन गया। उसके बाद एक और चक्कर और चक्कर पर चक्कर बढ़ते जा रहे थे। उन चक्करों में तब्दील होता कोल्हू और बैल, बैल और कोल्हू - चक्कर न जाने कितने चक्कर।
फिर वही चक्कर और कचरा। न जाने कब चक्करो का क्रम छूटेगा। कुछ हासिल होगा  भी या यू ही चक्करो का क्रम चलता रहेगा।
अनवरत । हे भगवान।

22-12-2001
कोल्हू का बैल अपनी रफ्तार से हौले-हौले द्यूम रहा था। आज कोई खास हादसा न हुआ।
रोज की तरह दूध वाले की सायकिल की घंटी ने नींद की खुमारी से जगाया। मैं बर्तन हाथ मे लिये खड़ा हो गया। फिर पूर्ववत स्नान ध्यान व नास्ते  के बाद ऑफिस का रूख कर दिया था। ऑफिस में भी दिन रोज की तरह चिल्ल-पो व फोन की घंटियां सुनते बीता।
कोल्हू का बैल न जाने कैसे बिना कुछ सोचे चक्कर पर चक्कर लगाता जाता है ? पर मुझे आगे के चक्कर लगाने के लिये चाहिए बीती यादों की ऊर्जा या र्स्विणम कल की बातें।  शायद  र्स्विणम कल तो न मिले पर बीती बातें चक्कर लगाने के लिये दे जाती हैं एक ताकत और मै वक्त के चक्कर को पीछे की तरफ धकेलने लगता हूं।
उन चक्करों के परे मैं देख रहा था। आखों मे मजबूरी व जहालियत की पट्टी बांधे बहादुर चौकीदार को, धन के चारों और चक्कर लगाते सेठ बनवारी लाल को, आदर्षवादिता व व्यवहारिकता के षिकंजे में जकडे समाज की वर्तमान व्यवस्था में छटपटाते हुए किषोर को, पति नामक खूंटे से बंधी सलोनी को। इसके अलावा और न जाने कितने पात्रों को जो आप और हम सब के बीच अभी भी ससार चक्र में हैं। कोल्हू के बैल की तरह।


एक लडकी सलोनी सी
यूं तो दुनिया के झमेले मे बहुत कुछ खो गया
दुख मगर ये हे के तेरी याद न गुम हुयी
कुछ जाने और कुछ अजाने कारणो से, द्यिर आयी उदासी के बादल आज कुछ छंट से गये थे। कोल्हू का बैल उसी मंथर गति से द्यूम रहा था। उसने अपनी नाक पर चढी मक्खी को अपने सिर को इधर उधर द्युमा कर भगाया। नथुनो से फुर्र फुर्र की आवाज निकाली और फिर द्यूमने लगा गोल गोल।
पुनरावष्त्ति आदमी के भीतर एक ऊब पैदा करती है। यही पुनरावष्त्ति मजबूरी बन जाय तो आदमी को उदास बेजान मषीन सा बना देती है। आज फिर सलोनी अपने भीतर फैले वैक्यूम को परे धकेल कर बारजे पर खडी सामने की बंद खिडकी को देख रही थी। बेवजह निरूद्देष्य अचानक उसके जेहन में एक शक्ल उभरने लगती है किषोरदा की।
साधारण कद, सांवले रंग व हसंमुख स्वभाव के किषोरदा से अन्तिम मुलाकात कब हुई थी ठीक से याद नही पर उनका साथ उनकी बहुत सी बातें एक एक कर याद आती चली जा रही थी। जिन्हें एक सिलसिलेवार ढंग से सोचने के लिए बारजे से हट, कमरे में आ गयी। पलंग पर पहले औंधे फिर चित्त लेटकर आंखो पर हांथ रख लिए। धीरे-धीरे वह आज से बीस वर्ष पीछे पहुंच गई थी।
सलोनी उस वक्त दस या ग्यारह वर्ड्ढ की भरे बदन फूले-फूले गालों वाली खूबसूरत बच्ची ही तो थी। जब एक दिन वह शाम के वक्त टी.वी. पर कार्टून देख रही थी पापा मम्मी से कह रहे थे ”जानती हो आज मेरे साथ कौन आया है?“ मम्मी ने पापा के साथ आए युवक को पहचानने की कोशिश  करते हुए कहा ”नही“।
युवक ने आगे बढ कर मम्मी के पैर छू लिए ।”ये गांव वाली ष्यामा चाची के बेटे हैं पापा ने बताया। यहां इलाहाबाद में एम.ए. करने के साथ-साथ कम्पटीषन की तैयारी कर रहे हैं। रामबाग में कमरा किराये पर लेकर रह रहें हैं। आज अचानक रास्ते मे मुलाकात हो गई तो मै इन्हे ले आया।“
मम्मी ने मुस्कुरा कर खुशी  जाहिर की और रसोंई में चाय बनाने चली गयीं। पापा ने उसे बुला कर कहा ”बेटा ये तुम्हारे किषोरदा हैं। गांव में दादी-बाबा के पास रहते हैं। नमस्ते करा“ फिर किषोरदा से उसका परिचय कराते हुए बोले ”यह सलोनी है जो मेरी बेटी और बेटा दोनो है“। किशोरदा  उसकी तरफ मुस्कुरा कर बोले ”वाकई नाम की तरह देखने मे भी सलोनी है।“ सलोनी कुछ समय तक वहां खडी रही फिर जाकर टी.वी. देखने लगी।
उस दिन के बाद से तो किषोरदा का उसके घर  रोज आने का नियम सा बन गया। किषोरदा षाम आठ बजे आते। आते ही पापा के साथ षतरंज की बिसात बिछा कर बैठ जाते। ठीक साढे नौ वह अपने द्यर पैदल चल देते। अक्सर पापा और वो राजनिति, साहित्य, कला, विज्ञान और न जाने कितने विषयों  पर बहस करने लग जाते। पर हर बार किषोरदा की ही बातें ज्यादा वजनदार लगती। हलाकि षतरंज की बाजी वह जरुर हार जाते। एक दिन वह एक मैथ्स की प्राबलम लेकर पापा के पास गई तो उन्होने किषोरदा से पूंछ लेने को कहा और किषोरदा से सलोनी को पढाई मे हेल्प करने को कहा।
