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Saturday, 6 May 2017

न जाने किस बेहतर ज़िंदगी की उम्मीद लिए

कमर,
झुक कर
कमान हो चुकी होगी
नाक एड़ियों को छू रही होंगी
हम कीड़ों - मकोड़ों की तरह
रेंग रहे होंगे ज़मीन पे
सूरज हमारी
हमारी पीठ पर तांडव कर रहा होगा
हम रोना चाह के भी रो नहीं पा रहे होंगे
कुछ बहु बली अट्ठास कर रहे होंगे
फिर भी हम ज़िंदा होंगे
न जाने किस बेहतर ज़िंदगी की उम्मीद लिए

मुकेश इलाहाबादी --------------------------

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