किषोरदा की माली हालत अच्छी न थी पर वह किसी तरह अपनी पढाई आगे बढा रहे थे। युनिवर्सिटी का खर्च और मकान का किराया वह अखबार व पत्रिकाओं में लेख लिख कर पूरा करते। थोडा बहुत द्यर से मंगा लेते।
उनका व्यक्तित्व विशेष  प्रभावित न करता था। सांवला रंग, साधारण कद, इकहरा बदन, कपडे़ भी काफी साधारण पहनते। शायद  दो या तीन सेट कपडो़ को ही अदल बदल कर पहनते। अपने रहन सहन के प्रति भी कोई खास गम्भीर न थे। कई कई दिनों तक शेव  न बनाते। अक्सर कई महिने बढी रहती। जब मम्मी टोंक देती तो बनवा लेते वर्ना फिर वही लीचडपन। सिगरेट की बदबू मुहं से हमेश आती रहती। इन सब बातों के बावजूद भी उनके भीतर कुछ ऐसा आकर्षण था कि जिससे भी एक बार मिल लेते वही उनकी तारीफ करता। धीरे धीरे वह घर के सदस्य से हो गये।
उस दिन पापा के कहने के बाद किषोरदा लगभग रोज ही उसे पढाने लगे। हर रोज शाम सात बजे दरवाजे की द्यंटी बजती और वह हाजिर रहते। वह सीधे जाकर मम्मी के पास बैठ जाते और उनसे हसंते बोलते रहते। किषोरदा की खास आदत थी कि वह हर किसी के साथ हसीं मजाक कर लिया करते। यहां तक कि पापा को भी न छोडते। सीरियस रहना जानते ही न थे। इतने वर्ड्ढो में शायद ही उन्हें कभी सीरियस पाया हो। अपनी स्टडी टेबल पर बैठे बैठे जब वह ऊब जाती उनसे कहती कि आज आप पढाएगें या नही तो हसंते हुए आते और कुर्सी पर पालथी मार के बैठ जाते। फिर षुरु होता उनके पढाने का दौर। किसी भी चीज को कितनी आसानी से समझा देते कि यकीन ही न होता कि यही बात स्कूल में टीचर के कई बार बताने के बाद भी समझ में न आती थी। मजे की बात यह थी वह कोई भी विषय  पूरे अधिकार के साथ पढाते और किताब बहुत कम खोलते।
किसी विषय को समझाते वक्त कभी कापी पर पेन या पेन्सिल से समझाने के लिए लकीरें, गोले या न जाने कैसी-कैसी आकृतियाँ बनाते जाते। अगर कुछ लिखते भी तो समझ में ही न आता। कभी वह कहती भी कि आप कितने गंदे तरीके से लिखते है तो हसं कर बोलते कि ”बडे-बडे प्रोफेसर लोग इसी तरह पढाते हैं और हर बडे आदमी की हैंडराइटिंग इसी तरह होती है।“ यह सुनकर वह मुंह चिढा देती तो हौले से मुस्कुरा कर रह जाते। किषोरदा का यही मस्तमौलापन सलौनी को अच्छा लगता।
किसी दिन न आते तो सलोनी की शाम कटनी मुश्किल हो जाती। हालाकि किषोरदा से यही कहती कि ”किसी दिन आप आना क्यों नही भूलते।“ तब मुस्कुरा कर रह जाते।
आज भी उसे वह दिन अच्छी तरह याद है। किषोरदा गांव गये थे तभी उसका वार्षिक रिजल्ट आया था। वह अच्छे नम्बरों से पास हुई थी। यह खबर वह जल्दी से जल्दी किषोरदा को सुनाना चाहती थी किन्तु कई दिनों के इन्तजार के बाद भी किषोरदा न आए थे। उन्ही दिनों उसे काफी तेज बुखार चढ गया था। एक दिन जब मम्मी ठंडे पानी की पट्टियां माथे पर रख रही थी कि बुखार कुछ कम हो, तभी किषोरदा आ गये। मम्मी किषोरदा से कह रहीं थी ”भईया सलोनी कल से बुखार में तुम्हे ही बुला रही है ताकि वह अपने पास होने की खबर सुना सके“। किषोरदा ने माथे पर हांथ रख कर कहा ”अरे इसे काफी तेज बुखार है“। फिर उनकी सलौनी से नजरें मिलने पर हमेषा की तरह हसं कर बोले ”मिठाई न खिलानी पडे इस लिए तुम बीमार पड गयी। चलो कोई बात न ही ठीक हो जाने पर सूद ब्याज सहित खा लूंगा“। वह किषोरदा की तरफ देख कर मुस्कुरा दी थी। किषोरदा अब सलोनी के लिए सिर्फ किषोरदा न रह गये थे बल्कि शिक्षक और दोस्त भी हो गये थे।
द्यर में उसका कोई भाई-बहन न था। लिहाजा वह अक्सर बिना वजह के उन्हीं से लडती रहती। उन्हें परेशान करती रहती। एक बार फर्स्ट अप्रैल को  पानी में नमक मिला के पिला दिया था। तब भी वे मुस्कुरा कर रह गये थे। मम्मी भी इस बात पर हसं रही थी पर पापा बहुत गुस्सा हुए थे।
स्कूल की सहेलियों की भी बहुत सारी बातें वह किषोरदा को बताया करती। लेकिन अगर किषोरदा ने कुछ कहा तो वह उनसे लडने लगती। किषोरदा भी उसे छेडने के लिए उसकी सहेलियों को अक्सर लडाका, चुडैल या भुतनी कह कर चिढाया करते।
धीरे-धीरे पूरा वर्ड्ढ कैसे बीत गया पता ही न चला। सलोनी बचपन छोड किषोरवय में आ गई। उसके भरे-भरे बदन में कसाव उभरने लगे थे। कली खिलने के लिए तैयार थी।
वार्ड्ढिक इम्तहान खत्म होने के बाद स्कूल-कालेज में दो माह की गर्मी की छुट्टी हो गई थी। सलोनी अपनी मम्मी के साथ अपने मामा के द्यर चली गयी। वहां से लौटने पर पता लगा कि किषोरदा गांव गए हुए हैं। ऐसे समय पर उसे किषोरदा का न होना, बहुत बुरा लग रहा था। मामा-मामी के द्यर की कितनी हीं बातें उसे किषोरदा को बतानी थी। इन दो महीनें में किषोरदा ने उसे कभी याद भी किया या न ही। इस बात को लेकर उसे लडना भी था। उसे और न जाने कितनी बातें करनी थी।
दिन तो कट जाता पर षाम होते ही किषोरदा याद आ जाते। दरवाजे की द्यंटी बजती या आहट होती उसे लगता किषोरदा आ गये।
किषोरदा के कालबेल बजाने का अपना अलग अंदाज था। दो बार ट्रिंग-ट्रिंग करते बस। अगर दो बार कोई न सुनता तो द्यंटी न बजा कर द रवाजा खटखटाते।
मामा के यहां से आए कई दिन हो गए थे पर किषोरदा के गांव से आने या न आने का कोई भी समाचार न मिल रहा था। स्कूल भी खुलने को थे। उनकी कमी मम्मी पापा भी महसूस करते। एक दिन पापा मम्मी से कह रहे थे ”किषोर को अब तक गांव से आ जाना चाहिए। न जाने क्यों न आया“। उसे किषोरदा के ऊपर झुंझलाहट आ रही थी कि जल्दी से आते क्यों न ही।
उस दिन शाम वह चाचा चौधरी वाली कामिक्स पढ रही थी और मम्मी चावल बीन रही थी कि अचानक कालबेल जोर से दो बार बजी ट्रिंग-ट्रिंग। सलोनी खुशी से उछलते हुए कामिक्स को दूर फेंक दरवाजे की तरफ लपकी, चिल्लाते हुए ”मम्मी किषोरदा आ गए“। दरवाजा खोलते ही सामने वही शेव  बढाये मुंह से आती सिगरेट की महक के साथ किषोरदा खडे थे। सलोनी को देख मुस्कुरा कर बोले ”और सलोनी क्या हाल है“। उसने सोचा एक वह है जो इनके इंतजार में परेशान है और एक यह है जिनकी बात से लगता है कि कुछ हुआ ही नही। बस पूंछने के लिए पूंछ लिया ”सलोनी कैसी हो“। गुस्से के मारे उसने भी र्सिफ इतना कहा ”ठीक हूं“ और वापस कामिक्स पढने लगी।
किषोरदा मम्मी के पैर छू कर उन्ही के पास बैठ गए। फिर दोनो गांव व दुनियादारी की न जाने कितनी बातें करने लगे। पापा के आने के बाद उनसे बातें करने लगे। मम्मी पापा और किषोरदा सभी बहुत खुश थे। मम्मी ने उनसे रात को खाना खा कर जाने के लिए कहा। फिर पापा और किषोरदा दोनो षतरंज खेलने लगे।
सभी लोग खुश थे सिवाये सलोनी के। उसे लग रहा था कि किषोरदा जानबूझकर उससे बात न करना चाहते। खैर कोई बात
न ही। कल से वह भी उनसे बात न करेगी। अपने आपको न जाने क्या समझते हैं। अगर स्टडी में सहायता न करेगें तो क्या वह फेल हो जायेगी। पापा से कह कर कोई दूसरा अच्छा सा टीचर लगवा लेगी। और उन्हें दिखा देगी कि दुनिया मे उनसे जयादा पढे-लिखे और अच्छा पढाने वाले लोग भी हैं। यही सब सोचते सोचते वह न जाने कब सो गयी।
दूसरे दिन जब किषोरदा षाम को आये तो उसने दरवाजा न खोला। अन्त में मम्मी को उठ कर जाना पडा। गुस्से के मारे वह बेडरुम मे लेटी रही।कामिक्स पढती रही। आज मम्मी से जल्दी छूटकर किषोरदा उसके पास आए । पलंग के किनारे बैठ कर बोले ”सलोनी अब तुम सातवीं कक्षा में आ गयी हो मिठाई न खिलाओगी“। तब वह लडना चाह कर भी कुछ न बोली। यंत्रवत उठ कर फ्रिज से मिठाई व एक ग्लास पानी ला कर रख दिया और फिर कामिक्स पढने लगी। षायद किषोरदा ऐसे व्यवहार के लिए तैयार न थे। उन्होने धीरे से मिठाई उठाई और बोले क्या बात है ”तुम कल से कुछ कम बोल रही हो। क्या मामी ने तुम्हें गुगौरी खिलादी है। शायद कुछ बदल भी गयी हो“। सलोनी सोच रही थी ”मुझे कह रहे हैं अपने आपको न ही देखते कितना बदल गये हैं“। पर धीरे-धीरे उसका गुस्सा कम होता गया। फिर उस दिन न जाने कितनी देर वह उनसे बातें करती रही। वैसे तो किषोरदा पापा के बाद उन्ही के पास जा बैठते पर उस दिन वह उसी के साथ बातें करते रहे थे।
दूसरे दिन पापा किषोरदा से कह रहे थे ” किषोर अगर तुम्हारी जान पहचान हो तो सलोनी के नाम किसी अंग्रेजी स्कूल में लिखवा दो“। तब किषोरदा ने कितनी दौड-धूप करके उसका नाम अंग्रेजी स्कूल में लिखाया था। उस दिन वह, किषोरदा, मम्मी, पापा सभी बहुत खुष थे।
कोल्हू का बैल अपनी रफ्तार से चलता रहा।
हर षाम किषोरदा के अपना सलोनी को पढाना, मम्मी से बातें करना और पापा के साथ षतरंज खेलना फिर पैदल रामबाग अपने कमरे चल देना।
एक वर्ड्ढ और बीत गया।
अब सलोनी अधखिली कली सी लगती। उसकी किषोरावस्था कुछ और उभार पर आ चुकी थी। उसका मन नये-नये सपने बुनने लगा। किषोरदा भी इस सब से अन्जान न थे। वे भी भावनरओ के उतार-चढाव में डूब-उतरा रहे थे। किन्तु व्यवहार और हाव-भाव से कोई यह न जान सकता था कि उनके मन में क्या चल रहा है।
इस बार भी वार्ड्ढिक इम्तहान खत्म होने के बाद सलोनी गर्मी की छुट्टियों में मामा के द्यर व किषोरदा अपने गांव गये थे। इत्तफाकन दोनो एक दो दिन से आगे पीछे वापस आये थे।
किषोरदा उसी दिन उसके द्यर आये। आते ही सलोनी ने उनको अपने पास होने की खबर सुनाई। पिछले सालों की तरह मम्मी ने उनको फ्रिज से मिठाई निकाल कर खिलाया। प्रोग्रेस रिपोर्ट देख कर बोले ”मै किसी को पढाऊं और वह फेल हो जाये, सम्भव ही
न ही“। यह सुन कर उसने उनको मुंह चिढा कर कहा था ”आप तो ऐसे कह रहे है जैसें कि मैने तो कोई मेहनत ही न की थी“। उसके इस तरह बोलने के अन्दाज को देखकर मुस्कुरा भर दिये थे हमेषा की तरह। और वह किषोरदा को दुबारा मुंह चिढा कर रसोंई मे चाय लेने चली गयी।
किषोरदा से उसकी आत्मियता या एक अन्जाना सा संबन्ध दिन प्रतिदिन प्रगाढ होता जा रहा था। वो भी अब रोज पढाने के बाद देष-दुनिया व समाज की ढेर सारी बातें करने लगे थे। सलोनी भी उन्हे अपने स्कूल की व सहेलियों की व दिनभर की बातें बताया करती। लेकिन उसका किषोर मन था कि इतने से न भरता। उसे लगता कि वह किषोरदा के साथ खूब-खूब और ढेर सारी बातें करती रहे और तब तक करती रहे जब तक कि सारी बातें खत्म न हो जायें। किषोरदा भी उसे सारे जहां की ढेर सारी बातें बताते रहं और बताते ही रहें।
पर किषोरदा थे कि उसके साथ ढेर सारी बातें करते व हसंते हुए भी अपनी मर्यादा व बड्प्पन को बनाये रखते और वह सोचती कि अजीब किस्म के आदमी हैं।
अचानक सलोनी को लगा षायद उसे कोई बुला रहा है। उसकी आखें खुल गयी। देखा द्यड़ी दिन के दो बजा रही थी ”बहू बच्चा स्कूल से आ गया है“। वह उठ कर यंत्रवत बच्चे को ऊपर कमरे मे लाकर रोज की दिनचर्या मे लग गयी।
बैल ने दोबारा नाक पर चढी मक्खी को भगाया। गले की द्यंटी टुन-टुन बज रही थी और वह धीरे-धीरे दूसरे चक्कर की ओर बढ रहा था।
सलोनी कल की अपेक्षा आज अपने आप को काफी संयत और षांत महसूस कर रही थी। हलाकि किषोरदा की बातें रह रह कर याद आती रहती। सुबह का काम जल्दी से खत्म कर के आज छज्जे पर भी न गयी। सीधे बिस्तर पर लेट गयी।
धीरे धीरे किषोरदा की षक्ल एक बार फिर उभरने लगी।
सलोनी कक्षा नौ मे आ चुकी थी। उम्र का खतरनाक व खूबसूरत मोड। उसका भी कोमल मन पखं फडफडा कर आसमान मे अपने राजकुमार के साथ उड जाने को चाहता। उसकी सभी सहेलियों का कोई न कोई ब्वायफ्रेंड था जिसके बारे मे वे खूब हसंकर बातें करती। तब वह उनकी बातें सिर्फ चुपचाप सुनती रहती। अक्सर कोई षैतान लडकी उसे किषोरदा का नाम लेकर छेड देती तो वह कह देती ”हमारे किषोरदा इस तरह के आदमी न ही हैं“। तब दूसरी सहेलियां हसंते हुए कहती ”अच्छा तू ही बता दे कि तेरे किषोरदा किस तरह के आदमी हैं“। यह सुनकर सब लडकियां खिलखिला कर हसं देती और वह खिसिया कर रह जाती।
उसका कोई ब्वायफ्रेंड न होने से व किषोरदा के निर्विकार व्यवहार ने उसे कुछ उदास सा बना दिया था। यहां तक कि पढाई में भीे मन कम लगने लगा था। हर षाम किषोरदा का इन्तजार तो रहता पर अब वह बेचैनी न रहती। यहां तक कि अब वह उनके द्वारा दिया होमवर्क भी समय पर करके न रखती। आखिर एक दिन इसी बात पर किषोरदा ने उससे कहा ”सलोनी इधर मैं कई दिनों से देख रहा हूं तुम्हारा मन पढाई में कम लग रहा है बल्कि इधर उधर की बातों में ज्यादा रहती हो“। उसके बाद एक अच्छा खासा आधे द्यंटे का लेक्चर दे डाला। इतने गुस्से में उसने उन्हें पहले कभी न देखा था। वह सिर्फ सिर झुकाए सुन रही थी। थोडी देर में न चाहते हुए भी उसके आंखो से आसंू बहने लगे। यहां तक कि वह हिचकियां ले कर रोने लगी। यह देखकर किषोरदा भी द्यबडा गये थे।डांट छोडकर समझाने के लहजे में बोले ”सलोनी यह सब मैं तुम्हारी भलाई के लिये ही समझा रहा हूं। अगर मेरी बातें बुरी लग रही हों तो मै कल से कहना छोड दूंगा। और अगर तुम्हें कोइ प्राबलम है तो वह मुझे बताओ। मुझसे न कह सकती तो मम्मी को बताओ। पापा को बताओ और अगर न बताओगी तो तुम्हारी समस्या दूर कैसे होगी“। वह किषोरदा से कैसे बताती कि उसकी समस्या तो वह खुद हैं। इतना सुनने के बाद भी जब उसने कोई जवाब न दिया तो आगे बोले ”मुझसे जितना हो सका बडे होने के नाते समझा दिया अब समझना न समझना तुम्हारी मर्जी। अब तुम इतनी छोटी बच्ची भी न रह गयी हो कि तुम्हे मार पीट के समझाया जाय।“ यह कह कर उन्होने किताबें बंद की और हमेषा की तरह मम्मी के पास किचन में जाकर वहीं जमीन पर बैठ गये और हसं हसं कर बातें करने लगे। मानो कुछ हुआ ही नहो।
उधर वह अपनी खुली किताब में तब तक सिर झुकाए रही जब तक कि किषोरदा द्यर से चले न गये। शाम की बात वह भूल न पायी थी। यहां तक कि उस दिन स्कूल में भी दिन भर खोयी खोयी सी रही पर स्कूल से आने के बाद उसे न जाने क्या हुआ उसने किषोरदा का दिया हुआ सारा होमवर्क किया। यहां तक कि किषोरदा के आने का समय हो गया था पर वह अभी भी अपनी पढ़ाई में लगी थी। उस दिन कॉमिक्स भी न पढ़ी। कार्टून भी नही देखा।
किषोरदा ने उसे पहले से पढ़ते देखा तो वह सीधे उसी के पास आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए, मम्मी से कोई खास बातें न की, मम्मी भी अपने काम मे व्यस्त रहीं।
किषोरदा उसकी नाराजगी को समझ रहे थे इसलिए माहौल को सामान्य करने के लिहज से बोले ”क्या बात है आज तुम कॉमिक्स न पढ कर कोर्स की किताब पढ़ रही हो। शायद तुम्हारा कल का गुस्सा अभी उतरा नही  है“। उनकी बातो का बिना कोई जवाब दिये होमवर्क की कॉपी सामने खिसका दी। उन्होने होमवर्क चेक किया और बोले वेरी गुड अगर तुम रोज इसी तरह अपना होमवर्क कर लिया करो तो कितना अच्छा रहे। इससे न तो मुझे डंाटने की जरूरत पड़ेगी न तुम्हे नाराज होने की। फिर आगे बोले सलोनी तुम बहुत अच्छी लड़की हो पर कभी-कभी बिगड जाती हो।
इतने सालों में पहली बार किषोरदा ने इतने सीरियस होकर उसकी तारीफ की थी। सुन कर अच्छा लगा। फिर भी वह सिर झुकाये चुप रही। फिर बात आगे बढ़ाने के लहजे से पूछा ”बताओ आज क्या पढ़ना है?“ धीर धीरे चीजें फिर सामान्य हो गयी।
मन कुलांचे भरने लगा। वह हर तरह से कोषिष करती कि किषोरदा उसे अच्छा कहें उसकी खूबसूरती की तारीफ करें। कई बार वह उनके सामने सज संवर कर गयी पर वो ध्यान ही न देते।
एक दिन जब वह काफी सज संवर के नये कपडे पहन कर पढ़ने आयी तो किषोरदा ने पहले गौर से देखा फिर कुछ सीरियस हो कर बोले ”पढ़ने लिखने वाले बच्चों को ज्यादा फै्यन नही करना चाहिये“। उस दिन वह कितना दुखी हो गयी थी कह न सकती यहां तक कि रात में ठीक से खाना भी न खा सकी।
लेकिन एक दिन अजीब बात हुयी। वह अपनी एक सहेली की बर्थडे पार्टी मे जाने के लिये तैयार थी। बाब्ड कट बाल व गुलाबी सूट में काफी खूबसूरत लग रही थी। यहां तक कि शीशे  में अपने आपको देख कर खुद शर्मा  गयी थी। तभी दरवाजा खुलने की आवाज सुन कर चौंक गयी। किषोरदा ड्राइंगरूम तक आ गये थे और उसे आवाज दे रहे थे।
उस वक्त वह बला की खूबसूरत लग रही थी। सलोनी को देख कर किशोर एक सेकेंड के लिये बिना पलक झपकाए उसे देखते रहे फिर मुस्कुरा के बोले ”कहीं जा रही हो क्या?“ उसने जवाब दिया ”एक सहेली का बर्थडे है“। फिर उन्होने पूछा भाभी कहां है? बताया वह के द्यर में नही है कहीं महिला संगीत है वहीं गयी है।। यह सुनते किषोरदा बोले ”अच्छा फिर मै जा रहा हूं। कल आऊगा“। उसने किषोरदा से कहा रूकिये थोड़ी देर में मम्मी आती होगी। आप यहां बैठिये, मै चाय बना के लाती हूं” कुछ देर सोंचने के बाद सोफे पर बैठ गये बोले ”अच्छा जाओ जल्दी से चाय बना लाओ“।
सलोनी बहुत खुश  थी। झट वह दुपट्टे को सम्भालती हुयी चाय बनाने चली गयी। यह पहला मौका था जब सलोनी द्यर पर अकेली थी और किषोरदा आ गये हो। वह भी उस वक्त जब वह सजी धजी तैयार हो। उसे यकीन ही न हो रहा था पर न जाने क्यों मन ही मन घबरा भी रही थी। चाय लेकर जब ड्राइंगरूम में आयी तो किषोरदा आंखे बन्द किये ना जाने क्या सोंच रहे थे, लेकिन उसके पैरों की आहट सुन के आंखे खोल दी।
किषोरदा सिर झुकाये चाय पीते रहे। बीच बीच में इधर उधर की हल्की फुल्की बाते करते रहे। उधर सलोनी सोच रही थी कि आज तो किषोरदा उसकी सुन्दरता की तारीफ तो जरूर करेंगे और वह सभी बातें कहेंगे जिन्हे सुनने के लिए बेचैन रहती है। पर
धीरे-धीरे चाय भी खत्म हो गयी किन्तु किषोरदा ने ऐसा कुछ भी न कहा। अचानक उठते हुए बोले मम्मी से कह देना मै कल आऊगां और तुम बर्थडे में जाओ“ और पलट कर दरवाजे की तरफ बढ़ गये। अचानक मुडकर उसे गौर से देखा और हसं कर बोले अरे हां सलोनी तुमसे एक बात तो कहना भूल ही गया पार्टी मे जाने के पहले काला टीका जरूर लगा लेना। आज तुम बहुत सुन्दर लग रही हो“ वह ्यरमा गयी। वह उनसे कुछ कहती इसके पहले वे दरवाजे के बाहर यह कहते हुए चले गये ”अच्छा कल आउंगा“।
उस दिन किशोर की इतनी सी बात सुन कर वह कितनी ज्यादा खुष थी। पार्टी में भी सबसे ज्यादा चहक रही थी। कई सहेलियों ने इस परिवर्तन को महसूस तो किया पर कोई यह न समझ पा रहा था इसका राज क्या है?
वह अब अपने दोनो के बीच की अजानी डोर को और ज्यादा षिददत से महषूष करने लगी थी। किषारदा और अच्छे लगने लगे थे।
इसी तरह हसंते बोलते वह कक्षा दस मे आ गयी। दिन बीतते जा रहे थे। एक साल और बीत गया।
भावनाओं का ज्वर बढ़ता जा रहा था। सलोनी भी किषोरवय छोड़ जवानी में प्रवेष कर गयी थी। इस साल वह पन्द्रह वर्ड्ढ पूरे करके सोलहवें में लगने वाली थी। अब वह और ज्यादा खूबसूरत लगने लगी थी। शरीर के सारे उभार पूरी उफान पर थे। उम्र के हिसाब से वह शरीर  और मन दोनो से अपनी हमउम्र लड़कियों से ज्यादा परिपक्व थी। अब वह किषोरदा से पहले की तरह लड़ती न थी। लडती भी तो उन्हे छेड़ने के लिये। अब उसके व्यवहार में भी एक शोखी व नजाकत रहती जिसे किषोरदा देखते समझते जरूर पर ऊपर से अपने मन की बात जाहिर न होने देते।
सलोनी भी किषोरदा को काफी अच्छे से समझ गयी थी। उसे अच्छी तरह अहसास हो गया था कि किषोरदा भी उसे पसंद करते है पर अपने मुंह से कुछ कहना नही चाहते। शायद  यह उनकी समझदारी थी या बडप्पन, या वक्त की नजाकत। या कुछ और जिसे वह नही समझ पा रही थी।
धीरे धीरे सलोनी को भी यह बात समझ में आ गयी थी कि इस प्रकार का संबंध बढ़ाना मम्मी पापा किसी को भी पसंद न आयेगा। इसके अलावा मम्मी-पापा का उसके व किषोरदा, दोनो के ऊपर से विष्वास हट जायेगा। वह अपने मम्मी-पापा का दिल दुखाना न चाहती थी। अतः उसने परिस्थितियो के साथ ताल मेल बैठा लिया था।
फिर भी उसका मन चाहता कि एक बार किषोरदा अपने मुंह से कह दें कि वह उसके बारे में क्या सोचते है। पर किषोरदा न जाने किस मिट्टी के बने थे कुछ कहते ही न थे।
सलोनी के लिए यह साल कई विषेड्ढ घटनाए लेकर आया था। एक तरफ तो उसे हाईस्कूल की परीक्षा के लिये मेहनत करनी पड रही थी। दूसरी तरफ किषोरदा ने डबल एम.ए. करने के बाद किसी पब्लिषर के यहां नौकरी कर ली थी। अब वह शाम को देर से आते और जल्दी चले जाते। किसी किसी दिन बिना बताये गोल हो जाते। बाद मे आकर मुस्कुराते हुये कोई न काई बहाना बना देते। वह झुंझला कर रह जाती। उसने इस बारे उनसे कुछ न कहने की कसम खा रखी थी इसलिये उनके बहानो को सुन भर लेती पर कुछ न कहती।
उसने भी अब उन्ही की तरह अपने मन के भावों को छुपाना सीख लिया था। इसलिये वह कभी जाहिर न होने देती की उसे उनके आने का कितना इंतजार रहता है। उन्ही दिनों एक विषेड्ढ घटना घटी। सलोनी की बड़ी बुआ कुछ दिनों के लिये उनके यहंा रहने आयीं। बुआ को किषोरदा का आना और इस तरह घुलमिल कर सलोनी से बातें करना अच्छा न लगता। कई बार उन्होने मम्मी से इस बारे में इषारा भी किया किन्तु मम्मी ने उनसे कहा कि वह किषोर को कई सालों से जानती हैं। वह इस तरह का नही है और फिर अपनी सलोनी भी ऐसी नही है। किन्तु बुआ पर इन बातों का कोई प्रभाव न पडा।
एक दिन शाम को जब वह पढ़ रही थी तब किसी बात पर वह दोनो हसं दिये थें तो किचन से बुआ की आवाज आयी मम्मी से कह रही थी ”आज कल दोनो पढते पढाते कम और हसंते ज्यादा है“ यह बात किषोरदा और उसके दोनो के कानो में पड़ गयी। शायद  बुआ ने दोनो को सुनाने के लिहाज से ही कहा था। फिर मम्मी ने उनसे क्या कहा यह तो सुनायी न पड़ा पर किषोरदा ने इस बात सुन कर भी अनसुना कर दिया। लेकिन अगले दिन से वह काफी सीरियस रहने लगे। आना भी कुछ कम कर दिया। पहले हफ्ते में एक दो दिन न आते थे पर अब अक्सर गोल कर जाते। यहां तक की अब वह उससे अकेले में बात करने से भी कतराते।
उस दिन उसे बुआ पर बहुत गुस्सा आया। वह सोच रही थी कि बुआ कौन होती है उसके घर के मामले में बोलने वाली? बोलना है तो अपने घर जाकर बोंले। फिर जब उसके मम्मी पापा कुछ नही कहते है तो उन्हे क्या अधिकार है? जिसके बारे में ज्यादा मालूम न हो तो उसके बारे मे ऐसा बोलना नही चाहिये और न जाने क्या क्या वह बुआ के बारे में सोंचती रही।
उम्र व पद के कारण वह कुछ न कह सकी। पर वह अब बुआ से मतलब भर की बात करती बस। यहां तक कि जिस दिन बुआ को वापस अपने घर जाना था वह जानबूझ कर अपनी सहेली के यहां चली गयी थी ताकि उसे उनसे नमस्ते भी न करनी पड़े। बुआ के जाने कुछ दिन बाद चीजें फिर धीरे-धीरे सामान्य होने लगी।
पापा-मम्मी दोनो को किषोरदा व सलोनी दोनो पर पूरा विष्वास था। किषोरदा को अपने ऊपर विष्वास था अगर कोई कमजोर था तो वह सलोनी ही थी। लेकिन इस कमजोरी की वजह से कभी भी वह अपने से रास्ते विचलित न हुयी।
वह अपनी कमजोरी व मनोभावों को छुपाना अच्छी तरह सीख गयी थी। अतः वह अपने भावों का समंदर अपने मन में ही रखती। हर वक्त किषोरदा के ख्यालो में डूबे रहने के बावजूद कोई यह न समझ सकता था कि उसके मन में किषोरदा के लिये कितनी श्रद्धा व प्रेम है। सलोनी को वह घटना याद आ रही थी जब वह गुलाबी सूट पहन कर नीतू की बर्थडे पार्टी में जा रही थी और किषोरदा ने उससे कहा था ”सलोनी तुम काला टीका लगा कर जाना क्योकि आज तुम बहुत सुन्दर लग रही हो“ और वह शर्मा कर रह गयी थी। तभी उसके मन में भी अपनी बर्थडे भी धूम-धाम से मनाने का हो गया।
वैसे तो उसके बर्थडे पर कोई खास प्रोग्राम न रहता। वह अपनी तीन चार सहेलियों को बुला लेती और आपस में चाय नाष्ता कर लेते। शाम को मम्मी घर में पूड़ी सब्जी बना लेती और किशोर  अपनी तरफ से कोई न कोई गिफ्ट ले आते। जब कभी सलोनी मम्मी से बर्थडे धूम-धाम से मनाने को कहती तो वह यह कह कर टाल देती कि उनके यहां बर्थडे मनाने का रिवाज नही है। पर उस साल उसने भी तय कर रखा था कि वह अपना बर्थडे अच्छे से मनायेगी। अपनी सारी सहेलियों को बुलायेगी। और खूब बड़ा सा केक कटवायेगी। पहले तो मम्मी-पापा राजी न हुए पर बाद में तैयार हो गये थे।
उस बार का बर्थ डे काफी शानदार ढंग से मनाया गया था। उसने अपनी सारी साहिलियों  को बुलाया था। पापा के कई दोस्त और कई रिष्तेदार आये थे। किषोरदा को उसने पहली बार ही सजे धजे देखा था। उस दिन किषोरदा ने ब्राउन कलर का सूट और उससे मैच करती टाई व शर्ट  पहन रखी थी। दाढ़ी बनवा कर आये थे। बाल भी करीने से कटे हुए थे। उस दिन वह काफी आकर्ड्ढक लग रहे थे। लग ही न रह था कि ये वही लीचड से बने रहने वाले ही किषोरदा है।
उन्हे इस तरह सजे धजे देखकर काफी खुषी हुई थी। वह इस बात से काफी डर रही थी कि कही आज भी वह उसी लफसट अंदाज में न आ जायें। कायदे से आने के लिए वह उनसे कहना भी चाहती थी लेकिन यह सोचकर उसने न कहा था कि कही बुरा न मान जाये। पर वैसा न हुआ। किषोरदा उसके मन मुताबिक ही बने ठने आये थे। उस दिन बर्थ डे में किषोरदा पूरे जोष में थे। सब से हसं हसं कर बातें कर रहे थे। सहेलियों के साथ काफी देर तक बातें करते रहे।
मेहमानो को पापा ने एक साथ ड्राईगरूम में बैठा दिया था। तब सब लोगो ने कुछ न कुछ गीत, चुटकुले या कविताएं सुनायी। किषोरदा ने उसमें भी बाजी मार ली। सब को अपनी कविताएं व गीत सुनाकर। सभी लोग बहुत खुश  थे, ऐसा लगने लगा था शायद आज उसका दिन न होकर किषोरदा का दिन हो। पर इस बात से उसे अफसोस नही बल्कि खुषी थी।
दूसरे दिन जब वह स्कूल गयी तो उसकी खास सहेली षिखा ने उसको अकेले ले जाकर कहा ”यार तेरे किषोरदा तो बहूत छुपे रूस्तम निकले। कल उन्हे देख कर लग ही न रहा था कि ये वही किषोरदा है“। उस दिन वह अपने आपको काफी खुष व हल्का-हल्का महसूस कर रही थी। यहां तक की उस दिन शाम  को किषोरदा का न आना भी न खला। वह मम्मी से कल की पार्टी की बाते करती रही थी।
दो दिन बाद जब फिर वह आये थे तो फिर वही पुराने वाले किषोरदा मुंह मे सिगरेट की बदबू दो तीन की बढ़ी दाढ़ी। आज तो पैर में जूते भी न पहन कर हवाई चप्पल पहने हुए थे। यह देख कर सलोनी को बहुत गुस्सा आया। उसने तय कर लिया आज चाहे जो हो जाये वह भी उनको सिखायेगी। उस दिन इत्तफाक से मम्मी भी घर पर न थी इसलिए खुल कर बातें भी कर सकेगी।
हमेषा की तरह जब वह आकर कुर्सी में एक पैर ऊपर व एक पैर लटका कर बैठ गये और बोले ”बर्थडे की थकावट उतरी या न ही?“ तब उसने किशोर  की बात का जवाब न देकर उल्टे ही पूछ लिया ”पहले आप यह बताइये दो दिन कहां थे?“ तब वह बोले एक साहित्यि सम्मेलन के आयोजन में फसंे रहने के कारण न आ सका।
किशोर दा  ने आगे पूंछा ”अच्छा यह बताओ उस दिन पार्टी के बाद तुम्हारी सहेलियों ने मेरी कविताओं को खराब तो न हीं कहा“। इसी बात से सलोनी को मौका मिल गया वह कहने लगी आपको कविताऔ की तो तारीफ कर रही थी पर आपकी बुराई कर रही थी। कह रही थी किशोरदा है तो अच्छे हैं पर हमेषा लल्लू से बने रहतें है। तो किशोर दा हसं कर बोले बाइदवे मै हूं ही र्स्माट। उसके बाद सलोनी ने उनको रहने सहने व उनकी आदतों को लेकर बहुत सारी बातें सुनाई। सलोनी ने यह भी कहा कि वह अपनी उम्र के लोगो की तरह फैषन वाले और नये-नये कपडे क्यो नहीं पहनते? शेव रोज क्यो नहीं बनाते? इसके अलावा उसने सिगरेट पीने की आदत पर भी टोंका था कि अगर आदमी खुद गलत काम करता है तो वह किसी और को किस तरह समझा सकता है।
तब बहुत देर तक वह सलोनी की बातें सर झुकाये सुनते रहे। अंत में हसंते हुये बोले ”अच्छा मेरी दादीजी आपकी सारी बाते मैने मान ली पर फैषन के मामले में मै अनाड़ी हूं इसलिये अब तुम ही अपनी पसंद के कपडे ला देना। रही बात रोज सेव करने की तो उसकी आदत कल से डालने की कोषिष कयंगाा और तीसरी शर्त  सिगरेट न पीने की रही वह इतनी जल्दी न छोड पाऊंगा पर कम करने का वादा जरुर करता हूं“। बाद में बोले लिखने पढ़ने में सिगरेट सहायता करती है तब अन्त मे यह फैसला हुआ कि कम से कम सिगरेट पी कर उसके यहां न आयेगे।
इसके बाद से सलोनी को न तो किषोरदा को शेव बढ़ी दिखी और न ही सिगरेट पीते हुए देखा। हां कभी-कभी उसे चिढाने के लिये जरूर दोनो काम कर लेते।
बाद में सलौनी एक दिन मम्मी के साथ बाजार जाकर किशोरदा  के लिये अच्छी सी टी-शर्ट  व पैंट खरीद कर लायी। जिसकों उसने बाजार से कई दुकानों को देखने के बाद पसंद किया था और बड़े शौक से किशोरदा के बर्थडे पर गिफ्ट किया था।
उस दिन के समझौते ने दोनो के संबंधो को और प्रगाढ कर दिया। लेकिन उस अन्जाने व नैसर्गिक संबंध की पवित्रता अभी भी बरकरार थी। साथ ही सलोनी की किषोरदा के मुंह से कुछ विशेष सुनने की बेकरारी भी बरकरार थी।
हसीं खुषी दिन गुजर रहे थे कि दिसम्बर आ गया। अब सलोनी के बोर्ड के इम्तहान के मात्र तीन महीने बचे थे इसलिये वह पढ़ाई में ज्यादा व्यस्त हो गयी। दूसरी तरफ किषोरदा भी साहित्यिक गोष्ठियों व नौकरी में कुछ ज्यादा व्यस्त रहने लगे। पर सलोनी के लिये वक्त निकाल लिया करते।
किषोरदा के प्रकाषक ने उनका ट्रान्सफर दिल्ली कर दिया कि वह जाकर उसके नये आफिस को सम्भालें। उन्होने मार्च तक का समय यह सोंच कर मांगा कि तब तक सलौनी के इम्तहान भी खत्म हो जायेंगे और अगर इसी बीच इलाहाबाद में ही कोई दूसरी नौकरी मिल जायेगी तो वह दिल्ली जाने का प्रपोजल छोड़ेगे। किन्तु बात बनती न नजर आ रही थी।
अन्ततःकई सालों तक रोज होने वाली मुलाकातों की उल्टी गिनती शुरू  हो गयी।
अब जब भी किषोरदा आते कलेन्डर की तरफ देख कर कहते ”सलौनी चलो अच्छा है अब मै दिल्ली चला जाऊगां। तुमको भी खुषी मिल जायेगी कि तुम्हे रोज-रोज डांटने व टोकने वाला चला गया और मै भी खुष रहूंगा कि चलो लडाका से छुट्टी मिली“। तब वह भी ऊपरी मन से कहती ”हां हां अच्छा है आप चले जायें। मै तो कहती हूं मार्च में तो अभी कई महीने हैं आप कल ही चले जाइये“। यह सुनकर वह हसं कर रह जाते।
इस तरह दोनो रोज कलेन्डर देखते और लडते झगडते। धीरे धीरे महीने कम हुये फिर हफ्ते बचे। फिर मात्र कुछ दिन रह गये मार्च आने में और फिर मार्च भी आ गया। सलोनी के इम्तहान शुरू हो गये पर अभी उसके इम्तहान खत्म भी न हो पाये थे कि किषोरदा के प्रकाषक ने उनसे कह दिया कि अगर वह दिल्ली न जाना चाहते तो वह उसकी नौकरी छोड़े।
किषोरदा को इलाहाबाद में और कोई अच्छा ऑफर न मिल रहा था। इसके अलावा दिल्ली का आफर उन्नति के लिहाज से भी अच्छा था।
और एक दिन किषोरदा दिल्ली चले गए।
दिल्ली जाने से पहले जब आखिरी बार मिलने आये तो उस दिन भी सलोनी को उम्मीद थी कि शायद आज किशोरदा  कुछ बोलेगे पर जाते समय  मम्मी-पापा के पैर छुये और सलोनी से सिर्फ मुस्कुरा कर कहा अच्छा सलोनी मन लगा कर पढना। मै इलाहाबाद आऊगां तो मिलने जरूर आऊगां और पास होने की मिठाई भी खाऊगां। वह कुछ न बोली सिर्फ चुपचाप सिर हिला दिया था। मम्मी ने जरूर चिट्टी लिखते रहने को कहा। उसके बाद वह मुड कर चल दिये।
उस दिन किशोर  के जाने के बाद पापा चुपचाप टी.वी. देखने लगे। मम्मी बिना कुछ बोले खाना बना रही थी और सलोनी बिस्तर पर जाकर कॉमिक्स पढ़ने के बहाने अकेले ही न जाने कितनी देर रोती रही।
आज इन सब बातों को याद करके सलोनी की आंखो से दो गरम-गरम बूंदे बिस्तर पर गिर गयी और उसकी आंख खुल गयी। सलोनी का गला प्यास से सूख रहा था। उसने बढ कर एक ग्लास पानी पिया और पल्लू से आंसू पोंछ कर घड़ी की तरफ देखा जो दो बजा रही थी उसके बच्चे के आने का वक्त हो गया था।
सलोनी की कहानी सोंचते-सोचते बैल भी उदास हो गया था उसकी चाल कुछ धीमी हो गयी थी।






2 comments:

  1. बहुत सुंदर शैली ........................ भाषा का उत्क्रष्ट चयन ........

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  2. कहानी की पृष्टभूमि बहुत अछी है किन्तु,, यदि लेखक थोडा सतर्क होकर लिखते तो सभी रिश्तो को सही तरह से प्रेषित कर पाते । दो स्थानों पर कहानी जरा लड़खड़ाई ,,सलोनी का द्वार खोलना और बचो का आना,,समझ नहीं आया,, खानी का सूत्रधार बदलते से लगे ,,जब की होना यही चाहिए था की किशोर दा का चरित्र चित्रण होता,, सूत्र सञ्चालन सलोनी करती किन्तु हो सकता है नोदित्ता बाधक बनी हो ,, सिवा इलाहबाद के किसी भी गव का नाम नहीं दिया गया.. और स्थान चित्रण भी कमजोर पहलू है इस काहानी का।. छोटी सी प्रेम कथा है लेकिन अभी थोड़ी कमिय है इस काहानी लेखन में।. हा सबसे आशा दही पहलु ये है की लेखक की लेखनी से निश्रुत शब्द दमदार है।यदि सलीके से लगते तो कथा में चार चाँद लगा जाते,,

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